2.11.13

भाषायी संबंध

न जाने कितना कुछ कहती यह भाषा
भाषा संबंधी अध्ययन के समय में एक विशेष प्रश्न आया था, कि किस प्रकार भाषा संस्कृतियों के पक्षों को अपने में समा कर रखती है और किस प्रकार वह चिन्तन को प्रभावित करती है। छोटा सा एक तुलनात्मक उदाहरण लें, वैज्ञानिक भाषा का और आदिवासी क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं का। वैज्ञानिक भाषा में प्रयुक्त शब्द जैसे एन्ट्रॉपी अपने आप में न जाने कितने सिद्धान्त समाहित किये बैठा है। जब भी वह बोला जायेगा, ऊष्मागतिकी के द्वितीय सिद्धांत तक प्रयुक्त सारा ज्ञान उस शब्द में व्याख्या सहित समाया मिलेगा। इसी प्रकार आदिवासीय क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा में प्रकृति की उपासना की प्रमुखता होगी, उन्नत शब्द प्रकृति की किसी शक्ति का वर्णन करते हुये ही दिखेंगे। ज्ञान के विकास में शब्द सामर्थ्यशाली होते चले जाते हैं और आने वाली पीढ़ियों की चिन्तन प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाते रहते हैं।

गहरे सिद्धान्तों को वहन कर सकने के लिये भाषा का स्वरूप और बनावट भी गहरी होनी चाहिये। रोमन अंक किसी भी स्थिति में गणित के अग्रतम सिद्धान्तों को व्यक्त नहीं कर पायेंगे। कल्पना कीजिये कि यदि रोमन अंकों में आपको गुणा करने का भी कार्य दिया जाता तो गणित के प्रति आपका क्या रुझान होता? इसी प्रकार देखिये तो कम्प्यूटर को अंग्रेजी सीधे समझ नहीं आती, अतः उससे कार्य निकालने के लिये जावा या सी प्लस आदि कम्प्यूटर भाषाओं का उपयोग किया जा रहा है। एस क्यू एल(Structured Query Language, SQL) के नाम से नयी कम्प्यूटर भाषा विकसित हो रही है, जिसमें एक व्यवस्थित क्रम हो और कम्प्यूटर को उस भाषा को समझने में कोई भी भ्रम न रहे, हर बार शब्द और निर्देश वही अर्थ बता सकें।

जहाँ तक देखा गया है, कोई एक संस्कृति या तन्त्र एक दिशा में बहुत आगे तक चली जाती है और उस संस्कृति को व्यक्त करने वाली भाषा संस्कृति के सशक्त पक्षों को अपने में समेट लेती है। कल्पना कीजिये कि भाषा की विकास प्रक्रिया तब कैसी होती होगी, जब किसी संस्कृति में दो पक्ष सशक्त होते होंगे। भाषा का आकार और शब्दकोश तब कैसे विकसित होता होगा? क्या होता होगा, जब संस्कृति का भौतिक पक्ष, मानसिक पक्ष, बौद्धिक पक्ष या आध्यात्मिक पक्ष संतुलित रहता होगा, भाषा तब कैसे अपना मार्ग ढूंढ़ती होगी, कैसे अपना समन्वय बिठाती होगी?

भाषा के शब्दों में कितना अर्थ छिपा है और वे एक वाक्य के रूप में कितना भ्रमरहित संप्रेषण करते हैं, यह किसी भी भाषा के सामर्थ्य को दिखाते हैं। यहाँ पर एक बात समझनी आवश्यक हो जाती है जो भाषा के अनुवादकों के कठिन श्रम को समझने में सहायक है। किसी एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद की प्रक्रिया केवल दोनों भाषाओं के शब्दकोश से होकर नहीं जाती है, वरन अनुवाद से न्याय करने के लिये शब्दों द्वारा व्यक्त संास्कृतिक अनुगूँज और उस भाषा में छिपे व्याकरणीय भ्रमतन्तु समझने आवश्यक हैं। सफल अनुवाद इन दोनों को पूरी तरह से समझे बिना संभव ही नहीं है। अनुवादकों का कार्य सृजनशीलता में लेखकों से भले ही कम हो, पर संप्रेषण में लगे श्रम और समझ की दृष्टि से बहुत अधिक है, दो भाषाओं की संस्कृति और भाषायी शैली समझने की दृष्टि से बहुत अधिक है।

