आपने अनावश्यक वस्तुओं का त्याग कर दिया। आप उससे एक स्तर और ऊपर चले गये, आपके अस्तित्व ने अपना केन्द्र अपनी आत्मा तक सीमित कर लिया। किन्तु क्या ऐसा करने से आपका अपरिग्रह पूर्ण हो गया, क्या सिद्धान्त वहीं पर रुक जाता है, क्या वहीं पर अध्यात्म अपने निष्कर्ष पा गया?
पूर्णतः नहीं। शरीर तो रहेगा, मन भी रहेगा। शरीर की आवश्यकतायें आप चिन्तनपूर्ण जीवनशैली के माध्यम से कम कर सकते हैं, पर मन का क्या? पतंजलि योगसूत्र का दूसरा सूत्र ही कहता है, योगः चित्तवृत्ति निरोधः, योग चित्त की वृत्ति का निरोध है। मन को कैसे सम्हालें, अर्जुन तक को मन चंचल लगा, जो बलपूर्वक खींच कर बहा ले जाता है। अब कौन याद दिलाये कि मन भटक रहा है, क्योंकि याद दिलाने का ऊपर उत्तरदायित्व तो मन ने ही उठा रखा था। अब वही घूमने चला गया तो कौन याद दिलायेगा?
मन जिस समय जो सोचता है, हम उस समय वही हो जाते हैं। शरीर भले ही किसी बैठक में हो, पर मन किसी दूसरे ही उपक्रम में लगा रहता है। यदि सड़क में चलता व्यक्ति मन में घर के बारे में सोच रहा होता है, तो वह मानसिक रूप से घर में ही होता है। इस तरह देखा जाये तो मन के माध्यम से न जाने हम कितने जन्म जी लेते हैं, वर्तमान में ही रहते हुये ही भूत में घूम आते हैं, भविष्य में घूम आते हैं।
विवाह किये हुये लोगों में एक भयमिश्रित उत्सुकता रहती है कि सात जन्म साथ रहने वाला सत्य क्या है? क्या प्रेम की प्रासंगिकता सात जन्म तक ही सीमित रहती है? क्या सात जन्मों के बाद पुनर्विचार याचिका स्वीकार की जा सकती है? ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न उमड़ते है, प्रसन्न व्यक्ति को लगता है कि सात जन्म भी कम हैं, दुखी मानुषों को लगता है कि ईश्वर करे, यही सातवाँ जन्म हो जाये।
देखा जाये तो जन्म का अर्थ है अस्तित्व, अपने मन की भ्रमणशील प्रकृति के कारण हम एक शरीर में रहते हुये भी भिन्न भिन्न अस्तित्वों में जीते हैं। रोचक तथ्य यह है कि ये अस्तित्व भी सात ही होते हैं। इन अस्तित्वों को समझ लेने से विवाह के सात जन्मों की उत्कण्ठा शमित हो जायेगी, अपरिग्रह की जन्म आधारित विमा भी समझ आ जायेगी, कर्म और कर्मफल का रहस्य स्पष्ट होगा और साथ ही प्राप्त होगा वर्तमान में पूर्णता से जीने के आनन्द का रहस्य।
ये सात जन्म है, विशु्द्ध भूत, विशुद्ध भविष्य, भूत आरोपित भविष्य, भविष्य आरोपित भूत, भूत और भविष्य उद्वेलित वर्तमान, विशु्द्ध वर्तमान, विशुद्ध अस्तित्व।
विगत स्मृतियों में डूबना विशुद्ध भूत है, आगत की मानसिक संरचना विशुद्ध भविष्य है। भूत में प्राप्त अनुभवों के आधार पर भविष्य का निर्धारण भूत आरोपित भविष्य है। इसमें हम सुखों की परिभाषायें बनाते हैं और भविष्य को उसी राह में देखते हैं। अनुभव जैसे जैसे बढ़ते जाते हैं, भविष्य की संरचना परिवर्तित होती जाती है। भविष्य की छवि के आधार पर भूत का पुनर्मूल्यांकन भविष्य आरोपित भूत है। हो सकता है कि बचपन में हमें खिलौने, पुस्तक और मिठाई एक जैसे ही अच्छे लगते हों, पर यदि भविष्य में हमने स्वयं को महाविद्वान के रूप में देखते हैं तो भूत में प्राप्त अनुभवों को उसी अनुसार वरीयता देते हैं। तब हम बचपन में पढ़ी पुस्तकों को अधिक वरीयता देकर अपने भूत को पुनर्परिभाषित करने लगेंगे।
