एक वर्ष पहले तक मुझे भी यह तथ्य पता नहीं था, हो सकता है आप में से बहुतों को भी यह तथ्य पता न हो। कारण हमारी जिज्ञासा में नहीं होगा, कारण इतिहास के प्रारूप में है। इतिहास सम्राटों के उत्कर्ष तो बताता है, उनका संक्रमण काल भी लिख देता है, हो सके तो स्थायित्व काल में हुये सांस्कृतिक और सामाजिक उन्नति को स्थान भी दे देता है, पर शिखर पर बैठे व्यक्तित्व के मन में क्या चल रहा है इतिहास कहाँ जान पाता है उस बारे में? इतिहास तथ्यों और तिथियों में इतना उलझ जाता है कि उसे सम्राटों के निर्णयों के अतिरिक्त कुछ सोचने की सुध ही नहीं रहती है। उन निर्णयों के पीछे क्या चिन्तन प्रक्रिया रही होगी, क्या मानसिकता रही होगी, इसका पता इतिहास के अध्ययनकर्ताओं को नहीं चल पाता है।
ऐसा ही एक अनुभव मुझे एक वर्ष पहले हुआ, जब मैं श्रवणबेलागोला गया। श्रवणबेलागोला गोमतेश्वर की विशाल प्रतिमा के लिये प्रसिद्ध है और जैन मतावलम्बियों के लिये अत्यन्त पवित्र तीर्थ स्थान है। बंगलोर से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर स्थित यह स्थान अपने अन्दर इतिहास का एक और तथ्य छिपाये है जो गोमतेश्वर के सामने वाली पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ पर चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने प्राण त्यागे थे।
सम्राटों की मृत्यु उनकी सन्ततियों के लिये राज्यारोहण का समय होता है। अतः स्वाभाविक ही है कि उस समय इतिहास का सारा ध्यान नये राजाओं पर ही रहता है। मृत्यु वैसे भी इतिहास के लिये महत्वपूर्ण या आकर्षक घटना नहीं होती है, यदि वह अत्यन्त अस्वाभाविक न हो। चन्द्रगुप्त की मृत्यु भी इतिहास का ऐसा ही बिसराया अध्याय है। संभवतः मेरे लिये भी सामान्य ज्ञान बन कर रह जाता, इतिहास का यह बिसराया तथ्य यदि उसमें तीन रोचक विमायें न जुड़ी होतीं।
पहली, चन्द्रगुप्त की मृत्यु मात्र ४२ वर्ष में हुयी। दूसरी, मृत्यु के समय वह एक जैन सन्त हो चुके थे। तीसरी, उनकी मृत्यु स्वैच्छिक थी और आहार त्याग देने के कारण हुयी थी।
ये तथ्य जितने रोचक हैं, उससे भी अधिक आश्चर्य उत्पन्न करने वाले भी। ये तथ्य जब चन्द्रगुप्त के शेष जीवन से जुड़ जाते हैं तो चन्द्रगुप्त के जीवन में कुछ भी सामान्य शेष रहता ही नहीं है। बचपन में चरवाहा, यौवन में सम्राट और मृत्यु जैन सन्तों सी। जन्म पाटलिपुत्र में, अध्ययन व कार्यक्षेत्र गान्धार में, सम्राट देश भर के और मृत्यु कर्नाटक के श्रवणबेलागोला में। चन्द्रगुप्त का आरोह, विस्तार और अवरोह, सभी आश्चर्य के विषय हैं। यह सत्य है कि उन्हें गढ़ने में चाणक्य का वृहद योगदान रहा, पर उस उत्तरदायित्व का निर्वहन कभी भी सामान्य नहीं रहा होगा।
जब मैं सामने की पहाड़ी में चन्द्रगुप्त के समाधिस्थल को देख रहा था, मेरे मन में तिथियों की गणना चल रही थी। चन्द्रगुप्त २० वर्ष की आयु में भारत का सम्राट बन गया था, २२ वर्षों के शासनकाल में प्रारम्भिक ५ वर्ष विस्तार और स्थायित्व के प्रयासों में बीते होंगे। १५-१६ वर्ष का ही स्थिर शासन रहा होगा। तब क्या हुआ होगा कि चन्द्रगुप्त सारा राज्य अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंप कर ४२ वर्ष की आयु में न केवल जैन सन्त बन गये वरन निराहार कर स्वैच्छिक मृत्यु का वरण कर लिये। इतिहास के अध्याय इस विषय पर मुख्यतः मौन ही दिखे। जिसने सारा जीवन संघर्षों में काटा हो, जो उत्कर्षों को उसके निष्कर्षों तक छूकर आया हो, जिसने विस्तारों को उनकी सीमाओं तक पहुँचा कर आया हो, उसका असमय अवसान इतिहास की उत्सुकता का विषय ही नहीं?
