30.11.13

क्या बोलूँ मैं

मैं,
बैठकर आनन्द से,
वाद के विवाद से,
उमड़ते अनुनाद से,
ज्ञान को सुलझा रहा हूँ,

सीखता हूँ,
सीखने की लालसा है,
व्यस्तता है इसी की,
और कारण भी यही,
कुछ बोल नहीं पा रहा हूँ । 

27.11.13

मेरे विचार

बहुधा विचार टकरा जाते हैं,
मनस पटल पर आ जाते हैं ।
नहीं जानता किन स्रोतों से,
किस प्रकार के अनुरोधों से,
आवश्यक वे हो जाते हैं,
अवलोकन का प्रश्न उठाते,
चिन्तन पथ पर बढ़ जाते हैं ।।१।।

कभी कभी उद्वेलित करते,
उत्साहों से प्रेरित करते ।
कुछ झिंझोड़ते, मन निचोड़ते,
और कभी मन बहलाते हैं ।
अपनी अपनी छाप छोड़ सब,
आते और चले जाते हैं ।।२।।

शायद मेरा सार छुपा था,
जीवन का आकार छुपा था ।
अभी कहीं वे जीवित होंगे,
अनुपस्थित जो हो जाते हैं ।
आने के अनुकूल समय में,
आयेंगे जो अति भाते हैं ।।३।।

दुख में घावों को सहलाने,
मन का सारा क्लेष मिटाने ।
लाकर अद्भुत शान्ति हृदय को,
चुपके से पहुँचा जाते हैं ।
सुन्दरता से तार छेड़ने,
बिन बुलाये ही आ जाते हैं ।।४।।

23.11.13

अपरिग्रह - जन्मों का

आपने अनावश्यक वस्तुओं का त्याग कर दिया। आप उससे एक स्तर और ऊपर चले गये, आपके अस्तित्व ने अपना केन्द्र अपनी आत्मा तक सीमित कर लिया। किन्तु क्या ऐसा करने से आपका अपरिग्रह पूर्ण हो गया, क्या सिद्धान्त वहीं पर रुक जाता है, क्या वहीं पर अध्यात्म अपने निष्कर्ष पा गया?

पूर्णतः नहीं। शरीर तो रहेगा, मन भी रहेगा। शरीर की आवश्यकतायें आप चिन्तनपूर्ण जीवनशैली के माध्यम से कम कर सकते हैं, पर मन का क्या? पतंजलि योगसूत्र का दूसरा सूत्र ही कहता है, योगः चित्तवृत्ति निरोधः, योग चित्त की वृत्ति का निरोध है। मन को कैसे सम्हालें, अर्जुन तक को मन चंचल लगा, जो बलपूर्वक खींच कर बहा ले जाता है। अब कौन याद दिलाये कि मन भटक रहा है, क्योंकि याद दिलाने का ऊपर उत्तरदायित्व तो मन ने ही उठा रखा था। अब वही घूमने चला गया तो कौन याद दिलायेगा?

मन जिस समय जो सोचता है, हम उस समय वही हो जाते हैं। शरीर भले ही किसी बैठक में हो, पर मन किसी दूसरे ही उपक्रम में लगा रहता है। यदि सड़क में चलता व्यक्ति मन में घर के बारे में सोच रहा होता है, तो वह मानसिक रूप से घर में ही होता है। इस तरह देखा जाये तो मन के माध्यम से न जाने हम कितने जन्म जी लेते हैं, वर्तमान में ही रहते हुये ही भूत में घूम आते हैं, भविष्य में घूम आते हैं।

विवाह किये हुये लोगों में एक भयमिश्रित उत्सुकता रहती है कि सात जन्म साथ रहने वाला सत्य क्या है? क्या प्रेम की प्रासंगिकता सात जन्म तक ही सीमित रहती है? क्या सात जन्मों के बाद पुनर्विचार याचिका स्वीकार की जा सकती है? ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न उमड़ते है, प्रसन्न व्यक्ति को लगता है कि सात जन्म भी कम हैं, दुखी मानुषों को लगता है कि ईश्वर करे, यही सातवाँ जन्म हो जाये।

देखा जाये तो जन्म का अर्थ है अस्तित्व, अपने मन की भ्रमणशील प्रकृति के कारण हम एक शरीर में रहते हुये भी भिन्न भिन्न अस्तित्वों में जीते हैं। रोचक तथ्य यह है कि ये अस्तित्व भी सात ही होते हैं। इन अस्तित्वों को समझ लेने से विवाह के सात जन्मों की उत्कण्ठा शमित हो जायेगी, अपरिग्रह की जन्म आधारित विमा भी समझ आ जायेगी, कर्म और कर्मफल का रहस्य स्पष्ट होगा और साथ ही प्राप्त होगा वर्तमान में पूर्णता से जीने के आनन्द का रहस्य।

