जीवन जब रजत जयन्ती पर पहुँचता है, घरवालों को पुत्र पुत्रियों के विवाह की चिन्ता सताने लगती है। उन्हे भय रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि वह अपना जीवन साथी स्वतः ही चुन लें। उनके चुनाव में घरवालों का नियन्त्रण रहे, न रहे। इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति के लिये जब युवावस्था अपनी रजत जयन्ती मनाने लगती है, उसे अपने स्वास्थ्य की चिन्ता सताने लगती है। लगता है कि कहीं इसके बाद स्वास्थ्य नियन्त्रण में रहे, न रहे। व्यक्ति खानपान को लेकर तनिक संयमित हो जाता है, लोगों की बतायी हुयी स्वास्थ्य संबंधी सलाहों पर अनायास ही ध्यान देने लगता है।
ऐसा ही कुछ मन में चलने लगा है। जो भी बचपन से सीखा है, जो भी चिकित्सा विज्ञान की सामर्थ्य है, वे सभी ज्ञात है, पर फिर भी मन कुछ व्यवस्थित समझने को आतुर है। एक वैज्ञानिक जीवन शैली, जिसमें स्वास्थ्य को समग्रता से देखा जाये। कोई रोग हो तो लक्षणों के आधार पर चिकित्सा की जा सकती है। किन्तु प्रयास का स्तर रोगों को न आने देने का हो, तब अध्ययन गहरे उतरता है। बुजुर्गों का स्वास्थ्य बड़ा सुदृढ़ दिखा तो उनकी बतायी बातों में स्वतः ही रुचि आने लगी। शुद्ध खानपान और अधिक प्राकृतिक जीवनशैली निश्चय ही एक स्पष्ट कारण लगता था, पर उसके पीछे कोई वैज्ञानिक सोच रही होगी, इसका भान नहीं था। बचपन में बड़े लोग सलाह देते थे कि सुबह उठकर पानी पीना चाहिये, खाने के बाद पानी नहीं पीना चाहिये, रात्रि में दही नहीं खाना चाहिये आदि आदि। उस समय तक इन सलाहें को उनके अनुभव का निष्कर्ष मान स्वीकार करते रहे। लाभ होता रहा तो उसकी वैज्ञानिकता खंगालने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
रोग संबंधी अध्ययन तो फिर भी विश्लेषण के वैज्ञानिक मार्ग से होकर आते हैं, पत्र पत्रिकाओं में निकलने वाले स्वास्थ्य संबंधी अध्ययन अब बेमानी लगते हैं, किसी कम्पनी विशेष के स्वार्थ से प्रेरित लगते हैं, किसी कारण विशेष से प्रायोजित लगते हैं। यदि ऐसा न होता तो क्यों एक ही विषय के बारे में परस्पर विरोधाभासी अध्ययन प्रकाशित होते। इन अध्ययनों की गुणवत्ता कोई सत्यापित भी नहीं करता है, किन परिस्थितियों में, किस देश के लोगों पर वह अध्ययन हुआ, इसकी वैज्ञानिकता सदैव ही संदेह के घेरे में रही है। सिद्धान्त और सार्वभौमिकता के अभाव में फुटकर में प्रकाशित अध्ययन रद्दी में फुटकर के भाव ही बिकते रहे हैं।
आयुर्वेद अब भी जीवित है, समग्र जीवनशैली |
