बड़े तन्त्रों में एक बड़ी समस्या होती है। उन्हें साधने के प्रयास में सारा का सारा ध्यान उनके अन्तिम छोरों में ही रहता है, अन्तिम छोर साध कर लगता है कि सारा तन्त्र सध गया। किन्तु ऐसा होता नहीं है। मध्य का भाग जितना बड़ा होता है, उतना ही असाध्य हो जाता है। बड़े साम्राज्यों का सारा ध्यान या तो केन्द्र पर होता है या तो उनकी सीमाओं पर लगा रहता है, दोनों की ही सुरक्षा में लगा रहता है, मध्य की सुध किसी को भी नहीं रहती है। बड़े राज्यों की अवधारणा विकास के मानकों पर औंधे मुँह गिर पड़ी और छोटे राज्यों की माँग ज़ोर पकड़ती गयी। छोर सम्हाल कर तो रखे गये पर मध्य में ढील छोड़ दी गयी। अपना अपना छोर साधा गया पर शेष सब भुला दिया गया।
बहुत पहले एक पुस्तक पढ़ी थी, द स्माल इज ब्यूटीफ़ुल, छोटा सुन्दर है। उसके तर्क भी उतने ही सुन्दर थे। छोटे और स्थानीय तन्त्र प्रकृति से साम्य रखते हैं, प्रकृति के अधिक निकट होते है, नियन्त्रण में रखे जा सकते हैं, संभवतः इसीलिये सुन्दर भी होते हैं।
छोटों से बनता बड़ा तन्त्र |
मेरा जीवन अनुभव लघुत्तम के इस सौन्दर्यबोध से सदा ही अन्यथा रहा है। देश बड़ा, जनसंख्या अधिक, परिवार बड़ा, प्रतियोगिता बड़ी, अध्ययन अधिक, स्वप्न बड़े। कितना भी सोच लें पर कुछ भी छोटा मिला ही नहीं। यहाँ तक कि जिस नौकरी में भी अवतरित हुये, वह भी रेलवे की। लम्बी पटरियाँ, विस्तृत तन्त्र, लम्बी ट्रेनें, कर्मचारियों की संख्या लाखों में।
बड़े तन्त्रों को चलाने के लिये बने नियम, प्रयुक्त मानक और प्रशासन शैली, सभी के सभी इतने विस्तृत होने लगते हैं कि उन्हें साधना नियमित कार्य से उठकर कला की श्रेणी में आ जाता है, प्रबन्धक कम, कलाकार अधिक। कारण बड़े ही स्पष्ट हैं, एक नियम से ही बड़े तन्त्र के सारे पक्षों को साधने के प्रयास में नियम फैलते जाते हैं। जब नियम अधिक फैलते हैं, तब नियमों को सम्हालने के लिये नियम बनते हैं, उनको समझने के लिये महारथी विकसित होते हैं। नियम-महारथी विशेष हो जाते हैं, उन पर ही किसी कार्य को होने की या न होने की संभावनायें निर्भर होती हैं, क्योंकि वही जानते हैं कि क्या किया जा सकता है, कैसे किया जा सकता है?