अनुवादकों का कार्य तब कठिन हो जाता है जब संस्कृतियाँ सर्वथा भिन्न हो। गणित और विज्ञान ने पूरे विश्व में अपनी भाषा एक सी बना ली है अतः एक देश में हुये विकास को दूसरे देश में सरलता से पढ़ा जा सकता है, बिना अनुवादकों की सहायता के। वहीं दूसरी ओर एक संस्कृति में ही पोषित दो पड़ोसी भाषाओं के बीच भी अनुवाद बड़ी समस्या नहीं है। कई शब्दों की समानता और व्याकरण की समरूपता इस कार्य को उतना कठिन नहीं रहने देती है। भिन्न संस्कृतियों की भाषा के बीच सेतु का कार्य करने के लिये मन में SQL जैसी ही किसी भाषा का निर्माण करना पड़ता है, या कहें सेतुबन्ध बनाने के लिये अनुवादक को अलिखित तीसरी भाषा गढ़नी पड़ती है।

जब दो भाषायें संपर्क में आती हैं, उन दोनों के बीच शब्दों और सिद्धान्तों के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान की प्रक्रिया चलती है। जानकर कोई आश्चर्य नहीं होगा कि जहाँ वैज्ञानिक शब्दकोश अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं में आया है, भारतीय भाषाओं के आध्यात्मिक शब्दकोश से अंग्रेजी सम्पन्न हुयी है। कारण स्पष्ट है जब सारी वैज्ञानिक प्रगति अंग्रेजी में हो रही थी, भारतीय भाषाओं के अधिनायक अपनी स्वतन्त्रता के संघर्ष में डूबे थे। इसी प्रकार जब भारत में मनीषी अध्यात्म के उन्नत ग्रन्थ लिख रहे थे, यूरोप व अरब के देश अपने अंधे युग में थे।

हमको अपने सूत्र साधने
भारतीय भाषाओं में उपस्थित समानता और व्याकरण भारतीय भाषाओं के एक स्रोत की ओर इंगित करता है। यदि संस्कृत को केन्द्र में रखकर देखें तो तमिल को छोड़कर शेष सभी भारतीय भाषाओं की समरूपता का प्रतिशत ६५ से ऊपर है, कुछ में यह प्रतिशत ८५ तक भी पहुँच जाता है। व्याकरण और वर्णमाला के अतिरिक्त संस्कृति की समानता इसका प्रमुख कारण है। तमिल के साथ जहाँ सांस्कृतिक समैक्य है, व्याकरण और वर्णमाला थोड़ी भिन्न होने पर भी समानता का प्रतिशत ४५ के आसपास आता है। भाषाओं में बटे भारत में इस प्रकार की समानता ढूँढ निकालने का कार्य गम्भीरता से नहीं लिया गया है, एक भाषा को थोपे जाने के भावनात्मक भय ने एकता पाने की संभावनाओं पर भी कुठाराघात किया है। ६५ प्रतिशत की शाब्दिक समानता क्या पर्याप्त नहीं थी, हम लोगों को एक दूसरे के हृदय में पहुँच पाने के लिये?

देश के भाषायी प्रश्न को भावनात्मकता से विलग कर तथ्यात्मक आधार पर देखा जाये तो भाषायें न केवल एक दूसरे पर अपना प्रभाव डालती रहती हैं, वरन औरों के प्रभाव से स्वयं को बचाती रहती हैं। दूसरी भाषा के शब्दों को अपनी भाषा में लेने से भाषा के समृद्धिकरण के लाभ भी हैं और स्वयं के निगले जाने का भय भी। दो भाषाओं के जन के बीच संपर्क किसी एक भाषा में ही होता है। आवश्यकतानुसार लोग एक दूसरे की भाषा बोल भी लेते हैं, पर यह बात मानकर चलिये कि आवश्यकता कितनी भी गहरी हो, अपनी भाषा के मोहतन्तु इतनी सरलता से जाते नहीं हैं। बाह्य परिवेश में विवशतावश कोई भी भाषा बोले, पर घर आकर लोग अपनी मातृभाषा ही बोलते हैं। अपनी भाषा को, अपनी संस्कृति को बचाये रखने का मोह सबको होता है।