हो सकता है कि मन वर्तमान में हो, पर भूत में प्राप्त अनुभवों को जीना चाहता है या भविष्य की आकांक्षाओं में लगना चाहता हो, तो वह भूत और भविष्य आरोपित वर्तमान कहलायेगा। इस स्थिति में हम वर्तमान को अपूर्ण मानते रहते हैं और भूत या भविष्य से प्रभावित बने रहते हैं। विशुद्ध वर्तमान के अस्तित्व में हम परिवेश में घटने वाली घटनाओं से परिचित रहते हैं और उन पर ध्यान देते हैं। विशुद्ध अस्तित्व में हम वर्तमान के भाग न बनकर अपने भिन्न अस्तित्व का अनुभव करते हैं, वर्तमान में अपना अस्तित्व देखते हैं। विशुद्ध अस्तित्व पूर्णतः आध्यात्मिक अवस्था है।
कभी किसी का ध्यान न लग रहा हो तो उससे पूछिये कि क्या सोच रहे थे, इससे आपको ज्ञात हो जायेगा कि वह किस जन्म में जी रहा है। हम नब्बे प्रतिशत अधिक समय तो वर्तमान में रहते ही नहीं है, या भूत आरोपित रहते हैं, या भविष्य आरोपित रहते हैं। मन को भटकना अच्छा लगता है, सो भटकते रहते हैं।
वर्तमान में न जीने से हम न जाने कितना आनन्द खो देते हैं। हमारे सामने हमारे बच्चा कुछ प्यारी सी बात बता रहा है और हम मन में किसी से हुये मन मुटाव के बारे में सोच रहे हैं और उद्वेलित हैं। वर्तमान में होते हुये भी हम न जाने किसी और स्थान पर रहते हैं, विचारों के बवंडर से घिरे रहते हैं। अपरिग्रह का पक्ष यह भी है कि अन्य जन्मों का त्याग कर वर्तमान में ही जिया जाये, वर्तमान का आनन्द लिया जाये, अस्तित्व के हल्केपन में उड़ा जाये। शेष जन्मों को लादे रहने का क्या लाभ। भूत और भविष्य पर चिन्तन आवश्यक है, भूत से सीखने के लिये, भविष्य गढ़ने के लिये, पर वर्तमान को तज कर नहीं और न ही आवश्यकता से अधिक।
वर्तमान को जीना ही होता है, हम उससे भाग नहीं सकते हैं। वर्तमान का जो क्षण हमारे सामने उपस्थित है, उसे हमें पूर्ण करना है, उसका पालन करना है। ऐसा नहीं करने से वह हमारे ऊपर ऋण सा बना रहेगा, कल कभी न कभी हमें उसे जीना ही होगा, स्मृति के रूप में, समस्या के रूप में, विकृति के रूप में, और तब हम उस समय के वर्तमान को नहीं जी रहे होंगे। वर्तमान को वर्तमान में न जीने के इस व्यवहार के कारण हम जन्मों का बोझ उठाये फिरते रहते हैं, अतृप्त, अपूर्ण, उलझे।
मेरे लिये यही सात जन्मों का सिद्धान्त है, यही कर्मफल का सिद्धान्त है, यही अपरिग्रह के सिद्धान्त की पूर्णता है, यही आनन्द और मुक्त भाव से जीने का सिद्ध मार्ग है। चलिये वर्तमान में ही जीते हैं, पूर्णता से जीते हैं।
पूर्णतः नहीं। शरीर तो रहेगा, मन भी रहेगा। शरीर की आवश्यकतायें आप चिन्तनपूर्ण जीवनशैली के माध्यम से कम कर सकते हैं, पर मन का क्या? पतंजलि योगसूत्र का दूसरा सूत्र ही कहता है, योगः चित्तवृत्ति निरोधः, योग चित्त की वृत्ति का निरोध है। मन को कैसे सम्हालें, अर्जुन तक को मन चंचल लगा, जो बलपूर्वक खींच कर बहा ले जाता है। अब कौन याद दिलाये कि मन भटक रहा है, क्योंकि याद दिलाने का ऊपर उत्तरदायित्व तो मन ने ही उठा रखा था। अब वही घूमने चला गया तो कौन याद दिलायेगा?