ये सात जन्म है, विशु्द्ध भूत, विशुद्ध भविष्य, भूत आरोपित भविष्य, भविष्य आरोपित भूत, भूत और भविष्य उद्वेलित वर्तमान, विशु्द्ध वर्तमान, विशुद्ध अस्तित्व।

विगत स्मृतियों में डूबना विशुद्ध भूत है, आगत की मानसिक संरचना विशुद्ध भविष्य है। भूत में प्राप्त अनुभवों के आधार पर भविष्य का निर्धारण भूत आरोपित भविष्य है। इसमें हम सुखों की परिभाषायें बनाते हैं और भविष्य को उसी राह में देखते हैं। अनुभव जैसे जैसे बढ़ते जाते हैं, भविष्य की संरचना परिवर्तित होती जाती है। भविष्य की छवि के आधार पर भूत का पुनर्मूल्यांकन भविष्य आरोपित भूत है। हो सकता है कि बचपन में हमें खिलौने, पुस्तक और मिठाई एक जैसे ही अच्छे लगते हों, पर यदि भविष्य में हमने स्वयं को महाविद्वान के रूप में देखते हैं तो भूत में प्राप्त अनुभवों को उसी अनुसार वरीयता देते हैं। तब हम बचपन में पढ़ी पुस्तकों को अधिक वरीयता देकर अपने भूत को पुनर्परिभाषित करने लगेंगे।

हो सकता है कि मन वर्तमान में हो, पर भूत में प्राप्त अनुभवों को जीना चाहता है या भविष्य की आकांक्षाओं में लगना चाहता हो, तो वह भूत और भविष्य आरोपित वर्तमान कहलायेगा। इस स्थिति में हम वर्तमान को अपूर्ण मानते रहते हैं और भूत या भविष्य से प्रभावित बने रहते हैं। विशुद्ध वर्तमान के अस्तित्व में हम परिवेश में घटने वाली घटनाओं से परिचित रहते हैं और उन पर ध्यान देते हैं। विशुद्ध अस्तित्व में हम वर्तमान के भाग न बनकर अपने भिन्न अस्तित्व का अनुभव करते हैं, वर्तमान में अपना अस्तित्व देखते हैं। विशुद्ध अस्तित्व पूर्णतः आध्यात्मिक अवस्था है।

कभी किसी का ध्यान न लग रहा हो तो उससे पूछिये कि क्या सोच रहे थे, इससे आपको ज्ञात हो जायेगा कि वह किस जन्म में जी रहा है। हम नब्बे प्रतिशत अधिक समय तो वर्तमान में रहते ही नहीं है, या भूत आरोपित रहते हैं, या भविष्य आरोपित रहते हैं। मन को भटकना अच्छा लगता है, सो भटकते रहते हैं।

वर्तमान में न जीने से हम न जाने कितना आनन्द खो देते हैं। हमारे सामने हमारे बच्चा कुछ प्यारी सी बात बता रहा है और हम मन में किसी से हुये मन मुटाव के बारे में सोच रहे हैं और उद्वेलित हैं। वर्तमान में होते हुये भी हम न जाने किसी और स्थान पर रहते हैं, विचारों के बवंडर से घिरे रहते हैं। अपरिग्रह का पक्ष यह भी है कि अन्य जन्मों का त्याग कर वर्तमान में ही जिया जाये, वर्तमान का आनन्द लिया जाये, अस्तित्व के हल्केपन में उड़ा जाये। शेष जन्मों को लादे रहने का क्या लाभ। भूत और भविष्य पर चिन्तन आवश्यक है, भूत से सीखने के लिये, भविष्य गढ़ने के लिये, पर वर्तमान को तज कर नहीं और न ही आवश्यकता से अधिक।

वर्तमान को जीना ही होता है, हम उससे भाग नहीं सकते हैं। वर्तमान का जो क्षण हमारे सामने उपस्थित है, उसे हमें पूर्ण करना है, उसका पालन करना है। ऐसा नहीं करने से वह हमारे ऊपर ऋण सा बना रहेगा, कल कभी न कभी हमें उसे जीना ही होगा, स्मृति के रूप में, समस्या के रूप में, विकृति के रूप में, और तब हम उस समय के वर्तमान को नहीं जी रहे होंगे। वर्तमान को वर्तमान में न जीने के इस व्यवहार के कारण हम जन्मों का बोझ उठाये फिरते रहते हैं, अतृप्त, अपूर्ण, उलझे।

मेरे लिये यही सात जन्मों का सिद्धान्त है, यही कर्मफल का सिद्धान्त है, यही अपरिग्रह के सिद्धान्त की पूर्णता है, यही आनन्द और मुक्त भाव से जीने का सिद्ध मार्ग है। चलिये वर्तमान में ही जीते हैं, पूर्णता से जीते हैं।

20.11.13

अपरिग्रह - अध्यात्म विधा

अपरिग्रह का व्यवहारिक पक्ष सबको ज्ञात है। आवश्यकतानुसार उपयोग न केवल संसाधन की उपलब्धता बनाने में सहायक रहता है, वरन स्वयं को भी अनावश्यक संग्रह और आसक्ति से दूर रखता है। इसके अतिरिक्त अपरिग्रह का क्या कोई और पक्ष है?