मैं भी अगले वर्ष ४२ का हो जाऊँगा। एक ४२ वर्ष के वयस्क के रूप में चन्द्रगुप्त को स्वेच्छा से मृत्यु वरण करते देखता हूँ तो चिन्तनमग्न हो जाता हूँ। चिन्तन इस बात का नहीं था कि चन्द्रगुप्त कि मृत्यु किस प्रकार हुयी, चिन्तन इस बात का था कि ४२ वर्ष की आयु में ऐसा क्या हो गया कि चन्द्रगुप्त जैसा सम्राट अवसानोन्मुख हो गया। न कोई नैराश्य था, न पुत्रों में शासन पाने की व्यग्रता, न कहीं गृहयुद्ध, न कहीं कोई व्यवधान, तब क्या कारण रहा इस निर्णय का? आजकल की राजनीति देखता हूँ तो ४२ वर्ष तो प्रारम्भ की आयु मानी जाती है। ५० वर्ष के पहले तो वानप्रस्थ आश्रम का भी प्रावधान नहीं रहा है, उसके बाद सन्यास आश्रम, तब कहीं जाकर मृत्यु और वह भी स्वाभाविक।
इतिहासविदों ने भले ही चन्द्रगुप्त पर कितना ही लिखा हो पर इन तथ्यों पर जैसे ही विचार करना प्रारम्भ करता हूँ, चन्द्रगुप्त कहीं खोया हुआ सा लगता है। ऐसा लगता ही नहीं कि हम चन्द्रगुप्त के सारे पक्षों को समझ पाये हैं, ऐसा लगता ही नहीं कि सम्राट के मन में चल रहे विचारक्रम को हम समझ पाये हैं, ऐसा लगता ही नहीं कि हम इतिहास के इस महत्वपूर्ण कालखण्ड को समझ पाये। इतिहास तो सदा ही हड़बड़ी में रहता है, उसे न जाने कितने और कालखण्ड समेटने होते हैं, पर चन्द्रगुप्त हमारे गौरव का प्रतीक रहा है, हमें यह अधिकार है कि हम उसके बारे में और अधिक जाने।
चन्द्रगुप्त के व्यक्तित्व ने सदा मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित किया है। जीवन यात्रा कितनी उपलब्धिपूर्ण हो सकती है, कितनी सार्थक हो सकती है, कितने आयाम माप सकती है, यह चन्द्रगुप्त का जीवन बता जाता है। श्रवणबेलागोला में शिला सा शान्त बैठा चन्द्रगुप्त पर मेरी समझ को भ्रमित कर देता है। वहाँ से आये लगभग एक वर्ष हो गया, मेरे प्रश्न को न ही कोई ऐतिहासिक उत्तर मिल पाया है और न ही कोई आध्यात्मिक उत्तर मिल पाया है। ४२ वर्ष की आयु में भला जीवन का कितना गाढ़ापन जी लिया कि चन्द्रगुप्त विरक्तिमना हो गये।
जहाँ कुछ राजकुलों का जीवन लोभ और लोलुपता से सना दिखता है, भाईयों के रक्त से सना दिखता है, पिताओं के अपमान से दग्ध दिखता है, चन्द्रगुप्त का न केवल जीवन अभिभूत करता है, वरन उसकी मृत्यु भी आश्चर्यकृत कर जाती है।
मेरे प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं, मुझे प्रभावित करने वाले व्यक्तित्व का जीवनक्रम आज भी मेरी बुद्धि के क्षमताओं की परिधि तोड़कर गोमतेश्वर की महान प्रतिमा के सम्मुख शिला रूप धर शान्त बैठा है। वह अब कुछ भी बताने से रहा। मैं भी ४२ वर्ष का हो जाऊँगा, मुझे भी अनुभवजन्य उत्तर नहीं सूझते हैं। मेरा आदर्श मुझे अपने हाथ से छूटता हुआ सा प्रतीत होता है, चन्द्रगुप्त इतिहास के पन्नों से सरकता हुआ सा लगता है, सम्राट की व्यक्तिगत चिन्तन प्रक्रिया खोयी सी लगती है।
मुझे मेरा खोया चन्द्रगुप्त चाहिये।
ऐसा ही एक अनुभव मुझे एक वर्ष पहले हुआ, जब मैं श्रवणबेलागोला गया। श्रवणबेलागोला गोमतेश्वर की विशाल प्रतिमा के लिये प्रसिद्ध है और जैन मतावलम्बियों के लिये अत्यन्त पवित्र तीर्थ स्थान है। बंगलोर से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर स्थित यह स्थान अपने अन्दर इतिहास का एक और तथ्य छिपाये है जो गोमतेश्वर के सामने वाली पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ पर चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने प्राण त्यागे थे।
