29.1.14

प्रयासरत

कहीं पर कोलाहल से दूर,
टूटकर मैं थकान से चूर,
सिमट कर अपने में भरपूर,
बैठकर जीवन पर कुछ सोच रहा मैं,
भूतकाल को खोद रहा था ।।१।।

न जाने उलझ गयी थी डोर,
व्यथा का अनुपस्थित था छोर,
विचारों का प्रवाह घनघोर,
किन्तु बन नाविक फिर भी जूझ रहा मैं,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा था ।।२।।

रुका था जीवन था स्तब्ध,
वाक्य से छूट रहे थे शब्द,
चित्त की दशा शून्य आबद्ध,
तथ्य को अन्दर से कुछ समझ रहा मैं,
बाहर से कुछ बोल रहा था ।।३।।

समय का था प्रवाह विकराल,
और थे जीवन में जंजाल,
शून्य सी थी विकास की चाल,
फिर भी वर्तमान को छोड़ रहा मैं, 
नये स्वप्न कुछ जोड़ रहा था ।।४।।

स्वप्न कुछ करने थे साकार,
किन्तु कुछ का धुँधला आकार,
सकल असमंजस का विस्तार,
पग एक पथ पर बढ़ा रहा मैं, 
दूजे पथ की सोच रहा था ।।५।।

हर जगह मानव है आहार,
मनुज-बलि से सिंचित संसार,
वनों में सिंहों की भरमार,
मन के मृग को बचा रहा मैं, 
आश्रयदाता खोज रहा था ।।६।।

25.1.14

सड़कों पर लोकतन्त्र

नहीं, संदर्भ बिल्कुल वह नहीं है जो आप समझ रहे हैं। सड़कों पर किये हुये विशेष कृत्य पर नहीं, वरन यह शीर्षक सड़कों पर किये हुये वृहद अवलोकनों के पश्चात समझ में आयी रोचकता पर आधारित है। रेलवे में सारे निरीक्षण ट्रेन से किये जाने असम्भव होते हैं। समपार फाटकों, पुलों और संरक्षा के लिये महत्वपूर्ण कई स्थानों पर ट्रेन नहीं रुकती है। मोटरट्रॉली से इन स्थानों पर पहुँचा तो जा सकता है पर रेलमार्ग में ट्रेनों की बहुतायत से अत्यधिक समय लग सकता है। साथ ही साथ यदि आपने बीच खण्ड में गहन निरीक्षण कर अधिक समय ले लिया तो उसमें अन्य ट्रेनों के विलम्बित होने की संभावना बढ़ जाती है। जहाँ कहीं भी पहुँचा जा सकता है, निरीक्षण सड़क मार्ग से करना श्रेयस्कर होता है।

यही कारण रहा कि सड़क मार्ग पर कई हज़ार किलोमीटर चलना हुआ। दक्षिण भारत में सड़कें बहुत अच्छी हैं और जितने किलोमीटर जाना हो, बहुधा उतने मिनट से अधिक का समय नहीं लगता है। हाँ, बेंगलोर से बाहर निकलने और वापस आने के लिये सुबह और सायं के व्यस्त घंटों से स्वयं को बचाना होता है। सुबह शीघ्र निकल कर सायं होने के पहले ही वापस आने से ही समय की बचत संभव है यहाँ। आगे बैठने से सड़क की गतिविधि स्पष्ट दिखती हैं।

निरीक्षणों के समय की गयी सड़क यात्राओं में किये गये सतत अवलोकनों से इस विषय की उत्पत्ति हुयी है। हर बार जो देखा, उसमें लोकतन्त्र के साम्यरूप स्वतः ही दिखते गये। जो भी घटना देखी, विचार किया तो पाया कि लोकतन्त्र में भी यही होता है। धीरे धीरे सड़क यात्राओं की क्रियात्मक रिक्तताओं को सार्थक विचारशीलता मिलती गयी। मन में उठते प्रश्नों को उत्तर मिलता गया, उत्तरों की निश्चितता सिद्धान्त में बदलती गयी, उबाऊ सड़क यात्राओं में आनन्द आने लगा और साथ ही साथ सड़क के बहाने लोकतन्त्र की प्रक्रियाओं को समझने का अवसर भी मिलता गया।

कभी कभी बड़े तन्त्र को न समझ पाने की स्थिति में उससे मिलते जुलते छोटे तन्त्र को समझने से बड़े तन्त्र के गुण समझ में आ जाते हैं। तब उन दो तन्त्रों के भिन्न अवयवों में एक नियत संबंध पा लेने से एक तन्त्र की जानकारी को दूसरे तन्त्र की समस्यायें सुलझाने में प्रयोग किया जा सकता है। इन्जीनियरिंग में इस तकनीक को सिमुलेशन कहते हैं। बड़े तन्त्रों पर प्रयोग करना बड़ा कठिन, महँगा और घातक हो सकता है, अतः उपयुक्त और सर्वाधिक मिलते जुलते तन्त्र पर प्रयोग कर अवलोकन के निष्कर्षों से बड़े तन्त्र को लाभ पहुँचाया जा सकता है। उदाहरण के लिये अच्छे हवाई जहाज़ बनाने के आकाश में प्रयोग करने असंभव होते हैं, तब प्रयोगशाला में प्रयोग करने के लिये हमें छोटे मॉडल और ठीक वैसा ही तन्त्र बनाना होता है, जो बड़े से मिलता जुलता हो।

अव्यवस्थित लोकतन्त्र के संकेत
मैं न तो राजनीति शास्त्र का विद्यार्थी रहा हूँ और न ही लोकतन्त्र के प्रयोगों पर गहरी रुचि है, पर टीवी चैनलों, ट्रेन के डब्बों और चाय की दुकानों पर हुयी हाहाकारी चर्चाओं से अछूता भी नहीं रह सका हूँ। जब लोग अपने कार्य करने के तरीक़ों को लोकतन्त्र की सच्ची परिभाषा बताने लगते हैं तो मुझे पर सड़क पर दिखी किसी घटना से उसकी साम्यता दिख जाती है। तब लगता है कि सड़कों पर तो और बहुत कुछ होता है तो क्या सिमुलेशन के सिद्धान्तों के आधार पर लोकतन्त्र में उन सबकी संभावना बनती है क्या? इन तथाकथित प्रयोगों के अतिरिक्त यदि कोई लोकतन्त्र पर सार्थक प्रयोग करना भी चाहे तो क्या सीमित भाग पर किये प्रयोग सार्वभौमिक हो सकेंगे? न जाने कितने प्रयोगों में हम हाथ झुलसा बैठे हैं, आइये सड़कीय तन्त्र से उसकी अद्भुत साम्यता देख भविष्य के निष्कर्ष निकालने के प्रयास करते हैं।

एक सड़क है, दो दिशायें हैं, दोनों दिशाओं में वाहन चल रहे हैं। यदि एक ही लेन होगी तो जब भी कोई सामने से आयेगा तो गति धीमी कर खड़ंजे में उतरना पड़ेगा। यही नहीं आगे चलने वाला कितने भी धीरे चले, पीछे वाले को आगे निकलने नहीं देगा। कुछ ऐसा ही दिखता है हमें लोकतन्त्र में भी। सड़क चौड़ी कर दें, आने जाने वालों के लिये अलग अलग लेन बना दें। एक दिशा में भी दो लेन बना दें जिससे पीछे से अधिक गति से आने वाले को रुकना न पड़े। आगे बढ़िये तो आपको चौराहे मिलते हैं, बायें या जायें से आने वाले के लिये आपको रुकना पड़ता है। रोकने के लिये या तो सिग्नल लगे रहते हैं या ट्रैफिकवाला खड़ा रहता है। जो भी रहे, चक्रीयता से सबको जाने देता है। जब किसी दिशा से आने वाला प्रवाह कम या अधिक हो तो सिग्नल की अवधि यथानुसार कम या अधिक की जाती है।

व्यवस्थित लोकतन्त्र के संकेत
जब लगता है कि चौराहे पर दोनों ही दिशाओं में प्रवाह सतत है और बहुत लोगों को बहुत अधिक विलम्ब हो रहा है तो फ्लाईओवर बनाये जाते हैं जिससे दोनों दिशाओं का यातायात निर्बाध चले। इस स्थिति में सीधे जाने वालों को तो सुविधा हो जाती है, पर बायें या जायें मुड़ने वालों के लिये पूरा चक्कर लगा कर जाना पड़ता है। अष्टचक्रीय आकृतियाँ बन जाती हैं यदि हर दिशा के यातायात को बिना रुके जाना हो। लोकतन्त्र में भी यदि लोगों के भिन्न विचारों और अपेक्षाओं को समाहित करना हो तो ऐसी ही व्यापक आधारभूत संरचनायें बनानी होती हैं और जब तक वह संभव न हो, अनुशासित ढंग से व्यवस्था चलानी होती है।

