बचपन में माँ के हाथ के बने स्वेटर पहनता था। उनकी बुनाई सारे मुहल्ले में सराही जाती थी। लगभग हर जाड़े में हाथ का बुना एक नया स्वेटर मिल जाता था। तीन साल से अधिक पुराना स्वेटर या तो छोटे भाई को मिलता था या घर आने वाली नाउन या धोबन को दे दिया जाता। उन स्वेटरों की गरमाहट अब तक याद है, लाल इमली की ऊन लाती थी माँ, रंग गाढ़े, डिजाइन बिल्कुल नयी, हर वर्ष। पहन कर मैं भी मॉडल की तरह इठलाया घूमता था। हर छोटी बड़ी लड़की जिसे भी स्वेटर बनाने में रुचि होती, रोकती और बड़े ध्यान से स्वेटर की डिजाइन समझती। उन ५-१० मिनटों में मैं लजाया सा चुपचाप खड़ा रहता, अन्दर ही अन्दर लगता कि माँ ने कहाँ फँसा दिया, पर इस तरह पकड़े जाना और ध्यान दिये जाना मन ही मन अच्छा लगता था।
घर में पहने जाने वाले ही नहीं वरन विद्यालय के भी स्वेटर माँ के बुने रहते थे। रंग तनिक अलग रहते थे, अन्य सबसे चटख भी रहते थे, पर चल जाते थे। उस समय विद्यालय के वेष में रंगों को लेकर इतना कठोरता नहीं थी, अध्यापक थोड़ा अलग स्वेटर सह लेते थे। वैसे लाल रंग के नियत स्वेटर के स्थान पर विद्यालय में मैरून से लेकर गहरे गुलाबी तक के सारे रंग चल जाते थे। उस समय तक संभवतः वेष बेचने वालों की व्यावसायिकता ने विद्यालयों में पैर नहीं पसारे थे। माँ तब भी नहीं मानती थी, उसे सादे स्वेटर बनाना संभवतः अपनी प्रतिभा की अवहेलना लगती हो। वह कोई न कोई भारी भरकम डिजाइन स्वेटर में डाल देती थी। बहुधा तो पकड़े नहीं जाते थे, पर कई बार भय बना रहता था। कई बार स्वतः ही विशेष न दिखने का हठ किया तो ऐसी डिजाइन डाली कि जो दूर से सादी पर पास से विशिष्ट लगे।
जब घर में मुहल्ले की कई महिलायें यह जानने आती कि बुनाई के फन्दे कैसे डाले जायें तो उनकी बातें कुछ समझ में न आतीं। तीन सीधे डाल के दो उल्टे डालना, तीसरी सिलाई से यह डिजाइन बनाना इत्यादि। ऐसा लगता कि महिलाओं की कोई महान वैज्ञानिक कार्यशाला चल रही हो। हमको तो बस पहनने में और दिखाने में आनन्द, कैसे बना उसकी तकनीक से भला हमें क्या? मन के कोने में पर एक उत्सुकता बनी रहती कि कैसे दो सिलाई के माध्यम से इतना सुन्दर और अच्छा स्वेटर बन जाता है?