सम्राटों की मृत्यु उनकी सन्ततियों के लिये राज्यारोहण का समय होता है। अतः स्वाभाविक ही है कि उस समय इतिहास का सारा ध्यान नये राजाओं पर ही रहता है। मृत्यु वैसे भी इतिहास के लिये महत्वपूर्ण या आकर्षक घटना नहीं होती है, यदि वह अत्यन्त अस्वाभाविक न हो। चन्द्रगुप्त की मृत्यु भी इतिहास का ऐसा ही बिसराया अध्याय है। संभवतः मेरे लिये भी सामान्य ज्ञान बन कर रह जाता, इतिहास का यह बिसराया तथ्य यदि उसमें तीन रोचक विमायें न जुड़ी होतीं।
पहली, चन्द्रगुप्त की मृत्यु मात्र ४२ वर्ष में हुयी। दूसरी, मृत्यु के समय वह एक जैन सन्त हो चुके थे। तीसरी, उनकी मृत्यु स्वैच्छिक थी और आहार त्याग देने के कारण हुयी थी।
सम्राट चन्द्रगुप्त |
जब मैं सामने की पहाड़ी में चन्द्रगुप्त के समाधिस्थल को देख रहा था, मेरे मन में तिथियों की गणना चल रही थी। चन्द्रगुप्त २० वर्ष की आयु में भारत का सम्राट बन गया था, २२ वर्षों के शासनकाल में प्रारम्भिक ५ वर्ष विस्तार और स्थायित्व के प्रयासों में बीते होंगे। १५-१६ वर्ष का ही स्थिर शासन रहा होगा। तब क्या हुआ होगा कि चन्द्रगुप्त सारा राज्य अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंप कर ४२ वर्ष की आयु में न केवल जैन सन्त बन गये वरन निराहार कर स्वैच्छिक मृत्यु का वरण कर लिये। इतिहास के अध्याय इस विषय पर मुख्यतः मौन ही दिखे। जिसने सारा जीवन संघर्षों में काटा हो, जो उत्कर्षों को उसके निष्कर्षों तक छूकर आया हो, जिसने विस्तारों को उनकी सीमाओं तक पहुँचा कर आया हो, उसका असमय अवसान इतिहास की उत्सुकता का विषय ही नहीं?
मैं भी अगले वर्ष ४२ का हो जाऊँगा। एक ४२ वर्ष के वयस्क के रूप में चन्द्रगुप्त को स्वेच्छा से मृत्यु वरण करते देखता हूँ तो चिन्तनमग्न हो जाता हूँ। चिन्तन इस बात का नहीं था कि चन्द्रगुप्त कि मृत्यु किस प्रकार हुयी, चिन्तन इस बात का था कि ४२ वर्ष की आयु में ऐसा क्या हो गया कि चन्द्रगुप्त जैसा सम्राट अवसानोन्मुख हो गया। न कोई नैराश्य था, न पुत्रों में शासन पाने की व्यग्रता, न कहीं गृहयुद्ध, न कहीं कोई व्यवधान, तब क्या कारण रहा इस निर्णय का? आजकल की राजनीति देखता हूँ तो ४२ वर्ष तो प्रारम्भ की आयु मानी जाती है। ५० वर्ष के पहले तो वानप्रस्थ आश्रम का भी प्रावधान नहीं रहा है, उसके बाद सन्यास आश्रम, तब कहीं जाकर मृत्यु और वह भी स्वाभाविक।
शान्तचित्त वह चन्द्रगिरि में |
चन्द्रगुप्त के व्यक्तित्व ने सदा मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित किया है। जीवन यात्रा कितनी उपलब्धिपूर्ण हो सकती है, कितनी सार्थक हो सकती है, कितने आयाम माप सकती है, यह चन्द्रगुप्त का जीवन बता जाता है। श्रवणबेलागोला में शिला सा शान्त बैठा चन्द्रगुप्त पर मेरी समझ को भ्रमित कर देता है। वहाँ से आये लगभग एक वर्ष हो गया, मेरे प्रश्न को न ही कोई ऐतिहासिक उत्तर मिल पाया है और न ही कोई आध्यात्मिक उत्तर मिल पाया है। ४२ वर्ष की आयु में भला जीवन का कितना गाढ़ापन जी लिया कि चन्द्रगुप्त विरक्तिमना हो गये।
जहाँ कुछ राजकुलों का जीवन लोभ और लोलुपता से सना दिखता है, भाईयों के रक्त से सना दिखता है, पिताओं के अपमान से दग्ध दिखता है, चन्द्रगुप्त का न केवल जीवन अभिभूत करता है, वरन उसकी मृत्यु भी आश्चर्यकृत कर जाती है।