मूलभूत सिद्धान्तों का एक गुण होता है, आप जहाँ पर भी उन्हें प्रयुक्त करें, निष्कर्षों में भेद नहीं रहता है। अपरिग्रह भी ऐसे ही सिद्धान्तों में से एक है। आप जहाँ पर भी इसे प्रयुक्त करेंगे, जितने समय के लिये प्रयुक्त करेंगे, उसी अनुपात में आपको संतुष्टि और आनन्द मिलेगा। अपरिग्रह का सौन्दर्य यह भी है कि मूलरूप से यह एक आध्यात्मिक सिद्धान्त है और उसका भौतिक जगत में प्रक्षेपण इतना उपयोगी है कि हम उसी में संतुष्ट हो लेते हैं, उसे उसके मौलिक स्वरूप में देखने का प्रयत्न नहीं करते हैं।

जैन धर्म के पाँच मूल सिद्धान्तों में एक, अपरिग्रह का सिद्धान्त जैन सन्तों की जीवनशैली में रचा बसा है। उनके जीवन का अवलोकन ही इस सिद्धान्त की महत्कथा कह जाता है। अपने जीवन में जितना संभव हो सका, अपरिग्रह के अनुपालन की संतुष्टि पा रहा हूँ। गहरे उतरने के व्यवहारिक पक्षों की बाधायें सम्मुख हैं। सैद्धान्तिक रूप से अपरिग्रह के बारे में और जानने की इच्छा उन सूत्रों तक ले गयी जहाँ पर इन्हें मूलतः परिभाषित किया गया है।

आश्चर्यचकित रह गया जब पतंजलि योग सूत्र के साधनपाद में यम नियम के बारे में पढ़ते समय अपरिग्रह का महत्व सूत्रबद्ध दिखा। सहसा लगा कि अपरिग्रह का सिद्धान्त एक गूढ़ अध्यात्म विधा है। सूत्र २.३९ इस प्रकार है। अपरिग्रह स्थैर्ये जन्मकथन्ता सम्बोधः - अपरिग्रह की स्थिरता में जन्म के कैसेपन का साक्षात होता है। अर्थात अपरिग्रह के अभ्यास से आप अपने भूत, वर्तमान और भविष्य के जन्मों को देख सकते हैं, संभावित अस्तित्वों को समझ सकते हैं।

वैसे तो यह सच है कि सिद्धान्त समझने और विकसित होने में समय भी लगता है और समझ भी, पर अपरिग्रह का यह अर्थ न कभी समझा था और न ही कभी सुना था। आवश्यकतानुसार ही उपयोग करने का मन्त्र कैसे ऐसी अलौकिक दृष्टि दे देगा कि आप अपने भूत और भविष्य में झाँक पायेंगे। यदि पंतजलि योगसूत्र पढ़ने का प्रारम्भिक समय होता तो संभवतः इस सूत्र को रहस्यवाद मान कर आगे बढ़ गया होता, पर जिस गूढ़ता से पतंजलि ने सूत्र गढ़ने की कला प्रदर्शित की है, इस रहस्य पर विचार न करना अपनी मूढ़ता का ही परिचायक होता। पतंजलि ने निश्चय ही कोई न कोई गूढ़ सिद्धांत इस सूत्र के माध्यम से व्यक्त किया है।

इस सूत्र पर केन्द्रित कई व्याख्यानों को सुना, कई अध्यायों को पढ़ा, तब कहीं जाकर इस सिद्धान्त की परिधि पर पहुँच पाया। जितना सुना, जितना पढ़ा, उतना ही रोचक होता गया अपरिग्रह का सिद्धान्त।

क्या परिग्रह है, उसे निर्धारित करने के लिये परिधि को समझना होगा। परिधि को समझने के लिये केन्द्र को जानना होगा। केन्द्र के चारो ओर जो भी हो, उसे परिधि से परिभाषित किया जा सकता है। जब तक मैं केन्द्र में शरीर को मानकर विषय को समझ रहा था, अपरिग्रह के व्यावहारिक पक्ष तक ही सीमित था, कपड़े और अन्य वस्तुओं तक ही। पतंजलि के इस सूत्र की व्याख्या सुनी तो समझ गया कि मुझे इस विषय के तल में जाने के लिये अपना केन्द्र पुनर्परिभाषित करना होगा, यदि ऐसा न करता तो सूत्र की पूरी व्याख्या नहीं जान पाता।