यातायात व्यवस्था का यदि कोई मानक हो सकता है तो वह है, चलने वाली गाड़ियों का न्यूनतम विलम्ब। वह विलम्ब शून्य हो जाये तो सर्वोत्तम, पर उसके लिये व्यापक आधारभूत संरचनायें आवश्यक होंगी। जो भी हो, पर प्रयास की दिशा वही हो जिससे यह विलम्ब न्यूनतम हो जाये। ऐसा नहीं है कि विलम्ब न्यूनतम हो जाने से सारे वाहन एक गति में चलने लगेंगे। भिन्न वाहन होंगे, भिन्न चालक होंगे, वाहनों की अपनी क्षमता और चालकों की अपनी योग्यता होगी। हो सकता है कोई गतिशील वाहन में बैठा हुआ भी धीरे चला रहा हो, कोई चालक थका हुआ हो, कोई अपने वाहन को क्षमता से भी अधिक खींच रहा हो। सब उसी के अनुसार गतिशील होंगे पर व्यवधान रहने से उन्हें अपनी क्षमता से जीने का अवसर न मिलना सड़कों पर उपजे असंतोष का प्रथम स्वर होता है, यही लोकतन्त्र में भी होता है।

कभी दो ट्रकों को सड़क पर प्रतियोगिता करते हुये देखा है? यदि भारी भरकम दो ट्रक मदत्त हो जायें तो छोटे वाहन दूर ही रह कर आगे बढ़ते रहते हैं, पास रहकर अपने जीवन को संकट में नहीं डालते हैं। कभी देखा है कि जब दो बड़े ट्रक दोनों लेनों पर एक ही गति से और बराबर से चलते हैं तो पीछे से पों पों करती गतिमय और क्षमतावान फ़ोर्ड और बीएमडब्लुओं को कितनी मानसिक पीड़ा होती होगी। लोकतन्त्र की प्रक्रियाओं में भी देखा जाये तो इस तरह मिल जुल कर रास्ता छेकने वालों की कमी नहीं है। उनके बीच तनिक सी भी जगह मिल जाये तो लहराते हुये कई गाड़ियाँ देखते ही देखते आगे निकल जाती है। बग़ल की लेन से जा रही यदि किसी गाड़ी से आगे निकलना होता है तो कई बार लोग बहुत अधिक गति पकड़ लेते हैं।

किसी गाँव या क़स्बे के पास से निकलते हुये स्पीड ब्रेकरों से सामना होता है और आप न चाहकर भी अपनी गति नियन्त्रित करते हैं, आप सावधानी से गति का पालन करते हैं। कई वाहनों की गाड़ी का मॉडल ही नहीं, उसकी नम्बर प्लेट के अंक भी उसके अतिविशिष्ट होने के संकेत दे जाते हैं। हम जैसे कुछ समझदार वाहन सड़क पर तब निकलते हैं जब यातायात कम होता है। रोड पर बने गढ्ढे न केवल गति कम करते हैं वरन वाहन और चालक का कचूमर भी निकाल देते हैं। रात में सामने की ओर से आते हुये वाहनों की लाइटों से आँखें चुँधियाँ जाती हैं। रोड के किनारे लगे हुये बड़े बड़े विज्ञापनों के बोर्ड आपका ध्यान भंग करने का प्रयास करते हैं। बहुधा बड़े नगर या गंतव्य पर पहुँचने के समय बड़े बड़े जाम लग जाते हैं। ये सारी साम्यतायें मुझे लोकतन्त्र में यथारूप दिखती हैं।

मैंने ऐसे चालक और वाहन भी बहुतायत में देखें हैं जो सड़क पर बिखरी संभावनाओं से अलग चुपचाप समगति बनाये रहते हैं और अपने गंतव्य पर पहुँचते हैं। ऐसे अनुशासन में रहने वालों की संख्या बहुत अधिक है, सड़क का तन्त्र ऐसे ही लोगों से स्थिर रहता है, चलता रहता है। नहीं तो गतिमय प्रयोग करने वाले बहुत से कहीं सड़क के किनारे दुर्घटनाग्रस्त पड़े होते हैं, क्योंकि सब के सब तो प्रथम आ नहीं सकते।

आप भी जब अगली बार सड़क यात्रा करें तो सड़क पर हो रहे उन प्रयोगों को अवश्य देखियेगा जो लोकतन्त्र में या तो चल रहे हैं या निकट भविष्य में उनकी संभावना बन रही है। हो सकता है कि कभी ऐसे ही अपना देश लाभान्वित हो जाये।

चित्र साभार - www.colourbox.comwww.sfgate.com

22.1.14

मॉन्टे कार्लो और माँ के स्वेटर

बचपन में माँ के हाथ के बने स्वेटर पहनता था। उनकी बुनाई सारे मुहल्ले में सराही जाती थी। लगभग हर जाड़े में हाथ का बुना एक नया स्वेटर मिल जाता था। तीन साल से अधिक पुराना स्वेटर या तो छोटे भाई को मिलता था या घर आने वाली नाउन या धोबन को दे दिया जाता। उन स्वेटरों की गरमाहट अब तक याद है, लाल इमली की ऊन लाती थी माँ, रंग गाढ़े, डिजाइन बिल्कुल नयी, हर वर्ष। पहन कर मैं भी मॉडल की तरह इठलाया घूमता था। हर छोटी बड़ी लड़की जिसे भी स्वेटर बनाने में रुचि होती, रोकती और बड़े ध्यान से स्वेटर की डिजाइन समझती। उन ५-१० मिनटों में मैं लजाया सा चुपचाप खड़ा रहता, अन्दर ही अन्दर लगता कि माँ ने कहाँ फँसा दिया, पर इस तरह पकड़े जाना और ध्यान दिये जाना मन ही मन अच्छा लगता था।

घर में पहने जाने वाले ही नहीं वरन विद्यालय के भी स्वेटर माँ के बुने रहते थे। रंग तनिक अलग रहते थे, अन्य सबसे चटख भी रहते थे, पर चल जाते थे। उस समय विद्यालय के वेष में रंगों को लेकर इतना कठोरता नहीं थी, अध्यापक थोड़ा अलग स्वेटर सह लेते थे। वैसे लाल रंग के नियत स्वेटर के स्थान पर विद्यालय में मैरून से लेकर गहरे गुलाबी तक के सारे रंग चल जाते थे। उस समय तक संभवतः वेष बेचने वालों की व्यावसायिकता ने विद्यालयों में पैर नहीं पसारे थे। माँ तब भी नहीं मानती थी, उसे सादे स्वेटर बनाना संभवतः अपनी प्रतिभा की अवहेलना लगती हो। वह कोई न कोई भारी भरकम डिजाइन स्वेटर में डाल देती थी। बहुधा तो पकड़े नहीं जाते थे, पर कई बार भय बना रहता था। कई बार स्वतः ही विशेष न दिखने का हठ किया तो ऐसी डिजाइन डाली कि जो दूर से सादी पर पास से विशिष्ट लगे।

जब घर में मुहल्ले की कई महिलायें यह जानने आती कि बुनाई के फन्दे कैसे डाले जायें तो उनकी बातें कुछ समझ में न आतीं। तीन सीधे डाल के दो उल्टे डालना, तीसरी सिलाई से यह डिजाइन बनाना इत्यादि। ऐसा लगता कि महिलाओं की कोई महान वैज्ञानिक कार्यशाला चल रही हो। हमको तो बस पहनने में और दिखाने में आनन्द, कैसे बना उसकी तकनीक से भला हमें क्या? मन के कोने में पर एक उत्सुकता बनी रहती कि कैसे दो सिलाई के माध्यम से इतना सुन्दर और अच्छा स्वेटर  बन जाता है?

