अपरिग्रह का व्यवहारिक पक्ष सबको ज्ञात है। आवश्यकतानुसार उपयोग न केवल संसाधन की उपलब्धता बनाने में सहायक रहता है, वरन स्वयं को भी अनावश्यक संग्रह और आसक्ति से दूर रखता है। इसके अतिरिक्त अपरिग्रह का क्या कोई और पक्ष है?
मूलभूत सिद्धान्तों का एक गुण होता है, आप जहाँ पर भी उन्हें प्रयुक्त करें, निष्कर्षों में भेद नहीं रहता है। अपरिग्रह भी ऐसे ही सिद्धान्तों में से एक है। आप जहाँ पर भी इसे प्रयुक्त करेंगे, जितने समय के लिये प्रयुक्त करेंगे, उसी अनुपात में आपको संतुष्टि और आनन्द मिलेगा। अपरिग्रह का सौन्दर्य यह भी है कि मूलरूप से यह एक आध्यात्मिक सिद्धान्त है और उसका भौतिक जगत में प्रक्षेपण इतना उपयोगी है कि हम उसी में संतुष्ट हो लेते हैं, उसे उसके मौलिक स्वरूप में देखने का प्रयत्न नहीं करते हैं।
जैन धर्म के पाँच मूल सिद्धान्तों में एक, अपरिग्रह का सिद्धान्त जैन सन्तों की जीवनशैली में रचा बसा है। उनके जीवन का अवलोकन ही इस सिद्धान्त की महत्कथा कह जाता है। अपने जीवन में जितना संभव हो सका, अपरिग्रह के अनुपालन की संतुष्टि पा रहा हूँ। गहरे उतरने के व्यवहारिक पक्षों की बाधायें सम्मुख हैं। सैद्धान्तिक रूप से अपरिग्रह के बारे में और जानने की इच्छा उन सूत्रों तक ले गयी जहाँ पर इन्हें मूलतः परिभाषित किया गया है।
आश्चर्यचकित रह गया जब पतंजलि योग सूत्र के साधनपाद में यम नियम के बारे में पढ़ते समय अपरिग्रह का महत्व सूत्रबद्ध दिखा। सहसा लगा कि अपरिग्रह का सिद्धान्त एक गूढ़ अध्यात्म विधा है। सूत्र २.३९ इस प्रकार है। अपरिग्रह स्थैर्ये जन्मकथन्ता सम्बोधः - अपरिग्रह की स्थिरता में जन्म के कैसेपन का साक्षात होता है। अर्थात अपरिग्रह के अभ्यास से आप अपने भूत, वर्तमान और भविष्य के जन्मों को देख सकते हैं, संभावित अस्तित्वों को समझ सकते हैं।
वैसे तो यह सच है कि सिद्धान्त समझने और विकसित होने में समय भी लगता है और समझ भी, पर अपरिग्रह का यह अर्थ न कभी समझा था और न ही कभी सुना था। आवश्यकतानुसार ही उपयोग करने का मन्त्र कैसे ऐसी अलौकिक दृष्टि दे देगा कि आप अपने भूत और भविष्य में झाँक पायेंगे। यदि पंतजलि योगसूत्र पढ़ने का प्रारम्भिक समय होता तो संभवतः इस सूत्र को रहस्यवाद मान कर आगे बढ़ गया होता, पर जिस गूढ़ता से पतंजलि ने सूत्र गढ़ने की कला प्रदर्शित की है, इस रहस्य पर विचार न करना अपनी मूढ़ता का ही परिचायक होता। पतंजलि ने निश्चय ही कोई न कोई गूढ़ सिद्धांत इस सूत्र के माध्यम से व्यक्त किया है।
इस सूत्र पर केन्द्रित कई व्याख्यानों को सुना, कई अध्यायों को पढ़ा, तब कहीं जाकर इस सिद्धान्त की परिधि पर पहुँच पाया। जितना सुना, जितना पढ़ा, उतना ही रोचक होता गया अपरिग्रह का सिद्धान्त।
क्या परिग्रह है, उसे निर्धारित करने के लिये परिधि को समझना होगा। परिधि को समझने के लिये केन्द्र को जानना होगा। केन्द्र के चारो ओर जो भी हो, उसे परिधि से परिभाषित किया जा सकता है। जब तक मैं केन्द्र में शरीर को मानकर विषय को समझ रहा था, अपरिग्रह के व्यावहारिक पक्ष तक ही सीमित था, कपड़े और अन्य वस्तुओं तक ही। पतंजलि के इस सूत्र की व्याख्या सुनी तो समझ गया कि मुझे इस विषय के तल में जाने के लिये अपना केन्द्र पुनर्परिभाषित करना होगा, यदि ऐसा न करता तो सूत्र की पूरी व्याख्या नहीं जान पाता।