कभी सोचा है कि किसी एक बांग्लाभाषी का बंगलोर में क्या भाषायी आधार रहता होगा? मैं बताता हूँ क्योंकि मैं ऐसे कई परिवारों को जानता हूँ। घर में बांग्ला, बाहर कन्नड़, कार्यालय में अंग्रेजी और मेरे साथ हिन्दी। प्रश्न और जटिल कर देते हैं, पति पत्नी दोनों ही अलग भाषा बोलते हैं, बच्चा कौन सी भाषा सीखेगा? अंग्रेजी विश्व से जुड़ने की भाषा है, परिवेश की भाषा कुछ और हो सकती है? ऐसी भाषायी संबंधों में वह क्या ग्रहण करता होगा, किस भाषा में कितनी गहराई तक जा पाता होगा? या भ्रम में कुछ भी नहीं सीख पाता होगा? एक से अधिक भाषा जानने के लिये तब अधिक समस्या नहीं रहती होगी जब दोनों भाषाओं में सांस्कृतिक समानता हो। तब संभव है कि शब्द भी उभयनिष्ठ हों। समस्या तब आती है जब भाषाओं से संबद्ध संस्कृतियाँ भिन्न होती हैं, उनके भौतिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विमायें भिन्न होती हैं। अनुवादक का कार्य भी इसी आधार पर अपनी सरलता या जटिलता ढूँढता होगा।

जिस तरह से विश्व में भौगोलिकता के पार पारस्परिक संपर्कबिन्दु बढ़ रहे हैं, जिस तरह भाषाओं का आवागमन हो रहा है, जिस प्रकार बहुभाषी जन तैयार हो रहे हैं, उससे यह तो निश्चित है कि सभी भाषाओं में सतत परिवर्धन होगा। संस्कृतियों के इस वृहद मेले में भाषायें किस तरह प्रभावित होगीं, उनके आपसी संबंध किस तरह के होंगे, उनके संमिश्रण से शब्दकोश क्या आकार धरेंगे, यह शोध का विषय है। अंग्रेजी संस्कृति हर ओर फैली और निष्कर्ष स्वरूप शब्दकोश का आकार ३ हजार शब्दों से ३ लाख शब्दों तक हो गया है। अन्य भाषायें अंग्रेजी के इस ऐश्वर्य से प्रभावित होंगी कि अपनी राह स्वयं गढ़ेंगी? भारतीय भाषायें किस ओर बढ़ेंगी?

भाषाओं का प्रश्न जितना सरल लोग बनाने का प्रयास करते हैं, उतना सरल वह होता नहीं। मानव संबंधों से भी अधिक दुलार पाती हैं भाषाओं की भावनायें। जो हमको हमारे भाव समझाने का प्रयत्न अपने हर शब्द से करती हैं, हम भी उसके भाव समझ सकें, हम भी नित एक होते विश्व में भाषायी संबंध समझ सकें।

29 comments:

  1. भाषा और संस्कृति के आपसी समन्वय पर प्रभावित करता आलेख

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  2. भाषाओं का प्रश्न जितना सरल लोग बनाने का प्रयास करते हैं, उतना सरल वह होता नहीं।
    एकदम सही और ऐसा प्रयास वह लोग ही ज्यादा करते हैं जिन्हें भाषा के सैद्धांतिक आधार से कोई लेना देना नहीं होता .....भाषा संस्कृति और सभ्यता का अंग है और इसकी महता इसके विकसित होने में है ...और जितने भी माध्यम आज हमारे सामने हैं ...वह आज इतने व्यवस्थित नहीं होते अगर भाषा नहीं होती ....एक प्रभावी और शोधपूर्ण आलेख ....!!!

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  3. "किसी एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद की प्रक्रिया केवल दोनों भाषाओं के शब्दकोश से होकर नहीं जाती है, वरन अनुवाद से न्याय करने के लिये शब्दों द्वारा व्यक्त संास्कृतिक अनुगूँज और उस भाषा में छिपे व्याकरणीय भ्रमतन्तु समझने आवश्यक हैं। सफल अनुवाद इन दोनों को पूरी तरह से समझे बिना संभव ही नहीं है। अनुवादकों का कार्य सृजनशीलता में लेखकों से भले ही कम हो, पर संप्रेषण में लगे श्रम और समझ की दृष्टि से बहुत अधिक है, दो भाषाओं की संस्कृति और भाषायी शैली समझने की दृष्टि से बहुत अधिक है।"
    Well illustrated!
    सारगर्भित आलेख!

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  4. रोचक व भाषा के दृष्टिकोण पर गहरी जानकारी लिए लेख ।किसी भी क्षेत्र की भाषा वहाँ की सभ्यता व उसके विकास की डी एन ए है ।

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  5. वस्तुतः भाषा वाणी का ही प्रारूप है । वाणी चार प्रकार की होती है- परा-पश्यन्ती-मध्यमा और वैखरी । हम जैसे सामान्य मनुष्य केवल वैखरी का प्रयोग करते हैं जिसमें सम्प्रेषण की शक्ति बहुत कम होती है । कभी कभी भाषा की ज़रूरत ही नहीं पडती और भाव सम्प्रेषित होते रहते हैं ।