नयी पीढ़ी पर पुरानी लगन
स्पष्ट याद है, ८ साल का था, मुहल्ले के पास की दुकान में एक हाथ से चलाने वाली मशीन आयी थी, जिससे स्वेटर बुना जा सकता था। अपने मित्र की सहायता से और उसके साथ ही देखने गया था कि वह मशीन कैसे कार्य करती है? जिस गति से वह ऊन की एक पूरी पंक्ति बुन देती थी, देख कर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। रंग बदल कर सादी डिजाइन भी डाल सकती थी वह मशीन। बाल उत्सुकता में उस मशीन को चलाने वाले कारीगर से पूछा कि एक स्वेटर कितने दिन में बना देगी यह मशीन? एक दिन, यह सुनकर मन बैठ गया। मेरी माँ को तो धीरे धीरे बुनते लगभग एक माह से अधिक लग जाता है। अपना स्वेटर दिखा कर कहा कि इस तरह की कठिन डिजाइन बना पायेगी यह मशीन? नहीं, यह मशीन तो नहीं बना पायेगी, पर और बड़ी मशीने अवश्य बना सकती हैं। आधे हारे और आधे जीते घर लौटे, तब मेरे लिये माँ के बनाये हुये स्वेटर से अधिक उस पर बनी डिजाइन विशिष्ट हो गयी।

माँ स्वेटर बनाती रही और मैं पहनता रहा, नौकरी मिलने तक। याद है, पहली बार प्रशिक्षण में जाने के पहले एक स्वेटर खरीदा था, बाहर से, बाहर ही पहनने के लिये। तब भी पास में शेष दो तीन स्वेटर माँ के बुने हुये ही थे। दो वर्ष बाद विवाह नियत हो गया, तनिक और सुगढ़ दिखने के लिये दो और स्वेटर खरीदे, मॉन्टे कार्लो के, १५०० का एक। पतली ऊन के और चिकने दिखने वाले दो स्वेटरों ने मोटी ऊन के और तनिक खुरदुरे दिखने वाले माँ के हाथ के बने स्वेटरों का स्थान ले लिया। उस समय विवाह के लिये और भी कपड़े लिये गये थे, उसी झोंक में मैंने ध्यान भी नहीं दिया कि ये स्वेटर माँ के बनाये स्वेटरों से लगभग तीन गुना मँहगे थे। साथ ही इस पर भी ध्यान नहीं गया कि माँ को क्या लगा होगा? माँ ने भी सोचा होगा कि फैशन कर लेने दो, अपने मन का पहन लेने दो।

मॉन्टे कार्लो के स्वेटरों ने बाहर का क्षेत्र सम्हाल लिया। घर में पहन कर उन्हें गन्दा नहीं किया जा सकता था अतः घर में माँ के बने स्वेटर ही चलते रहे, एक आधा और एक पूरा। गरमाहट पूरी रहती थी, पर मैने भी ध्यान देना बन्द कर दिया कि माँ अब उनमें कोई डिजाइन नहीं बनाती थी, स्वेटर सादे ही रहते थे। स्वाभाविक ही है, सादे स्वेटरों की डिजाइन तो कोई देखता भी नहीं है, बचपन का उत्साह और ध्यानाकर्षण का आनन्द उन विशिष्ट स्वेटरों के साथ जीवन से चला गया। मेरे छोटे भाई बहनों ने भी बड़े होते होते, मेरी देखा देखी मॉन्टे कार्लो अपना लिया, पर माँ उनके लिये भी सादे स्वेटर बनाती रही। 

माँ का उत्साह पुनः जागा जब मेरे दोनों बच्चे हुये। याद है, पृथु और देवला के होने पर, पहली ठंड आने तक दोनों के लिये पाँच स्वेटर तैयार थे, डिजाइन के साथ। यद्यपि संबंधीगण बने बनाये स्वेटर दे गये थे, पर गरमाहट के लिये उन्हें उनकी दादी के बनाये ही स्वेटर पहनाये। माँ का ऊन खरीद कर लाने और डिजाइन निर्धारित करने में जो उत्साह और क्रम दिखायी दिया, मुझे मेरे बचपन का यादें दिला गया। पता नहीं क्या कारण था, वह उत्साह ८-१० वर्षों से अधिक नहीं चल सका, क्योंकि मेरे बच्चों को दादी के हाथ के बने स्वेटर चुभने लगे। हमने भी अधिक जोर नहीं डाला, माँ ने फिर उसे समझ लिया, कुछ नहीं कहा।

इसी बीच बंगलोर आ जाने से हमें भी स्वेटर पहने ४ वर्ष से अधिक हो गया है। भरे जाड़े में घर न जाकर माँ पिता को बंगलोर ही बुला लेते हैं और उन्हें उत्तर भारत की कड़कड़ाती ठंड से एक दो माह के लिये तनिक दूर रखने में सहायता कर देते हैं। इसी बीच, दो वर्ष पहले एक बिल्ली पाली थी, अवसर पाकर उसने मेरे दो स्वेटर कुतर डाले थे, एक मॉन्टे कार्लो का, दूसरा माँ का बुना। अभी मेरे पास माँ का बुना कोई स्वेटर नहीं है।

इस बार जब माँ आयीं तो उनके हाथ में फिर से वही पुरानी प्रसन्नता थी, हाथ में सिलाई और झोले में ऊन का गोला। मेरा भतीजा दो वर्ष का हो गया है, उसके लिये स्वेटर बुनने में लगी थी माँ। बालिश्त और अंगुल से उसकी माप लेकर आयी थी, जाते जाते लगभग पूरा बन गया था वह स्वेटर। वही पुराने चटख रंग, डिजाइन के प्रति वही उत्सुकता। इस बार एक और बात हुयी। श्रीमतीजी तो बाहर के बने स्वेटरों से आसक्ति रखती हैं, पर पहली बार मेरी बिटिया ने अपनी दादी की स्वेटर बुनायी की प्रक्रिया को उत्सुकता से देखा और संभवतः कुछ सीखा भी। माँ के आँखों की ललक देखते ही बनती थी। ६६ वर्ष की अवस्था, आँखों में एक चश्मा, हाथ में दो सिलाई, मन में चलती फन्दों की गणना। पिछले ४२ वर्षों में भले ही फैशन के कुछ अन्तराल आ गये हों, पर माँ के हाथ कभी रुके नहीं, सिलाई और ऊन उनके हाथों का अभिन्न अंग बना रहा।

फिर से माँ के हाथ का बना स्वेटर पहनने का मन कर रहा है। यह ठंड तो बंगलोर में ही निकल गयी। काश अगली नवम्बर में ठंडा स्थान हो और शरीर पर माँ में हाथ का बना, स्नेह की गरमाहट से भरा, डिजाइन वाला मोटा स्वेटर। बाय बाय, मॉन्टे कार्लो।

चित्र साभार - www.stockphotopro.com

18.1.14

सत्य जो है

हम कहेंगे, तुम कहोगे, तथ्य जो है,
तभी निकलेगा हृदय से, सत्य जो है।

रंग पक्षों के चढ़ाये घूमना था,
क्यों बताओ सूर्य का शासन चुना था?

मूढ़ से मुण्डी हिलाते, हाँ या ना,
सीखनी थी मध्य की अवधारणा।

गुण रहे आधार, चिन्तन-मूल के,
तब नहीं हम व्यक्ति को यूँ पूजते।

भय सताये, प्रीति आकुल, भ्रम-मना,
मिल रही है सत्य को बस सान्त्वना।

मन बहे निष्पक्ष हो, निर्भय बहे,
तार झंकृत, स्वरित लहरीमय बहे।

नियत कर निष्कर्ष, बाँधे तर्क शत,
बुद्धिरथ दौड़ा रहे, आश्वस्त मत।

हो सके तो सत्य को भी बाँट लो,
यथासुविधा, हो सके तो छाँट लो।

या तो फिर निर्णय करो, मिल बैठ कर,
तथ्य के आधार, गहरे पैठ कर।

त्यक्त संशय, धारणा, मन व्यक्त हो,
जूझना, जब तक न एकल सत्य हो। 

साधनारत बुद्धि का उत्पाद जग को चाहिये,
एक सम्मिलित सार्थक संवाद जग को चाहिये।

कहें पीड़ा और की हम, कथ्य जो है,
आज सब मिलकर कहेंगे, सत्य जो है।

15.1.14

जय हो, जय हो

संसाधन हैं, 
तन्त्र बने हैं, 
घर पलते हैं,
आदि व्यवस्था,
देश बह रहा,
मध्यम मध्यम,
जीवन धो लो,
मिल कर बोलो,
जय हो, जय हो।

मत इतने हैं,
मति जितने हैं,
तर्क घिस रहे,
धुँआ धुँआ जग,
सबकी सुनकर,
सबकी गुनकर,
भाव न खोलो,
मिल कर बोलो,
जय हो, जय हो।

क्षुब्ध तथ्य यह,
बात ज्ञात है,
आज रात है,
कल दिन कैसा,
जैसा भी हो,
अभी नींद का,
मोह न छोड़ो,
मिल कर बोलो,
जय हो, जय हो।

कल की चिन्ता,
महाकाय सी, 
आज ठिठुरता,
घबराया सा,
मस्तक फिर भी,
धीरज पाले, 
चुपके रो लो,
मिल कर बोलो,
जय हो, जय हो।

परिवर्तन हो,
आवश्यक है,
स्थिरता में,
कहाँ लब्ध क्या,
अपना अपना,
सोंधा सपना,
कल ही बो लो,
मिल कर बोलो,
जय हो जय हो।

जिसका जितना,
भाग्य लिखा हो,
उसकी उतनी,
जय तो होगी,
किन्तु हृदय यह,
बात न होगी,
सबके हो लो,
सबकी बोलो,
जय हो, जय हो।