मेरे प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं, मुझे प्रभावित करने वाले व्यक्तित्व का जीवनक्रम आज भी मेरी बुद्धि के क्षमताओं की परिधि तोड़कर गोमतेश्वर की महान प्रतिमा के सम्मुख शिला रूप धर शान्त बैठा है। वह अब कुछ भी बताने से रहा। मैं भी ४२ वर्ष का हो जाऊँगा, मुझे भी अनुभवजन्य उत्तर नहीं सूझते हैं। मेरा आदर्श मुझे अपने हाथ से छूटता हुआ सा प्रतीत होता है, चन्द्रगुप्त इतिहास के पन्नों से सरकता हुआ सा लगता है, सम्राट की व्यक्तिगत चिन्तन प्रक्रिया खोयी सी लगती है।
मुझे मेरा खोया चन्द्रगुप्त चाहिये।
पहली, चन्द्रगुप्त की मृत्यु मात्र ४२ वर्ष में हुयी। दूसरी, मृत्यु के समय वह एक जैन सन्त हो चुके थे। तीसरी, उनकी मृत्यु स्वैच्छिक थी और आहार त्याग देने के कारण हुयी थी।
ReplyDeleteसम्राट चन्द्रगुप्त
ये तथ्य जितने रोचक हैं, उससे भी अधिक आश्चर्य उत्पन्न करने वाले भी। ये तथ्य जब चन्द्रगुप्त के शेष जीवन से जुड़ जाते हैं तो चन्द्रगुप्त के जीवन में कुछ भी सामान्य शेष रहता ही नहीं है। बचपन में चरवाहा, यौवन में सम्राट और मृत्यु जैन सन्तों सी। जन्म पाटलिपुत्र में, अध्ययन व कार्यक्षेत्र गान्धार में, सम्राट देश भर के और मृत्यु कर्नाटक के श्रवणबेलागोला में। चन्द्रगुप्त का आरोह, विस्तार और अवरोह, सभी आश्चर्य के विषय हैं। यह सत्य है कि उन्हें गढ़ने में चाणक्य का वृहद योगदान रहा, पर उस उत्तरदायित्व का निर्वहन कभी भी सामान्य नहीं रहा होगा।
प्रभु इस इच्छा मृत्यु को असमय मृत्यु कैसे कहा जा सकता है। जैन साधु स्वेच्छया ही शरीर छोड़ते हैं। साधना का यह उत्कर्ष बिंदु है।
इतिहास साक्षी है गौतम बुद्ध भी सब कुछ छोड़कर चले गए थे। शंकराचार्य भी अल्पकाल में ही शरीर से मुक्त हो गए थे।
इस कड़ी में विवाकानंद भी हैं जो अल्पायु में शरीर छोड़ गए थे ...
Deleteविवेकानंद ...
DeleteChandragupta’s Conversion to Jainism and Death:
ReplyDeleteWhen he was in his fifties, Chandragupta became fascinated with Jainism, an extremely ascetic belief system. His guru was the Jain saint Bhadrabahu.
In 298 BCE, the emperor renounced his rule, handing over power to his son Bindusara. Chandragupta traveled south to a cave at Shravanabelogola, now in Karntaka. There, the founder of the Mauryan Empire meditated without eating or drinking for five weeks, until he died of starvation. This practice is called sallekhana or santhara.
Traditionally, Chandragupta was influenced to accept Jainism by the sage Bhadrabahu I, who predicted the onset of a 12-year famine. When the famine came, Chandragupta made efforts to counter it, but, dejected by the tragic conditions prevailing, he left to spend his last days in the service of Bhadrabahu at Shravana Belgola, a famous religious site in southwest India, where Chandragupta fasted to death.
ReplyDelete
ReplyDeleteChandragupta Maurya died from not eating enough food. He was a monk, so his religious beliefs were far more important than eating.
एक गौरवशाली व्यक्तित्व पर सार्थक चिंतन से उठे अनुत्तरित प्रश्न ....बहुधा अति भक्ति से भी विरक्ति उत्पन्न हो जाती है ...अल्पायु मे ही सब अनुभूत कर लेने से मानव सुलभ जिज्ञासा शांत होने लगती है ....किन्तु उत्तर पाने की इच्छा प्रबल हो ,उत्तर मिलते ज़रूर हैं ...ज्ञानवर्धक विचारपरख आलेख ....!!बहुत सुंदर लिखा है ...!!