भारतीय दर्शन के संदर्भों में, वासांसि जीर्णानि यथा विहाय के संदर्भों में, शरीर भी परिधि ही है। परिवर्तनशील शरीर को केन्द्र कभी नहीं माना गया, जिस तरह हम कपड़े बदलते हैं, उसी प्रकार आत्मा भी शरीर बदलती है। केन्द्र में सदा ही आत्मा रही है, न मन, न बुद्धि, न शरीर।

अपरिग्रह के सिद्धान्त की गहराई केन्द्र निर्धारित करते ही दृष्टिगत होने लगती है। आत्म के अतिरिक्त शेष को अपना न मानने का भाव ही अपरिग्रह का आध्यात्मिक पक्ष है। स्वयं को शरीर या मन मानने के क्रम में हम स्वयं को परिधि में परिधि में स्थापित कर लेते हैं और जब कालचक्र चलता है तो हम परिधि पर आने वाले बलाक्षेप से जूझने में लगे रहते हैं, संभवतः इसी संघर्ष को मर्मज्ञ कालचक्र के गतिमय प्रवाह से परिभाषित करते हैं। प्रकृति के कालचक्र से बचना है तो केन्द्र की ओर बढ़ते रहना ही श्रेयस्कर है क्योंकि केन्द्र में ही बल का प्रक्षेप शून्य होता है।

शरीर नहीं त्यागना होता है, मन भी नहीं त्यागना होता है, यदि अपरिग्रह के हेतु कुछ त्यागना होता है तो वह है स्वयं के शरीर या मन होने के भाव का। शरीर, मन, स्मृतियाँ, भय, सब के सब मिलकर एक ऐसा विश्व निर्मित कर देते हैं कि हम उसमें उलझे रहते हैं, उसके पार कुछ भी नहीं देख पाते हैं, कुछ भी नहीं समझ पाते हैं। जब यह सब भाव छटता है, जन्म और उसके कारण, भूत-भविष्य और उसके विस्तार, सब के सब स्वतः ही समझ आने लगते हैं। निश्चय ही पतंजलि के लिये अपरिग्रह की यही अवधारणा रही होगी।

अपरिग्रह का प्रारम्भ उस बिन्दु से होता है जब हम सोचते हैं कि कोई वस्तु या व्यक्ति हमें सुख दे सकता है। किन्तु जब अन्यथा निष्कर्ष देखने को मिलता है तो धीरे धीरे हम अपनी खोखली आश्रयता को तिलांजलि देने लगते हैं। आनन्द की सततता जब फिर भी सुनिश्चित नहीं होती है, तो हम सिद्धान्त की सीमायें बनाने लगते हैं और उससे परे दूसरे सिद्धान्त सोचने लगते हैं, वर्तमान सिद्धान्त पर संशय करने लगते हैं। पतंजलि का यह सूत्र अपरिग्रह के सिद्धान्त को उसके उत्कर्ष पर न केवल स्थापित करता है, वरन उसे अध्यात्म का मूलमन्त्र भी बना देता है।

अपरिग्रह का सिद्धान्त पतंजलि से अच्छा न कोई समझ सकता है, न कोई समझा सकता है। वर्णित सूत्र स्वयं में ही अपरिग्रह के जीवन्त उदाहरण हैं। ज्ञान के विस्तार को इस तरह से प्रस्तुत करना कि कोई भी शब्द अनावश्यक न हो और कोई भी अर्थ छूटा न हो। योगसूत्र की रचना अपरिग्रह के सिद्धान्त का ही मूर्त स्वरूप है, आकार में भी, विषय में भी। अपरिग्रह की यह अध्यात्म विधा, इस सिद्धान्त को मानव अस्तित्व के मौलिकतम सिद्धान्तों में स्थापित करती है।

16.11.13

अपरिग्रह - अधिकार क्षेत्र

महेन्द्र से हुयी कपड़ों के बारे में चर्चा विचारों के गहरे बीजरूप लिये थी। धीरे धीरे संबंधित सारे उदाहरण, उपदेश, आदेश, सलाह, अनुभव आदि सब एक सहज रूप में संघनित होने लगे। कहते हैं, जब वातावरण उपयुक्त होता है, विश्वभर से एकत्र हुआ बादलों का जल एक साथ ही बरस जाता है।

अपरिग्रह का यह आचरण हमारी संस्कृति की विचार तन्तुओं में गुणसूत्र बन कर विद्यमान है। साधु सन्तों की सारे देश में मुक्तहस्त विचरण करने की पद्धति में अपरिग्रह पर उनका विश्वास अनन्त है, उनका विश्वास कि जहाँ वे जायेंगे, प्रकृति उनका ध्यान रखेगी, जितना प्रकृति या समाज उन्हें पोषित करेगा, उतने में वे प्रसन्न रह लेंगे। उनके ज्ञानभरे उपदेशों ने जहाँ एक ओर गृहस्थों को अभिसिंचित किया होगा, वहीं दूसरी ओर उनके आनन्द भरे भावों से गृहस्थ सशंकित भी हुये होंगे, कहीं ऐसा न हो कि उनके पुत्र इस अपरिग्रह से प्रभावित हो, घर छोड़ सन्यासी न बन जायें।

