मेरे एक मित्र हैं, विद्यालय में सहपाठी रहे हैं, छात्रावास के साथी हैं, बहुत घनिष्ठ हैं, जैन मतावलम्बी हैं, कपड़ा व्यापारी हैं और मेरे वर्तमान के निवास से बहुत पास भी रहते हैं। मैं बंगलोर में और वे कोयम्बटूर में, वर्ष में कई बार मिलना भी होता है। बड़े मृदुभाषी हैं और मन में कुछ भी छिपा कर नहीं रखते हैं। लोकधारणा यह हो सकती है कि व्यापारी के लिये हृदय खोल कर रख देना, व्यवसाय के लिये एक सहायक गुण नहीं हो सकता है, पर वे इसके भी अपवाद हैं। पारदर्शिता और गुणवत्ता के सिद्धान्तों पर व्यापार करने से उनके साथ काम करने वालों को अपार भरोसा है उन पर। यही कारण रहा होगा कि जब भी उनसे कुछ भी बातचीत होती है, मन में एक स्वाभाविक स्नेह जग आता है। यही कारण रहा होगा कि उनसे मित्रता इतनी प्रगाढ़ है।
चरित्र चित्रण पर विशेष रूप से अधिक समय इसलिये दे रहा हूँ, जिससे हम दोनों के बीच हुये संवाद की सहजता और गूढ़ता समझने में सहायता हो पाठकों को। पार्श्व में क्या है, जीवन में किन बातों का महत्व है, व्यक्तित्व के ये पक्ष ज्ञात होने पर बहुधा संवादों को अन्यथा विकिरण से बचाया जा सकता है। संवादों को अर्थों की बहुलता के कोलाहल से बाहर लाकर स्पष्ट समझा जा सकता है। यही कारण रहा जिसने मित्र के बारे में इतना कुछ बताने पर विवश कर दिया।
प्रस्तुत विषयवस्तु के लिये इतना विस्तृत परिचय आवश्यक नहीं था, केवल नाम बता कर भी कार्य चल सकता था, यह बता कर कि उनका नाम महेन्द्र जैन है, विषय पर आया जा सकता था। महेन्द्र मेरे अत्यन्त प्रिय हैं, सहज हैं, अतः इतना परिचय स्वतः ही बह निकला।
घर पर बात चल रही थी, बात जीवन के कई सामान्य पथों से होते हुये इस बात पर आ गयी कि जीवन में आनन्दमय होकर जीने के लिये कितनी वस्तुओं की आवश्यकता है। बहुधा हम कुछ अधिक ही साधन जुटा लेते हैं, आवश्यकता से कहीं अधिक। सदा ही लगता है कि हम इतना कुछ जोड़ लेते हैं कि उपयोग में ही नहीं ला पाते हैं। यदि हमारी संग्रहण की यह प्रवृत्ति संयमित और नियमित हो जाये तो किसी भी संसाधन की कमी नहीं रहेगी, मानवमात्र के लिये।
आवश्यकता से अधिक न रखने को अपरिग्रह कहा जाता है। पर हम जिस स्तर पर बात कर रहे थे, वह उसका भौतिक प्रक्षेपण ही था। अपरिग्रह का आध्यात्मिक पक्ष बहुत ही गहरा है। उस विमा में तब तक अनावश्यक तजा जाता है, जब तक हम स्वयं ही रह जाये, अपने शुद्ध चिरंतन स्वरूप में।
मैंने कहा, देखो कैसा संयोग है कि तुम्हारा व्यवसाय कपड़े का है और मेरे लिये अपरिग्रह का प्रारम्भ कपड़े से ही होता है। पिताजी से सीखा एक गुण है, जब तक पुराना कपड़ा कई वर्ष चल न जाये, नया कपड़ा सिलवाते नहीं थे। एक वर्ष में एक भी कपड़ा नया आ जाये तो वह पर्याप्त रहता है, जीवनशैली में सहज लयमय हो जाता है। यद्यपि मेरे पास इतना धन तो है कि कई प्रकार के कपड़े सिलवा सकता हूँ, पर संस्कार में सीखा अपरिग्रह मन में स्थायी बस गया है। सीधा सरल पहनावा अच्छा लगता है, कोई ऐसा कपड़ा रखा ही नहीं जो वर्ष में एक या दो बार पहनने के लिये हो। हाँ, विवाह और प्रशिक्षण के समय दो सूट सिलवा दिये गये थे, उनमें से एक तो किसी को भेंट कर दिया और दूसरा अभी तक भारसम संचयों में जड़ा हुआ है।