धीरे धीरे नियम प्रमुख हो जाते हैं, नियम-महारथी प्रमुख हो जाते हैं, नियमों का अपना अलग तन्त्र बन जाता है, नियमों का तन्त्र चला कर नियन्त्रक स्वयं को संतुष्ट करने लगता है। वास्तविक तन्त्र जड़ हो जाते हैं, सारी ऊर्जा नियम ही सोख लेते हैं।
बड़े तन्त्रों में सब कुछ स्थूल ही हो, ऐसा भी नहीं रहता है। जब आवश्यकता होती है तो बहुत कम समय में संसाधन जुटाये जा सकते हैं। बड़े तन्त्रों में एकरूपता रहती है, कार्य निष्पादन की सततता रहती है, एक दिशा रहती है, तन्त्रगत समग्रता रहती है। बड़े तन्त्रों के सकारात्मक पक्ष छोटे तन्त्रों में अनुपस्थित रहते है, वहीं बड़े तन्त्रों की अक्षमतायें छोटे तन्त्रों की शक्ति हो जाती हैं।
तो क्या ऐसे तन्त्र विकसित हो सकते हैं जिसमें दोनों ही पक्षों की सकारात्मकता समाहित की जा सके और साथ ही साथ दोनों की नकारात्मकता दूर की जा सके? निश्चय ही हो सकते हैं, पर उसके पहले वर्तमान तन्त्रों के बारे एक बात समझनी होगी। किसी का तन्त्र का निर्माण उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है। तन्त्र की कार्यशैली पर जितना ध्यान दिया जाता है, यदि उतना ही ध्यान उसकी उत्पादकता या उपयोगिता पर भी दिया जाये तो तन्त्र की कार्यशैली स्वतः परिमार्जित होती रहती है। हम बड़ी बड़ी योजनायें बना कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं, कभी इस बात पर ध्यान ही नहीं देते की तन्त्र को उसकी क्षमताओं के संदर्भ में निरन्तर ही और सुधारा जा सकता है। आख़िरी छोर पर क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है, बीच में प्रवाह कैसा है, यदि इन उत्तरों पर ध्यान देने के लिये भी तन्त्रगत व्यवस्थायें रहें तो कोई कारण नहीं है कि तन्त्र प्रभावी न हो।
कभी किसी बड़े चुम्बक को देखा है, उसे छोटे छोटे ढेरों चुम्बकों में तोड़ दीजिये पर उनके गुण वही रहते हैं। जब वही छोटे चुम्बक एक बड़े रूप में थे तो सशक्त थे, यद्यपि गुण वही हैं पर शक्ति बहुत कम हो गयी है। छोटे तन्त्रों को बड़े में कैसे विकसित करना है, चुम्बक के उदाहरण से सीखा जा सकता है। यदि बहुत बड़े तन्त्र बनाने हैं जो अपने भार से न ढह जायें तो उन्हें बनाने का आधार छोटे और गुणवत्ता भरे तन्त्र ही होंगे, ऐसे तन्त्र जो अपने आप में पूर्ण होंगे। ऐसे ही छोटे तन्त्रों को एक दिशा में संयोजित कर उन्हें बड़े तन्त्रों का स्वरूप देना एक विशेष कार्य है, जिसमें प्रत्येक भाग की दिशा और दशा ऐसी हो कि वे पूर्ण के सकारात्मक सहयोगी हों, न कि विरोधाभासी। साथ ही साथ तन्त्र के बड़े होने पर वे दृष्टि में बने रहें, उनके भागों में संवाद का प्रवाह रहे, यही उन्हें साधने की नियन्त्रक कलात्मकता है। उनके भागों को जोड़े रहने का उपक्रम उस तन्त्र को चलाने का श्रम है।
तन्त्र के सभी अवयवों की दिशा एक ही ओर रहे, एक लक्ष्य की ओर प्रेरित रहे। तन्त्र के अवयवों के बीच जुड़ाव व बद्धता हो। यह दो बातें साधने के साथ ही सारा तन्त्र साधा जा सकता है। तन्त्र कैसे कार्य कर रहा है, इसका पता उसकी पूरी उत्पादकता से पता चल जाता है। यदि उत्पादकता वांछित से कम आ रही है तो उन्हीं दो बातों में ही कहीं कोई गड़बड़ है, मध्य में कहीं कुछ छूटा है।हम यही भूल कर बैठते हैं, जब देखते हैं कि तन्त्र ठीक से नहीं चल रहा है, तो किनारों की सुध लेने लगते हैं, बाहर से सहायता देने लगते हैं, मध्य के बारे में भूल जाते हैं। बाहर से जितना प्रयास लगाते हैं, उतने ही अनुपात में गड़बड़ी भी बढ़ जाती है। मध्य में यदि ठीक करेंगे तो बाहर से अधिक प्रयास नहीं करना पड़ेगा।
बड़े तन्त्रों के विश्लेषक समस्या के निदान का प्रथम चरण किसी भी तन्त्र के स्तरों की संख्या कम करना मानते हैं। इसे तन्त्रों का सरलीकरण कहा जाता है। स्तर कम करने से मध्य की परतें कम हो जायेंगी, परतों में आयी समस्या कम हो जायेगी। बड़े तन्त्रों से छोटे तन्त्र की ओर जाने में बहुधा बड़े तन्त्रों की सकारात्मकता खो देते हैं और छोटे तन्त्रों की नकारात्मकता अपना लेते हैं। सही समाधान तो मध्य को व्यवस्थित रखने में है। आप अपने चारों ओर देखिये और सोचिये, बड़े तन्त्रों की गड़बड़ी का स्रोत कहीं उसके मध्य में तो नहीं?