ReplyDeleteएक बात तो साफ़ :जब जीवन में सतोगुण बढ़ जाता है व्यक्ति निष्पृह निष्काम हो जाता है। उत्प्रेरण कहीं से भी सहज ही चला आता है।हो सकता है दुर्भिक्ष की परिस्थितियां उत्प्रेरण बनी हों जिसका समाधान चन्द्र गुप्त नहीं कर सके।
ReplyDeleteपूर्व जन्म के संस्कार और भोगना भी अपना रोल प्ले करते हैं। आखिर व्यक्ति एक प्रारब्ध लिए आता है जिस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता है। वह प्रारब्ध कोई नहीं बदल सकता। अलबत्ता हर जन्म में व्यक्ति को स्वेच्छया कर्म करने चिंतन करने की स्वतत्त्र्ता भी होती है। उसका एक स्वभाव बनता है जो तीनों गुणों में से प्राबल्य वाला गुण तय करता है। यह स्वभाव गुणों में से गुण विशेष की प्रबलता के अनुरूप जीवन भर भी बदलता रह सकता है।
सतो ,राजो और तमो गुण हर प्राणी में होते हैं जिस समय जिस गुण का प्राबल्य होता है व्यक्ति का स्वभाव उसी के अनुरूप हो जाता है। गुण ही करता हैं कर्म व्यक्ति कुछ नहीं करता है यह तो जब अहंकार आता है व्यक्ति में तब यही क्रिया कर्म बनती है।
ये याद पड़ता है कि कहीं इतिहास में ये पढ़ा था कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने शाशन त्याग कर संन्यास ले लिया, लेकिन इससे मैं अनभिज्ञ था कि ४२ वर्ष की आयु में, जैन धर्म में, स्वेक्षा से प्राण त्यागे थे, और ये कि यह श्रवणबेलागोला में हुआ था. निष्कर्ष उचित है कि मौर्य के जीवन के आरम्भ के अलावा कुछ भी सामान्य नहीं बचता, और प्रश्न भी उचित है कि ऐसा क्या था ईरान तक जाकर सेल्युकस को परास्त करने वाला इतनी कम आयु में न केवल विरक्त हो कर शाशन त्यागे वरन श्रवणबेलागोला आकर स्वेक्षा से प्राण त्यागे! ये इतिहास की समझ का अधूरापन अखरता तो है.
ReplyDeletebahut badhiya prastuti....
ReplyDeleteरोचक और जिज्ञासा बढाने वाला लेख ... कई तथ्य आज ही पता चले या कभी पढ़े होंगे तो विस्मृत थे ...
ReplyDeleteशायद कभी इतिहास इस बात पे दृष्टि डाले ...
मेरे अनुभव से तो यही कह सकता हूँ कि उनकी भूख दूसरी प्रकार की थी, जिसे समझना बहुत कठिन है, समझने के लिये उतनी ही गहराई में उतरना होगा ।
ReplyDeleteसच में जिज्ञासा का कारक है ये घटना क्रम . साधुवाद इस पर प्रश्न उठाने के लिए . उत्तर मिल जाय तो , शायद नही मिले .
ReplyDeleteमन में कई विचार जगाता लेख ......इतना जानकर चन्द्रगुप्त के विषय में और जानने की उत्कंठा जन्मी है ....
ReplyDelete
ReplyDeleteइतिहास को समेटे हुए,बहुत ही खूबसूरत आलेख.
चन्द्रगुप्त ने जीवन की दोनों सीमाओं को जिया,
निष्ठा से जिया होगा,तभी वे जीवन की सर्थकता-निर्थकता
का मूल्यांकन कर सके,और स्वएच्छिक म्रुत्यु को वरण किया.
आज तो आपने मेरी रूचि की पोस्ट लिख दी। सबसे पहले तो इसके लिए आभार।
ReplyDeleteअब बात चन्द्रगुप्त की। तथ्य क्या रहे ये तो पता नहीं परन्तु अपनी समझ के घोड़े दौड़ाती हूँ तो लगता है कि चन्द्रगुप्त में अल्पायु में ही बहुत कुछ देखा, भोगा और पाया भी. तो जाहिर है यह सब हुआ भी बेहद त्वरित गति से होगा और शायद इसिलए थोड़ी स्थिरता आते ही उनका मन अध्यात्म की और मुड़ा होगा जिसने उन्हें जैन संत बनाया और जैन संत का इच्छित मृत्यु का वरण करना तो सर्वज्ञात ही है.
अह हा कितना अच्छा लगता है न इतिहास को कुरेद कर उसपर चिंतन करना।
.ज्ञानवर्धक विचारपरख आलेख ....!
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा है ...!
इंतज़ार रहेगा
अगर आपको जबाब मिल जाए तो हम भी जान पाएंगे
बिहार में आये एक नेता को ये पता नहीं कि चन्द्रगुप्त किस वंश के थे
हार्दिक शुभकामनायें
मेरे लिए नयी जानकारी !बहुत कुछ ऐसा ही उथल पुथल मेरे मन में हो रहा है इन दिनों -लगता है जीवन की समग्रता उम्र के बंधनों से नहीं जुडी है -कुछ लोगों का जीवन चरित लम्बी उम्र का मुहताज नहीं रहा -उन्होंने एक छोटे से कालक्रम के स्केल पर बहुत कुछ अर्जित कर लिया। साध्य प्राप्य सब कुछ ! शंकराचार्य ,विवेकानंद आदि फिर उनके रहने का कोई अर्थ ही नहीं था !