तब क्या प्रशासनिक कार्यों में उससे असहजता नहीं आती है? महेन्द्र का प्रश्न सहज था। सरकारी तन्त्र के बारे में अधिक न जानने वालों के लिये यह प्रश्न स्वाभाविक भी है। हो सकता है कि कुछ लोग कार्य से अधिक कपड़े पर ध्यान देते हों, हो सकता है कि कुछ लोगों ने यह तथ्य जान लिया हो कि ५ शर्ट और दो तरह के पैन्ट पहन कर ही हम आते हैं, हो सकता है कि कार्यालय में मेरे नीरस ड्रेसिंग सेन्स पर चर्चा भी होती हों, पर आज तक किसी वरिष्ठ ने या अधीनस्थ ने इस बारे में टोका ही नहीं और न ही स्वयं मैने किसी के कपड़ों पर कभी ध्यान दिया। कभी ऐसा लगा ही नहीं कि मुझे तनिक और विविधता से भरे कपड़े पहन कर कार्यालय में जाना चाहिये। कपड़े स्वच्छ रहें, अपने रंग रूप के कारण किसी की आँखों न खटकें, उनके बारे में इससे अधिक विचार मन में आया ही नहीं।
घर में श्रीमतीजी भी जान चुकी हैं कि कपड़ों के संबंध में ये सुधरने वाले नहीं हैं, अधिक कपड़े भी लेंगे नहीं, अतः कपड़े जिस दिन भी गन्दे हों, उसके अगले दिन धुलवा कर और प्रेस करवा कर रखवा देती हैं। नया कपड़ा घर में तभी आता है, जब कोई पुराना कपड़ा किसी को दे देता हूँ।
समझ नहीं आ रहा था, पर सब महेन्द्र को बताये जा रहा था, मन में कोई बात रही होगी कि मेरी जीवनशैली महेन्द्र के व्यवसाय को पोषित नहीं करती है। आधुनिक व्यापार में तो माँग ही सब सुखों का प्रारम्भ बिन्दु है, बिना माँग के बाजार की प्रक्रिया आगे बढ़ती ही नहीं है। यदि यही उदाहरण रहा तो कपड़े की माँग कम हो जायेगी और उसका व्यापार प्रभावित भी होगा। यह मित्र के व्यवसाय और स्वयं के जीवनधारा में एक द्वन्द्व दृष्टिगत था। जब मन में कोई संघर्ष होता है तो शब्दों का रक्त अधिक बहता है, मैं बोले जा रहा था।
ऐसा नहीं हैं कि घर में सब लोग मेरी ही विचारधारा के हैं, पृथु निकटस्थ अनुगामी है और श्रीमतीजी प्रबल प्रतिद्वन्दी, देवला उन दोनों के बीच में आती है। नारियों को रंग भाते हैं, प्रकृति में जितने रंग हैं, सब के सब भाते हैं, नारी प्रकृति के निकटस्थ जो है। हर अवसर के लिये, हर स्थान के लिये उनके पास कपड़े हैं। संभवतः कपड़ों के प्रति उनके अगाध प्रेम ने मुझमें इतना वैराग्य उत्पन्न कर दिया हो। कम से कम देश के औसत से कहीं अधिक कपड़े मेरे घर में न आ जायें। यह हर घर में बहस का विषय हो सकता है कि कितने कपड़े पर्याप्त हों, विचार भिन्न भिन्न हो सकते हैं। श्रीमतीजी कहती हैं कि मेरे पास अधिक कपड़े नहीं हैं क्योंकि मुझे कपड़ों से प्रेम नहीं है। मेरा तर्क थोड़ा कटु हो सकता है, पर उनके लिये किसी कपड़े को वर्ष में एक बार पहनना, यदि प्रेम प्रदर्शन का मानक है तो मेरा मेरे कपड़ों के प्रति प्रेम ५० गुना अधिक है।
महेन्द्र ने बताया कि अपरिग्रह तो जैन धर्मों के पाँच मूल सिद्धान्तों में आता है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। व्यक्तिगत जीवन में यदि अपरिग्रह न अपनाया जायेगा तो समाज संसाधनयुक्त नहीं रह पायेगा। संसाधन यदि उपयोग में न आयेगा तब तो वह व्यर्थ ही माना जायेगा। संग्रहण की प्रवत्ति तो न स्वयं के लिये लाभदायी है और न ही समाज के लिये।