नयी पीढ़ी पर पुरानी लगन |
स्पष्ट याद है, ८ साल का था, मुहल्ले के पास की दुकान में एक हाथ से चलाने वाली मशीन आयी थी, जिससे स्वेटर बुना जा सकता था। अपने मित्र की सहायता से और उसके साथ ही देखने गया था कि वह मशीन कैसे कार्य करती है? जिस गति से वह ऊन की एक पूरी पंक्ति बुन देती थी, देख कर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। रंग बदल कर सादी डिजाइन भी डाल सकती थी वह मशीन। बाल उत्सुकता में उस मशीन को चलाने वाले कारीगर से पूछा कि एक स्वेटर कितने दिन में बना देगी यह मशीन? एक दिन, यह सुनकर मन बैठ गया। मेरी माँ को तो धीरे धीरे बुनते लगभग एक माह से अधिक लग जाता है। अपना स्वेटर दिखा कर कहा कि इस तरह की कठिन डिजाइन बना पायेगी यह मशीन? नहीं, यह मशीन तो नहीं बना पायेगी, पर और बड़ी मशीने अवश्य बना सकती हैं। आधे हारे और आधे जीते घर लौटे, तब मेरे लिये माँ के बनाये हुये स्वेटर से अधिक उस पर बनी डिजाइन विशिष्ट हो गयी।
माँ स्वेटर बनाती रही और मैं पहनता रहा, नौकरी मिलने तक। याद है, पहली बार प्रशिक्षण में जाने के पहले एक स्वेटर खरीदा था, बाहर से, बाहर ही पहनने के लिये। तब भी पास में शेष दो तीन स्वेटर माँ के बुने हुये ही थे। दो वर्ष बाद विवाह नियत हो गया, तनिक और सुगढ़ दिखने के लिये दो और स्वेटर खरीदे, मॉन्टे कार्लो के, १५०० का एक। पतली ऊन के और चिकने दिखने वाले दो स्वेटरों ने मोटी ऊन के और तनिक खुरदुरे दिखने वाले माँ के हाथ के बने स्वेटरों का स्थान ले लिया। उस समय विवाह के लिये और भी कपड़े लिये गये थे, उसी झोंक में मैंने ध्यान भी नहीं दिया कि ये स्वेटर माँ के बनाये स्वेटरों से लगभग तीन गुना मँहगे थे। साथ ही इस पर भी ध्यान नहीं गया कि माँ को क्या लगा होगा? माँ ने भी सोचा होगा कि फैशन कर लेने दो, अपने मन का पहन लेने दो।
मॉन्टे कार्लो के स्वेटरों ने बाहर का क्षेत्र सम्हाल लिया। घर में पहन कर उन्हें गन्दा नहीं किया जा सकता था अतः घर में माँ के बने स्वेटर ही चलते रहे, एक आधा और एक पूरा। गरमाहट पूरी रहती थी, पर मैने भी ध्यान देना बन्द कर दिया कि माँ अब उनमें कोई डिजाइन नहीं बनाती थी, स्वेटर सादे ही रहते थे। स्वाभाविक ही है, सादे स्वेटरों की डिजाइन तो कोई देखता भी नहीं है, बचपन का उत्साह और ध्यानाकर्षण का आनन्द उन विशिष्ट स्वेटरों के साथ जीवन से चला गया। मेरे छोटे भाई बहनों ने भी बड़े होते होते, मेरी देखा देखी मॉन्टे कार्लो अपना लिया, पर माँ उनके लिये भी सादे स्वेटर बनाती रही।
माँ का उत्साह पुनः जागा जब मेरे दोनों बच्चे हुये। याद है, पृथु और देवला के होने पर, पहली ठंड आने तक दोनों के लिये पाँच स्वेटर तैयार थे, डिजाइन के साथ। यद्यपि संबंधीगण बने बनाये स्वेटर दे गये थे, पर गरमाहट के लिये उन्हें उनकी दादी के बनाये ही स्वेटर पहनाये। माँ का ऊन खरीद कर लाने और डिजाइन निर्धारित करने में जो उत्साह और क्रम दिखायी दिया, मुझे मेरे बचपन का यादें दिला गया। पता नहीं क्या कारण था, वह उत्साह ८-१० वर्षों से अधिक नहीं चल सका, क्योंकि मेरे बच्चों को दादी के हाथ के बने स्वेटर चुभने लगे। हमने भी अधिक जोर नहीं डाला, माँ ने फिर उसे समझ लिया, कुछ नहीं कहा।
इसी बीच बंगलोर आ जाने से हमें भी स्वेटर पहने ४ वर्ष से अधिक हो गया है। भरे जाड़े में घर न जाकर माँ पिता को बंगलोर ही बुला लेते हैं और उन्हें उत्तर भारत की कड़कड़ाती ठंड से एक दो माह के लिये तनिक दूर रखने में सहायता कर देते हैं। इसी बीच, दो वर्ष पहले एक बिल्ली पाली थी, अवसर पाकर उसने मेरे दो स्वेटर कुतर डाले थे, एक मॉन्टे कार्लो का, दूसरा माँ का बुना। अभी मेरे पास माँ का बुना कोई स्वेटर नहीं है।