मध्य को तनिक और टटोलेंगे, हर स्तर पर।
चित्र साभार - www.worth1000.com
" आदि मध्य और अन्त सब में बराबर ध्यान देना चाहिए किन्तु कभी कभी हम रुचि-अनुरूप किसी एक भाग को अधिक महत्व देते जाते हैं और फिर अन्य उपेक्षित होते जाते हैं, समय और सन्तुलन के अभाव में ऐसा हो जाता है और यह मानव-सुलभ क़मज़ोरी भी है , यदि इस पर ध्यान दिया जाए तो इसका निराकरण भी मनुष्य ही कर सकता है ।
ReplyDeleteयदि प्रशासनिक क्षमताएं दुरस्त हैं तो छोटा हो या बड़ा सबकुछ साधा जा सकता है।
ReplyDeleteमेरे हिसाब से विषय
ReplyDeleteज्यादा गंभीर है शायद एक दो बार और पढकर समझ आयेगा तभी सही से कमेंट करूंगा
magnetic monopole does not exists,बहुत ही अच्छे उदाहरन से आपने समझाया |
ReplyDeleteतन्त्र के सभी अवयवों की दिशा एक ही ओर रहे, एक लक्ष्य की ओर प्रेरित रहे। तन्त्र के अवयवों के बीच जुड़ाव व बद्धता हो। यह दो बातें साधने के साथ ही सारा तन्त्र साधा जा सकता है।
ReplyDeleteगुणकारी सार्थक सकारात्मक आलेख .
जैसे निंयत्रण और जवाबदेही को विकेंद्रित किया जाता है वैसे ही प्लानिंग भी जमीनी क्षमता को ध्यान में रखकर किये जांय तो बात बने।
ReplyDeleteबड़े तंत्र की क्लिष्टता और छोटे तंत्र की सीमाओं को साधने में मध्य को व्यवस्थित करना कहीं न क़हीं नियमों में सकारात्मक लचीलापन लाने से ही संभव है ......
ReplyDeleteकभी किसी बड़े चुम्बक को देखा है, उसे छोटे छोटे ढेरों चुम्बकों में तोड़ दीजिये पर उनके गुण वही रहते हैं।
ReplyDeleteहमेशा की तरह उत्कृष्ट आलेख
मुझे तो लगता है किसी भी तंत्र को विकसित करते समय उस तंत्र के लक्ष्य प्राप्ति के लिएनिश्चित किये जाने वाले मान दंडों में बहुत सारा ध्येय इस मंथन में चला जाता है कि निश्चित प्रतिक्रियागत विधी से किसी भी स्तर पर अनुचित लाभ की गुंजाईश तो नहीं,शुरुआत कि नकारात्मक सोच कि अंतिम परिणित लम्बे चौड़े नियमो के रूप में होती है ।जो उत्पादतका को सकारत्मक फायदा कम और नकारात्मक प्रवृति ज्यादा विकसित करती है। हर स्तर का अपना महत्व है समग्र रूप से सभी विशाल ही होंगे। कार्य को अपने प्रयास में पूर्ण रूपेण करने कि प्रवृति ही अंतिम उत्पादन को समग्र रूप से प्रभावित करता है ,बेसक कितने भी परतों में उसे क्यों न बाँट दिया जाय।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति को आज की बुलेटिन लाल बहादुर शास्त्री जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteचुंबक वाला उदाहरण अच्छ है, बात समझने में आसानी हुई
ReplyDeleteअक्सर होता यही है सारा ध्यान एक ओर ही लगा रह जाता है ... विसंगतियां इसी के चलते उपजतीं हैं
ReplyDeleteविचारपूर्ण
ReplyDeleteपूरा पढ़ा , मध्यमसमझा , छोटा गुना !!