रात्रि अधिक हो चली थी, कल कपड़े के व्यापार कर्म के लिये महेन्द्र को सुबह बाजार के लिये निकलना था, अतः चर्चा वहीं विराम पा गयी। जीवन में कपड़ों के माध्यम से ही सही, पर मेरे मन में अपरिग्रह संबंधी प्रश्न हिलोरें ले रहे थे, उन्हें अपने निष्कर्ष तो ढूढ़ने ही थे।
चरित्र चित्रण पर विशेष रूप से अधिक समय इसलिये दे रहा हूँ, जिससे हम दोनों के बीच हुये संवाद की सहजता और गूढ़ता समझने में सहायता हो पाठकों को। पार्श्व में क्या है, जीवन में किन बातों का महत्व है, व्यक्तित्व के ये पक्ष ज्ञात होने पर बहुधा संवादों को अन्यथा विकिरण से बचाया जा सकता है। संवादों को अर्थों की बहुलता के कोलाहल से बाहर लाकर स्पष्ट समझा जा सकता है। यही कारण रहा जिसने मित्र के बारे में इतना कुछ बताने पर विवश कर दिया।
प्रस्तुत विषयवस्तु के लिये इतना विस्तृत परिचय आवश्यक नहीं था, केवल नाम बता कर भी कार्य चल सकता था, यह बता कर कि उनका नाम महेन्द्र जैन है, विषय पर आया जा सकता था। महेन्द्र मेरे अत्यन्त प्रिय हैं, सहज हैं, अतः इतना परिचय स्वतः ही बह निकला।
घर पर बात चल रही थी, बात जीवन के कई सामान्य पथों से होते हुये इस बात पर आ गयी कि जीवन में आनन्दमय होकर जीने के लिये कितनी वस्तुओं की आवश्यकता है। बहुधा हम कुछ अधिक ही साधन जुटा लेते हैं, आवश्यकता से कहीं अधिक। सदा ही लगता है कि हम इतना कुछ जोड़ लेते हैं कि उपयोग में ही नहीं ला पाते हैं। यदि हमारी संग्रहण की यह प्रवृत्ति संयमित और नियमित हो जाये तो किसी भी संसाधन की कमी नहीं रहेगी, मानवमात्र के लिये।
आवश्यकता से अधिक न रखने को अपरिग्रह कहा जाता है। पर हम जिस स्तर पर बात कर रहे थे, वह उसका भौतिक प्रक्षेपण ही था। अपरिग्रह का आध्यात्मिक पक्ष बहुत ही गहरा है। उस विमा में तब तक अनावश्यक तजा जाता है, जब तक हम स्वयं ही रह जाये, अपने शुद्ध चिरंतन स्वरूप में।
मैंने कहा, देखो कैसा संयोग है कि तुम्हारा व्यवसाय कपड़े का है और मेरे लिये अपरिग्रह का प्रारम्भ कपड़े से ही होता है। पिताजी से सीखा एक गुण है, जब तक पुराना कपड़ा कई वर्ष चल न जाये, नया कपड़ा सिलवाते नहीं थे। एक वर्ष में एक भी कपड़ा नया आ जाये तो वह पर्याप्त रहता है, जीवनशैली में सहज लयमय हो जाता है। यद्यपि मेरे पास इतना धन तो है कि कई प्रकार के कपड़े सिलवा सकता हूँ, पर संस्कार में सीखा अपरिग्रह मन में स्थायी बस गया है। सीधा सरल पहनावा अच्छा लगता है, कोई ऐसा कपड़ा रखा ही नहीं जो वर्ष में एक या दो बार पहनने के लिये हो। हाँ, विवाह और प्रशिक्षण के समय दो सूट सिलवा दिये गये थे, उनमें से एक तो किसी को भेंट कर दिया और दूसरा अभी तक भारसम संचयों में जड़ा हुआ है।