इस बार जब माँ आयीं तो उनके हाथ में फिर से वही पुरानी प्रसन्नता थी, हाथ में सिलाई और झोले में ऊन का गोला। मेरा भतीजा दो वर्ष का हो गया है, उसके लिये स्वेटर बुनने में लगी थी माँ। बालिश्त और अंगुल से उसकी माप लेकर आयी थी, जाते जाते लगभग पूरा बन गया था वह स्वेटर। वही पुराने चटख रंग, डिजाइन के प्रति वही उत्सुकता। इस बार एक और बात हुयी। श्रीमतीजी तो बाहर के बने स्वेटरों से आसक्ति रखती हैं, पर पहली बार मेरी बिटिया ने अपनी दादी की स्वेटर बुनायी की प्रक्रिया को उत्सुकता से देखा और संभवतः कुछ सीखा भी। माँ के आँखों की ललक देखते ही बनती थी। ६६ वर्ष की अवस्था, आँखों में एक चश्मा, हाथ में दो सिलाई, मन में चलती फन्दों की गणना। पिछले ४२ वर्षों में भले ही फैशन के कुछ अन्तराल आ गये हों, पर माँ के हाथ कभी रुके नहीं, सिलाई और ऊन उनके हाथों का अभिन्न अंग बना रहा।
फिर से माँ के हाथ का बना स्वेटर पहनने का मन कर रहा है। यह ठंड तो बंगलोर में ही निकल गयी। काश अगली नवम्बर में ठंडा स्थान हो और शरीर पर माँ में हाथ का बना, स्नेह की गरमाहट से भरा, डिजाइन वाला मोटा स्वेटर। बाय बाय, मॉन्टे कार्लो।
चित्र साभार - www.stockphotopro.com
बहुत सुन्दर पोस्ट सर पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं |मेरा एक गीत भी है -हरा है स्वेटर मगर मैरून बुनती है /नजर धुंधली है /मगर माँ कहाँ सुनती है |आभार सर |
ReplyDeleteसुन्दर पोस्ट, बचपन की यादें ताजा कर दी आपने। क्या जमाना था, डिजाइन विशेषज्ञ महिलाओं का रसूख होता था।
ReplyDeleteसुन्दर पोस्ट, बचपन की यादें ताजा कर दी आपने। क्या जमाना था, डिजाइन विशेषज्ञ महिलाओं का रसूख होता था।
ReplyDeleteक्रमिक परिवर्तन .....सुन्दर आलेख
ReplyDeleteमुलायम-सा और नरम-गरम. तुषार जी की पंक्तियां भी वाह...
ReplyDeleteआपने कितनी स्मृतियाँ एवं इनसे आँखों के कोरों को नम कर दिया ।अभी सहज मन कर रहा है माँ के बुने स्वेटर के मुलायम वात्सल्यपूर्ण स्पर्श का.परंतु मन उदास बो रहा है कि तुरत तो कोई उपलब्ध नहीं। स्नंपर्
ReplyDeleteपिछले ४२ वर्षों में भले ही फैशन के कुछ अन्तराल आ गये हों, पर माँ के हाथ कभी रुके नहीं, सिलाई और ऊन उनके हाथों का अभिन्न अंग बना रहा।
ReplyDeleteमाँ की याद दिला दी आपकी इस पोस्ट ने .....!!हृदयस्पर्शी भाव ...!!
माँ के हाथों से बुने स्वेटर में स्नेह भी बुना होता है ...सुंदर यादें ....
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी प्रस्तुति ! आपकी लेखनी कमाल की होती है.
ReplyDeleteएक बात है विचार तो जो आपके हैं शायद 99 प्रतिशत लोगो की यही राय होगी क्योंकि सबने यही अनुभव किया है । दूसरी बात ये है कि आपने फेसबुक पर इसी विषय पर पोस्ट लिखी थी शायद उसे ही विस्तृत रूप दे दिया है पर बढिया लगा
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति को आज की सीमान्त गांधी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteअगले साल ठंडा स्थान मतलब कि बैंगलोर तो नहीं होगा, खैर कहीं भी रहें माँ के हाथ के स्वेटर जो गर्माहट दे सकते हैं वे नई जैकेट और अच्छी कंपनी के स्वेटर नहीं दे सकते हैं । वैसे हम भी अभी नई जैकेट लाये हैं, ठंडे स्थान पर जा रहे हैं और पिछले ९ वर्षों से ठंड नहीं झेली है, तो अभी से ही ठंड के कारण सुरसुरी सी हो रही है :)
ReplyDeleteमुझे भी मम्मी को कहना होगा........ एक स्वेटर मेरे लिए :)
ReplyDeleteबहुत ही प्यारा संस्मरण । हाथ के बुने स्वेटर में केवल ऊन की गर्मी नही ,स्नेह की ऊष्मा भी होती है न । मैंने भी तीनों बेटों के लिये खूब स्वेटर बुने । बाद में पोती मान्या के लिये । आपने सही कहा .बैंगलोर में सर्दी मौसम का हाथ थाम कर नही चलती । अभी देखिये न । इधर ग्वालियर में भीषण सर्दी व बारिश ने डेरा जमा रखा है और बैंगलेर में बच्चे सर्दी के मौसम को याद कर रहे हैं ।
ReplyDeleteमाँ के बुने स्वेटरों की तो बात ही निराली थी, पर अब नई पीढ़ी में बहुतों को यह सुख नसीब कहाँ ?
