महेन्द्र से हुयी कपड़ों के बारे में चर्चा विचारों के गहरे बीजरूप लिये थी। धीरे धीरे संबंधित सारे उदाहरण, उपदेश, आदेश, सलाह, अनुभव आदि सब एक सहज रूप में संघनित होने लगे। कहते हैं, जब वातावरण उपयुक्त होता है, विश्वभर से एकत्र हुआ बादलों का जल एक साथ ही बरस जाता है।
अपरिग्रह का यह आचरण हमारी संस्कृति की विचार तन्तुओं में गुणसूत्र बन कर विद्यमान है। साधु सन्तों की सारे देश में मुक्तहस्त विचरण करने की पद्धति में अपरिग्रह पर उनका विश्वास अनन्त है, उनका विश्वास कि जहाँ वे जायेंगे, प्रकृति उनका ध्यान रखेगी, जितना प्रकृति या समाज उन्हें पोषित करेगा, उतने में वे प्रसन्न रह लेंगे। उनके ज्ञानभरे उपदेशों ने जहाँ एक ओर गृहस्थों को अभिसिंचित किया होगा, वहीं दूसरी ओर उनके आनन्द भरे भावों से गृहस्थ सशंकित भी हुये होंगे, कहीं ऐसा न हो कि उनके पुत्र इस अपरिग्रह से प्रभावित हो, घर छोड़ सन्यासी न बन जायें।
निश्चय ही अभी निर्धनता हमारे देश की मूल पीड़ा है, लोग संख्याओं और आश्वासनों से उसे पुष्ट करने में लगे हैं, उपचार के नित नये साधन खोजे जा रहे हैं। उन पर अपरिग्रह एक विकल्प नहीं, वरन जकड़ी हुयी विवशता है। जहाँ जीने के संसाधन ही न हों, वहाँ कोई कैसे विचारों की सूक्ष्मता को पल्लवित कर सकेगा। पर जब स्थितियाँ अच्छी थी, जब देश में कोई भिखारी नहीं था, जब देश में आर्थिक संपन्नता थी, तब भी अपरिग्रह समाज में एक सम्माननीय गुण था, लोग स्वेच्छा से अपनी आवश्यकताओं को कम करके जीने में सुख और गर्व का अनुभव करते थे। समाज का स्वरूप क्षतिग्रस्त हुआ है पर अपरिग्रह उसके मूल में बना हुआ है।
ऐसा भी नहीं है कि केवल भारतीय जनमानस इस गुण को स्वीकारता हो, अपरिग्रह पतंजलि योग सूत्र में यम के रूप में है, जैन के पाँच सिद्धान्तों में एक है, बौद्ध में जेन के रूप में विद्यमान है। पाश्चात्य समाज इसके विविध रूपों से प्रभावित भी है और उसे अन्य रूपों में अपनाता भी है।
पश्चिमी जगत में संसाधनों की अधिकता से वहाँ के विचारशील युवाओं का मोहभंग हुआ है। वस्तुओं में सुख ढूढ़ने की मानसिकता ने घरों को संग्रहालय बना दिया है, इतना अधिक संग्रह कि घरों का आकार भी बढ़ने लगा। आकार व विस्तार बढ़ने पर भी वांछित सुख अनुपस्थित रहा और विडम्बना यह रही कि वस्तुओं की अधिकता दुखमयी प्रभाव लेकर आयी। इस तथ्य को समझने की क्षमता रखने वाले विवेकशील युवाओं ने मिनिमिलस्टिक लाइफ स्टाइल के नाम से जीवनशैली विकसित की। केवल उतनी ही वस्तुयें रखना जितनी नितान्त आवश्यक हों। वैज्ञानिक प्रगति और केन्द्रित दृष्टिकोण ने कई ऐसे उपाय निकाले कि बिना कार्यशैली व कार्यक्षमता प्रभावित किये एक ऐसी जीवनशैली निर्मित हुयी जिसमें अपरिग्रह केन्द्र में रहा। प्रत्येक संचय पर प्रश्न और कुछ भी नया जुटाने के पहले निर्मम प्रश्नावली, यह उनकी प्रमुख क्रियान्वयन विधि है।