भारतीय दर्शन के संदर्भों में, वासांसि जीर्णानि यथा विहाय के संदर्भों में, शरीर भी परिधि ही है। परिवर्तनशील शरीर को केन्द्र कभी नहीं माना गया, जिस तरह हम कपड़े बदलते हैं, उसी प्रकार आत्मा भी शरीर बदलती है। केन्द्र में सदा ही आत्मा रही है, न मन, न बुद्धि, न शरीर।
अपरिग्रह के सिद्धान्त की गहराई केन्द्र निर्धारित करते ही दृष्टिगत होने लगती है। आत्म के अतिरिक्त शेष को अपना न मानने का भाव ही अपरिग्रह का आध्यात्मिक पक्ष है। स्वयं को शरीर या मन मानने के क्रम में हम स्वयं को परिधि में परिधि में स्थापित कर लेते हैं और जब कालचक्र चलता है तो हम परिधि पर आने वाले बलाक्षेप से जूझने में लगे रहते हैं, संभवतः इसी संघर्ष को मर्मज्ञ कालचक्र के गतिमय प्रवाह से परिभाषित करते हैं। प्रकृति के कालचक्र से बचना है तो केन्द्र की ओर बढ़ते रहना ही श्रेयस्कर है क्योंकि केन्द्र में ही बल का प्रक्षेप शून्य होता है।
शरीर नहीं त्यागना होता है, मन भी नहीं त्यागना होता है, यदि अपरिग्रह के हेतु कुछ त्यागना होता है तो वह है स्वयं के शरीर या मन होने के भाव का। शरीर, मन, स्मृतियाँ, भय, सब के सब मिलकर एक ऐसा विश्व निर्मित कर देते हैं कि हम उसमें उलझे रहते हैं, उसके पार कुछ भी नहीं देख पाते हैं, कुछ भी नहीं समझ पाते हैं। जब यह सब भाव छटता है, जन्म और उसके कारण, भूत-भविष्य और उसके विस्तार, सब के सब स्वतः ही समझ आने लगते हैं। निश्चय ही पतंजलि के लिये अपरिग्रह की यही अवधारणा रही होगी।
अपरिग्रह का प्रारम्भ उस बिन्दु से होता है जब हम सोचते हैं कि कोई वस्तु या व्यक्ति हमें सुख दे सकता है। किन्तु जब अन्यथा निष्कर्ष देखने को मिलता है तो धीरे धीरे हम अपनी खोखली आश्रयता को तिलांजलि देने लगते हैं। आनन्द की सततता जब फिर भी सुनिश्चित नहीं होती है, तो हम सिद्धान्त की सीमायें बनाने लगते हैं और उससे परे दूसरे सिद्धान्त सोचने लगते हैं, वर्तमान सिद्धान्त पर संशय करने लगते हैं। पतंजलि का यह सूत्र अपरिग्रह के सिद्धान्त को उसके उत्कर्ष पर न केवल स्थापित करता है, वरन उसे अध्यात्म का मूलमन्त्र भी बना देता है।
अपरिग्रह का सिद्धान्त पतंजलि से अच्छा न कोई समझ सकता है, न कोई समझा सकता है। वर्णित सूत्र स्वयं में ही अपरिग्रह के जीवन्त उदाहरण हैं। ज्ञान के विस्तार को इस तरह से प्रस्तुत करना कि कोई भी शब्द अनावश्यक न हो और कोई भी अर्थ छूटा न हो। योगसूत्र की रचना अपरिग्रह के सिद्धान्त का ही मूर्त स्वरूप है, आकार में भी, विषय में भी। अपरिग्रह की यह अध्यात्म विधा, इस सिद्धान्त को मानव अस्तित्व के मौलिकतम सिद्धान्तों में स्थापित करती है।
मूलभूत सिद्धान्तों का एक गुण होता है, आप जहाँ पर भी उन्हें प्रयुक्त करें, निष्कर्षों में भेद नहीं रहता है। अपरिग्रह भी ऐसे ही सिद्धान्तों में से एक है। आप जहाँ पर भी इसे प्रयुक्त करेंगे, जितने समय के लिये प्रयुक्त करेंगे, उसी अनुपात में आपको संतुष्टि और आनन्द मिलेगा। अपरिग्रह का सौन्दर्य यह भी है कि मूलरूप से यह एक आध्यात्मिक सिद्धान्त है और उसका भौतिक जगत में प्रक्षेपण इतना उपयोगी है कि हम उसी में संतुष्ट हो लेते हैं, उसे उसके मौलिक स्वरूप में देखने का प्रयत्न नहीं करते हैं।