युवावस्था तो ऊर्जा से भरपूर होती है, शरीर में जो खाते हैं, पच जाता है, शरीर से जो चाहते हैं, निभ जाता है। युवावस्था की रजत जयन्ती आने के पहले संकेत मिलना प्रारम्भ हो जाते हैं, हम बहुधा उन्हें टाल जाते हैं। जिस तरह से भयावह रोगों ने युवावस्था में भी सेंध लगायी है, लगता है समग्र स्वास्थ्य को समझने के प्रयास हमें पर्याप्त पहले से प्रारम्भ कर देना चाहिये। संभवतः यही भाव मन में रहे होंगे जब कई बार अल्पकालिक बिगड़े स्वास्थ्य ने इस दिशा में सोचने को प्रेरित किया। विशेष बल सिद्धान्तों को समझने में दिया गया, भले ही वह धीरे धीरे समझ में आयें। निष्कर्षो से भी अधिक महत्वपूर्ण कारणों में उतरना था, एक बार कारण समझ आ जाते हैं, निष्कर्ष स्वतः सिद्ध हो जाते हैं।
एक भय और था और उसके लिये संभवतः हम लोगों की अंग्रेजी शिक्षा दोषी है। पहले लगा कि पता नहीं आयुर्वेद सामान्य भाषा में समझ आयेगा या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि अधकचरा ज्ञान पाकर, स्वयं और आयुर्वेद, दोनों से ही अविश्वास कर बैठें। अपनी संस्कृति से जुड़े विषयों को न पढ़ने वालों में दोनों तरह के लोग हैं। जिन्हें मैकालियत पर अधिक विश्वास रहा है, उनकी मानसिकता तो समझी जा सकती है, पर जो अपनी संस्कृति के सशक्त पक्षों पर आस्था रखते हैं, वे भी उसे एक बन्द धर्मग्रन्थ की तरह पूजा की अल्मारी में सजाये रहते हैं। संभवतः दूसरी श्रेणी में आने के कारण स्वयं पर आयुर्वेद न समझ पाने का भय लग रहा था। वह भय न केवल निर्मूल सिद्ध हुआ वरन स्वयं की संस्कृति से प्रगाढ़ता बढ़ा गया। संस्कृति के पक्ष इतने सरल और वैज्ञानिक हैं कि उनके पढ़ने के साथ ही उनसे संबंधित फैलायी भ्रांतियाँ अपने आकार खोने लगती हैं और लगने लगता है कि किन मूढ़ों के कहने पर इतने दिनों तक हम अपने ज्ञानकोष से छिटके छिटके फिरते रहे।
कई स्रोतों से किये ज्ञानार्जन में भले ही भिन्नता दिखती हो, पर कालान्तर में वह ज्ञान एकल होने लगता है, वह एक रूप में पिघलने लगता है। हमारी प्रकृति ही ऐसी है कि हम एक सत्य को दो रूपों में नहीं पचा सकते, वह किसी न किसी रूप में एक हो जायेगा। जितना भी जटिल ज्ञान अर्जित किया हो, जितना भी विस्तृत अनुभव रहा हो, अन्ततः वह एक सहज रूप ले लेता है। यही सिद्धान्त स्वास्थ्य में भी लागू होता है। रोग के कारणों में उतरते ही, हम उन सिद्धान्तों को समझने लगते हैं जिनके पालन से रोग कभी विकसित ही न हो सकें। अन्ततः खानपान की प्रारम्भिक क्रिया पर ही स्वास्थ्य के आधार टिके पाये जाते हैं। प्रकृति जिन सिद्धान्तों का मान रखती है, वही सिद्धान्त हमारे स्वास्थ्य का आधार भी है। कारणों के स्रोत पर आगे बढ़ते हमें जो सूत्र मिलते हैं, वे प्रकृति की क्रियाशैली की ओर इंगित करते हैं। यदि प्रकृति के सिद्धान्त सूत्र हम जीवनशैली में अपना लें तो हम स्वास्थ्य के सुदृढ़ आधार पा सकेंगे।