जब परिवेश में सब संचयी मानसिकता से ग्रस्त हों तो आपकी अपरिग्रही मानसिकता पर असामान्य होने के आक्षेप लगेंगे, स्वाभाविक भी है। वस्तुयें कम करने को जीवन को बाधित स्वरूप में जीने से देखा जाने लगता है, कहा जाता है कि आप कृपणता से भरे हैं। यह सब आक्षेप सहने के बाद भी उनका उत्साह कम नहीं हुआ है। अपरिग्रह के बाद उनके जीवन में आये आनन्दमयी बदलाव ने उन्हें अन्यथा आक्षेप झेलने की सहनशीलता दी।
अपरिग्रह और कृपणता में कोई संबंध नहीं, कृपण मन से वस्तुओं और साधनों के प्रति आसक्ति बनाये रखता है, पर संचित धन को ही संचित सुख मानकर उसे वैसे ही धरे रहने की प्रवृत्ति उस धन को व्यय नहीं होने देती है। अपरिग्रह में व्यक्ति अपनी आवश्यकतायें के अनुरूप साधन तो जुटाकर रखता है पर धीरे धीरे अपनी आवश्यकतायें समझता और सीमित करता भी चलता है।
तब क्या अपरिग्रही अपनी आवश्यकता कम करने के प्रयास में अपने जीवन की गुणवत्ता से समझौता कर बैठता है? यह भी एक आक्षेप है जो बहुधा लगता रहता है। इसका उत्तर भी नकारात्मक है और इसे आधुनिक परिप्रेक्ष्य में सरल उदाहरण से समझा जा सकता है। पहले हमें घड़ी, रेडियो, कैमरा आदि वस्तुओं की आवश्यकता होती थी पर अब मोबाइल आ जाने से उनकी आवश्यकता नहीं रह गयी हैं। अपरिग्रही का आधुनिकता और तकनीक से भी कोई विरोध नहीं हैं, ये सब तो वाह्य साधन हैं, जीवन को क्या चाहिये, उसे समझने में और उसे कम से कम रखने में तकनीक सहयोगी होती है तो वह भी स्वीकार्य और स्वागतयोग्य हो। अपरिग्रह का अर्थ विकास के पथ पर पिछड़ जाना नहीं है। कई उदाहरण हैं, जिसमें तकनीक का उपयोग कर कई वस्तुओं के स्थान पर एक वस्तु से ही कार्य चलाया जा सकता है। क्यों न हम उनका उपयोग कर पुरातन विचार धारा को आधुनिकतम स्वरूप दें, क्यों न हम तकनीक के सन्त बनें।
न वाह्य कारकों से विरोध हो, न ही विकास के मानकों से विरोध हो, न ही तकनीक से, न ही व्यापार से, न ही बाजार से, न किसी वाद से, न किसी संवाद से, जीवन में अपरिग्रह का प्रारम्भ तो स्वयं से साम्य स्थापित करने में हो जाता है। यदि स्वयं पर अधिक ध्यान देंगे, स्वयं को अधिक समझेंगे तो यह भी जानने का प्रयास करेंगे कि आत्म को क्या भाता है, वह क्या है जो सुख दे जाता है। अपरिग्रह न तो निर्धनता है, अपरिग्रह न तो कृपणता है, अपरिग्रह स्वयं को प्रकृति से जोड़े रखने का आश्वासन है, अपरिग्रह न्यूनतम आश्रय और अधिकतम आनन्द की राह है।
अपरिग्रह के अधिकार क्षेत्र में हम सभी बिराजे हैं, कितना कुछ लिपटाये और लटकाये बैठे हैं, कहीं भार बढ़ा तो टपक जायेंगे, समय के पहले, अपने विश्व से कहीं दूर, भीड़ भाड़ में, थके थके।