निश्चय ही अभी निर्धनता हमारे देश की मूल पीड़ा है, लोग संख्याओं और आश्वासनों से उसे पुष्ट करने में लगे हैं, उपचार के नित नये साधन खोजे जा रहे हैं। उन पर अपरिग्रह एक विकल्प नहीं, वरन जकड़ी हुयी विवशता है। जहाँ जीने के संसाधन ही न हों, वहाँ कोई कैसे विचारों की सूक्ष्मता को पल्लवित कर सकेगा। पर जब स्थितियाँ अच्छी थी, जब देश में कोई भिखारी नहीं था, जब देश में आर्थिक संपन्नता थी, तब भी अपरिग्रह समाज में एक सम्माननीय गुण था, लोग स्वेच्छा से अपनी आवश्यकताओं को कम करके जीने में सुख और गर्व का अनुभव करते थे। समाज का स्वरूप क्षतिग्रस्त हुआ है पर अपरिग्रह उसके मूल में बना हुआ है।

ऐसा भी नहीं है कि केवल भारतीय जनमानस इस गुण को स्वीकारता हो, अपरिग्रह पतंजलि योग सूत्र में यम के रूप में है, जैन के पाँच सिद्धान्तों में एक है, बौद्ध में जेन के रूप में विद्यमान है। पाश्चात्य समाज इसके विविध रूपों से प्रभावित भी है और उसे अन्य रूपों में अपनाता भी है।

पश्चिमी जगत में संसाधनों की अधिकता से वहाँ के विचारशील युवाओं का मोहभंग हुआ है। वस्तुओं में सुख ढूढ़ने की मानसिकता ने घरों को संग्रहालय बना दिया है, इतना अधिक संग्रह कि घरों का आकार भी बढ़ने लगा। आकार व विस्तार बढ़ने पर भी वांछित सुख अनुपस्थित रहा और विडम्बना यह रही कि वस्तुओं की अधिकता दुखमयी प्रभाव लेकर आयी। इस तथ्य को समझने की क्षमता रखने वाले विवेकशील युवाओं ने मिनिमिलस्टिक लाइफ स्टाइल के नाम से जीवनशैली विकसित की। केवल उतनी ही वस्तुयें रखना जितनी नितान्त आवश्यक हों। वैज्ञानिक प्रगति और केन्द्रित दृष्टिकोण ने कई ऐसे उपाय निकाले कि बिना कार्यशैली व कार्यक्षमता प्रभावित किये एक ऐसी जीवनशैली निर्मित हुयी जिसमें अपरिग्रह केन्द्र में रहा। प्रत्येक संचय पर प्रश्न और कुछ भी नया जुटाने के पहले निर्मम प्रश्नावली, यह उनकी प्रमुख क्रियान्वयन विधि है।

जब परिवेश में सब संचयी मानसिकता से ग्रस्त हों तो आपकी अपरिग्रही मानसिकता पर असामान्य होने के आक्षेप लगेंगे, स्वाभाविक भी है। वस्तुयें कम करने को जीवन को बाधित स्वरूप में जीने से देखा जाने लगता है, कहा जाता है कि आप कृपणता से भरे हैं। यह सब आक्षेप सहने के बाद भी उनका उत्साह कम नहीं हुआ है। अपरिग्रह के बाद उनके जीवन में आये आनन्दमयी बदलाव ने उन्हें अन्यथा आक्षेप झेलने की सहनशीलता दी।

अपरिग्रह और कृपणता में कोई संबंध नहीं, कृपण मन से वस्तुओं और साधनों के प्रति आसक्ति बनाये रखता है, पर संचित धन को ही संचित सुख मानकर उसे वैसे ही धरे रहने की प्रवृत्ति उस धन को व्यय नहीं होने देती है। अपरिग्रह में व्यक्ति अपनी आवश्यकतायें के अनुरूप साधन तो जुटाकर रखता है पर धीरे धीरे अपनी आवश्यकतायें समझता और सीमित करता भी चलता है।

तब क्या अपरिग्रही अपनी आवश्यकता कम करने के प्रयास में अपने जीवन की गुणवत्ता से समझौता कर बैठता है? यह भी एक आक्षेप है जो बहुधा लगता रहता है। इसका उत्तर भी नकारात्मक है और इसे आधुनिक परिप्रेक्ष्य में सरल उदाहरण से समझा जा सकता है। पहले हमें घड़ी, रेडियो, कैमरा आदि वस्तुओं की आवश्यकता होती थी पर अब मोबाइल आ जाने से उनकी आवश्यकता नहीं रह गयी हैं। अपरिग्रही का आधुनिकता और तकनीक से भी कोई विरोध नहीं हैं, ये सब तो वाह्य साधन हैं, जीवन को क्या चाहिये, उसे समझने में और उसे कम से कम रखने में तकनीक सहयोगी होती है तो वह भी स्वीकार्य और स्वागतयोग्य हो। अपरिग्रह का अर्थ विकास के पथ पर पिछड़ जाना नहीं है। कई उदाहरण हैं, जिसमें तकनीक का उपयोग कर कई वस्तुओं के स्थान पर एक वस्तु से ही कार्य चलाया जा सकता है। क्यों न हम उनका उपयोग कर पुरातन विचार धारा को आधुनिकतम स्वरूप दें, क्यों न हम तकनीक के सन्त बनें।