प्रकृति और स्वास्थ्य के इस संबंध की गहराई और स्पष्ट तब हुयी जब आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्त पढ़े। चरक, सुश्रुत, निघंटु और वाग्भट्ट आयुर्वेद के चार स्तम्भ हैं। चरक के वृहद और पाण्डित्यपूर्ण कार्य को उनके शिष्य वाग्भट्ट ने प्रायोगिक आधार देकर स्थापित किया। वर्षों के अध्ययन के पश्चात जो निष्कर्ष आये, वही हमारी संस्कृति में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बस गये। कई पीढ़ियों को तो ज्ञात ही नहीं कि प्राचीन काल से पालन करते आ रहे कई नियमों का आधार वाग्भट्ट के सूत्र ही हैं। दिनचर्या, ऋतुचर्या, भोजनचर्या, त्रिदोष आदि के सिद्धान्त सरल नियमों के रूप में हमारे समाज में रच बस गये हैं। मैं पहले आश्चर्य करता था कि बचपन में सीखे स्वास्थ्य संबंधी सूत्र कहाँ से आये, क्या उनका कोई शास्त्रीय आधार है कि नहीं? जैसे जैसे वाग्भट्ट का कार्य पढ़ता गया, बचपन में सीखे गये सारे सूत्र एक के बाद एक दिखते गये। छोटी से छोटी सीख हो, कुछ निषेध हो, कुछ विशेष हो, सबका स्थान वाग्भट्ट के सूत्रों में मिल गया।
आयुर्वेद के बारे में जो कठिनता का आवरण चढ़ा हुआ है, वह धीरे धीरे हटता गया। आयुर्वेद का आधार स्वयं को, प्रकृति को और दोनों के परस्पर संबंधों को समझने से प्रारम्भ होता है। प्रकृति के सिद्धान्त न केवल दर्शन का विषय हैं, वरन स्वास्थ्य के प्राथमिक सूत्र भी हैं। हो भी क्यों न, शरीर भी तो प्रकृति का ही तो अंग है। भोजनचर्या, दिनचर्या और ऋतुचर्या आयुर्वेद की समग्रता और व्यापकता को स्थापित करते हैं। आप भी ध्यान दें, स्वास्थ्य संबंधी सलाहें जो हमें अपने बुज़ुर्गों से मिली है, उसका कोई न कोई संंपर्कसूत्र हमें वाग्भट्ट के कार्य में मिल जायेंगे।
आने वाली पोस्टों में आयुर्वेद के सिद्धान्तों में तनिक और गहरे उतरेंगे।
संकलन योग्य लेख , किताब का नाम बताइये , मैं भी पढ़ना चाहूँगा !
ReplyDeleteपिछले ३० वर्ष से होमियोपैथी में कामयाबी लगातार मिलती रही है , परिवार में दवाओं की खरीद पर पैसा जाया नहीं हुआ और स्वास्थ्य भी सही है !
मेरा विचार है कि अधिकतर बीमारियां खुद सही हो जाती हैं अगर हम शरीर की प्रतिरक्षा शक्ति के कार्यों में व्यवधान न डालें जो की सर्वगुण संपन्न एवं वाह्य हमलों के मुकाबले के लिए हमेशा प्रतिबद्ध और समर्थ है !
घबराहट और अविश्वास के कारण अक्सर हम इसके काम में व्यवधान डालकर अपने शरीर को मानव निर्मित नुक्सान देह एलोपथिक दवाओं के हवाले कर देते हैं !! डॉ सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार की होमियोपैथी पर लिखी कुछ पुस्तकें पढ़ें आपके निस्संदेह बहुत काम आयेंगी !
आयुर्वेद के विकास में कार्य सही ज्ञान द्वारा नहीं हुआ, हाँ व्यवसायिक कार्य खूब हुआ है अतः सही मार्गदर्शन का अभाव खटकता है ! मैं उम्मीद करता हूँ कि वाग्भट के सूत्रों के मूल रूप से छेड़खानी नहीं हुई होगी !!