ReplyDeleteलेख पढ़ते पढ़ते बचपन के सभी स्वेटर स्मृति पटल पर उभर आये :)
काश अगली नवम्बर में ठंडा स्थान हो और शरीर पर माँ में हाथ का बना,..............लगता है नवम्बर में लिखा गया संस्मरण है। अब तो जनवरी में उनके बुने स्वेटरों की जरूरत यहां उत्तर में बहुत ज्यादा महसूस हो रही है।
ReplyDeleteमाँ स्वेटर नहीं ... स्नेह व ममता की सलाइयों पर अपने सपने बुनती है...
ReplyDeleteसमय रहते इसका मूल्य समझ में आ जाना चाहिए ..
बहुत सुन्दर वर्णन किया है आपने … दिल में तो बहुत कुछ आ रहा है पर लिखते कुछ नहीं बन रहा ...
~सादर
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति गुरुवारीय चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण...पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं...माँ के स्वेटर में उनका बुना हुआ स्नेह व् ममता किसी भी मंहगे ब्रांड के स्वेटर में नहीं दे पाती वह अहसास....
ReplyDeleteधागे जहाँ संवेदनाओं को समेटते हैं और सलाइयाँ जहाँ उत्साह -उसकी तुलना किसी भी ब्रैंड से नहीं हो सकता!
ReplyDeleteमान्टो कार्ले के स्वेटर गर्माहट अधिक अवश्य देते हों,
ReplyDeleteमगर मां के हाथों की गर्माहट कई गुना होती है.
जो आपने महसूस की.
लगभग ८० वर्ष की आयुमें मेरी माँ अब भी किसी बच्चे के होने पर हाथ का बिना स्वेटर ही देतीं हैं...ये बात अलग है कि लोग ब्रांड को मूल्य से टैग करके देखते हैं...मेहनत और प्यार की गरमाई सबकी समझ से परे हो गयी है...
ReplyDeleteमाँ के बुने स्वेटर में ऊन के गोलों से ज्यादा गर्मी उसके हाथों की और उसके प्यार की होती है.उसकी गर्माहट का कोई सानी नहीं !
ReplyDeleteवे स्वेटर याद आ गए ……
ReplyDeleteइनमें बहुत कुछ गायब है !
पुरानी यादें जीवन्त हो उठी। कितना अपनापन था पहले कि कोई हमारे लिए स्वेटर बना रहा है। अपनापन समाप्त और बाजार प्रारम्भ।
ReplyDelete.सुंदर यादें ....मर्मस्पर्शी प्रस्तुति
ReplyDeleteकितनी कितनी स्मृतियों को खंगाला होगा आपने आज ... अनेक यादें आज गलियारों से बाहर आ गई ...
ReplyDeleteमेरा बेटा भी जब बंगलोरे shift हुआ तब से मेरे हांथ का बुना स्वेटर पटना लाकर रख गया था
ReplyDeleteइस जाड़े मे फिर ले गया .... इस बार बंगलोर मे भी कुछ ठंढ पड़ी है शायद ..... आपकी माँ जैसी ही थोड़ी थोड़ी मैं हूँ बुनाई मे .....@
हर छोटी बड़ी लड़की जिसे भी स्वेटर बनाने में रुचि होती, रोकती और बड़े ध्यान से स्वेटर की डिजाइन समझती। उन ५-१० मिनटों में मैं लजाया सा चुपचाप खड़ा रहता, अन्दर ही अन्दर लगता कि माँ ने कहाँ फँसा दिया, पर इस तरह पकड़े जाना और ध्यान दिये जाना मन ही मन अच्छा लगता था।#
आपके जैसे अनुभव से मेरा बेटा भी गुजरा है ,नमूनो को लेकर .....हार्दिक शुभ कामनाएँ
स्नेहमयी अनुभूति की अनुध्वनि है ये।
ReplyDelete---अति-सुन्दर ...
ReplyDelete---वेष बेचने वालों की व्यावसायिकता ने विद्यालयों में पैर नहीं पसारे थे।..क्या चुभती हुई सटीक बात है जी....