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  6. रोचक एवं विश्लेषक ।
    इससे इतर 'डिफ्रेंशियल कैलकुलस' और 'लिमिट' के माध्यम से मानवीय भावनाओं भी को काफी अच्छी तरह से दर्शाया जा सकता है ।

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  7. भाषा-विज्ञान पर बढ़िया चिन्तन।

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  8. भाषा पर गूढ़ आलेख है।

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  9. ज्ञान के विकास में शब्द सामर्थ्यशाली होते चले जाते हैं और आने वाली पीढ़ियों की चिन्तन प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाते रहते हैं।
    भाषा के सामर्थ्य और भाषा की गहनता पर शोधपूर्ण गहन आलेख ......अनेक भाषाएँ किन्तु अभिव्यक्ति का रूप एक .....मानवीय भावनाएं ....

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  10. सुन्दर विश्लेष्णात्मक आलेख .. बढियां विवेचन..
    दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें ..

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  11. बहुत सुन्दर विश्लेषण !
    नई पोस्ट हम-तुम अकेले

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  12. प्रभावित करता आलेख
    दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें

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  13. सहेजने लायक लेख है प्रवीण भाई !!

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  14. भाषा और विज्ञान का, आपसी और मानवीय सम्बन्धों का अनुपम विश्लेषण।

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  15. बहुत सधा हुआ विवेचन ..... भाषायी भाव जुड़े तो बहुत कुछ बेहतर हो सकेगा ....

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  16. अनुवादक को अलिखित तीसरी भाषा गढ़नी पड़ती है.....................संग्रहणीय आलेख। आपसे अनुरोध है कि आप अपने इस आलेख को एक बार पुन: पढ़ें और कहीं-कहीं भाषा सम्‍प्रेषण की जो तारतम्‍यता बिगड़ती प्रतीत होती है उसमें अपेक्षित सुधार कर लें। कृपया अन्‍यथा न लें। संग्रहणीय आलेख है इसलिए यह सुझाव दे रहा हूँ।

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  17. अत्यंत सशक्त आलेख.

    दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  18. Slowly I feel all regional languages are diluting and English is majorly come up as the most commonly spoken language. This is definitely not a good news.

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  19. गहन ज्ञान तो अपनी भाषा में ही या फिर किसी एक भाषा में ही होसकता है फिर भी मातृभाषा के अलावा दो-तीन भाषाओं का ठीक से काम चलाने लायक ज्ञान होना ही चाहिये--हिन्दी ,अँग्रेजी और कार्यस्थल की राज्य-भाषा । यह सोचते हुए बडा अच्छा लगता है कि गैरभाषा-साहित्य के अच्छे अनुवाद हैं । यह कहना गलत नही कि अच्छा अनुवाद किसी लेखन से कम महत्त्वपूर्ण नही है । दीपावली की असीम शुभकामनाएं ।

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  20. bhasha par rochak abhivyakti . Diwali ki sparwar apko hardik badhai shubhakamanayen ....

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  21. सशक्त आलेख....बहुत सुन्दर.. . आप को दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  22. --- सुन्दर आलेख... ..

    --- गणित और विज्ञान ने पूरे विश्व में अपनी भाषा एक सी बना ली है अतः एक देश में हुये विकास को दूसरे देश में सरलता से पढ़ा जा सकता है, बिना अनुवादकों की सहायता के। ..... शायद उचित तथ्य व कथ्य नहीं है.... अंग्रेज़ी के बिना इनको जानना दुष्कर है...
    ---- गणित व विज्ञान ने नहीं ...अंग्रेज़ी भाषा के राजनैतिक प्रभाव ने विश्व पटल पर गणित व विज्ञान को अंग्रेज़ी भाषा का दास बना लिया है....परन्तु -- भाषा ..बैखरी वाणी है....अतः जैसा गिरिजा जी ने कहा...गहन ज्ञान तो अपनी भाषा में ही होसकता है....तभी कोइ देश उन्नति कर सकता है...
    ---विश्व की समस्त उन्नत भाषाएँ आर्यन-संस्कृत से निकली हैं अतः उनमें एक-प्रारूपता होना स्वाभाविक है.

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  23. Interesting Analysis.
    My own private thoughts on the language issue :

    The Market is Merciless.
    The Market will decide which languages of the world will survive and which will die.
    I keep myself free from undue emotional attachment to any particular language, though I like English and Hindi.
    I speak a hotch-potch of languages as my native tongue(Tamil/Malayalam mainly liberally mixed with English, Hindi and Kannada words). A purist, in any of these languages, will wince as he hears me speaking at home in this Khichdi of languages.