तब क्या प्रशासनिक कार्यों में उससे असहजता नहीं आती है? महेन्द्र का प्रश्न सहज था। सरकारी तन्त्र के बारे में अधिक न जानने वालों के लिये यह प्रश्न स्वाभाविक भी है। हो सकता है कि कुछ लोग कार्य से अधिक कपड़े पर ध्यान देते हों, हो सकता है कि कुछ लोगों ने यह तथ्य जान लिया हो कि ५ शर्ट और दो तरह के पैन्ट पहन कर ही हम आते हैं, हो सकता है कि कार्यालय में मेरे नीरस ड्रेसिंग सेन्स पर चर्चा भी होती हों, पर आज तक किसी वरिष्ठ ने या अधीनस्थ ने इस बारे में टोका ही नहीं और न ही स्वयं मैने किसी के कपड़ों पर कभी ध्यान दिया। कभी ऐसा लगा ही नहीं कि मुझे तनिक और विविधता से भरे कपड़े पहन कर कार्यालय में जाना चाहिये। कपड़े स्वच्छ रहें, अपने रंग रूप के कारण किसी की आँखों न खटकें, उनके बारे में इससे अधिक विचार मन में आया ही नहीं।
घर में श्रीमतीजी भी जान चुकी हैं कि कपड़ों के संबंध में ये सुधरने वाले नहीं हैं, अधिक कपड़े भी लेंगे नहीं, अतः कपड़े जिस दिन भी गन्दे हों, उसके अगले दिन धुलवा कर और प्रेस करवा कर रखवा देती हैं। नया कपड़ा घर में तभी आता है, जब कोई पुराना कपड़ा किसी को दे देता हूँ।
समझ नहीं आ रहा था, पर सब महेन्द्र को बताये जा रहा था, मन में कोई बात रही होगी कि मेरी जीवनशैली महेन्द्र के व्यवसाय को पोषित नहीं करती है। आधुनिक व्यापार में तो माँग ही सब सुखों का प्रारम्भ बिन्दु है, बिना माँग के बाजार की प्रक्रिया आगे बढ़ती ही नहीं है। यदि यही उदाहरण रहा तो कपड़े की माँग कम हो जायेगी और उसका व्यापार प्रभावित भी होगा। यह मित्र के व्यवसाय और स्वयं के जीवनधारा में एक द्वन्द्व दृष्टिगत था। जब मन में कोई संघर्ष होता है तो शब्दों का रक्त अधिक बहता है, मैं बोले जा रहा था।
ऐसा नहीं हैं कि घर में सब लोग मेरी ही विचारधारा के हैं, पृथु निकटस्थ अनुगामी है और श्रीमतीजी प्रबल प्रतिद्वन्दी, देवला उन दोनों के बीच में आती है। नारियों को रंग भाते हैं, प्रकृति में जितने रंग हैं, सब के सब भाते हैं, नारी प्रकृति के निकटस्थ जो है। हर अवसर के लिये, हर स्थान के लिये उनके पास कपड़े हैं। संभवतः कपड़ों के प्रति उनके अगाध प्रेम ने मुझमें इतना वैराग्य उत्पन्न कर दिया हो। कम से कम देश के औसत से कहीं अधिक कपड़े मेरे घर में न आ जायें। यह हर घर में बहस का विषय हो सकता है कि कितने कपड़े पर्याप्त हों, विचार भिन्न भिन्न हो सकते हैं। श्रीमतीजी कहती हैं कि मेरे पास अधिक कपड़े नहीं हैं क्योंकि मुझे कपड़ों से प्रेम नहीं है। मेरा तर्क थोड़ा कटु हो सकता है, पर उनके लिये किसी कपड़े को वर्ष में एक बार पहनना, यदि प्रेम प्रदर्शन का मानक है तो मेरा मेरे कपड़ों के प्रति प्रेम ५० गुना अधिक है।
महेन्द्र ने बताया कि अपरिग्रह तो जैन धर्मों के पाँच मूल सिद्धान्तों में आता है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। व्यक्तिगत जीवन में यदि अपरिग्रह न अपनाया जायेगा तो समाज संसाधनयुक्त नहीं रह पायेगा। संसाधन यदि उपयोग में न आयेगा तब तो वह व्यर्थ ही माना जायेगा। संग्रहण की प्रवत्ति तो न स्वयं के लिये लाभदायी है और न ही समाज के लिये।
रात्रि अधिक हो चली थी, कल कपड़े के व्यापार कर्म के लिये महेन्द्र को सुबह बाजार के लिये निकलना था, अतः चर्चा वहीं विराम पा गयी। जीवन में कपड़ों के माध्यम से ही सही, पर मेरे मन में अपरिग्रह संबंधी प्रश्न हिलोरें ले रहे थे, उन्हें अपने निष्कर्ष तो ढूढ़ने ही थे।
कपड़े व्यक्तित्व में समाहित हो जाएं (न कि आपको छिपा ले), स्वाभाविक लगे, वही सच्चा परिधान.