अपरिग्रह का यह आचरण हमारी संस्कृति की विचार तन्तुओं में गुणसूत्र बन कर विद्यमान है। साधु सन्तों की सारे देश में मुक्तहस्त विचरण करने की पद्धति में अपरिग्रह पर उनका विश्वास अनन्त है, उनका विश्वास कि जहाँ वे जायेंगे, प्रकृति उनका ध्यान रखेगी, जितना प्रकृति या समाज उन्हें पोषित करेगा, उतने में वे प्रसन्न रह लेंगे। उनके ज्ञानभरे उपदेशों ने जहाँ एक ओर गृहस्थों को अभिसिंचित किया होगा, वहीं दूसरी ओर उनके आनन्द भरे भावों से गृहस्थ सशंकित भी हुये होंगे, कहीं ऐसा न हो कि उनके पुत्र इस अपरिग्रह से प्रभावित हो, घर छोड़ सन्यासी न बन जायें।
निश्चय ही अभी निर्धनता हमारे देश की मूल पीड़ा है, लोग संख्याओं और आश्वासनों से उसे पुष्ट करने में लगे हैं, उपचार के नित नये साधन खोजे जा रहे हैं। उन पर अपरिग्रह एक विकल्प नहीं, वरन जकड़ी हुयी विवशता है। जहाँ जीने के संसाधन ही न हों, वहाँ कोई कैसे विचारों की सूक्ष्मता को पल्लवित कर सकेगा। पर जब स्थितियाँ अच्छी थी, जब देश में कोई भिखारी नहीं था, जब देश में आर्थिक संपन्नता थी, तब भी अपरिग्रह समाज में एक सम्माननीय गुण था, लोग स्वेच्छा से अपनी आवश्यकताओं को कम करके जीने में सुख और गर्व का अनुभव करते थे। समाज का स्वरूप क्षतिग्रस्त हुआ है पर अपरिग्रह उसके मूल में बना हुआ है।
ऐसा भी नहीं है कि केवल भारतीय जनमानस इस गुण को स्वीकारता हो, अपरिग्रह पतंजलि योग सूत्र में यम के रूप में है, जैन के पाँच सिद्धान्तों में एक है, बौद्ध में जेन के रूप में विद्यमान है। पाश्चात्य समाज इसके विविध रूपों से प्रभावित भी है और उसे अन्य रूपों में अपनाता भी है।
पश्चिमी जगत में संसाधनों की अधिकता से वहाँ के विचारशील युवाओं का मोहभंग हुआ है। वस्तुओं में सुख ढूढ़ने की मानसिकता ने घरों को संग्रहालय बना दिया है, इतना अधिक संग्रह कि घरों का आकार भी बढ़ने लगा। आकार व विस्तार बढ़ने पर भी वांछित सुख अनुपस्थित रहा और विडम्बना यह रही कि वस्तुओं की अधिकता दुखमयी प्रभाव लेकर आयी। इस तथ्य को समझने की क्षमता रखने वाले विवेकशील युवाओं ने मिनिमिलस्टिक लाइफ स्टाइल के नाम से जीवनशैली विकसित की। केवल उतनी ही वस्तुयें रखना जितनी नितान्त आवश्यक हों। वैज्ञानिक प्रगति और केन्द्रित दृष्टिकोण ने कई ऐसे उपाय निकाले कि बिना कार्यशैली व कार्यक्षमता प्रभावित किये एक ऐसी जीवनशैली निर्मित हुयी जिसमें अपरिग्रह केन्द्र में रहा। प्रत्येक संचय पर प्रश्न और कुछ भी नया जुटाने के पहले निर्मम प्रश्नावली, यह उनकी प्रमुख क्रियान्वयन विधि है।