ReplyDeleteतन्त्र विकेन्द्रियकरण, और नियम सरलीकरण एवं प्रशासनिक सिद्धहस्तता से ही कार्य प्रतिपादित हो सकते है।
ReplyDeleteतन्त्र छोटा करने के पीछे सब कुछ ठीक तरह से करने की ही मंशा होती है। क्योंकि बड़े तन्त्र की पहुंच एक-एक मानव तक नहीं हो पाती इसलिए। वैसे भी जातिगत, धर्मगत भिन्नताओं के कारण जो प्रान्त या देश अनेकों सामाजिक, सांस्कृतिक विचारधाराओं, मतों में विभाजित हो और ये परस्पर विद्वेष रखते हों, वहां पर कोई भी तंत्र (चाहे बड़ा या छोटा) अपने प्रशासनिक हुनर को सर्वोत्तम व्यवहार में परिणत नहीं कर सकता।
ReplyDeleteहां जापान इसका बहुत अच्छा उदाहरण है। वहां धार्मिक रूढ़ियों का आयात नहीं होता। जो धार्मिक विचारधारा उन्हें विरासत में मिली है वे उसी का पक्षसमर्थन करते हैं। इसीलिए आज वे उस समृद्ध लक्ष्य तक पहुंच पाए हैं, जो किसी भी तंत्र का लक्ष्य होता है।
Deleteबहुत पेचीदा है यह 'तंत्र'लोक... हमारी संस्था तो आपके मुक़ाबले बहुत छूटी है.. लेकिन इसका मकड़जाल समझना बहुत मुश्किल हो गया है.. और यहाँ जो मध्य में है वो 'दो पाटन के बीच' है... कभी अवसर मिले तो रवि सुब्रमनियम की ट्रिलॉजी भी पढ़ें... बहुत कुछ चौंकाने वाला है इस तंत्र का प्रबन्धन...!!
ReplyDeleteआपने सही कहा छोटा सुन्दर है, व्यवस्थित है । बडे को ही छोटे छोटे भागों में बांट कर उनको सुंदर बनायें और फिर यदि बनाये एक पूर्ण चित्र तो जैसे आपने कहा है चुंबक का उदाहरण देकर। बडा भी बन सकता है सुंदर। जब अमरीका में बडे बडे हाय वे बनाये गये तोकिसी को भी पूरे रस्ते का ठेका नही दिया गया १०- १० मील लंबाई का रस्ता बनाओ मानकों के मुताबिक और सबसे सुंदर हायवेज का जाल बिछ गया।
ReplyDelete.... गंभीर विषय सकारात्मक आलेख ...!!!
ReplyDeleteचुम्बक के माध्यम से दिया सन्देश ... सार्थक लिखा है ...
ReplyDelete…परन्तु आपके लेख का तो आदि / मध्य / अंत सभी सारगर्भित एवं महत्वपूर्ण होता है । लेखन में भी चुंबकीय गुण हो सकते हैं ,सिद्ध कर देते हैं आप ।
ReplyDeleteयही तो 'आप' की अवधारणा है...
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित और विचारणीय आलेख....
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