मन जिस समय जो सोचता है, हम उस समय वही हो जाते हैं। शरीर भले ही किसी बैठक में हो, पर मन किसी दूसरे ही उपक्रम में लगा रहता है। यदि सड़क में चलता व्यक्ति मन में घर के बारे में सोच रहा होता है, तो वह मानसिक रूप से घर में ही होता है। इस तरह देखा जाये तो मन के माध्यम से न जाने हम कितने जन्म जी लेते हैं, वर्तमान में ही रहते हुये ही भूत में घूम आते हैं, भविष्य में घूम आते हैं।
विवाह किये हुये लोगों में एक भयमिश्रित उत्सुकता रहती है कि सात जन्म साथ रहने वाला सत्य क्या है? क्या प्रेम की प्रासंगिकता सात जन्म तक ही सीमित रहती है? क्या सात जन्मों के बाद पुनर्विचार याचिका स्वीकार की जा सकती है? ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न उमड़ते है, प्रसन्न व्यक्ति को लगता है कि सात जन्म भी कम हैं, दुखी मानुषों को लगता है कि ईश्वर करे, यही सातवाँ जन्म हो जाये।
देखा जाये तो जन्म का अर्थ है अस्तित्व, अपने मन की भ्रमणशील प्रकृति के कारण हम एक शरीर में रहते हुये भी भिन्न भिन्न अस्तित्वों में जीते हैं। रोचक तथ्य यह है कि ये अस्तित्व भी सात ही होते हैं। इन अस्तित्वों को समझ लेने से विवाह के सात जन्मों की उत्कण्ठा शमित हो जायेगी, अपरिग्रह की जन्म आधारित विमा भी समझ आ जायेगी, कर्म और कर्मफल का रहस्य स्पष्ट होगा और साथ ही प्राप्त होगा वर्तमान में पूर्णता से जीने के आनन्द का रहस्य।
ये सात जन्म है, विशु्द्ध भूत, विशुद्ध भविष्य, भूत आरोपित भविष्य, भविष्य आरोपित भूत, भूत और भविष्य उद्वेलित वर्तमान, विशु्द्ध वर्तमान, विशुद्ध अस्तित्व।
विगत स्मृतियों में डूबना विशुद्ध भूत है, आगत की मानसिक संरचना विशुद्ध भविष्य है। भूत में प्राप्त अनुभवों के आधार पर भविष्य का निर्धारण भूत आरोपित भविष्य है। इसमें हम सुखों की परिभाषायें बनाते हैं और भविष्य को उसी राह में देखते हैं। अनुभव जैसे जैसे बढ़ते जाते हैं, भविष्य की संरचना परिवर्तित होती जाती है। भविष्य की छवि के आधार पर भूत का पुनर्मूल्यांकन भविष्य आरोपित भूत है। हो सकता है कि बचपन में हमें खिलौने, पुस्तक और मिठाई एक जैसे ही अच्छे लगते हों, पर यदि भविष्य में हमने स्वयं को महाविद्वान के रूप में देखते हैं तो भूत में प्राप्त अनुभवों को उसी अनुसार वरीयता देते हैं। तब हम बचपन में पढ़ी पुस्तकों को अधिक वरीयता देकर अपने भूत को पुनर्परिभाषित करने लगेंगे।
हो सकता है कि मन वर्तमान में हो, पर भूत में प्राप्त अनुभवों को जीना चाहता है या भविष्य की आकांक्षाओं में लगना चाहता हो, तो वह भूत और भविष्य आरोपित वर्तमान कहलायेगा। इस स्थिति में हम वर्तमान को अपूर्ण मानते रहते हैं और भूत या भविष्य से प्रभावित बने रहते हैं। विशुद्ध वर्तमान के अस्तित्व में हम परिवेश में घटने वाली घटनाओं से परिचित रहते हैं और उन पर ध्यान देते हैं। विशुद्ध अस्तित्व में हम वर्तमान के भाग न बनकर अपने भिन्न अस्तित्व का अनुभव करते हैं, वर्तमान में अपना अस्तित्व देखते हैं। विशुद्ध अस्तित्व पूर्णतः आध्यात्मिक अवस्था है।
कभी किसी का ध्यान न लग रहा हो तो उससे पूछिये कि क्या सोच रहे थे, इससे आपको ज्ञात हो जायेगा कि वह किस जन्म में जी रहा है। हम नब्बे प्रतिशत अधिक समय तो वर्तमान में रहते ही नहीं है, या भूत आरोपित रहते हैं, या भविष्य आरोपित रहते हैं। मन को भटकना अच्छा लगता है, सो भटकते रहते हैं।