ReplyDeleteज्यों बात वही, जो सुनकर शब्द घुल (भुला) जाएं, भाव और असर रहे.
Deleteसहज और सरल, दो शब्द, पर समझ गुह्यतम।
DeleteBhaiya Baat to fir wahi hai kl nirlipt bhaav se rahiye grahastha jivan mein tyag ki bhawana se vastron ka upbhog kijiye.sanskrit mein hai na ten tyakten bhunjeetha , parivaar mein bhi sab prasann aur aparigrah bhi hota rahega.
ReplyDeleteतेन त्यक्तेन अध्यात्म की उच्चतम अवस्था है, पहले अपने को परिभाषित करना तत्पश्चात शेष के प्रति अपरिग्रह का भाव।
Deleteआपका अपरिग्रह अनुकरणीय है मगर मुश्किल भी ! दो पैंट और पांच शर्ट से आपका काम कैसे चलता होगा , सोच रही हूँ। श्रीमतीजी को हमेशा सजग रहना पड़ता होगा कि कपड़े गंदे पड़े नहीं रह जाएँ। सप्ताह में एक बार धुलाई का नियम मुश्किल हो जाए।
ReplyDeleteस्त्रियां रंगों की शौक़ीन होती हैं , मितव्ययी होने के बावजूद मैं भी मानती हूँ कि हर रंग होना चाहिए :)
हर रंग है, टीशर्ट में। कार्यालय में तो बहुधा श्वेत की अधिकता है।
Deleteअमरकण्टक में बाबा नागराज हैं । वे मुझसे कहते हैं - " बेटा ! यदि तुम्हारे पास चार-पॉंच साडियॉं हैं तो वे तुम्हारे लिए हैं पर यदि तुम्हारे पास सौ-साडियॉ हैं तो तुम साडियों के लिए हो, साडियॉ तुमसे सेवा करवायेंगी ।" यह तो बिल्कुल सही बात है पर अपनी प्रेयसी या पत्नी द्वारा उपहार दिए जाने पर जो लोग इतराते हैं यह ठीक नहीं है अरे ! भेंट को तो स्वीकार कर लो भले ही तुम्हें पसन्द न हो तो किसी को दे दो । कम से कम एक बार उसे पहन-कर तो दिखाओ जिसको वो बेचारी दस दुकानों में घूम-धूम कर खरीद कर लाई है, चलो उसे भी साडी खरीद-कर दे दें, यह बात पुरुषों के मन में क्यों नहीं आती? यह बहुत आश्चर्य की बात है । सहज व्यवहार को सीखने के बजाय आदर्श-वादिता झाडते हैं, क्या यह सही है ?
ReplyDeleteश्रीमतीजी को पता चल गया है कि कपड़े भेंट करने का कोई अर्थ नहीं। हाँ जब भी कुछ नया लेना होता है, श्रीमतीजी की संस्तुति से ही लिया जाता है।
Deleteवाह जी इस कमाल के दृष्टिकोण से तो कभी सोचा ही नहीं , बहुत कुछ सीखने समझने को मिला आपके इस संवाद से ।
ReplyDeleteसादा जीवन उच्च विचार , आपके जीवन की यही परिभाषा है
ReplyDeleteदिल्ली कब आ रहे हो प्रवीण जी ? आपको कुछ कलर फुल शर्ट भेंट करते हैं , उन्हें पहनना भी पडेगा !!