मंगलकामनाएं !!
http://www.rajivdixit.com/?p=245
Delete८ लेक्चर हैं, वाग्भट्ट के सूत्रों पर
http://rajivdixitbooks.blogspot.in
४ पुस्तकें हैं, पीडीएफ फॉर्मेट में
"पत्र पत्रिकाओं में निकलने वाले स्वास्थ्य संबंधी अध्ययन अब बेमानी लगते हैं, किसी कम्पनी विशेष के स्वार्थ से प्रेरित लगते हैं, किसी कारण विशेष से प्रायोजित लगते हैं। यदि ऐसा न होता तो क्यों एक ही विषय के बारे में परस्पर विरोधाभासी अध्ययन प्रकाशित होते।" सबसे विचारणीय प्रश्न यही है ....वर्ना आज स्थिति कुछ और होती ....एक चिन्तन युक्त पोस्ट ...!!!!
ReplyDeleteपत्र पत्रिकाओं में निकलने वाले शोधों में समग्रता की अनुपस्थिति रहती है, जो किसी एक के लिये एक निष्कर्ष दे और दूसरे के लिये सर्वथा भिन्न। बड़े ही सतही और चटपटे समाचार के रूप में आते हैं ये अध्ययन।
Deleteसही कहा केवल जी..... वैसे भी शास्त्रों का आदेश है कि ..चिकित्सा आदि..गुप्त ज्ञान हैं इनका समाचार पत्रों -पत्रिकाओं आदि में प्रचार नहीं होना चाहिए ...किसी भी प्रकार का प्रचार चिकित्सा संहिता के विपरीत है .....आलेख आदि केवल चिकित्सकीय पत्रिकाओं, जर्नल्स आदि में ही प्रकाशित होने चाहिए ...चिकित्सकों द्वारा ही....
Deleteचिकित्सा पद्धातियों आयुर्वेद ही समग्र चिकित्सा का पर्याय है परन्तु इसमें अधिक शोध की आवश्यक़ता है l
ReplyDeletenew poat बनो धरती का हमराज !
चिकित्सा पद्धति से पहले उसे जीवनशैली में ढालने की आवश्यकता है, रोग निवारण तो स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत आगे की बात है, आयुर्वेद को अपनाना तो बहुत पहले से होता है।
Deleteज्ञानवर्धक आलेख। आयुर्वेद कि बात चली है तो मेरे निजी अनुभव से कह रहा हूँ कि केरल जहाँ इसका प्रचलन अधिक है, यहाँ भी दी जाने वाली दवाओं की विश्वसनीयता शंकास्पद होती जा रही है.
ReplyDeleteदुख तो इस बात का ही है कि लोग आयुर्वेद को केवल एक चिकित्सा पद्धति मानते हैं और उस समय याद करते हैं जो रोग चढ़ चुका होता है। जीवनशैली में आयुर्वेद को समझने और अपनाने के लाभ अद्वितीय, अद्भुत हैं। केरल में भी चिकित्सीय पक्ष अधिक प्रचलित है, जीवनशैली में ढालने की बातें बहुत कम लोग बताते हैं।
Deleteसच कहा पांडे जी.... आयुर्वेद एक चिकित्सा पद्धति तो है ही ...वास्तव में आयुर्वेद का अर्थ ही है ..आयु का विज्ञान ...जीवन का विज्ञान ...अर्थात वैज्ञानिक जीवन शैली ....
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (12-02-2014) को "गाँडीव पड़ा लाचार " (चर्चा मंच-1521) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर लेख, पुराने समय में डॉक्टरों तथा ऍलोपैथी के न होने पर भी हमारे बुजुर्गों के स्वस्थ रहने का राज यही खानपान एवं जीवनशैली का आचार था।
ReplyDeleteकृपया आयुर्वेद के इन विद्वानों की पुस्तकों को नाम भी बतायें।
http://www.rajivdixit.com/?p=245
Delete८ लेक्चर हैं, वाग्भट्ट के सूत्रों पर
http://rajivdixitbooks.blogspot.in
४ पुस्तकें हैं, पीडीएफ फॉर्मेट में
मनीषियों ने आयुर्वेद को पॉचवॉ वेद माना हैं । प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
ReplyDeleteवाह यह बात हुई, हम अभी तक यह पूरा पढ़ ही नहीं पाये, अब यहाँ से गूढ़ विश्लेषण मिल जायेगा
ReplyDeleteआपके साथ हम भी पुन: गोता लगा लेंगे। यह सच है कि आयुर्वेद चिकित्सा समग्र चिकित्सा है लेकिन वर्तमान में शोध नहीं होने के कारण आमजन को इसका लाभ कम मिल पाता है।
ReplyDeleteज्ञानवर्धक चिन्तन युक्त पोस्ट ...!!!!