11.1.14

मध्य में सब ठीक हो

बड़े तन्त्रों में एक बड़ी समस्या होती है। उन्हें साधने के प्रयास में सारा का सारा ध्यान उनके अन्तिम छोरों में ही रहता है, अन्तिम छोर साध कर लगता है कि सारा तन्त्र सध गया। किन्तु ऐसा होता नहीं है। मध्य का भाग जितना बड़ा होता है, उतना ही असाध्य हो जाता है। बड़े साम्राज्यों का सारा ध्यान या तो केन्द्र पर होता है या तो उनकी सीमाओं पर लगा रहता है, दोनों की ही सुरक्षा में लगा रहता है, मध्य की सुध किसी को भी नहीं रहती है। बड़े राज्यों की अवधारणा विकास के मानकों पर औंधे मुँह गिर पड़ी और छोटे राज्यों की माँग ज़ोर पकड़ती गयी। छोर सम्हाल कर तो रखे गये पर मध्य में ढील छोड़ दी गयी। अपना अपना छोर साधा गया पर शेष सब भुला दिया गया।
 
बहुत पहले एक पुस्तक पढ़ी थी, द स्माल इज ब्यूटीफ़ुल, छोटा सुन्दर है। उसके तर्क भी उतने ही सुन्दर थे। छोटे और स्थानीय तन्त्र प्रकृति से साम्य रखते हैं, प्रकृति के अधिक निकट होते है, नियन्त्रण में रखे जा सकते हैं, संभवतः इसीलिये सुन्दर भी होते हैं।

छोटों से बनता बड़ा तन्त्र
मेरा जीवन अनुभव लघुत्तम के इस सौन्दर्यबोध से सदा ही अन्यथा रहा है। देश बड़ा, जनसंख्या अधिक, परिवार बड़ा, प्रतियोगिता बड़ी, अध्ययन अधिक, स्वप्न बड़े। कितना भी सोच लें पर कुछ भी छोटा मिला ही नहीं। यहाँ तक कि जिस नौकरी में भी अवतरित हुये, वह भी रेलवे की। लम्बी पटरियाँ, विस्तृत तन्त्र, लम्बी ट्रेनें, कर्मचारियों की संख्या लाखों में।

बड़े तन्त्रों को चलाने के लिये बने नियम, प्रयुक्त मानक और प्रशासन शैली, सभी के सभी इतने विस्तृत होने लगते हैं कि उन्हें साधना नियमित कार्य से उठकर कला की श्रेणी में आ जाता है, प्रबन्धक कम, कलाकार अधिक। कारण बड़े ही स्पष्ट हैं, एक नियम से ही बड़े तन्त्र के सारे पक्षों को साधने के प्रयास में नियम फैलते जाते हैं। जब नियम अधिक फैलते हैं, तब नियमों को सम्हालने के लिये नियम बनते हैं, उनको समझने के लिये महारथी विकसित होते हैं। नियम-महारथी विशेष हो जाते हैं, उन पर ही किसी कार्य को होने की या न होने की संभावनायें निर्भर होती हैं, क्योंकि वही जानते हैं कि क्या किया जा सकता है, कैसे किया जा सकता है?

धीरे धीरे नियम प्रमुख हो जाते हैं, नियम-महारथी प्रमुख हो जाते हैं, नियमों का अपना अलग तन्त्र बन जाता है, नियमों का तन्त्र चला कर नियन्त्रक स्वयं को संतुष्ट करने लगता है। वास्तविक तन्त्र जड़ हो जाते हैं, सारी ऊर्जा नियम ही सोख लेते हैं।

बड़े तन्त्रों में सब कुछ स्थूल ही हो, ऐसा भी नहीं रहता है। जब आवश्यकता होती है तो बहुत कम समय में संसाधन जुटाये जा सकते हैं। बड़े तन्त्रों में एकरूपता रहती है, कार्य निष्पादन की सततता रहती है, एक दिशा रहती है, तन्त्रगत समग्रता रहती है। बड़े तन्त्रों के सकारात्मक पक्ष छोटे तन्त्रों में अनुपस्थित रहते है, वहीं बड़े तन्त्रों की अक्षमतायें छोटे तन्त्रों की शक्ति हो जाती हैं।

तो क्या ऐसे तन्त्र विकसित हो सकते हैं जिसमें दोनों ही पक्षों की सकारात्मकता समाहित की जा सके और साथ ही साथ दोनों की नकारात्मकता दूर की जा सके? निश्चय ही हो सकते हैं, पर उसके पहले वर्तमान तन्त्रों के बारे एक बात समझनी होगी। किसी का तन्त्र का निर्माण उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है। तन्त्र की कार्यशैली पर जितना ध्यान दिया जाता है, यदि उतना ही ध्यान उसकी उत्पादकता या उपयोगिता पर भी दिया जाये तो तन्त्र की कार्यशैली स्वतः परिमार्जित होती रहती है। हम बड़ी बड़ी योजनायें बना कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं, कभी इस बात पर ध्यान ही नहीं देते की तन्त्र को उसकी क्षमताओं के संदर्भ में निरन्तर ही और सुधारा जा सकता है। आख़िरी छोर पर क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है, बीच में प्रवाह कैसा है, यदि इन उत्तरों पर ध्यान देने के लिये भी तन्त्रगत व्यवस्थायें रहें तो कोई कारण नहीं है कि तन्त्र प्रभावी न हो।

कभी किसी बड़े चुम्बक को देखा है, उसे छोटे छोटे ढेरों चुम्बकों में तोड़ दीजिये पर उनके गुण वही रहते हैं। जब वही छोटे चुम्बक एक बड़े रूप में थे तो सशक्त थे, यद्यपि गुण वही हैं पर शक्ति बहुत कम हो गयी है। छोटे तन्त्रों को बड़े में कैसे विकसित करना है, चुम्बक के उदाहरण से सीखा जा सकता है। यदि बहुत बड़े तन्त्र बनाने हैं जो अपने भार से न ढह जायें तो उन्हें बनाने का आधार छोटे और गुणवत्ता भरे तन्त्र ही होंगे, ऐसे तन्त्र जो अपने आप में पूर्ण होंगे। ऐसे ही छोटे तन्त्रों को एक दिशा में संयोजित कर उन्हें बड़े तन्त्रों का स्वरूप देना एक विशेष कार्य है, जिसमें प्रत्येक भाग की दिशा और दशा ऐसी हो कि वे पूर्ण के सकारात्मक सहयोगी हों, न कि विरोधाभासी। साथ ही साथ तन्त्र के बड़े होने पर वे दृष्टि में बने रहें, उनके भागों में संवाद का प्रवाह रहे, यही उन्हें साधने की नियन्त्रक कलात्मकता है। उनके भागों को जोड़े रहने का उपक्रम उस तन्त्र को चलाने का श्रम है।

तन्त्र के सभी अवयवों की दिशा एक ही ओर रहे, एक लक्ष्य की ओर प्रेरित रहे। तन्त्र के अवयवों के बीच जुड़ाव व बद्धता हो। यह दो बातें साधने के साथ ही सारा तन्त्र साधा जा सकता है। तन्त्र कैसे कार्य कर रहा है, इसका पता उसकी पूरी उत्पादकता से पता चल जाता है। यदि उत्पादकता वांछित से कम आ रही है तो उन्हीं दो बातों में ही कहीं कोई गड़बड़ है, मध्य में कहीं कुछ छूटा है।हम यही भूल कर बैठते हैं, जब देखते हैं कि तन्त्र ठीक से नहीं चल रहा है, तो किनारों की सुध लेने लगते हैं, बाहर से सहायता देने लगते हैं, मध्य के बारे में भूल जाते हैं। बाहर से जितना प्रयास लगाते हैं, उतने ही अनुपात में गड़बड़ी भी बढ़ जाती है। मध्य में यदि ठीक करेंगे तो बाहर से अधिक प्रयास नहीं करना पड़ेगा।

बड़े तन्त्रों के विश्लेषक समस्या के निदान का प्रथम चरण किसी भी तन्त्र के स्तरों की संख्या कम करना मानते हैं। इसे तन्त्रों का सरलीकरण कहा जाता है। स्तर कम करने से मध्य की परतें कम हो जायेंगी, परतों में आयी समस्या कम हो जायेगी। बड़े तन्त्रों से छोटे तन्त्र की ओर जाने में बहुधा बड़े तन्त्रों की सकारात्मकता खो देते हैं और छोटे तन्त्रों की नकारात्मकता अपना लेते हैं। सही समाधान तो मध्य को व्यवस्थित रखने में है। आप अपने चारों ओर देखिये और सोचिये, बड़े तन्त्रों की गड़बड़ी का स्रोत कहीं उसके मध्य में तो नहीं?