ReplyDeleteठीक है, जब आयेंगे तब अपनी एक कम करके ही आयेंगे।
Deleteवाणी जी के सुझाव पर गौर करना , जो समय निकला जाये वह बापस नहीं आता , आपके वस्त्र और अभिरुचियों में आपका परिवार का भी हक़ होना चाहिए ! अभी बिटिया बड़ी हो रही है , वह आपको सुधार पायेगी ऐसा मुझे भरोसा है !
ReplyDeleteबिटिया के आदेशों के लिये मन में स्थान अभी से बना रखा है, कपड़े के प्रति कोई अन्यथा आग्रह नहीं है, जो कहेगी माना जायेगा।
Deleteअत्यधिक कम कपड़े और अत्यधिक कपड़े दोनों ही परिस्थितियां आपको कठिनाई में डालती हैं। जीवन में संतुलन अवश्य होना चाहिए।
ReplyDeleteनारी तो प्रकृति की प्रतिरूप है, तो रंगों के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है।
ReplyDeleteसादा विचार और उसका अनुकरण ... मुश्किल तो है आज के दौर में पर नामुमकिन नहीं ...
ReplyDeleteसाथ साथ अच्छी चर्चा भी ...
देव कुमार झा जी ने आज ब्लॉग बुलेटिन की दूसरी वर्षगांठ पर तैयार की एक बर्थड़े स्पेशल बुलेटिन ... तो पढ़ना न भूलें ... और हाँ साथ साथ अपनी शुभकामनायें भी देना मत भूलिएगा !
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन के इस खास संस्करण के अंतर्गत आज की बुलेटिन बातचीत... बक बक... और ब्लॉग बुलेटिन का आना मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
कपड़े आप के लिए होने चाहिए न कि आप कपड़ों के लिए ..... आपके टूर जल्दी जल्दी और ज्यादा नहीं लगते क्या ? यदि लगते हैं तो ऐसे मेन श्रीमति जी कैसे मैनेज कर पाती हैं ? वैसे व्यर्थ में संचय करने की प्रवृति नहीं ही होनी चाहिए ।
ReplyDeleteयदि टूर लम्बा होता है तो सारा वार्डरोब सूटकेस में समा जाता है और साथ में साबुन की एक बट्टी भी।
Deleteमनुष्य स्वाभाव से संचयी होता है |दुसरे प्राणी नहीं ...उनको जब जितना चाहिए, उतना ही प्रकृति से प्राप्त करते है और उसका उपयोग करते है | इससे प्रकृति में संतुलन बना रहता है | प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है मनुष्य के संचयी प्रवृत्ति के कारण | आवश्यकत से जादा वास्तु का उपयोग अपने लिए और समाज के लिए हानिकारक है|
ReplyDeleteनई पोस्ट काम अधुरा है
nice post computer and internet ke nayi jankaari tips and trick ke liye dhekhe technik ki duniya www.hinditechtrick.blogspot.com
ReplyDeleteYou got me interested.
ReplyDeleteWhat are your views on "Live Life at The Fullest"?
Also I wanted to ask you one more thing, I have understood your native language love and way of spread it. However I dont really support the idea so I dont take effort to write in Hindi. Does it make you feel bad? I mean Does it matter what language I am commenting in?
Thanks for writing. You are good at it.