ReplyDeleteचन्द्रगुप्त के शासन-काल को "स्वर्ण-युग " कहा जाता है । चन्द्रगुप्त तो बचपन से ही असाधारण बालक था तभी तो चाणक्य ने सम्राट हेतु उसका चयन किया । वैसे जितने भी महापुरुष हुए हैं अधिकतर अल्पायु ही हुए हैं, चाहे वे विवेकानन्द हों दयानन्द हों गौतम बुध्द हों या फिर शंकराचार्य । वैसे जीवन को लम्बाई से नहीं मापा जाना चाहिए, इसे गहराई से मापा जाना चाहिए । प्रवीण जी ! बार-बार मैं 42 वर्ष का हो गया कहकर आप क्या सम्प्रेषित करना चाहते हैं ?
ReplyDeleteज्यादातर सम्राटों का जीवन काल अल्प ही रहा है. स्वैच्छिक रूप से अन्न जल त्याग कर शरीर त्यागने को जैनिज्म में संथारा लेना कहते हैं. आजकल भी जैन मुनियों द्वारा संथारा लेने की ऐसे प्रकरण यदा कदा सामने आते रहे हैं. सुंदर चिंतन.
ReplyDeleteरामराम.
हम से तो बहुत बड़ी चूक हो गयी। हम भी कुछ वर्ष पूर्व श्रवणबेलगोला गए थे लेकिन वहाँ चन्द्रगुप्त की समाधि है यह विदित ही नहीं था। आपके लेख से अब पछतावा हो रहा है कि हमसे कितनी बड़ी चूक हो गयी थी। रहा प्रश्न देहत्याग का तो वह काल ही तपस्या का काल था, जितने भी तीर्थंकर हुए हैं सभी युवावस्था में तपस्या करने चले गए थे और उन्होंने फिर मोक्ष प्राप्त किया। वर्तमान में ही हम भौतिकता से अधिक चिपके हैं। जब 80 वर्ष के लोग भी टिकट की लाइन में लगे हैं।
ReplyDeleteज्ञान और अध्यात्म, वैराग्य उत्पन्न करते हैं! ज्ञान प्राप्ति के बाद सांसारिक विषय-वस्तुओं से मोह ख़तम हो जाता है! व्यक्ति सब कुछ त्याग देता है - धन भी , परिवार भी और प्राण भी! ----आपको आपका "चन्द्रगुप्त" चाहिए , ये आपके अंदर के "मोह" को दर्शा रहा है,जो कि एक शुभ संकेत है! जब आप "वैराग्योन्मुख" होंगे तब आपको आपके प्रश्न का उत्तर स्वतः मिल जाएगा !
ReplyDeleteव्यक्तिगत रूप से आहत सम्राट ही ऐसा कदम उठा सकता है ! शायद उस समय के लेखक इसे लिपिबद्ध करने का साहस ही न जुटा पाए हों !
ReplyDeleteनयी जानकारी थी मेरे लिए...पर शायद चन्द्रगुप्त ने सब कुछ पा लिया था , कुछ और पाने की इच्छा शेष नहीं रही...और जो कर्मयोगी रहा हो...कुछ प्राप्त करने के लिए सदा प्रयासरत रहा हो ,सब कुछ अर्जित कर लेने के बाद उनका वैराग्य की तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक है...और अपनी मुक्ति की ये राह चुनी उन्होंने.
ReplyDeleteनयी जानकारी....
ReplyDeleteएकदम नए तथ्य हैं ये । खास तौर पर सम्राट का अवसान स्थल और जैन धर्मावलम्बन । यदि धर्म की शरण में आने की कल्पना होती भी तो बौद्ध धर्म की ही होती । लेकिन इतनी कम आयु में वैराग्य होना चौंकाने वाला तथ्य है । इस बार हम भी प्रयास करेंगे वहाँ जाने का ।
ReplyDeleteउन निर्णयों के पीछे क्या चिन्तन प्रक्रिया रही होगी, क्या मानसिकता रही होगी, इसका पता इतिहास के अध्ययनकर्ताओं को नहीं चल पाता है।
ReplyDelete@ बहुत शानदार बात कही, दरअसल इस सम्बन्ध में कोई इतिहासकार लिखने की जहमत भी नहीं उठता !