मध्य को तनिक और टटोलेंगे, हर स्तर पर।

चित्र साभार - www.worth1000.com

8.1.14

इन्स्क्रिप्ट में ही टाइप करें

आज भी बहुत से ब्लॉगर ऐसे हैं जो अभी भी अंग्रेजी आधारित हिन्दी टाइपिंग करते हैं। यही क्या कम है कि वे अन्ततः हिन्दी में लिख रहे हैं, माध्यम जो भी हो, पढ़ने को तो हिन्दी मिल रही है। पहले मुझे लगता था कि कैसे अपनी भाषा लिखने के लिये दूसरी भाषा का आश्रय ले लेते हैं ब्लॉगर? कैसे वही शब्द लिखने के लिये अधिक श्रम करना चाहते हैं लोग? कैसे कुछ शब्द न लिख पाने की स्थिति में उसका प्रयोग छोड़ सकते हैं लेखकगण?

इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड
अनुभव से यही पाया कि हिन्दी में टाइप करने के पहले हम सब अंग्रेजी में ही टाइप करते आये थे। यही नहीं, अभी भी पर्याप्त समय हम अंग्रेजी लिखते भी हैं। इस स्थिति में एक ही वर्णमाला की टाइपिंग में सिद्धहस्त हो यदि हम हिन्दी भी टाइप कर सकें तो दूसरा कीबोर्ड सीखने के श्रम से बचा जा सकता है। यही सुविधा और गहराती जाती है और ब्लॉगर हिन्दी लिखने के लिये रोमन वर्णमाला की विवशता त्याग नहीं पाते हैं। गूगल ने भी इस विवशता को समझा और यथानुसार समर्थ फ़ोनेटिक सहायक भी प्रस्तुत कर दिया। यही नहीं शब्दकोष की सक्षम विकल्प प्रणाली से हर संभव शब्द उपस्थित भी हो जाता है, चुनने के लिये।

हिन्दी में लिखने के प्रारम्भिक काल में हमने भी फोनेटिक कीबोर्ड का उपयोग किया था। हिन्दी में टाइप करने की आवश्यकता थी और इन्स्क्रिप्ट के बारे में पता नहीं था। उस समय सभी ने बराह के उपयोग की सलाह भी दी थी। कुछ भी न होने से कुछ होना अच्छा था। प्रयोग करते करते कुछ ब्लॉगरों ने इन्स्क्रिप्ट के बारे में भी सुझाया, पर नये कीबोर्ड को याद कर सकने की असुविधा ने इन्स्क्रिप्ट को द्वितीय विकल्प के रूप में ही रखा। साथ में यह भी नहीं ज्ञात था कि इन्स्क्रिप्ट में यदि टाइप करेंगे भी तो उसमें गति बढ़ेगी या नहीं? वहीं दूसरी ओर अंग्रेज़ी टाइपिंग में सहजता थी, हिन्दी को भी उससे व्यक्त किया जा सकता था। जहाँ तक हिन्दी शब्दों को यथारूप अंग्रेज़ी शब्दों में बदलने का मानसिक कार्य था, वह प्रारम्भ में बड़ा कठिन तो था पर अभ्यास और भूलों के मार्ग से होते हुये कुछ न कुछ लिखा जा सकता था। 

इतना कोई कैसे याद करे
उस समय शब्दों के विकल्प भी नहीं होते थे, जो लिखना होता था, पूरा लिखना होता था। कई बार ऐसा भी होता था कि उपयुक्त शब्द यदि वर्तनी में कठिन होता था तो उसका कोई ऐसा विकल्प ढूँढ़ते थे जिससे मानसिक अनुवाद का कठिन कार्य कम किया जा सके। उस समय बहुधा चर्चा भी होती थी कि कोई शब्द विशेष कैसे लिखा जाये। कई बार किसी कठिन शब्द को संग्रह कर लिया जाता था, जिससे समय पड़ने पर उस कॉपी करके उतारा जा सके। सच कहा जाये तो हिन्दी में टाइप करना बड़ा रोमांचक कार्य था। उत्साह अधिक था और छपे जाने का आनन्द भी रोका नहीं जा सकता था, अतः इन्स्क्रिप्ट के विचार पर तात्कालिक ध्यान नहीं दिया गया।वह समय भौतिक कीबोर्ड का था और उनमें देवनागरी के स्टीकर भी नहीं थे। यदि वे सहज ही उपलब्ध होते तो संभवतः फोनेटिक अधिक समय तक न चल पाता। कठिनाई को बहुत होती थी क्योंकि अंग्रेज़ी वर्णमाला से हिन्दी में परिवर्तन करने वाले सारे नियम सहजता से याद रखना संभव भी नहीं था। शब्द सरल हुये तो गति अच्छी रही, शब्द कठिन हुये तो गतिरोध हुआ।

फोनेटिक टाइपिंग का सर्वाधिक दुष्प्रभाव चिन्तन पर पड़ता था। एक तो विषय के बारे में सोचना और दूसरा इस बारे में सोचना कि अभिव्यक्ति को किस प्रकार अंग्रेज़ी शब्दों से व्यक्त किया जाये। एक साथ मस्तिष्क यदि दो कार्य करना पड़े तो गति बाधित होना स्वाभाविक है। कठिन शब्दों से खेलते समय यदि भूल हो जाये तो सारी सृजनात्मकता उसी क्षण धाराशायी हो जाती थी। लगता था कि अभिव्यक्ति के दो चरण एक साथ नापने के प्रयास में हाँफे जा रहे हैं।

यह क्रम लगभग ६ माह चला, किसी तरह घिसटते हुये हिन्दी टाइपिंग हो रही थी। उस समय हम केवल पाठक हुआ करते थे और टाइपिंग का कार्य कुछ चुने हुये ब्लॉगों पर टिप्पणी देने तक ही सीमित था। किसी तरह सरल शब्दों में मन के भाव व्यक्त कर लेते थे, समय फिर भी लगता था, पर साधा जा सकता था।

ब्लॉग के प्रति प्रतिबद्धता तनिक और बढ़ी और हमें ज्ञानदत्तजी ने लिखने के लिये उकसाया, सप्ताह में एक ब्लॉग, वह भी उनके ब्लॉग पर अतिथि ब्लॉगर के रूप में। स्वलेखन की मात्रा बढ़ी, साथ ही साथ अन्य ब्लॉगों पर भी अधिक जाने से टिप्पणियों में भी अधिक लिखना हुआ। अब बराह पैड में लिखकर उसे काट कर टिप्पणी बॉक्स में चिपकाने के झंझट ने टिप्पणी देना एक उबाऊ कार्य बना दिया। कई बार चाह कर भी लिखना नहीं हो पाया, कभी आलस्य में कम में कह कर कार्य चला लिया। अन्ततः मन में अधिक गति से टाइप करने की चाह उत्कट होती गयी।

तब बैठकर शोध किया गया कि यदि इन्स्क्रिप्ट सीखी जाये तो कितना समय लगेगा और इन्स्क्रिप्ट में टाइप करने से कितना समय बचेगा? गणना की कि एक शब्द को टाइप करने में फोनेटिक विधि में लगभग ढाई गुना अधिक की दबानी पड़ती हैं। मन में अनुवाद की सतत प्रक्रिया से सृजन के बाधित प्रवाह से गति दो तिहाई ही रह जाती है। हर एक वाक्य में हुयी भूलों से लगभग २० प्रतिशत समय अधिक लगता था। साथ ही साथ कठिनता से बचने के लिये उपयुक्त शब्द न लिख पाये के दुख की गणना संभव भी नहीं थी। तय किया कि इन्स्क्रिप्ट टाइपिंग में गति यदि एक तिहाई भी रह जाये तो भी समय व्यर्थ नहीं होगा।

एक काग़ज़ में इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड का प्रारूप सजाकर सीखने का शुभारम्भ किया। सीखना जितना सरल सोचा था, उससे कहीं कठिन लगा। बार बार काग़ज़ पर कीबोर्ड को देखना और उससे संबंधित की को दबाना बड़ा ही श्रमसाध्य लगा। प्रारम्भिक दो दिन में लगा कि फोनेटिक ही अच्छा था, पर प्रयोग की अवधि को दो सप्ताह तक जीवित रखने के संकल्प ने निष्कर्ष देने प्रारम्भ कर दिये। दो सप्ताह में कीबोर्ड ८० प्रतिशत तक याद हो गया और फोनेटिक के समक्ष टाइपिंग गति भी आ गयी। उस समय लगा कि यदि कहीं से हिन्दी के स्टीकर मिल जायें तो गति और बढ़ायी जा सकती है। अमेजन में स्टीकर देखें, वे न केवल मँहगे थे, वरन उनको बाहर से मँगाने में बहुत समय लगने वाला था। तभी बेंगलोर के एक पर्यवेक्षक ने प्रिंटिग प्रेस से स्तरीय स्टीकर बनवा दिये। वह दिन मेरे लिये फोनेटिक कीबोर्ड पर कभी न वापस देखने का दिन था।