जब परिवेश में सब संचयी मानसिकता से ग्रस्त हों तो आपकी अपरिग्रही मानसिकता पर असामान्य होने के आक्षेप लगेंगे, स्वाभाविक भी है। वस्तुयें कम करने को जीवन को बाधित स्वरूप में जीने से देखा जाने लगता है, कहा जाता है कि आप कृपणता से भरे हैं। यह सब आक्षेप सहने के बाद भी उनका उत्साह कम नहीं हुआ है। अपरिग्रह के बाद उनके जीवन में आये आनन्दमयी बदलाव ने उन्हें अन्यथा आक्षेप झेलने की सहनशीलता दी।
अपरिग्रह और कृपणता में कोई संबंध नहीं, कृपण मन से वस्तुओं और साधनों के प्रति आसक्ति बनाये रखता है, पर संचित धन को ही संचित सुख मानकर उसे वैसे ही धरे रहने की प्रवृत्ति उस धन को व्यय नहीं होने देती है। अपरिग्रह में व्यक्ति अपनी आवश्यकतायें के अनुरूप साधन तो जुटाकर रखता है पर धीरे धीरे अपनी आवश्यकतायें समझता और सीमित करता भी चलता है।
तब क्या अपरिग्रही अपनी आवश्यकता कम करने के प्रयास में अपने जीवन की गुणवत्ता से समझौता कर बैठता है? यह भी एक आक्षेप है जो बहुधा लगता रहता है। इसका उत्तर भी नकारात्मक है और इसे आधुनिक परिप्रेक्ष्य में सरल उदाहरण से समझा जा सकता है। पहले हमें घड़ी, रेडियो, कैमरा आदि वस्तुओं की आवश्यकता होती थी पर अब मोबाइल आ जाने से उनकी आवश्यकता नहीं रह गयी हैं। अपरिग्रही का आधुनिकता और तकनीक से भी कोई विरोध नहीं हैं, ये सब तो वाह्य साधन हैं, जीवन को क्या चाहिये, उसे समझने में और उसे कम से कम रखने में तकनीक सहयोगी होती है तो वह भी स्वीकार्य और स्वागतयोग्य हो। अपरिग्रह का अर्थ विकास के पथ पर पिछड़ जाना नहीं है। कई उदाहरण हैं, जिसमें तकनीक का उपयोग कर कई वस्तुओं के स्थान पर एक वस्तु से ही कार्य चलाया जा सकता है। क्यों न हम उनका उपयोग कर पुरातन विचार धारा को आधुनिकतम स्वरूप दें, क्यों न हम तकनीक के सन्त बनें।
न वाह्य कारकों से विरोध हो, न ही विकास के मानकों से विरोध हो, न ही तकनीक से, न ही व्यापार से, न ही बाजार से, न किसी वाद से, न किसी संवाद से, जीवन में अपरिग्रह का प्रारम्भ तो स्वयं से साम्य स्थापित करने में हो जाता है। यदि स्वयं पर अधिक ध्यान देंगे, स्वयं को अधिक समझेंगे तो यह भी जानने का प्रयास करेंगे कि आत्म को क्या भाता है, वह क्या है जो सुख दे जाता है। अपरिग्रह न तो निर्धनता है, अपरिग्रह न तो कृपणता है, अपरिग्रह स्वयं को प्रकृति से जोड़े रखने का आश्वासन है, अपरिग्रह न्यूनतम आश्रय और अधिकतम आनन्द की राह है।
अपरिग्रह के अधिकार क्षेत्र में हम सभी बिराजे हैं, कितना कुछ लिपटाये और लटकाये बैठे हैं, कहीं भार बढ़ा तो टपक जायेंगे, समय के पहले, अपने विश्व से कहीं दूर, भीड़ भाड़ में, थके थके।
अपरिग्रह न तो निर्धनता है, अपरिग्रह न तो कृपणता है, अपरिग्रह स्वयं को प्रकृति से जोड़े रखने का आश्वासन है, अपरिग्रह न्यूनतम आश्रय और अधिकतम आनन्द की राह है।
ReplyDelete@ सत्य वचन
Those were brilliant and perceptive thoughts on Renunciation.