चंद्रगुप्त मौर्य पर इतने प्रभावशाली व ज्ञान वर्धक लेख साझा करने हेतु आभार ।वस्तुतः पिछले वर्ष आपकी श्रवणबेलगोला की ट्रिप के उपरांत आप द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य पर की चर्चा से प्रभावित होकर चंद्रगुप्त पर थोड़ा और अध्ययन और कुछ वर्ष पहले इमैजिन टीवी पर प्रसारित सीरियल चंद्रगुप्त मौर्य के सारे इपिसोड, जो यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं, देखा ।सचमुच अप्रतिम व विलक्षण व्यक्तित्व था चंद्रगुप्त मौर्य का ।सच कहें तो हमारे आधुनिक इतिहास कारों ने हमारे भारतीय नायकों को इतिहास में वह स्थान नहीं दिया ,जैसे चंद्रगुप्त मौर्य और उनके पाँच सौ वर्ष बाद हुए एक और महान नायक समुद्र गुप्त ,जिसके वे हकदार थे ।पतानहीं इसका कोई राजनीतिक कारण रहा है अथवा हमारे इतिहास कारों, जो कि एक लॉबी बनाकर कार्य करती रही है, कि आत्महीनता की प्रवृत्ति।
ReplyDeleteचंद्रगुप्त मौर्य पर इतने प्रभावशाली व ज्ञान वर्धक लेख साझा करने हेतु आभार ।वस्तुतः पिछले वर्ष आपकी श्रवणबेलगोला की ट्रिप के उपरांत आप द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य पर की चर्चा से प्रभावित होकर चंद्रगुप्त पर थोड़ा और अध्ययन और कुछ वर्ष पहले इमैजिन टीवी पर प्रसारित सीरियल चंद्रगुप्त मौर्य के सारे इपिसोड, जो यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं, देखा ।सचमुच अप्रतिम व विलक्षण व्यक्तित्व था चंद्रगुप्त मौर्य का ।सच कहें तो हमारे आधुनिक इतिहास कारों ने हमारे भारतीय नायकों को इतिहास में वह स्थान नहीं दिया ,जैसे चंद्रगुप्त मौर्य और उनके पाँच सौ वर्ष बाद हुए एक और महान नायक समुद्र गुप्त ,जिसके वे हकदार थे ।पतानहीं इसका कोई राजनीतिक कारण रहा है अथवा हमारे इतिहास कारों, जो कि एक लॉबी बनाकर कार्य करती रही है, कि आत्महीनता की प्रवृत्ति।
ReplyDeleteतथ्यगत चिन्तन सार्थक व्यक्तित्व पर नमन
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर आलेख तथ्यगत दृष्टि से भी और चिंतन प्रक्रिया की दृष्टि से भी...
ReplyDeleteहम सब को अपने उत्तर स्वयं तराशने और तलाशने होते हैं और मननशीलता एक रोज़ सारे उत्तर प्रगट कर ही देती है!
हर दृष्टि से सारगर्भित संग्रहणीय आलेख!
आभार!
चन्द्रगुप् मौर्या से सम्बंधित रोचक और आश्चर्यजनक तथ्य! समय तेजी से भाग रहा है मगर वर्त्तमान समय में उम्र लम्बा पड़ाव नहीं लगती !
ReplyDeleteजीते जी निरन्तर जीवन-मृत्यु के दर्शन का संधान करनेवाले बहुत कम होते हैं। इनमें एक चन्द्रगुप्त भी था। चन्द्रगुप्त के बाबत तो आपने आदर्श जिज्ञासा प्रकट कर दी। हो सकता है कुछ और लोगों ने अपने मन में चन्द्रगुप्त के बारे में यही जिज्ञासा प्रकट की हो! परन्तु आज के ठोस वैज्ञानिक-केन्द्रित युग में ऐसे जीवन-मृत्यु का दर्शन रखनेवाला लोगों के लिए बेवकूफ व घमण्डी होता है। लोग सोचते हैं यह हंसता नहीं है, सामूहिक कर्म में समाजानुकूल प्रतिभागिता नहीं करता है तो यह गैर-जिम्मेदार है। परन्तु ऐसा नहीं है। दर्शन में रमे रहस्यवादियों के अन्दर-ही-अन्दर एक शान्त क्रान्ति घटित हो रही होती है। शायक ऐसी ही किसी क्रान्ति की पराकाष्ठा ने चन्द्रगुप्त को सन्तत्व स्वीकार करने को बाध्य किया हो! मेरा प्रयास आपकी जिज्ञासा शान्ति हेतु है।
ReplyDeleteमेरे लिये सर्वथा एक नयी जानकारी है।
ReplyDeleteरोचक संस्मरण।
ReplyDeleteयह प्यास उठनी ही चाहिए। आपकी तलाश आपके भीतर ही पूरी होगी। अंतर्यात्रा पर निकलें।
ज़िन्दगी लम्बी नहीं बड़ी हों चाहिए...चन्द्रगुप्त ने सब कुछ अल्प समय में पा लिया...