ReplyDeleteAs you said, nature and health are a deep relationship. We can be healthy adopting the simple tips of Ayurveda.
ReplyDeleteमैकालियत शब्द और उसका प्रयोग जोरदार है.
ReplyDeleteतनिक क्या पाठकों को इस विषय पर वृत्तांत की जरूरत है। बहुत स्वास्थ्यपरक। चरक संहिता के बाबत अगर सही अध्ययन करें तो हिलाने वाली शल्य आयुर्वेदिक क्रियाएं पूर्व में होती थीं। और रोगी को ठीक होने के बाद पता ही नहीं चल पाता था कि वह आयुर्वेदिक शल्यप्रक्रिया से गुजरा है।
ReplyDeleteकई पीढ़ियों को तो ज्ञात ही नहीं कि प्राचीन काल से पालन करते आ रहे कई नियमों का आधार वाग्भट्ट के सूत्र ही हैं।
ReplyDeleteहमारी जीवन शैली में रचा बसा है आयुर्वेद !!सच ही है ,इसकी औषधियों से निरोगी होती है काया |ठंड भर हमारे घर सीतोपालादी बहुत चलता है ॥ज्ञानवर्धक आलेख |
आपके लेख, हमारे बुजुर्गों द्वारा दिए गए दैनिक सलाह को बल देती है.
ReplyDeleteबस पढकर सीखने की कोशिश कर सकता हूँ! एक आवश्यक एवम संग्रहणीय शृंखला!!
ReplyDeleteलाजबाब,ज्ञानवर्धक आलेख |
ReplyDeleteRECENT POST -: पिता
वाकई बड़ों की बातों में बहुत सार होता है. बस समझने की बात है.
ReplyDeleteसहेज लेते हैं यह लेख.
चूंकि,हम प्रकृति का ही अंग हैं और प्रकृति हमारी धाती है
ReplyDeleteनिःसंदेह हम उसके द्वारा सरंक्षित हैं.
आयुर्वेद के विषय में आपके द्वारा दी गयी जानकारी बहुमूल्य है.
अगली कडी का इंताजार है.
स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारीपरक पोस्ट , यह श्रृंखला सभी के लिए उपयोगी साबित होगी
ReplyDeleteबुजुर्गों की नसीहत का एक बड़ा ही सामान्य पर साथ ही काफ़ी अह्म उदाहरण देखिये
ReplyDeleteतातौ खाय पटे में सोवे
ता कौं बैद कहा कहि रोवे
कई असाध्य और लाईलाज रोगों का ईलाज भी यहां मिल ही जाता है।
ReplyDeleteअब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (कथित एलोपैथी )का ध्यान भी आयुर्विज्ञान (आयुर -वेद )की ओर गया है एस्कॉर्ट्स के चिकित्सा माहिर (हृदय रोग एवं मधुमेह विशेषज्ञ )साथ में त्रिफला ,अलसी के बीज ,इसबगोल की भूसी लेते रहने की सलाह देते हैं।
ReplyDeleteपित्त -कफ वात की त्रिवेणी में संतुलन साथ में कथ्य और पथ्य आयुर्वेद का मूलाधार है जैसे व्यक्ति के कर्म का नियंता सतो -रजो-तमो गुणों की तिकड़ी है।साथ में कृष्ण के चरणर -विदों में समर्पण हैं। कृष्णभावनामृत है। कृष्णभावनाभावित होना है वैसे ही आयुर्वेद के नियम हैं सर्वकालिक सार्वत्रिक सर्वमान्य।
बहुत ही अच्छी पोस्ट |
ReplyDeleteआगे का इन्तज़ार है !