जब अंग्रेज़ी में टाइप करते थे तो दो उँगलियाँ ही उपयोग में आती थीं और देखकर ही टाइपिंग हो पाती थी। हिन्दी स्टीकर लगाने से वह गति अगले दो तीन दिन में ही आ गयी। जब दोनों में ही गति समान हो गयी तो उतने ही समय में लगभग दुगना लिखने लगे और भूलें भी नगण्य हो गयीं। हिन्दी टाइपिंग में आनन्द आने लगा, अभिव्यक्ति सहज होने लगी और मस्तिष्क का सारा कार्य विचार प्रक्रिया और सृजनात्मकता को समर्पित हो गया।

स्क्रीन पर आये हिन्दी कीबोर्ड ने मेरी इन्स्क्रिप्ट टाइपिंग को मोबाइल और टैबलेट में गति दी और यही कारण है कि मेरा अधिक लेखन आइपैड और मोबाइल पर ही होता है। उस पर किया हुआ अभ्यास कम्प्यूटर पर भी टाइपिंग के लिये लाभदायक हुआ। धीरे धीरे विचार की गति टाइपिंग की गति से मेल खा रही है, अभिव्यक्ति निर्बाध और प्रवाहमान होती जा रही है। वहीं दूसरी ओर गूगल टूल में आयी विकल्प की सुविधा ने निश्चय ही फोनेटिक की गति बढ़ायी होगी, पर यदि वही सुविधा इन्स्क्रिप्ट में भी आ जाये तो इन्स्क्रिप्ट पर टाइपिंग की गति में गुणात्मक सुधार हो जायेगा।

वर्तमान में एक ब्लॉगर, जिन्हें मैं नियमित पढ़ता हूँ, जिनका लेखन ब्लॉग जगत के लिये संग्रहणीय निधि है और जिनको भविष्य अधिकता से लिखने के लिये बाध्य करेगा, उन्होंने जब फोनेटिक पर टिके रहने की बाध्यता जताई तो मन बिना विश्लेषण किये न रह पाया। मैं मानता हूँ कि कुछ प्रयास अवश्य लगेगा, कुछ समय अवश्य लगेगा, पर वर्षों की आगामी साधना में जो समय बचेगा उसकी तुलना में इन्स्क्रिप्ट सीखने में लगा श्रम और समय नगण्य है। अंग्रेज़ी के प्रति किसी दुर्भाव से नहीं वरन पूर्ण वैज्ञानिकता और अनुभव की दृष्टि से इन्स्क्रिप्ट ही श्रेष्ठ है। इन्स्क्रिप्ट में ही टाइप करें।

4.1.14

हिन्दी टाइपिंग - स्वेच्छा और अपेक्षा

कम्प्यूटर के लिये इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड
हिन्दी टाइपिंग में हो रहे परिवर्तनों में विशेष रुचि रही है, कारण उसका शून्य से विकसित होते देखते रहना है। कम्प्यूटरों में हिन्दी टाइपिंग की सुविधा ने संभावनाओं के द्वार खोल दिये थे, हिन्दी प्रेमियों ने डिजिटल रूप में इण्टरनेट अदि में न जाने कितना लिखना प्रारम्भ कर दिया था। पहले फॉण्ट की विषमता रही, पर यूनीकोड आने से सबका लिखा सब पढ़ने में सक्षम होते गये। कई तरह के कीबोर्ड आये, अन्ततः इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड के स्वरूप को सीडैक ने आधिकारिक घोषित किया। यह होने के बाद भी हिन्दीजन बाराह और अन्य फोनेटिक टाइपिंग तन्त्रों को सुविधानुसार चाहते रहे। यद्यपि इन्स्क्रिप्ट में गति कहीं अधिक है पर धाराप्रवाह टाइप करने के लिये कीबोर्ड पर अक्षरों की स्थिति का अभ्यास होने में दो सप्ताह का समय लग जाता है। यही कारण है कि सम्प्रति कम्प्यूटर जगत में हिन्दी टाइपिंग इन दो धड़ों में बराबर से बटी है। भारतीय भाषाओं के संदर्भ में इन्स्क्रिप्ट की एकरूपता एक अलग पोस्ट का विषय है।

मोबाइल और टैबलेट के पदार्पण से राह और सुगम हो चली। अब यथारूप टाइप करने के लिये कीबोर्ड स्क्रीन पर ही उपस्थित है, इन्स्क्रिप्ट टाइपिंग के लिये अक्षरों की स्थिति जानने की कोई समस्या नहीं। फिर भी पता नहीं क्यों मोबाइल बनाने वाले नये नये कीपैडों के प्रयोग में क्यों लगे हुये हैं, जो न मानक हैं, जिनका न सिर पैर है, जिनका न टाइप करने वालों में अभ्यास है, जिसके पीछे न कोई तर्क या वैज्ञानिकता ही है? यदि इस तरह के प्रयोग वैकल्पिक होते तो बात अलग थी, लोग श्रेष्ठ को चुनते, शेष को छोड़ देते। पर इन विचित्र कीबोर्डों का एकमात्र की बोर्ड होना और मानक इन्स्क्रिप्ट कीबोर्डों की अनुपस्थिति हिन्दीजनों के धैर्य को सतत टटोलने जैसे विचित्र कार्य हैं।

वर्तमान में एप्पल और एण्ड्रॉयड में इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड को मानक मान लिया गया है। विण्डो फोन अभी भी अधर में अटके हैं, सारी वर्णमाला एक ओर से लिख कर उसे कीबोर्ड का नाम दे दिया। आश्चर्य तब और होता है कि आज से ६ वर्ष पहले विण्डो के एचटीसी फोन पर इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड उपयोग में लाते थे और ३ वर्ष पहले नोकिया के सी३ फोन पर भी उसी कीबोर्ड का उपयोग किया था। अब दोनों कम्पनी एक हो गयीं और मानक इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड को भूल गयीं। पर्याप्त समय हो चुका है और अब तक सबको यह समझ जाना चाहिये कि हिन्दी का मानक कीबोर्ड क्या है। प्रयोग भी बहुत हो चुके हैं, अब ये प्रयोग बन्द कर मानक कीबोर्ड के संवर्धन पर ध्यान दिया जाये।

स्क्रीन कीबोर्डों के लिये संवर्धन के क्या और होना चाहिये, इस पर अपेक्षाओं की सूची लम्बी है। इनमें से कई आंशिक रूप से उपस्थित भी हैं, पर उनको पूरी तरह से उपयोग करने के लिये पूरी सूची का क्रमवार होना आवश्यक है।

मोबाइल का परिवर्धित इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड
पहला है, नोटपैड और कीबोर्ड की स्पष्टता। इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड की एक पंक्ति में १३ अक्षर होते हैं, यदि ये सारे अक्षर मोबाइल  में या टैबलेट में यथारूप डाल देंगे तो चौड़ाई में अक्षरों का आकार बहुत छोटा हो जायेगा और टाइप करने में बहुत कठिनाई भी होगी। साथ ही साथ पाँच पंक्ति का मानक स्वरूप रखेंगे तो कीबोर्ड का आकार बहुत ऊँचा हो जायेगा और तब नोटपैड पर लिखने के लिये कम स्थान मिलेगा। जहाँ एप्पल के इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड में ४ पंक्तियाँ और एक पंक्ति में अधिकतम ११ अक्षर हैं, वहीं एण्ड्रॉयड में ४ पंक्तियाँ और एक पंक्ति में १२ अक्षर हैं। यही नहीं, एक हाथ में पकड़कर अँगूठे से टाइप करने की सुविधा के लिये मोबाइल की चौड़ाई अँगूठे की लम्बाई से अधिक नहीं होना चाहिये। बहुत बड़ी स्क्रीन के चौड़े मोबाइल मुझे संभवतः इसीलिये नहीं सुहाते और मैं अपने ३.५ इंच की स्क्रीन के आईफोन ४एस से अत्यधिक संतुष्ट हूँ। मुझे लगता है कि बहुत बड़ी स्क्रीन का फ़ोन लेने के क्रम में हम एक हाथ से टाइपिंग की सुविधा खो बैठते हैं। अँगूठे भर की लम्बाई में ११ से अधिक अक्षर बहुत छोटे लगते हैं। बताते चलें कि अंग्रेजी वर्णमाला के लिये एक पंक्ति में केवल १० अक्षर होने से उसका कीपैड कहीं अधिक स्पष्ट दिखता है।