जैन धर्म के पाँच मूल सिद्धान्तों में एक, अपरिग्रह का सिद्धान्त जैन सन्तों की जीवनशैली में रचा बसा है। उनके जीवन का अवलोकन ही इस सिद्धान्त की महत्कथा कह जाता है। अपने जीवन में जितना संभव हो सका, अपरिग्रह के अनुपालन की संतुष्टि पा रहा हूँ। गहरे उतरने के व्यवहारिक पक्षों की बाधायें सम्मुख हैं। सैद्धान्तिक रूप से अपरिग्रह के बारे में और जानने की इच्छा उन सूत्रों तक ले गयी जहाँ पर इन्हें मूलतः परिभाषित किया गया है।
आश्चर्यचकित रह गया जब पतंजलि योग सूत्र के साधनपाद में यम नियम के बारे में पढ़ते समय अपरिग्रह का महत्व सूत्रबद्ध दिखा। सहसा लगा कि अपरिग्रह का सिद्धान्त एक गूढ़ अध्यात्म विधा है। सूत्र २.३९ इस प्रकार है। अपरिग्रह स्थैर्ये जन्मकथन्ता सम्बोधः - अपरिग्रह की स्थिरता में जन्म के कैसेपन का साक्षात होता है। अर्थात अपरिग्रह के अभ्यास से आप अपने भूत, वर्तमान और भविष्य के जन्मों को देख सकते हैं, संभावित अस्तित्वों को समझ सकते हैं।
वैसे तो यह सच है कि सिद्धान्त समझने और विकसित होने में समय भी लगता है और समझ भी, पर अपरिग्रह का यह अर्थ न कभी समझा था और न ही कभी सुना था। आवश्यकतानुसार ही उपयोग करने का मन्त्र कैसे ऐसी अलौकिक दृष्टि दे देगा कि आप अपने भूत और भविष्य में झाँक पायेंगे। यदि पंतजलि योगसूत्र पढ़ने का प्रारम्भिक समय होता तो संभवतः इस सूत्र को रहस्यवाद मान कर आगे बढ़ गया होता, पर जिस गूढ़ता से पतंजलि ने सूत्र गढ़ने की कला प्रदर्शित की है, इस रहस्य पर विचार न करना अपनी मूढ़ता का ही परिचायक होता। पतंजलि ने निश्चय ही कोई न कोई गूढ़ सिद्धांत इस सूत्र के माध्यम से व्यक्त किया है।
इस सूत्र पर केन्द्रित कई व्याख्यानों को सुना, कई अध्यायों को पढ़ा, तब कहीं जाकर इस सिद्धान्त की परिधि पर पहुँच पाया। जितना सुना, जितना पढ़ा, उतना ही रोचक होता गया अपरिग्रह का सिद्धान्त।
क्या परिग्रह है, उसे निर्धारित करने के लिये परिधि को समझना होगा। परिधि को समझने के लिये केन्द्र को जानना होगा। केन्द्र के चारो ओर जो भी हो, उसे परिधि से परिभाषित किया जा सकता है। जब तक मैं केन्द्र में शरीर को मानकर विषय को समझ रहा था, अपरिग्रह के व्यावहारिक पक्ष तक ही सीमित था, कपड़े और अन्य वस्तुओं तक ही। पतंजलि के इस सूत्र की व्याख्या सुनी तो समझ गया कि मुझे इस विषय के तल में जाने के लिये अपना केन्द्र पुनर्परिभाषित करना होगा, यदि ऐसा न करता तो सूत्र की पूरी व्याख्या नहीं जान पाता।
भारतीय दर्शन के संदर्भों में, वासांसि जीर्णानि यथा विहाय के संदर्भों में, शरीर भी परिधि ही है। परिवर्तनशील शरीर को केन्द्र कभी नहीं माना गया, जिस तरह हम कपड़े बदलते हैं, उसी प्रकार आत्मा भी शरीर बदलती है। केन्द्र में सदा ही आत्मा रही है, न मन, न बुद्धि, न शरीर।