न वाह्य कारकों से विरोध हो, न ही विकास के मानकों से विरोध हो, न ही तकनीक से, न ही व्यापार से, न ही बाजार से, न किसी वाद से, न किसी संवाद से, जीवन में अपरिग्रह का प्रारम्भ तो स्वयं से साम्य स्थापित करने में हो जाता है। यदि स्वयं पर अधिक ध्यान देंगे, स्वयं को अधिक समझेंगे तो यह भी जानने का प्रयास करेंगे कि आत्म को क्या भाता है, वह क्या है जो सुख दे जाता है। अपरिग्रह न तो निर्धनता है, अपरिग्रह न तो कृपणता है, अपरिग्रह स्वयं को प्रकृति से जोड़े रखने का आश्वासन है, अपरिग्रह न्यूनतम आश्रय और अधिकतम आनन्द की राह है।

अपरिग्रह के अधिकार क्षेत्र में हम सभी बिराजे हैं, कितना कुछ लिपटाये और लटकाये बैठे हैं, कहीं भार बढ़ा तो टपक जायेंगे, समय के पहले, अपने विश्व से कहीं दूर, भीड़ भाड़ में, थके थके।

13.11.13

कपड़ों से ढका एक गुण

मेरे एक मित्र हैं, विद्यालय में सहपाठी रहे हैं, छात्रावास के साथी हैं, बहुत घनिष्ठ हैं, जैन मतावलम्बी हैं, कपड़ा व्यापारी हैं और मेरे वर्तमान के निवास से बहुत पास भी रहते हैं। मैं बंगलोर में और वे कोयम्बटूर में, वर्ष में कई बार मिलना भी होता है। बड़े मृदुभाषी हैं और मन में कुछ भी छिपा कर नहीं रखते हैं। लोकधारणा यह हो सकती है कि व्यापारी के लिये हृदय खोल कर रख देना, व्यवसाय के लिये एक सहायक गुण नहीं हो सकता है, पर वे इसके भी अपवाद हैं। पारदर्शिता और गुणवत्ता के सिद्धान्तों पर व्यापार करने से उनके साथ काम करने वालों को अपार भरोसा है उन पर। यही कारण रहा होगा कि जब भी उनसे कुछ भी बातचीत होती है, मन में एक स्वाभाविक स्नेह जग आता है। यही कारण रहा होगा कि उनसे मित्रता इतनी प्रगाढ़ है।

चरित्र चित्रण पर विशेष रूप से अधिक समय इसलिये दे रहा हूँ, जिससे हम दोनों के बीच हुये संवाद की सहजता और गूढ़ता समझने में सहायता हो पाठकों को। पार्श्व में क्या है, जीवन में किन बातों का महत्व है, व्यक्तित्व के ये पक्ष ज्ञात होने पर बहुधा संवादों को अन्यथा विकिरण से बचाया जा सकता है। संवादों को अर्थों की बहुलता के कोलाहल से बाहर लाकर स्पष्ट समझा जा सकता है। यही कारण रहा जिसने मित्र के बारे में इतना कुछ बताने पर विवश कर दिया।

प्रस्तुत विषयवस्तु के लिये इतना विस्तृत परिचय आवश्यक नहीं था, केवल नाम बता कर भी कार्य चल सकता था, यह बता कर कि उनका नाम महेन्द्र जैन है, विषय पर आया जा सकता था। महेन्द्र मेरे अत्यन्त प्रिय हैं, सहज हैं, अतः इतना परिचय स्वतः ही बह निकला।

घर पर बात चल रही थी, बात जीवन के कई सामान्य पथों से होते हुये इस बात पर आ गयी कि जीवन में आनन्दमय होकर जीने के लिये कितनी वस्तुओं की आवश्यकता है। बहुधा हम कुछ अधिक ही साधन जुटा लेते हैं, आवश्यकता से कहीं अधिक। सदा ही लगता है कि हम इतना कुछ जोड़ लेते हैं कि उपयोग में ही नहीं ला पाते हैं। यदि हमारी संग्रहण की यह प्रवृत्ति संयमित और नियमित हो जाये तो किसी भी संसाधन की कमी नहीं रहेगी, मानवमात्र के लिये।