ReplyDeleteNow that my career is truly over and I am living a retired life, I have always dreamed of the day when I will reduce my material needs to the barest minimum.
At 64, I am now nearing the age when it is practical to do so.
I wish to live out of just two suitcases and a back pack.
I dream of Selling/Disposing of my immovable property, and keep moving from place to place.
I dream of having just a laptop/tablet/cell phone as my tools for communication/entertainment/information.
Will that day ever dawn when I will actually take the plunge? I don't know.
Will my wife be ready to join me in this? I wonder. It cannot be a unilateral decision.
I welcome this concept of renunciation, but am still not confident of the ability to face the consequences.
I am not ready for Total "Sanyaas". I Just Renunciation.
Thanks for a thought provoking blog post on a difficult subject.
Another subject you could consider writing about is "Detachment"
What would be the proper Hindi word for that? अनासक्ति? विच्छेद? वियोग?
Regards
GV
अपरिग्रह तो मुझे भी भाता है और अब इसे देखने और समझने को नई दृष्टि भी मिली आपके आलेख के माध्यम से .
ReplyDeleteअष्टाङ्ग योग के आठ अङ्ग हैं - 1-यम 2 नियम 3 आसन 4 प्राणायाम 5- प्रत्याहार 6 - धारणा 7- ध्यान और 8- समाधि । यम के पॉंच सिध्दान्त हैं- 1- अहिंसा 2-सत्य 3 -अस्तेय 4 - ब्रह्मचर्य 5 -अपरिग्रह । वस्तुतः अपरिग्रह अष्टाङ्ग-योग के 'यम' का पॉंचवॉं सिध्दान्त है । मनुष्य के स्वभाव की विशेषतायें खुद ब खुद दिखाई देती हैं और हम सब इसका अनुभव भी करते हैं । यह सुख-प्रद एवम् संतोष-प्रद है ।
ReplyDeleteवर्तमान युग के दुख का मूल परिग्रह ही है।
ReplyDeleteअरे वाह मैने तो इस लेख का दूसरा भाग सोचा ही नही था । पर हां इस चर्चा को और भी आगे बढा सकते है और यदि आप एक आध प्रसंग भी डालें इस विषय से संबधित तो और मजा आये ।
ReplyDeleteNice post computer and internet ki nayi jankaari tips ans trick ke liye dhekhe www.hinditechtrick.blogspot.com
ReplyDeleteपोस्ट का दूसरा भाग भी अच्छा लगा प्रवीण सर आभार।
ReplyDeleteसिद्धांत रूप में अपरिग्रह निश्चय ही भारतीय संस्कृति, दर्शन व यहाँ के मौलिक विभिन्न धर्मों का मूल आधार रही है, परंतु वास्तविक जीवन आचरण और जीवन शैली तो सर्वथा इसके विपरीत दिखती है ।प्रायः जनमानस सात पुस्त हेतु संचय का आग्रह करता है, वह चाहे पुण्यलाभ की बात हो अथवा धनलाभ की, यह बात और है कि हम अपने संचय प्रवृत्ति को धर्म, आस्था और संस्कार का आवरण देने का बड़ी चतुराई से प्रयास करें ।कुल मिलाकर कहें तो हमारी कथनी और आचरण में बहुत असमानता है ।उदाहरण के लिए दहेज प्रथा, जो कि भारत में मुख्यतः सबसे शिक्षित, धार्मिक और तथाकथित आचरणशील और संस्कारित समुदाय में ही ज्यादा पायी जाती है, अपरिग्रह नियम के सर्वथा विपरीत है ।