जब कीपैड आये तो स्क्रीन में शेष स्थान यथासंभव खाली रहना चाहिये, जिससे लिखा हुया अधिक और स्पष्ट दिखायी पड़े। साथ ही साथ कीपैड और कर्सर के बीच बहुत अधिक दूरी होगी तो लेखन में असुविधा बढ़ती है। यदि कीपैड आने के पश्चात नोटपैड में कम स्थान यदि बचता भी हो तो कर्सर कीपैड के यथासंभव निकट होने से टाइप होने की असुविधा कम की जा सकती है।

बिना शिफ्ट की के टाइपिंग
स्क्रीन कीपैड में एक और सुविधा है जिससे टाइपिंग की गति बढ़ाई जा सकती है। टाइपिंग में शिफ़्ट की जितनी कम दबाई जाये, उतनी अधिक गति बढ़ जाती है। इन्स्क्रिप्ट कीपैड में आधे अक्षर शिफ़्ट की दबा कर ही आते हैं। सामान्य लेखन में शिफ़्ट की के अक्षरों का प्रयोग एक तिहाई ही है। उसे भी और कम किया जा सकता है। यदि क को तनिक अधिक देर दबाये रखें तो ख आ जाता है। यह समय शिफ़्ट की दबाने से थोड़ा कम होता है। इसी प्रकार न को दबाये रखने से हर वर्ग का पाँचवाँ अक्षर आ जाता है और आप बिना अधिक प्रयास के उसे चुन सकते हैं। इसमें न केवल गति बढ़ जाती है, वरन कई अक्षरों को ढूँढ़ने में अधिक प्रयास भी नहीं करना पड़ता है। बहुत दिनों के अभ्यास के बाद ही यह कह रहा हूँ कि इससे टाइपिंग में शिफ़्ट की न केवल हटाई जा सकती है, वरन चार के स्थान पर तीन पंक्तियों में ही हिन्दी वर्णमाला सीमित की जा सकती है। एक अँगूठे से टाइप करने में यदि सुविधा और भी प्रभावी हो जाती है, भ्रम भी कम हो जाता है और गति भी बढ़ जाती है। इस तथ्य पर तनिक और शोध करके हिन्दी टाइपिंग को और भी सुगम और गतिमय बनाया जा सकता है।

 हिन्दी टाइपिंग में अगली सुविधा है, शब्दकोष के अनुसार शब्दों का विकल्प देना। एण्ड्रॉयड फ़ोनों में जैसे ही आप टाइप करना प्रारम्भ करते हैं, कीपैड के ऊपर संभावित शब्दों के विकल्प आ जाते हैं, उनमें से एक को चुनने से टाइपिंग में लगा शेष श्रम बच जाता है। वहीं दूसरी ओर एप्पल में टाइप करते समय केवल एक ही विकल्प आता है जो कर्सर के साथ ही रहता है। यदि उस समय आपने स्पेस दबा दिया तो वह विकल्प चुन लिया जाता है। तुलनात्मक दृष्टि से यह सुविधा कम लगती है पर इसका एक विशेष पक्ष इसे अत्यधिक उपयोगी बना देता है। एप्पल का विकल्प देने वाला तन्त्र आपसे सतत ही सीखता रहता है और उसी के अनुसार विकल्प देता है। कहने का अर्थ है कि आप जितना अधिक टाइप करेंगे, विकल्प प्रस्तुत करने का तन्त्र उतना ही प्रभावी और सटीक होगा। यही नहीं, छोटी मोटी टाइपिंग की भूलें तो वह स्वतः ही ठीक कर देता है, जिससे आप चाह कर भी कोई भूल नहीं कर सकते हैं। एण्ड्रायड में ऊपर की पंक्ति में विकल्प होने से कीपैड की ऊँचाई बढ़ जाती है, जिससे टाइप करने में तनिक असुविधा होने लगती है। साथ ही साथ अधिक विकल्प की स्थिति न केवल भ्रमित करती है वरन गति भी कम कर देती है।

कीपैड को न केवल मानक शब्दकोष का ज्ञान हो, वरन आपके उपयोग के बारे में जानकारी हो। यही विस्तार व्याकरण के क्षेत्र में भी किया जा सकता है। व्याकरण के नियमों को सीखकर वह अगला संभावित शब्द या शब्द श्रंखला भी सुझा सकता है। यही नहीं स्त्रीलिंग-पुल्लिंग, एकवचन-बहुवचन आदि की वाक्य रचनाओं में की गयी सामान्य भूलों को भी पहचान कर सुधारने में वह आपकी सहायता कर सकता है। इस पक्ष पर अधिक शोध नहीं हुआ है, पर इस पर किया गया श्रम हिन्दी टाइपिंग के लिये एक मील का पत्थर सिद्ध होगा।

अगली सुविधा है, लिखा हुआ पढ़ना। कभी कभी लम्बा लेख लिखने के बाद पढ़ने की इच्छा न हो तो उसे सुन पाने की सुविधा होनी चाहिये। यद्यपि एप्पल में बोलने वाली उतनी स्पष्टता से हिन्दी नहीं बोल पाती है, पर सब समझ में आ जाता है और संपादन भी किया जा सकता है। इस सुविधा को विकसित करने के लिये वर्तनी के नियम, उच्चारण और संयुक्ताक्षर प्रमुख हो जाते है। बहुधा लम्बी कहानियों को भी इसी सुविधा का उपयोग कर मैंने सुना है। यही नहीं सुनने के क्रम में अर्धविराम और पूर्णविराम के महत्व को समझने की शक्ति विकसित हो जाती है, जो कि संवाद के लिये अत्यावश्यक है।

इसी सुविधा से सीधे जुड़ी हुयी सुविधा है, बोला हुआ लिखना। कई भाषाओं में यह सुविधा अत्यधिक विकसित है पर हिन्दी में यह अपने विकास की प्रतीक्षा कर रही है। यदि यह पूरी तरह से संभव हो सका, मोबाइल आधुनिक गणेश का अवतार धर लेंगे। इसी प्रकार हाथ का लिखा पढ़ना भी एक क्षेत्र है जिसमें अधिक कार्य की आवश्यकता है। विण्डो में अंग्रेजी भाषा के लिये इस सुविधा के उपयोग के पश्चात हिन्दी में वह अपेक्षा होना स्वाभाविक ही है। इसके अतिरिक्त एक वृहद शब्दकोष और दूसरी भाषाओं में अनुवाद की सुविधा हिन्दी के लिये आगामी और मूलभूत आवश्यकतायें हैं। हमें मानकीकरण की स्वेच्छा से वांछित अपेक्षाओं तक की लम्बी यात्रा अपने ही पैरों पर चलनी है।

1.1.14

सांस्थानिक समर्थन के उन्नत पक्ष

ब्लॉग के लिये एक आधारभूत ढाँचा तैयार करने और उसके प्रवाह को सुनिश्चित करने के बाद उसके संवर्धन के प्रयास आवश्यक होने चाहिये। ऐसा हो रहा है, पर प्रयास संस्थागत न होकर पूरी तरह से व्यक्तिगत हैं। कुछ ब्लॉगर जिनके अन्दर सहायता करने की प्रवृत्ति रही है, जिन्हें अपने प्रारम्भिक काल में सहायता मिली है, उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति नवागुन्तकों को हर संभव सहायता पहुँचाने की रहती है। यदि यही प्रयास एक सांस्थानिक स्वरूप ले लें तो निश्चय ही ब्लॉग जगत में गुणात्मक परिवर्तन आ जायेंगे।

सामूहिकता और विकास
उत्साहवर्धक, मार्गदर्शक और व्यावसायिक उत्प्रेरक, इन तीन स्तरों को मैं सांस्थानिक समर्थन के उन्नत पक्ष कहता हूँ। उन्नत पक्ष इसलिये क्योंकि इनके होने से ब्लॉग की आयु बढ़ती है। ब्लॉगरों के पिछले दस वर्षों के अनुभव में एक तत्व सदा ही उपस्थित रहा है और उस तत्व ने उनके ब्लॉगिंग के कालखण्ड का निर्धारण किया है। सभी लोग उत्साह के साथ ब्लॉगिंग प्रारम्भ करते हैं, सबके अन्दर अभिव्यक्ति की स्वाभाविक चाह भी होती है, सब चाहते हैं कि पाठक उन्हें पढ़ें भी। प्रारम्भ सदा ही पूरी ऊर्जा के साथ होता है, किसी लम्बी दौड़ की तरह। जैसे जैसे आगे बढ़ते हैं, अपेक्षाओं को समुचित मान नहीं मिल पाता है। संवेदनशील ब्लॉगर इसे एक चुनौती के रूप में लेते हैं और अपने अनुभव का विस्तार करते हैं, विषयगत अध्ययन पर ध्यान देते हैं, अभिव्यक्ति को परिवर्धित करते हैं। कइयों के लिये यह संभव नहीं हो पाता है और तब ये तीन स्तर ब्लॉगिंग के लिये संजीवनी बन जाते हैं।