आवश्यकता से अधिक न रखने को अपरिग्रह कहा जाता है। पर हम जिस स्तर पर बात कर रहे थे, वह उसका भौतिक प्रक्षेपण ही था। अपरिग्रह का आध्यात्मिक पक्ष बहुत ही गहरा है। उस विमा में तब तक अनावश्यक तजा जाता है, जब तक हम स्वयं ही रह जाये, अपने शुद्ध चिरंतन स्वरूप में।

मैंने कहा, देखो कैसा संयोग है कि तुम्हारा व्यवसाय कपड़े का है और मेरे लिये अपरिग्रह का प्रारम्भ कपड़े से ही होता है। पिताजी से सीखा एक गुण है, जब तक पुराना कपड़ा कई वर्ष चल न जाये, नया कपड़ा सिलवाते नहीं थे। एक वर्ष में एक भी कपड़ा नया आ जाये तो वह पर्याप्त रहता है, जीवनशैली में सहज लयमय हो जाता है। यद्यपि मेरे पास इतना धन तो है कि कई प्रकार के कपड़े सिलवा सकता हूँ, पर संस्कार में सीखा अपरिग्रह मन में स्थायी बस गया है। सीधा सरल पहनावा अच्छा लगता है, कोई ऐसा कपड़ा रखा ही नहीं जो वर्ष में एक या दो बार पहनने के लिये हो। हाँ, विवाह और प्रशिक्षण के समय दो सूट सिलवा दिये गये थे, उनमें से एक तो किसी को भेंट कर दिया और दूसरा अभी तक भारसम संचयों में जड़ा हुआ है।

तब क्या प्रशासनिक कार्यों में उससे असहजता नहीं आती है? महेन्द्र का प्रश्न सहज था। सरकारी तन्त्र के बारे में अधिक न जानने वालों के लिये यह प्रश्न स्वाभाविक भी है। हो सकता है कि कुछ लोग कार्य से अधिक कपड़े पर ध्यान देते हों, हो सकता है कि कुछ लोगों ने यह तथ्य जान लिया हो कि ५ शर्ट और दो तरह के पैन्ट पहन कर ही हम आते हैं, हो सकता है कि कार्यालय में मेरे नीरस ड्रेसिंग सेन्स पर चर्चा भी होती हों, पर आज तक किसी वरिष्ठ ने या अधीनस्थ ने इस बारे में टोका ही नहीं और न ही स्वयं मैने किसी के कपड़ों पर कभी ध्यान दिया। कभी ऐसा लगा ही नहीं कि मुझे तनिक और विविधता से भरे कपड़े पहन कर कार्यालय में जाना चाहिये। कपड़े स्वच्छ रहें, अपने रंग रूप के कारण किसी की आँखों न खटकें, उनके बारे में इससे अधिक विचार मन में आया ही नहीं।

घर में श्रीमतीजी भी जान चुकी हैं कि कपड़ों के संबंध में ये सुधरने वाले नहीं हैं, अधिक कपड़े भी लेंगे नहीं, अतः कपड़े जिस दिन भी गन्दे हों, उसके अगले दिन धुलवा कर और प्रेस करवा कर रखवा देती हैं। नया कपड़ा घर में तभी आता है, जब कोई पुराना कपड़ा किसी को दे देता हूँ।

समझ नहीं आ रहा था, पर सब महेन्द्र को बताये जा रहा था, मन में कोई बात रही होगी कि मेरी जीवनशैली महेन्द्र के व्यवसाय को पोषित नहीं करती है। आधुनिक व्यापार में तो माँग ही सब सुखों का प्रारम्भ बिन्दु है, बिना माँग के बाजार की प्रक्रिया आगे बढ़ती ही नहीं है। यदि यही उदाहरण रहा तो कपड़े की माँग कम हो जायेगी और उसका व्यापार प्रभावित भी होगा। यह मित्र के व्यवसाय और स्वयं के जीवनधारा में एक द्वन्द्व दृष्टिगत था। जब मन में कोई संघर्ष होता है तो शब्दों का रक्त अधिक बहता है, मैं बोले जा रहा था।

ऐसा नहीं हैं कि घर में सब लोग मेरी ही विचारधारा के हैं, पृथु निकटस्थ अनुगामी है और श्रीमतीजी प्रबल प्रतिद्वन्दी, देवला उन दोनों के बीच में आती है। नारियों को रंग भाते हैं, प्रकृति में जितने रंग हैं, सब के सब भाते हैं, नारी प्रकृति के निकटस्थ जो है। हर अवसर के लिये, हर स्थान के लिये उनके पास कपड़े हैं। संभवतः कपड़ों के प्रति उनके अगाध प्रेम ने मुझमें इतना वैराग्य उत्पन्न कर दिया हो। कम से कम देश के औसत से कहीं अधिक कपड़े मेरे घर में न आ जायें। यह हर घर में बहस का विषय हो सकता है कि कितने कपड़े पर्याप्त हों, विचार भिन्न भिन्न हो सकते हैं। श्रीमतीजी कहती हैं कि मेरे पास अधिक कपड़े नहीं हैं क्योंकि मुझे कपड़ों से प्रेम नहीं है। मेरा तर्क थोड़ा कटु हो सकता है, पर उनके लिये किसी कपड़े को वर्ष में एक बार पहनना, यदि प्रेम प्रदर्शन का मानक है तो मेरा मेरे कपड़ों के प्रति प्रेम ५० गुना अधिक है।