वर्तमान में न जीने से हम न जाने कितना आनन्द खो देते हैं। हमारे सामने हमारे बच्चा कुछ प्यारी सी बात बता रहा है और हम मन में किसी से हुये मन मुटाव के बारे में सोच रहे हैं और उद्वेलित हैं। वर्तमान में होते हुये भी हम न जाने किसी और स्थान पर रहते हैं, विचारों के बवंडर से घिरे रहते हैं। अपरिग्रह का पक्ष यह भी है कि अन्य जन्मों का त्याग कर वर्तमान में ही जिया जाये, वर्तमान का आनन्द लिया जाये, अस्तित्व के हल्केपन में उड़ा जाये। शेष जन्मों को लादे रहने का क्या लाभ। भूत और भविष्य पर चिन्तन आवश्यक है, भूत से सीखने के लिये, भविष्य गढ़ने के लिये, पर वर्तमान को तज कर नहीं और न ही आवश्यकता से अधिक।
वर्तमान को जीना ही होता है, हम उससे भाग नहीं सकते हैं। वर्तमान का जो क्षण हमारे सामने उपस्थित है, उसे हमें पूर्ण करना है, उसका पालन करना है। ऐसा नहीं करने से वह हमारे ऊपर ऋण सा बना रहेगा, कल कभी न कभी हमें उसे जीना ही होगा, स्मृति के रूप में, समस्या के रूप में, विकृति के रूप में, और तब हम उस समय के वर्तमान को नहीं जी रहे होंगे। वर्तमान को वर्तमान में न जीने के इस व्यवहार के कारण हम जन्मों का बोझ उठाये फिरते रहते हैं, अतृप्त, अपूर्ण, उलझे।
मेरे लिये यही सात जन्मों का सिद्धान्त है, यही कर्मफल का सिद्धान्त है, यही अपरिग्रह के सिद्धान्त की पूर्णता है, यही आनन्द और मुक्त भाव से जीने का सिद्ध मार्ग है। चलिये वर्तमान में ही जीते हैं, पूर्णता से जीते हैं।
वस्तुतः मन आत्मा की शक्ति है और बुध्दि भी आत्मा की ही शक्ति है । मेरी साधारण बुध्दि में, मन ही प्रधान है, वह लोक-तंत्र का प्रधानमंत्री है [ अभी के प्रधानमंत्री अपवाद हैं, इन्हें छोड कर ] जबकि बुध्दि-बेचारी जन-तंत्र की राष्ट्रपति है, ज़्यादा कुछ कर नहीं पाती । मनुष्य के देह का राजा तो मन ही है ।
ReplyDeleteएक अच्छा ज्ञानवर्धक प्रात सेशन -आभार
ReplyDeleteचलिये वर्तमान में ही जीते हैं, पूर्णता से जीते हैं।
ReplyDeleteसही है यही सार है
वर्तमान में जीना आ जाये तो फ़िर कुछ पीडा ही नही बची, सारा खेल यही तो है. बहुत ही सार्थक आलेख.
ReplyDeleteरामराम.
सब कुछ समझते हुए भी जाने क्यों हम भूत और भविष्य में ही उलझे रहते हैं ..... सार्थक और अनुकरणीय विचार
ReplyDeleteहर पल जिओ जिंदगी ऐसे, जैसे यही आखिरी पल है। अपरिग्रह श्रृंखला की सुन्दर पूर्णाहुति।
ReplyDeleteवर्तमान है तभी तो हम हैं। इस अभिप्राय से देखें तो इसमें ही जीना 'जीवन' है, पर दुर्भाग्य से दीन-दुनिया भूत, बीते समय और भावी योजनाओं के बीच में ही झूल रही है।
ReplyDeleteकितना अच्छा होता, अगर सात जन्म वाले सत्य के साथ जन्मों का क्रम जानने का विधान भी हो सकता! तब पता चल सकता था किस ये हमारा कौन सा जन्म है, और अभी कितने जन्म झेलना है :) :) बढिया पोस्ट.
ReplyDeleteभूत और भविष्य पर चिन्तन आवश्यक है, भूत से सीखने के लिये, भविष्य गढ़ने के लिये, पर वर्तमान को तज कर नहीं और न ही आवश्यकता से अधिक।
ReplyDeleteसत्या एवं सार्थक ....किन्तु यही नादानी हम बरबस करते रहते हैं और सुलझे जीवन को उलझते रहते हैं .....सारगर्भित आलेख ....!!
saadhuvaad ke siwaay kyaa kahooN
ReplyDeleteबड़ा कठिन काम बता दिया आपने...सारगर्भित लेख...
