कहीं पर कोलाहल से दूर,
टूटकर मैं थकान से चूर,
सिमट कर अपने में भरपूर,
बैठकर जीवन पर कुछ सोच रहा मैं,
भूतकाल को खोद रहा था ।।१।।
न जाने उलझ गयी थी डोर,
व्यथा का अनुपस्थित था छोर,
विचारों का प्रवाह घनघोर,
किन्तु बन नाविक फिर भी जूझ रहा मैं,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा था ।।२।।
रुका था जीवन था स्तब्ध,
वाक्य से छूट रहे थे शब्द,
चित्त की दशा शून्य आबद्ध,
तथ्य को अन्दर से कुछ समझ रहा मैं,
बाहर से कुछ बोल रहा था ।।३।।
समय का था प्रवाह विकराल,
और थे जीवन में जंजाल,
शून्य सी थी विकास की चाल,
फिर भी वर्तमान को छोड़ रहा मैं,
नये स्वप्न कुछ जोड़ रहा था ।।४।।
स्वप्न कुछ करने थे साकार,
किन्तु कुछ का धुँधला आकार,
सकल असमंजस का विस्तार,
पग एक पथ पर बढ़ा रहा मैं,
दूजे पथ की सोच रहा था ।।५।।
हर जगह मानव है आहार,
मनुज-बलि से सिंचित संसार,
वनों में सिंहों की भरमार,
मन के मृग को बचा रहा मैं,
आश्रयदाता खोज रहा था ।।६।।
परिहित बसे जिनके मनमाहि ............बहुत सुन्दर उद्गार.....
ReplyDeletebahut umda rachna pravid ji ek ek band dil ki gaharayion ko chhuta hua , hardik badhai aapko
Deleteन जाने उलझ गयी थी डोर,
व्यथा का अनुपस्थित था छोर,
विचारों का प्रवाह घनघोर,
किन्तु बन नाविक फिर भी जूझ रहा मैं,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा था ।
बहुत सुब्दर रचना.
ReplyDeleteसुंदर प्रयास...
ReplyDeleteकल 30/01/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
बढ़ते चलें .....!!मन के मृग को बचाने का प्रयास ही सतत करते रहना है ....!!सुंदर रचना ...!!
ReplyDeleteयह खोज , यह सोच बहुत उत्कृष्ट है .... शुभकामनायें
ReplyDeleteप्रयासरत रहना ही जीवन का नाम है।
ReplyDeleteबहुत सुब्दर रचना सर
ReplyDeleteवेगवती अर्थ पूर्ण धारा है यह गेय रचना प्रवाह और रूपात्मक सौंदर्य लिए। रूपक तत्व लिए। आज का संत्रास और बे -दिली संहारात्मक प्रवृत्ति दर्शाती।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति , आभार आपका।
ReplyDeleteवनों में सिंहों की भरमार,
ReplyDeleteमन के मृग को बचा रहा मैं,
आश्रयदाता खोज रहा था
गहरे उतर गईं ये पंक्तियाँ.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30-01-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
ReplyDeleteआभार
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन बीटिंग द रिट्रीट २०१४ ऑन ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
भागदौड़ के दौरान पड़ने वाले सुन्दर-शान्त पड़ाव की झलक है यह रचना।
ReplyDeleteबहुत ही गहन विचार सुन्दर भाव और प्रवाहमयी है यह कविता ।
ReplyDelete...इस सोच और इस खोज दोनों ने मिलकर इस कविता का उत्कृष्ट बना दिया...अनुपम भाव संयोजन।
ReplyDelete---सुन्दर प्रयास....
ReplyDeleteप्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास ही तो जीवन है....
मनोभावों का निरंतर और सुन्दर प्रवाह
ReplyDeleteरचना कामायनी से प्रेरित लग रही है।
ReplyDeleteNayee see chhand rachna. Sirf antim chhand se pooree tar ah nahi jud paya. Aapki rachnatmakta ko salaam
ReplyDeleteवनों में सिंहों की भरमार,
ReplyDeleteमन के मृग को बचा रहा मैं,
आश्रयदाता खोज रहा था
मंगलकामनाएं आपको !!
बहुत खूब ... आगे बढ़ना ही नियति है ... जब तो वो निरंतर है कुछ फर्क नहीं पड़ता ...
ReplyDeleteकस्तूरी कुंडल बसे मृग खोजे वन माहि।
ReplyDeleteबहतरीन सुंदर रचना :)
ReplyDeleteआप जो भी लिखते हो वो शानदार :)
सपने कभी पूरे नहीं होते और संकल्प कभी अधूरे नहीं होते । मनुष्य ईश्वर का ही रूप है , इसीलिए तो श्रुति कहती है- " अहं ब्रह्मास्मि ।"
ReplyDeleteबहुत ही प्रेरक रचना, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteबहुत बढिया, प्रेरक रचना,.... शुभकामनाएं.
ReplyDeleteप्रयासरत
ReplyDeleteकहीं पर कोलाहल से दूर,
टूटकर मैं थकान से चूर,
सिमट कर अपने में भरपूर,
बैठकर जीवन पर कुछ सोच रहा मैं,
भूतकाल को खोद रहा था ।।१।।
सोच ही रहा था २९ जनवरी से अब तक कहाँ देखा ऐसा अविरल प्रवाह याद आ गईं ये पंक्तियाँ
वियोगी होगा पहला कवि ,
आह से निकला होगा गान ,
निकलकर अधरों से चुपचाप ,
बही होगी कविता अनजान।
भाई साहब आपकी सतत टिप्प्णियों के लिए आपका आभार।
आत्म चिंतन से आत्म मंथन तक का सफ़र ।
ReplyDeleteप्रयासरत रहना ही जीवन का नाम है।
ReplyDeleteहर जगह मानव है आहार,
ReplyDeleteमनुज-बलि से सिंचित संसार,
वनों में सिंहों की भरमार,
मन के मृग को बचा रहा मैं,
आश्रयदाता खोज रहा था
बेहद गहन भाव संयोजित किये हैं आपने इन पंक्तियों में
बहुत सुन्दर ..... चिंतन मनन सा करती रचना .
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