अपरिग्रह के सिद्धान्त की गहराई केन्द्र निर्धारित करते ही दृष्टिगत होने लगती है। आत्म के अतिरिक्त शेष को अपना न मानने का भाव ही अपरिग्रह का आध्यात्मिक पक्ष है। स्वयं को शरीर या मन मानने के क्रम में हम स्वयं को परिधि में परिधि में स्थापित कर लेते हैं और जब कालचक्र चलता है तो हम परिधि पर आने वाले बलाक्षेप से जूझने में लगे रहते हैं, संभवतः इसी संघर्ष को मर्मज्ञ कालचक्र के गतिमय प्रवाह से परिभाषित करते हैं। प्रकृति के कालचक्र से बचना है तो केन्द्र की ओर बढ़ते रहना ही श्रेयस्कर है क्योंकि केन्द्र में ही बल का प्रक्षेप शून्य होता है।
शरीर नहीं त्यागना होता है, मन भी नहीं त्यागना होता है, यदि अपरिग्रह के हेतु कुछ त्यागना होता है तो वह है स्वयं के शरीर या मन होने के भाव का। शरीर, मन, स्मृतियाँ, भय, सब के सब मिलकर एक ऐसा विश्व निर्मित कर देते हैं कि हम उसमें उलझे रहते हैं, उसके पार कुछ भी नहीं देख पाते हैं, कुछ भी नहीं समझ पाते हैं। जब यह सब भाव छटता है, जन्म और उसके कारण, भूत-भविष्य और उसके विस्तार, सब के सब स्वतः ही समझ आने लगते हैं। निश्चय ही पतंजलि के लिये अपरिग्रह की यही अवधारणा रही होगी।
अपरिग्रह का प्रारम्भ उस बिन्दु से होता है जब हम सोचते हैं कि कोई वस्तु या व्यक्ति हमें सुख दे सकता है। किन्तु जब अन्यथा निष्कर्ष देखने को मिलता है तो धीरे धीरे हम अपनी खोखली आश्रयता को तिलांजलि देने लगते हैं। आनन्द की सततता जब फिर भी सुनिश्चित नहीं होती है, तो हम सिद्धान्त की सीमायें बनाने लगते हैं और उससे परे दूसरे सिद्धान्त सोचने लगते हैं, वर्तमान सिद्धान्त पर संशय करने लगते हैं। पतंजलि का यह सूत्र अपरिग्रह के सिद्धान्त को उसके उत्कर्ष पर न केवल स्थापित करता है, वरन उसे अध्यात्म का मूलमन्त्र भी बना देता है।
अपरिग्रह का सिद्धान्त पतंजलि से अच्छा न कोई समझ सकता है, न कोई समझा सकता है। वर्णित सूत्र स्वयं में ही अपरिग्रह के जीवन्त उदाहरण हैं। ज्ञान के विस्तार को इस तरह से प्रस्तुत करना कि कोई भी शब्द अनावश्यक न हो और कोई भी अर्थ छूटा न हो। योगसूत्र की रचना अपरिग्रह के सिद्धान्त का ही मूर्त स्वरूप है, आकार में भी, विषय में भी। अपरिग्रह की यह अध्यात्म विधा, इस सिद्धान्त को मानव अस्तित्व के मौलिकतम सिद्धान्तों में स्थापित करती है।
आप हमरे गुरु घोषित हुए अध्यात्म में...आज से! जय गुरुदेव!! शरण देव!!
ReplyDeleteमैने अभी तक पढा नही इस विषय को तो मै ज्यादा नही कह सकता पतंजलि योग सूत्र के बारे में किंतु अपरिग्रह के बारे में आपके इस लेख से काफी कुछ सीखने को मिला
ReplyDeleteसुन्दर आलेख |
ReplyDelete" ईशा वास्यमिदँसर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् । तेन त्य्क्तेन भुञ्जीथा मा गृध कस्य स्विद् धनम् ।" इस जगत में जो भी है वह ईश्वर का है, इसे हम अपना न समझें और त्याग के साथ उपभोग करें ।
ReplyDeleteअपरिग्रह पर आपकी कलम ने बहुत सशक्त लिखा है ... आभार
ReplyDeleteपतंजलि के अपरिग्रह सूत्र की सरल और विशद व्याख्या आपने की है जिसे आसानी से समझा जा सकता है. मूल ग्रंथ को जन समान्य पढकर ही ऊबने लगता है. आपने बहुत ही सहज और सरल शब्दों में व्याख्या करके इसे जन सामान्य की रूची का बना दिया है, बहुत आभार.