ReplyDeleteहमारी जीवन पद्धति में आयुर्वेद का कुछ ज्ञान घर की पाठशाला से ही प्राप्त हो जाता है। तन और मन दोनों ही स्तर पर यह बहुत उपयोगी है !
ReplyDeleteसंजोने लायक है आपकी ये पोस्ट सच में ... बहुत विस्तृत ...
ReplyDeleteप्रशंसनीय प्रस्तुति
ReplyDeleteसंकलन योग्य लेख
आगे का इन्तज़ार रहेगा
हार्दिक शुभकामनायें
संस्कृति के पक्ष इतने सरल और वैज्ञानिक हैं कि उनके पढ़ने के साथ ही उनसे संबंधित फैलायी भ्रांतियाँ अपने आकार खोने लगती हैं और लगने लगता है कि किन मूढ़ों के कहने पर इतने दिनों तक हम अपने ज्ञानकोष से छिटके छिटके फिरते रहे।....सच है आयुर्वेद के विषय में एक बेहतरीन पोस्ट आज बहुत जरूरत है इन बातों को जानने समझने की आगे पढ़ने का इंतज़ार रहेगा।
ReplyDeleteआपका लेख प्रशंसनीय है , परन्तु आयुर्वेद के नाम पर इस देश में जितनी ठगी है उतनी और किसी के नाम पर नहीं ... आयुर्वेद के नाम पर लूटने वाले इतने ज्यादा हो गए कि किसी पर यकीन करना कठिन है .
ReplyDeleteवाह, शानदार यात्रा रहेगी इस ज्ञानसागर की।
ReplyDeleteसेहत बड़ी नियामत , वैसे कुदरत ने self repairing mechanism का भी प्राविधान कर रखा है । खान पान का ध्यान रखा जाये तो बहुत कठिन नहीं है स्वस्थ रहना । आपका लेख संग्रहणीय है |
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ReplyDeleteआयुर्वेद में छिपे हैं जीवन के स्रोत ,
हो इसमें निरंतर खोज।
तब पाये जीवन ओज और आब।
sunder prastuti.........
ReplyDeleteअश्विनी कुमारों द्वारा प्रदत्त ज्ञान क्यों न सर्व सुलभ हो -यह श्रृखला भी वाग्भट्ट की परम्परा में ही है!
ReplyDeleteगांव से लौटा हूं। यह देखकर अच्छा लगा कि इसी बीच आपने अपने सारे लेख आयुर्वेद व स्वास्थ्य पर लिखे हैं। राजीव दीक्षित को कई बार सुना है। उनकी बहुत सी बातें याद आ गईं। आयुर्वेद को भुलाने के कारण ही स्वास्थ्य और जीवन में छत्तीस का आंकड़ा हो गया है। आपका अध्ययन, उससे अर्जित ज्ञान और उसे दूसरों को बांटने की आपकी अभिलाषा श्लाघनीय है।
ReplyDeleteगांव से लौटा हूं। यह देखकर अच्छा लगा कि इसी बीच आपने अपने सारे लेख आयुर्वेद व स्वास्थ्य पर लिखे हैं। राजीव दीक्षित को कई बार सुना है। उनकी बहुत सी बातें याद आ गईं। आयुर्वेद को भुलाने के कारण ही स्वास्थ्य और जीवन में छत्तीस का आंकड़ा हो गया है। आपका अध्ययन, उससे अर्जित ज्ञान और उसे दूसरों को बांटने की आपकी अभिलाषा श्लाघनीय है।
ReplyDeleteयह पोस्ट बहुत ही लाभदायक तथा चिंतन युक्त है जैसा की हमारा समाज अब स्वामी विवेकानंद के कहे उक्ति वेदों की ओर लौटो को पालन कर रहा है
ReplyDeleteआपकी पोस्ट ने मुझे अवाक कर दिया।
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