इसी प्रकार अपनी अगली पीढ़ी या सच कहें तो पीढ़ियों हेतु पर्याप्त धनसंपदा का संचय इसी तथाकथित सबसे धार्मिक, संस्कारित और आचरणशील वर्ग में ही पायी जाती है । बल्कि यदि पाश्चात्य समाज और समाज की बात करें तो भले ही देखने में उनकी जीवनशैली ज्यादा भौतिकतावादी,उन्मुक्त और सुखसुविधा युक्त प्रतीत होती परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि वे अपने जीवन आचरण के विपरीत सिद्धांत बघारने और मिथ्याचार का पाखंड तो नहीं करते ।इसप्रकार हमारे भारतीय समाज वो जनमानस को अपने सुंदर सिद्धांत और दर्शन की बातों और वास्तविक जीवन आचरण में सामंजस्य और समानता लाने की आवश्यकता है ।
ReplyDeleteसुंदर व विवेचनात्मक प्रस्तुति हेतु हार्दिक आभार ।
सिद्धांत रूप में अपरिग्रह निश्चय ही भारतीय संस्कृति, दर्शन व यहाँ के मौलिक विभिन्न धर्मों का मूल आधार रही है, परंतु वास्तविक जीवन आचरण और जीवन शैली तो सर्वथा इसके विपरीत दिखती है ।प्रायः जनमानस सात पुस्त हेतु संचय का आग्रह करता है, वह चाहे पुण्यलाभ की बात हो अथवा धनलाभ की, यह बात और है कि हम अपने संचय प्रवृत्ति को धर्म, आस्था और संस्कार का आवरण देने का बड़ी चतुराई से प्रयास करें ।कुल मिलाकर कहें तो हमारी कथनी और आचरण में बहुत असमानता है ।उदाहरण के लिए दहेज प्रथा, जो कि भारत में मुख्यतः सबसे शिक्षित, धार्मिक और तथाकथित आचरणशील और संस्कारित समुदाय में ही ज्यादा पायी जाती है, अपरिग्रह नियम के सर्वथा विपरीत है ।इसी प्रकार अपनी अगली पीढ़ी या सच कहें तो पीढ़ियों हेतु पर्याप्त धनसंपदा का संचय इसी तथाकथित सबसे धार्मिक, संस्कारित और आचरणशील वर्ग में ही पायी जाती है । बल्कि यदि पाश्चात्य समाज और समाज की बात करें तो भले ही देखने में उनकी जीवनशैली ज्यादा भौतिकतावादी,उन्मुक्त और सुखसुविधा युक्त प्रतीत होती परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि वे अपने जीवन आचरण के विपरीत सिद्धांत बघारने और मिथ्याचार का पाखंड तो नहीं करते ।इसप्रकार हमारे भारतीय समाज वो जनमानस को अपने सुंदर सिद्धांत और दर्शन की बातों और वास्तविक जीवन आचरण में सामंजस्य और समानता लाने की आवश्यकता है ।
ReplyDeleteसुंदर व विवेचनात्मक प्रस्तुति हेतु हार्दिक आभार ।
Loved reading this comment.
DeleteRegards
GV
बहुत बढिया
ReplyDeleteबिलकुल सही विश्लेषण। अपरिग्रह अनावश्यक से बचने का मूलमंत्र है।
ReplyDeleteअगर इतना ही समझलें हम की हमारी आत्मा को क्या भाता है। तो बाकी सब अपने आप ही ठीक हो जाएगा। जैसे वो सिंघम फिल्म का संवाद था ना "मेरी जरूरत कम है इसलिए मेरे हाथ में दम है" :)
ReplyDeleteजितना ज्यादा किसी के पास संग्रह की वस्तुएं होती हैं उसे त्यागना उतना ही उसके लिए कठिन होता है...इसलिए अगर सबकुछ होने के बाद भी कोई उसका त्याग करता है तो उसके त्याग को हमारे चिंतकों ने महिमामयी बताया है.....ऐसा नहीं है कि जिसके पास कुछ नहीं वो निरपेक्ष भाव नहीं रख सकता....दरअसल जिसके पास सुख के भौतिक साधन हैं....और जिसके पास नहीं है पर वो पाने कि चेष्टा में लगा रहे...ऐसे दोनो लोगो के अंदर भौतिक साधनों के प्रति निरपेक्षता का भाव होना बढ़ी बात है
ReplyDeleteअपरिग्रह और कृपणता के बीच का अंतर विवेचित कर के अच्छा किया
ReplyDeleteसाधुवाद
विवेचनात्मक प्रस्तुति .....बहुत बढिया....