ReplyDeleteरामराम.
सुंदर व्याख्या ..... ज्ञानवर्धक पोस्ट
ReplyDeleteकुछ और सरल बन जाता तो और आनंद आता ! आभार
ReplyDeleteसरल में सरल बात यही तो है कि वास्तव में हम कुछ भी नहीं हैं....हमें कुछ भी नहीं चाहिए और हमें कुछ भी नहीं करना है, हम यानि जो हम वास्तव में हैं, एक चेतन ऊर्जा, जो भी होना, करना या चाहना है वह परिधि पर घटित होता है...
ReplyDeleteसुख की आश्रयता तो बस स्वयं पर है ,किसी अन्य पर नहीं ।
ReplyDeleteउत्कृष्ट आलेख ।
apekshayen hi upeksha ki janani hai. aprigrh pr sundar maulik chintan kiya hai apne prabhavshali lekh ke sath sath sangrheey bhi kyoki yahan apka maulik darshan bhi hai .
ReplyDeleteअपरिग्रह के सहारे मन, शरीर इत्यादि से सुदूर आत्मभाव में टिमटिमाने का जो आनन्द है निश्चय ही वह अवर्णित है। आत्मप्रेरित अनुभव लिखने से भी कहां साक्षात हो पाते हैं। ये तो विद्वान, विज्ञान आदि उपबन्धों के समापन पर प्रारम्भ होते हैं। अपनी ही दृष्टि में अनजान हमारी आत्मिक-चेतना अज्ञात रूप से इसी आत्मबिन्दु अर्थात् अध्यात्म की खोज में लगी रहती है। कभी गहरे विचार उत्पन्न होते हैं तो आपकी अनुभव की गई परिस्थिति जैसी परिस्थितियां निर्मित हो जाती हैं। ......जहां तक मुझे लगा पतंजलि सूत्र में वर्णित अपरिग्रह सूक्त ने आपकी लेखन क्षमता को भी बढ़ा दिया है। पिछले तीन आलेखों से होते हुए इस आलेख तक आपकी वर्णन शैली में भाषिक, व्याकरणीय गुणवत्ता की बढ़ोतरी हुई है। ...........वैसे एक निजी प्रश्न है..आप स्वस्थ तो हैं आजकल, किसी के ब्लॉग पर आना-जाना नहीं हो रहा है आपका? कृपया अन्यथा न लें। भावी शुभकामनाओं सहित।
ReplyDeleteविकेशजी, व्यस्तता अत्यधिक है। एक सप्ताह में ब्लॉग में सक्रिय हो जाऊँगा। बहुत आभार आपका।
Deleteसुंदर सन्देश...
ReplyDeleteपतंजलि योग सूत्र तो मैने नहीं पढा है पर आपने अपरिग्रह के सभी पक्षों को बहुत ही स्पष्ट तरीके से समझाया है । अगर सही कहूँ तो मै मुरीद हो गया हूँ आपकी विद्वता का ।
ReplyDeleteशरीर, मन, स्मृतियाँ, भय, सब के सब मिलकर एक ऐसा विश्व निर्मित कर देते हैं कि हम उसमें उलझे रहते हैं, उसके पार कुछ भी नहीं देख पाते हैं, कुछ भी नहीं समझ पाते हैं। जब यह सब भाव छटता है, जन्म और उसके कारण, भूत-भविष्य और उसके विस्तार, सब के सब स्वतः ही समझ आने लगते हैं।
ReplyDeleteगहन संदेशप्रद आलेख अपरिग्रह को आध्यात्म से जोड़ता हुआ ....
ईशा वास्यमिदँसर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् । तेन त्य्क्तेन भुञ्जीथा मा गृध कस्य स्विद् धनम्
ReplyDeleteअपरिग्रह की समझ आ जाये तो जिंदगी सार्थक हो जाए।
ReplyDeleteअध्यात्म विधा के अंतर्गत अपरिग्रह का बहुत सुंदर सार्थक विश्लेषण प्रस्तुति के लिए धन्यवाद ..
ReplyDeleteशानदार आध्यात्मिक विश्लेषण
ReplyDeletespirituality has so many sides.. dip in it :)
ReplyDelete