ReplyDeleteसही है, विशुद्ध वर्तमान में जीना ही वास्तविक जीवन परिग्रह है ।सुंदर, ज्ञानपूर्ण लेख।
ReplyDeleteवर्तमान में जीने के लिए खुद को निर्मल जल सा बनाने की जरूरत है जो जब जिस चीज़ में मिले वैसा ही हो जाये जिस पात्र में रखो उसका रूप बन जाये...मगर अफसोस की हर कोई ऐसा कर नहीं पता और जन्मो का बोझ ढोये जी जा रहें हैं सभी ...
ReplyDeleteआलेख पढकर लगा जैसे हम किसी शाला में ज्ञान ले रहे हैं । बहुत ही गहन विचार । सात जन्मों का विश्लेषण बहुत ही सटीक है । यहाँ आकर सचमुच कुछ न कुछ समझने के लिये मिलता है ।
ReplyDeleteबहुत दिन के बाद कमेंट ऑप्शन खुल पाया है, ये श्रृंखला बहुत पसंद आई है। पहली पोस्ट पढ़कर अपनी बुद्धि अनुसार दो तीन उदाहरण शेयर करने की सोची थी लेकिन कमेंट ही नहीं हो पा रहा था, फ़िर कभी।
ReplyDeleteसच में सहेजने लायक।
इस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 24/11/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक - 50 पर.
ReplyDeleteआप भी पधारें, सादर ....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
Deleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आप की इस प्रविष्टि की चर्चा रविवार, दिनांक :- 24/11/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/" चर्चा अंक - 50- पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर ....
ReplyDeleteसुन्दर है भावाभिव्यक्ति।
वर्तमान को जीना ही होता है, हम उससे भाग नहीं सकते हैं। वर्तमान का जो क्षण हमारे सामने उपस्थित है, उसे हमें पूर्ण करना है, उसका पालन करना है। ऐसा नहीं करने से वह हमारे ऊपर ऋण सा बना रहेगा, कल कभी न कभी हमें उसे जीना ही होगा, स्मृति के रूप में, समस्या के रूप में, विकृति के रूप में, और तब हम उस समय के वर्तमान को नहीं जी रहे होंगे। वर्तमान को वर्तमान में न जीने के इस व्यवहार के कारण हम जन्मों का बोझ उठाये फिरते रहते हैं, अतृप्त, अपूर्ण, उलझे।
मेरे लिये यही सात जन्मों का सिद्धान्त है, यही कर्मफल का सिद्धान्त है, यही अपरिग्रह के सिद्धान्त की पूर्णता है, यही आनन्द और मुक्त भाव से जीने का सिद्ध मार्ग है। चलिये वर्तमान में ही जीते हैं, पूर्णता से जीते हैं।
और इस कलियुगी वर्त्तमान का मूल मन्त्र है -हरे रामा ,हरे रामा ,रामा हरे हरे ,हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे ,....
Present.. how wide and deep it is..
ReplyDeleteDekhiye Sanjay ne bhi meri baat kahi hai.. Padh raha hoon par kuchh kahne ka option nahin..
ReplyDeleteBahut achchhi shrinkhala hai yah.. Prasangik aur tathyapoorn!!
पहले वर्तमान को पूरा जी लें ...
ReplyDeleteबढ़िया आलेख.
Bilkul sahi...we should live our present to the fullest
ReplyDeleteजीवन तो वर्तमान के लिेये ही नियत है भूत तो दर्पण और भविष्य गति के लिये होता है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.... सुंदर, ज्ञानपूर्ण प्रस्तुति.. आभार..
ReplyDeleteमैं शकुंतला शर्मा जी से सहमत हूँ !
ReplyDelete(नवम्बर 18 से नागपुर प्रवास में था , अत: ब्लॉग पर पहुँच नहीं पाया ! कोशिश करूँगा अब अधिक से अधिक ब्लॉग पर पहुंचूं और काव्य-सुधा का पान करूँ | )
नई पोस्ट तुम
Vartmaan nahi jiya to jeeye hii kahan....kyonki hamesha vartmaan hii rehta hai..bhoot beet chuka hota hai aur bahvishya vartamaan baanne ke liye tatpar rahta hai.. achah lekh.
ReplyDeleteवर्तमान को वर्तमान में न जीने के इस व्यवहार के कारण हम जन्मों का बोझ उठाये फिरते रहते हैं, अतृप्त, अपूर्ण, उलझे।
ReplyDeleteकाश वर्तमान में जीना सीख लें ।