बाधित जीवन जीने का निश्चय ही मन नहीं है, कपड़े अच्छे ही पहनता हूँ, पर कम रखता हूँ। संस्कृति का पक्षधर हूँ पर आधुनिकता और समय के संग संग। अनावश्यक छोर तक जाकर, जीकर और समझकर वापस आ जाता हूँ और सीमा व्यव्यस्थित कर लेता हूँ, वही मेरे लिये अपरिग्रह है।
Deleteजहाँ तक हिन्दी की बात है, संप्रेषण उसी में अच्छा लगता है। अंग्रेजी बाधा नहीं है, पर अनावश्यक लगती है जब अपनो से बात करनी हो। संवाद प्रमुख है, आप किसी भी भाषा में करें, सप्रेम स्वीकार्य है।
अपरिग्रह के अतिरिक्त मात्र अपनी जरूरत भर के कपड़े होने से ,पहनने हेतु उनके चुनाव में भ्रम भी कम उत्पन्न करते हैं , कहें तो जीवन ज्यादा सरल और सहज बनाते हैं ।हालाँक इसमें व्यक्तिगत पसंद भी मायने रखता है, जैसे कुछ लोग नयी नयी और आधुनिक डिजाइन के कपड़ों के कायल होते हैं और अपनी वार्डरोब समृद्ध रखना पसंद करते हैं ।
ReplyDeleteअपरिग्रह के अतिरिक्त मात्र अपनी जरूरत भर के कपड़े होने से ,पहनने हेतु उनके चुनाव में भ्रम भी कम उत्पन्न करते हैं , कहें तो जीवन ज्यादा सरल और सहज बनाते हैं ।हालाँक इसमें व्यक्तिगत पसंद भी मायने रखता है, जैसे कुछ लोग नयी नयी और आधुनिक डिजाइन के कपड़ों के कायल होते हैं और अपनी वार्डरोब समृद्ध रखना पसंद करते हैं ।
ReplyDeleteआधुनिक और गुणवत्ता भरे कपड़ों से कोई बैर नहीं, उलझन उनकी अधिकता से हो जाती है।
Deleteमेरे पति का भी कहना है
ReplyDeleteइंसान का व्यक्तित्व कपडे का मोहताज़ नहीं होता है ….
आप तो लेखनी से पहचान बना चुके हैं .....
हार्दिक शुभकामनायें
अगर कोई कपड़ों से व्यक्तित्व को नापता है तो ये उसका दृषिटकोण है...कपडे वो ही पहनने चाहिए जिनसे आप कमफर्टेबल हों...आपका उदहारण अनुकरणीय है...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteशायद स्कूलों में uniform इसलिए ही निर्धारित हैं।
ReplyDeleteनहीं तो बच्चे अधिक से अधिक कपडे माँगते फिरेंगे।
शायद कार्यालयों में uniform निर्धारित होना भी अच्छी बात है।
मेरे घर में प्रोब्लेम कपडों की नहीं।
प्रोब्लेम जूतों की है।
बीवी आज तक किसी भी जोडी से संतुष्ट नहीं हुई है।
दुकान में खरीदते समय अच्छी तरह आजमाने के बाद भी, एक हफ्ते तक पहनती है और फ़िर फ़रियाद करती है कि पैरों में कष्ट अनुभव कर रही है। कम से कम उसकी एक दर्जन जोडियाँ मिलेंगी मेरे घर में।
जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत सवाल है, मैं मानता हूँ कि मेरे पास जरूरत से ज्यादा कपडे हैं।
पर आधे से ज्यादा आजकल फिट नहीं होती हैं। बीवीने मुझे खूब खिला पिलाकर मोटा बना दिया ।
मेरे पुराने कमीज़ और पैंट, मुझसे पूछे बगैर, नौकरों या बिल्डिंग में काम कर रहे कर्मचारियों को दान कर दी है। पर अभी तक मेरे कुछ पसंदीदा कपडों को मैं सुरक्षित रखने में सफ़ल हुआ हूँ। हम आशावादी हैं। बीवी को नहीं है तो क्या, मुझे तो विश्वास है कि एक दिन हम अपनी साईज़ घटाकर, फिर वही पुराने कपडों में फ़िट होंगे। Wish me luck please.
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
हाँ यही मेरे साथ भी चल रहा है, तनिक भार बढ़ता है तो कपड़े बदलने का डरावना विचार मन में आने लगता है। तुरन्त ही व्यायाम प्रारम्भ कर देते हैं।
Deleteभोर का मज़ा आ गया
ReplyDeleteआपको पढता हूँ तो लगता है स्वयं को देख रहा हूँ ।
ReplyDeleteThese days there's a trend of donning branded cloths... diff clothes for diff occasions
ReplyDeletewhat I liked here is that.... idea of saving yourself from excess and not bothering about what others think..
Nice read as ever..
hope u r doing fine :)
सादगी बनी रहे.