--- उन के उन स्वेटरों की गर्मी व मजबूती का क्या कहना.... हमारी पत्नी द्वारा बेटे के लिए बुना हुआ स्वेटर अब बेटे का बेटा पहन रहा है ..
माँ अपने आप में प्रकृति है ---आप की पोस्ट ने रुला दिया कुछ याद भी दिलाया ---आपने इतना ही लिखकर माँ के प्रति जो उदारता निभाई है काबिले तारीफ है --सुन्दर बेजोड़ सरल और बिना लाग लपेट कर -कहा गया एक एक शब्द मोती सा ----
ReplyDeleteमाँ अपने आप में प्रकृति है ---आप की पोस्ट ने रुला दिया कुछ याद भी दिलाया ---आपने इतना ही लिखकर माँ के प्रति जो उदारता निभाई है काबिले तारीफ है --सुन्दर बेजोड़ सरल और बिना लाग लपेट कर -कहा गया एक एक शब्द मोती सा ----
ReplyDeleteसुन्दर आलेख । इस प्रस्तुति की सबसे बडी विशेषता यह है कि हमने अपने-अपने बचपन को इस आलेख के आइने में देखा , मुस्कुराया और मॉ की ओर देखते ही कृतज्ञता से हमारी ऑखें भर आईं ।
ReplyDeleteस्वेटर के बारे में मैं कहा करता था कि माँ के हाथ के बुने स्वेटर में माँ के प्यार की गर्मी होती है जो बने बनाए स्वेटर में नहीं... ये स्वेतर बचपन की विरासत हैं.. मुझे इस बात की आज भी खुशी है कि मेरी श्रीमती जी आज भी बाज़ार से ऊन ख़रीदकर हर बरस एक नया स्वेटर बुनती हैं.. हमारी बिटिया तो बड़ी हो गई है, इसलिए परिवार के किसी बच्चे के लिये या मित्र मण्डली में किसी बच्चे को देने के लिए!! और हाँ मेरे लिए भी.. आज भी कुछ स्वेटर इतने सुन्दर बुने हैं इन्होंने कि मैं आज भी पहनता हूँ!!
ReplyDeleteहाथ से नहीं ममता से बुने स्वेटर।
ReplyDeleteमाँ को प्रणाम।
Mummy ki yaad dila di, humari mummy ko knitting ka bht shauk hai... jhaade ke mausam main khoob sweeter banati hai vo
ReplyDeleteमाँ जब स्वेटर बुनती हैं तो हर फंदे के साथ उनका अनन्य स्नेह स्वयमेव साथ में बुनता जाता है ! स्नेह की वह उष्मा रेडीमेड स्वेटर्स में कहाँ होती है ! आत्मीयता से ओत प्रोत बहुत खूबसूरत आलेख !
ReplyDeleteमाँ के प्रेम का कोई सानी नहीं जग में ..
ReplyDeleteमान्टी कार्लो तो कीमती है किन्तु माँ की ममता अमूल्य है।
ReplyDeleteअभी भी मैंने माँ के हाथ का बुना एक स्वेटर संभाल कर रखा है.... कभी दिल करे, तो जी भर के उस स्वेटर को ताक लिया करता हूँ, कभी कभी पहन भी लेता हूँ.... अच्छा लगता है, माँ को करीब से महसूस करने जैसा सुकून मिलता है उसे पहनकर....
ReplyDeleteबहुत कोमल अनुभूति...मेरे पास भी माँ की याद के रूप में उनके बुने चार स्वेटर हैं, दो मेरे लिए दो मेरे पुत्र के लिए...माँ को गये ग्यारह वर्ष हो गये पर हर सर्दी के मौसम में वे स्वेटर उनकी उपस्थिति का भास कराते हैं...
ReplyDeleteबहुत आत्मीय संस्मरण है प्रवीण जी...बहुत अपना सा भी.
ReplyDeleteसच मां के हाथ के बने स्वेटर की बराबरी विश्व का कोई ब्रांड नहीं कर सकता। बहुत ही खूबसूरती से आपने भावों को अभिव्यक्ति दी है। गंभीरता से देखें तो बाजारवाद पर करारा तमाचा भी है।
ReplyDeleteबेहद आत्मीय संस्मरण
ReplyDeleteमाँ नहीं रही लेकिन अब भी उनको याद करते बस यूं ही स्वेटर पहन लेता हूँ