ReplyDeletebeing happy and content.. that's the ultimate goal
ReplyDeleteif renunciation can bring that... then it's best.
interesting read !!
वाकई इस न्यूनतम आश्रय के दर्शन को यदि गौर से हरेक व्यक्ति समझ ले तो दुनिया का कलेवर ही बदल जाए।
ReplyDeleteजीवन के लिये आवश्यक का संचय हो, किन्तु संचय के लिये जीवन न हो।
ReplyDeleteन वाह्य कारकों से विरोध हो, न ही विकास के मानकों से विरोध हो, न ही तकनीक से, न ही व्यापार से, न ही बाजार से, न किसी वाद से, न किसी संवाद से, जीवन में अपरिग्रह का प्रारम्भ तो स्वयं से साम्य स्थापित करने में हो जाता है। यदि स्वयं पर अधिक ध्यान देंगे, स्वयं को अधिक समझेंगे तो यह भी जानने का प्रयास करेंगे कि आत्म को क्या भाता है, वह क्या है जो सुख दे जाता है। अपरिग्रह न तो निर्धनता है, अपरिग्रह न तो कृपणता है, अपरिग्रह स्वयं को प्रकृति से जोड़े रखने का आश्वासन है, अपरिग्रह न्यूनतम आश्रय और अधिकतम आनन्द की राह है।
ReplyDeleteI became just speechless....Superb :)
असल बात तो यही है ... दिल प्र नियंत्रण कर सकें तो इससे बड़ा कोई जीवन सिद्धांत नहीं ...
ReplyDeleteएक बड़े बदलाव और सभी की ज़रूरतें पूरी करने की नींव रख सकता है आपका विचार ...... विचारणीय भी , अनुकरणीय भी
ReplyDeleteअपरिग्रह सुखी जीवन का मूलमंत्र है -कंजूस होना एक विकृत मनोवृत्ति है
ReplyDeleteअपरिग्रह और कृपणता में अंतर की रेखा बड़ी सूक्ष्म है ,इसको आत्मनियंत्रण और अनियंत्रण भी कह सकते हैं ,.......
ReplyDeleteएक सुन्दर विवेचन...अच्छा लगा पढ़ कर.
ReplyDeleteसुखी जीवन जीने का एक जरिया है अपरिग्रह। बचपन में एक साधु की कहानी पढी थी तो उसके झोले में एक तवा और एक चिमटा होता था। भिक्षा मांग कर जो आटा मिलता तवे पर ही गूंथ कर उसे ही आंच पर रख कर रोटला बना लेता था बाद में तवे पर ही दाल या साग बना लेता था और उसी को थाल की तरह उपयोग में लाकर खाना भी खा लेता था । अपरिग्रह का उत्तम उदाहरण। हमारी तो अब ये अवस्था है कि सामान जोडना नही घचाना है दे देना है।
ReplyDeleteजाने क्यूं आजकल अपरिग्रह से लोगों को चिढ सी हो गई है.? अंधाधुंध परिग्रह करते जा रहे हैं. आखिर क्या अंत होगा? बहुत ही सारगर्भित विषय पर लिखा आपने, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
अपरिग्रह के अधिकार क्षेत्र में हम सभी बिराजे हैं, कितना कुछ लिपटाये और लटकाये बैठे हैं .... बिल्कुल सच कहा सार्थकता लिये सशक्त प्रस्तुति
ReplyDeleteअपरिग्रह .....सदा जीवन उच्च विचार .....सुंदर जीवन शैली .....प्रभावित करता आलेख ....!!
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