    For career and advancement, for international communication, science, technology, medicine, law and commerce I prefer English.
    For contact with Indian culture, and mass communication with Desis I prefer Hindi.
    I am attracted only to Desi culture, Desi Music, Desi films in Hindi and some southern languages, never English. I cannot identify with English, in the cultural arena. Their music and films never attract me. I remain loyal to Indian music and films.
    For spiritual satisfaction, to me nothing feels as holy or sacred as Sanskrit.
    My knowledge of Sanskrit is limited but even then I prefer this language for our scriptures and prayers.
    In the past, I used my mother tongue to communicate only with my late mother and now I use it only with my wife and close family members.

    I believe the "language problem" has no solution.
    We should simply stop looking at the issue as a problem.
    In 1965-1967 , in India, we had a language problem that threatened to tear the South away from the North.
    We all changed our thinking later and today, we have no problem with our languages.
    Let them all co-exist peacefully.
    To each his own.
    Let the fittest survive.
    I will not shed tears for those that fail to do so.
    These are just some of my thoughts, for whatever they are worth.
    Regards and Happy Deepavali to you and your family.
    GV
    (Camp: California)




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  24. प्रभावी आलेख ...
    भाषा का महत्त्व ... महज बोलने से नहीं पालकी समाज, देश, काल ओर संस्कृति से होता है ...
    दीपावली के पावन पर्व की बधाई ओर शुभकामनायें ...

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  25. चिन्तन का क्रम यों ही चलता रहे !

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  26. भाषा-विज्ञान पर गूढ़ चिन्तन करता हुआ शानदार आलेख

    ऐसे फैलती है इतिहास से सम्बंधित भ्रांतियां

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  27. भाषा संबंधी अध्ययन के समय में एक विशेष प्रश्न आया था, कि किस प्रकार भाषा संस्कृतियों के पक्षों को अपने में समा कर रखती है और किस प्रकार वह चिन्तन को प्रभावित करती है। छोटा सा एक तुलनात्मक उदाहरण लें, वैज्ञानिक भाषा का और आदिवासी क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं का। वैज्ञानिक भाषा में प्रयुक्त शब्द जैसे एन्ट्रॉपी अपने आप में न जाने कितने सिद्धान्त समाहित किये बैठा है। जब भी वह बोला जायेगा, ऊष्मागतिकी के द्वितीय सिद्धांत तक प्रयुक्त सारा ज्ञान उस शब्द में व्याख्या सहित समाया मिलेगा।

    ये एक अकेला entropy शब्द वर्त्तमान कथित सेकुलर सरकार में व्याप्त सम्पूर्ण अवयवस्था के अर्थ समझा देगा।

    entropy is a measure of disorder .इस सरकार ने पूरे देश की entropy बढ़ा दी है। हर जगह घोर अव्यवस्था भ्रष्टाचार का शिष्टाचार है।

    भाषा के शब्दों में कितना अर्थ छिपा है और वे एक वाक्य के रूप में कितना भ्रमरहित संप्रेषण करते हैं, यह किसी भी भाषा के सामर्थ्य को दिखाते हैं। यहाँ पर एक बात समझनी आवश्यक हो जाती है जो भाषा के अनुवादकों के कठिन श्रम को समझने में सहायक है। किसी एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद की प्रक्रिया केवल दोनों भाषाओं के शब्दकोश से होकर नहीं जाती है, वरन अनुवाद से न्याय करने के लिये शब्दों द्वारा व्यक्त संास्कृतिक अनुगूँज और उस भाषा में छिपे व्याकरणीय भ्रमतन्तु समझने आवश्यक हैं।

    हाँ हर शब्द का अपना एक बिम्ब संस्कार होता है अर्थानुवाद इसे कुंठित कर देता है अर्थ का अन -अर्थ हो जाता है वैसे ही जैसे देश में अर्थ शास्त्र का हो रहा है।

    मराठी इसीलिए समझ आ जाती है देवनागरी में लिखी गई है। इसे अन्यान्य भाषाएं भी अपनाएं तो सबका भला हो एक कनेक्टिविटी एक सेतु भाषाओं के बीच भी बने। सुन्दर प्रस्तुति नए प्रतीक गढ़ती प्रोद्योगिकी और संस्कृति के बीच एक सेतु बनती सी ।

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  28. भाषाओं का प्रश्न जितना सरल लोग बनाने का प्रयास करते हैं, उतना सरल वह होता नहीं। मानव संबंधों से भी अधिक दुलार पाती हैं भाषाओं की भावनायें।
    उन भावनाओं को शब्‍द देता यह आलेख ... नि:शब्‍द कर देता है
    दीपोत्‍सव की अनंत शुभकामनाएं

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