ReplyDeleteरामराम.
बेहतरीन, कभी इधर भी पधारें
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई
सादर मदन
अपरिग्रह जैन धर्म का मूल सिद्धांत है पर आज जैन धर्म मानने वाले इस सिद्धांत पर कायम नहीं ! खैर....वो उनका निजी मामला !
ReplyDeleteपर ये सिद्धांत बहुत बढ़िया है सादगी भी बनाये रखता है !!
kuch bhi ho aparigrah ka matlab samajh aa gya......achha lekh
ReplyDeleteक्या बात,
ReplyDeleteबहुत सुंदर
मित्रों कुछ व्यस्तता के चलते मैं काफी समय से
ब्लाग पर नहीं आ पाया। अब कोशिश होगी कि
यहां बना रहूं।
आभार
आपको पढता हूँ तो आपके लेख में खो सा जाता हूँ सर। निजी कारणों से आपके कुछ लेख नहीं पाया, अब समय मिला है उनको भी पढ़ता हूँ।
ReplyDeleteपत्नी जी ने कितने ही कपडे बनवा डाले हैं मेरे लिए फिर भी आये दिन कहती रहती हैं एक वो कपडा पड़ा है नयी शर्ट सिला लीजिये// ।
ReplyDeleteये पत्नियां न हों तो जीवन रंगहीन गंधहीन ही रह जाय :-)
जिसका अंतर जितना समृध्द होता है वह बाह्य आडम्बरों से उतना ही दूर होता है। जो भीतर से दीन-हीन होता है , वह बाहर से उसे भरने की कोशिश करता है। सारी समस्या परिग्रह के कारण ही है। कुछ लोग भीतर से इतने खाली होते हैं कि उनके हाहीपने का कोई अंत नहीं होता।
ReplyDeleteचुंकि मैं भी जैन मतावलंवी हूँ तो इन सिद्धांतों से भलीभांति परिचित हूँ..पर अपरिग्रह की जो आधुनिक परिवेश के अनुसार आपने व्याख्या की है और न सिर्फ व्याख्या की है बल्कि इस सिद्धांत का अनुसरण भी किया है वह निश्चित ही सराहनीय है..और आपकी इस पोस्ट के बारे में तो कहना ही क्या...आपकी हर पोस्ट बारंबार पठनीय और साथ ही साथ संग्रहणीय भी होती है..
ReplyDeleteखास तौर पे आपकी इस पोस्ट को मैं अपने एक मित्र को ज़रूर पढाउंगा जो कि नये-नये कपड़ों का डाईहार्ट फैन है..और अपना अमूल्य धन यूँही कपड़ों और तथाकथित फैशन के दिखाने में ज़ाया कर देता है..संभवतः इसे पढ़ने के बाद उसमें कुछ सद्बुद्धि आये।।।
आपकी सोच अनोखी है । हर चीज को एक नये दृष्टिकोण से देखना कोई आपसे सीखे । वैसे हमारा निर्वाह इतने कम कपडों मे नहीं हो सकता है । अपरिग्रह वास्तव मे मानव जीवन मे शांति का एक प्रयास है । ना अधिक आवश्कताएँ रहेगी ना ह उनकी पूर्ति हेतु व्यर्थ की आपाधापी ।
ReplyDeleteयह तो है कि वस्त्रादि आवश्यकतानुरुप ही संग्रहीत होने चाहिए। इस सन्दर्भ में लाल बहादुर शास्त्री के जीवन से बेहतर उदाहरण भला और क्या हो सकता है।
ReplyDeleteदिगंबर नासवा और विकेश जी दोनों की बात से पूर्णतः सहमति है।
ReplyDeleteविचारणीय बात .... संग्रह हमारी आदत बन चुका है , कपडे सम्भवतः सभी के पास ज़रुरत से अधिक ही मिलेंगें ....
ReplyDeleteविचारणीय
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट .... साथ ही विचारात्मक भी
ReplyDeleteआभार
विचारणीय शब्दावली है किंतु वह धन किस काम का जिसका पूर्णतया उपयोग न किया जा सके ।हम तो यही कहेंगे आप को चार पैंट और ले लेनी चाहिए।
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