ReplyDeleteजीने में और जी लेने में बहुत अंतर होता है ।
ReplyDeleteश्री सुरेश दुबेजी का ईमेल से प्राप्त
ReplyDeleteश्री पाण्डेय जी,
बड़ा ही हृदयस्पर्शी वर्णन आपने चन्द्रगुप्त मौर्य का किया। यह आप जैसे साहित्यकार के ही वश की बात है। आप जानते ही है कि साहित्य ही आगे चलकर इतिहास के निर्माण में सहायक होता है। शायद ही वर्षों बाद किसी की दृष्टि इस महानायक पर पड़ी और उनके इतनी कम उम्र में स्वेच्छा से प्राण त्यागने के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। हाॅं, अद्यतन धारावाहिक चन्द्रगुप्त में भी इस महापुरूष को जानने का सुअवसर प्रदान किया। परन्तु, उनके श्रवणबेलगोला की कथा किस प्रकार इस धारावाहिक में दिखायी गयी, यह मुझे मालुम नही । चन्द्रगुप्त के बारे में इतिहास के पन्नों से कुछ जानकारी मिली।
प्राचीन साहित्य में भी इनके बारे में कुछ जानकारी प्राप्त होती है। इनमें बौद्ध एवं जैन साहित्य प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त ग्रीक लेखकों ने भी चन्द्रगुप्त के बारे में वर्णन किया है। चन्द्रगुप्त का एक विवाह ग्रीक सेनापति सेल्यूकस की पुत्री के साथ भी हुआ था। यह एक कूटनीतिक सम्बन्ध था। कदाचित भारतीय इतिहास में यह पहला अन्तर्राष्ट्रीय विवाह था। यही नही, तत्पश्चात एक यूनानी राजदूत मेगस्थनीज भी भारतीय राजधानी में आकर रहने लगा। इस प्रकार एक विदेश के साथ भारतवर्ष का कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित हुआ जो चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारियों के शासन काल में भी कायम रहा। उसके पुत्र बिन्दुसार ने भी चाणक्य के मार्गदर्शन में शासन को भलीभाॅंति चलाया । इस प्रकार प्रतीत होता है कि चन्द्रगुप्त अपने सुयोग्य उत्तराधिकारी को पाकर सन्तुष्ट हो गया होगा।
श्रवणबेलगोला(चन्द्रगिरि पर्वत) पर अनेक अभिलेख मिलते हैं। ये भिन्न-भिन्न कालों में अंकित किये गये थे। इनमें सबसे अधिक प्राचीन अभिलेख 7वीं शताब्दी ई0 का है। इन अभिलेखों से 12वर्षीय अकाल पड़ने, चन्द्रगुप्त एवं जैन आचार्य भद्रबाहु के दक्षिण-आगमन, तपश्चर्या एवं प्राण विसर्जन का विवरण मिलता है। अभिलेखिक साक्ष्य इतिहास जानने के प्रामाणिक श्रोंतों में एक प्रमुख श्रोत हैं। चन्द्रगुप्त ने असामयिक इच्छा मृत्यु का वरण क्यों किया। इस सम्बन्ध में निम्नानुसार विचार किया जा सकता है। यद्यपि इस प्रकरण में बहुत विशद विवरण प्राप्त नही होता। तथापि-
1- उक्त अभिलेखों से इस बात का आभास मिलता है कि कदाचित 12वर्ष के अकाल से तंग आकर चन्द्रगुप्त ने जैन आचार्य के सानिध्य में संलेखना (संलेषणा) पद्धति से अपने प्राण त्यागने का निश्चय किया।
2- 24 वर्ष के शासन में चन्द्रगुप्त को वह सब कुछ मिल गया, जिसे एक राजा की चाहत होती है। जीवन में बहुत शीघ्र ही यदि सब कुछ मिल जाय तो आगे का जीवन नीरस हो जाता है।
3- वह अपने उत्तराधिकारी से भी बहुत संतुष्ट रहा होगा। पूत सपूत तो का धन संचय,................। यवन लेखकों ने उसके पुत्र बिन्दुसार के शासन की बहुत तारीफ किया है।
जैन ग्रन्थ भद्रबाहु-चरित, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, आराधना-कथाकोश, पुण्याश्रवकथाकोश आदि में उसके जैन होने का उल्लेख मिलता है। बौद्ध साहित्य के अतिरिक्त ग्रीक लेखकों यथा एपियन,प्लूटार्क, मेगस्थनीज, स्ट्रेबो, प्लिनी, आदि ने भी चन्द्रगुप्त के बारे में वर्णन किया है।
भारत को एक सूत्र में पिरोने तथा यवनों को धूल चटाने वाले ऐसे भारत के सपूत चन्द्रगुप्त को मेरा शत-शत वन्दन-अभिनन्दन।
सुरेश दुबे, झाॅंसी,उ0प्र0।
BAHUT SUNAR PRAVIN JI .....
ReplyDeleteपिछले २ सालों की तरह इस साल भी ब्लॉग बुलेटिन पर रश्मि प्रभा जी प्रस्तुत कर रही है अवलोकन २०१३ !!
ReplyDeleteकई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
ब्लॉग बुलेटिन के इस खास संस्करण के अंतर्गत आज की बुलेटिन प्रतिभाओं की कमी नहीं (29) मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
रोचक और जिज्ञासा बढाने वाला बढिया संस्मरण।
ReplyDeleteचन्द्रगुप्त और चाणक्य हमेशा से मेरे पसंदीदा चरित्र रहे हैं. उनके बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति. चन्द्रगुप्त और चाणक्य मेरे पसंदीदा चरित्र रहे हैं. यह अनुसंधान का एक रोचक विषय हो सकता है.
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