उत्साहवर्धक की आवश्यकता सबको होती है, शिखर तक पहुँचने में न जाने कितने हाथों का सहारा मिलता है। ब्लॉगजगत में टिप्पणियों को दिये अन्यथा महत्व को लेकर भले ही आलोचकों ने वक्र टिप्पणियाँ की हों, पर मेरे लिये उनका महत्व सदैव विशेष रहा है। प्रारम्भिक पोस्टों में विशेषकर एक एक टिप्पणियों को बड़े ध्यान से पढ़ता था और अभिव्यक्ति के स्तर में किस तरह और सुधार किया जा सकता है, यह जानने के लिये सदा ही लालायित रहता था। संभवतः यही कारण है कि अभी तक उन टिप्पणियों का ऋण कर्तव्य मानकर चुका रहा हूँ। किसी नवागन्तुक के लेख में छिपी भूलों को उजागर करने से कहीं अच्छा होता है उसमें किये गये प्रयास का उत्साहवर्धन करना। उत्साहवर्धन ब्लॉगिंग की अवधि को दुगना कर देता है। साहित्य और ब्लॉगिंग, दोनों में ही मैं भी अधिक अनुभवी नहीं हूँ पर निश्चय ही किसी के प्रयासों को समझना और उनकी प्रशंसा करने को एक मूलभूत कारण अवश्य मानता हूँ, जिसमें ब्लॉगिंग के विकास की अथाह संभावना छिपी है।

मार्गदर्शन उत्साहवर्धन से कहीं अधिक गहरा और व्यवस्थित कार्य है। जहाँ उत्साहवर्धन में किसी व्यक्ति की क्षमताओं का ज्ञान सतही रहता है, मार्गदर्शन में क्षमताओं को सही सही समझना होता है। मार्गदर्शन बड़ा ही व्यक्तिगत कार्य है और वह मार्गदर्शक का समय और ऊर्जा माँगता है। उत्साहवर्धन पीछे से ढकेलने जैसा है, मार्गदर्शन ऊँगली पकड़ कर चलने सा। लिखते रहने की पुकार उत्साहवर्धन है, कुछ विशेष लिखने का परामर्श देना मार्गदर्शन है। उत्साहवर्धन में किसी क्षमता का पूरा दोहन किया जाता है, मार्गदर्शन में क्षमताओं को विशिष्ट व उत्कृष्ट किया जाता है। सांस्थानिक समर्थन का एक अतिविशिष्ट स्तर है, मार्गदर्शन। मार्गदर्शन की क्षमता न केवल विषय के अनुभव से आती है, वरन उसके लिये सामने वाले के व्यक्तित्व का समुचित आकलन भी आवश्यक है।

उत्साहवर्धन और मार्गदर्शन एक स्थान तक ही ले जा पाते हैं, उसके आगे का पंथ लेखक व ब्लॉगर को स्वयं ही नापना होता है। आगे की खोज नितान्त एकान्त है, उत्कृष्टता के सोपान किसी की प्रतिलिपि बनने में नहीं वरन स्वयं को सत्यता से पूर्ण स्थापित करने में है। पर इस राह में एक बाधा है। जब किसी को अपने श्रम और लगन का समुचित मोल नहीं मिलता है, तब उससे लगने लगता है कि उसके प्रयास व्यर्थ ही जा रहे हैं। पाठक आपको एक प्रतिष्ठित लेखक के रूप में जानने लगें, यह निश्चय ही एक महान उपलब्धि है, पर उपलब्धि का वह भाव शुष्क न रह जाये, इसके लिये आवश्यक है कि आपका कार्य आपकी जीविका में आपका हाथ बटाये।

सुदृढ़ और सक्षम
ब्लॉग लेखन में व्यवसाय की संभावना तो दिखी है, पर बहुत अधिक नहीं। बाजारवाद तो यह कहता है कि माँग यदि अधिक हो तो आपूर्ति को सही मूल्य मिलता है। अच्छा साहित्य सब पढ़ना चाहते हैं, अच्छी पुस्तकों के लिये लोग धनव्यय को सम्मान और मानसिक विकास का अंग मानते हैं। परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर भी लेखकों को बाजार के अनुरूप अर्थप्राप्ति नहीं हो पा रही है। सांस्थानिक समर्थन का सर्वाधिक प्रभावी कार्य उस व्यावसायिक उत्प्रेरक के रूप में कार्य करना है, जिससे ब्लॉग स्वतः ही गतिमान बना रहे, सदा के लिये। किन्तु जब तक उस स्थिति तक हम नहीं पहुँच जाते हैं, सांस्थानिक समर्थन को बने रहना होगा। यह कालखण्ड एक दशक तक भी हो सकता है, पर उस पथ पर चलते चलते जब हम स्वावलम्बित हो जायेंगे, हमें हिन्दी की सुदृढ़ स्थिति पर गर्व होगा।

व्यावसायिक उत्प्रेरण ही सांस्थानिक समर्थन के महत प्रयासों का तार्किक निष्कर्ष हो सकता है, तब तक प्रयास की आवश्यकता बनी रहेगी। माता पिता अपने बच्चों को तब तक समर्थन देते रहते हैं, जब तक वे आर्थिक रूप से सक्षम न हो जायें, अपने पैरों पर स्वयं न खड़े हो जायें, अपनी संततियों को समर्थन देने की स्थिति में न पहुँच जायें। हिन्दी के जो पक्ष सक्षम होते जायें, उन्हें विकसित होने के लिये छोड़ दिया जाये। जिन पक्षों को आवश्कता हो, उन पर ध्यान दिया जाये, क्रमवार, एक के बाद एक। अभी जो भी प्रयास हो रहे हैं, उनकी तुलना मैं उस बच्चे से करूँगा जो वयस्क होने का अभिनय कर रहा हो। अभिनय होने तक तो विश्वास बना रहता है, पर जब परिवेश का बोध होता है, यथास्थिति समझ में आ जाती है। 

ब्लॉग लेखन में अधिकतम कितना धन है, इसकी गणना बहुत अधिक कठिन नहीं है। कितनी संभावना है, यह भी कठिन प्रश्न नहीं है। साहित्य के प्रति लगाव नैसर्गिक होता है। सामाजिक ढाँचे में संवाद की प्रमुखता रहती है, मन के भावों को व्यक्त करने में जितना उत्साह होता है, उतना ही उत्साह औरों के भावों को समझने में भी रहता है। हम यदि साहित्य की परम्परागत परिधि में बने रहे तो अपनी संभावनायें सीमित कर बैठेगें। ज्ञान के हर संभावित क्षेत्र में ब्लॉग की अभिव्यक्ति ले जाने के क्रम में न केवल ब्लॉग के लिये व्यावसायिकता के सूत्र मिलने लगेंगे, वरन साहित्य को भी अपना विस्तार दिखने लगेगा। सामान्य जन से जुड़ी विज्ञान की बातें साहित्य का विषय क्यों नहीं हो सकती, इतिहास से समझी गयी शासकों की भूलें साहित्य का अंग क्यों नहीं बन सकतीं। जब हम ज्ञान को विभागों में बाटने लगते हैं, हम यह मान बैठते हैं कि उनमें परस्पर कोई संबंध है ही नहीं, जबकि हमारे मस्तिष्क में ज्ञान का एकीकृत स्वरूप ही रहता है। उसी रूप में सृजन हो, उसी रूप में वह ग्रहण हो, उसी रूप में संवाद हो, वही साहित्य हो।

ब्लॉग को यदि विषयगत विस्तार मिलेगा तो व्यावसायिक संभावनायें स्वतः ही सिद्ध हो जायेंगी। ब्लॉग में अभी जितना भी धन है वह प्रचार के रूप में है, पर ब्लॉगतन्त्र में प्रचार कितना धन बटोर पायेगा, यह एक यक्ष प्रश्न है। वह धन क्या सांस्थानिक समर्थन के लिये या स्वावलम्बन के लिये पर्याप्त होगा, यह भी विचारणीय है। जब प्रचार केन्द्र में हो तो गुणवत्ता से अधिक संख्या महत्वपूर्ण हो जाती है। प्रचार पर पूर्णतया निर्भर रहने से गुणवत्ता से कैसे समझौते करने होंगे? केन्द्रबिन्दु तब सृजन न होकर पाठकों की रुचि हो जायेगी, बाजारवाद तब गुणवत्ता को प्रभावित करने लगेगा। इन स्थितियों में व्यावसायिक उत्प्रेरक का स्वरूप ऐसा हो जो न केवल आत्मनिर्भर हो, वरन उसकी जड़ें साहित्य की धरती में ही हों, न कि प्रचार के अस्थिर आसमान में।

प्रश्न अनुत्तरित हैं, पर आशान्वित हैं, हिन्दी के सुधीजन और प्रेमीजन उत्तर लेकर अवश्य आयेंगे।

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