महेन्द्र ने बताया कि अपरिग्रह तो जैन धर्मों के पाँच मूल सिद्धान्तों में आता है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। व्यक्तिगत जीवन में यदि अपरिग्रह न अपनाया जायेगा तो समाज संसाधनयुक्त नहीं रह पायेगा। संसाधन यदि उपयोग में न आयेगा तब तो वह व्यर्थ ही माना जायेगा। संग्रहण की प्रवत्ति तो न स्वयं के लिये लाभदायी है और न ही समाज के लिये।

रात्रि अधिक हो चली थी, कल कपड़े के व्यापार कर्म के लिये महेन्द्र को सुबह बाजार के लिये निकलना था, अतः चर्चा वहीं विराम पा गयी। जीवन में कपड़ों के माध्यम से ही सही, पर मेरे मन में अपरिग्रह संबंधी प्रश्न हिलोरें ले रहे थे, उन्हें अपने निष्कर्ष तो ढूढ़ने ही थे।

9.11.13

किस तरह गणना करें

कभी लगता, आज बढ़कर सिद्ध कर दूँ योग्यता,
कभी लगता, व्यग्र क्यों मन, है ठहर जाना उचित,
कभी लगता, व्यर्थ क्षमता, क्यों रहे यह विवशता,
कभी लगता, करूँ संचित, और ऊर्जा, कुछ समय,

यूँ तो यह विश्राम का क्षण, किन्तु मन छिटका पृथक,
तन रहा स्थिर जहाँ भी, मन सतत, भटका अथक,
ढूढ़ता है, समय सीमित, कहीं कुछ अवसर मिले,
लक्ष्य हो, संधान का सुख, रिक्त कर को शर मिले,

पर न जानूँ, क्या अपेक्षित, क्या जगत की योजना,
नहीं दिखता, काल क्रम क्या, क्या भविष्यत भोगना,
एक संरचना व्यवस्थित, व्यर्थ क्यों विकृत करूँ,
रिक्तता आकाश का गुण या क्षितिज विस्तृत भरूँ,

सोचता हूँ, क्या है जीवन, जीव का उद्योग क्या,
है यहाँ किस हेतु आना, विश्व रत, उपयोग क्या,
बूँद से हम, विश्व सागर, दे सकें क्या ले सकें,
खेलने का समय पाकर ठेलते रहते थकें,

या प्रकृति को मूल्य देना, जन्म जो पाया यहाँ,
अर्ध्य अर्पित ऊर्जा का, कर्म गहराया यहाँ,
मौन धारण, जड़ प्रकृति यह, बोलती कुछ क्यों नहीं,
चाहती क्या, मर्म अपने, खोलती कुछ क्यों नहीं,

काश, थोड़े ही सही, संकेत कुछ जीवन गहे,
दौड़ना कब, कब ठहरना, एक समुचित क्रम रहे,
विश्व सबका व्यक्त एकल या सभी का मेल है,
यह अथक प्रतियोगिता है या परस्पर खेल है,

जब नहीं कुछ ज्ञात, पथ पर कौन से हम पग धरें,
चाल मध्यम, गतिमयी या शून्यवत ठहरे रहें,
कर्म क्या, किस पर नियन्त्रण या स्वयं की मुक्ति का,
किस तरह गणना करें, अनुमान इस आसक्ति का।

6.11.13

खोया चन्द्रगुप्त

एक वर्ष पहले तक मुझे भी यह तथ्य पता नहीं था, हो सकता है आप में से बहुतों को भी यह तथ्य पता न हो। कारण हमारी जिज्ञासा में नहीं होगा, कारण इतिहास के प्रारूप में है। इतिहास सम्राटों के उत्कर्ष तो बताता है, उनका संक्रमण काल भी लिख देता है, हो सके तो स्थायित्व काल में हुये सांस्कृतिक और सामाजिक उन्नति को स्थान भी दे देता है, पर शिखर पर बैठे व्यक्तित्व के मन में क्या चल रहा है इतिहास कहाँ जान पाता है उस बारे में? इतिहास तथ्यों और तिथियों में इतना उलझ जाता है कि उसे सम्राटों के निर्णयों के अतिरिक्त कुछ सोचने की सुध ही नहीं रहती है। उन निर्णयों के पीछे क्या चिन्तन प्रक्रिया रही होगी, क्या मानसिकता रही होगी, इसका पता इतिहास के अध्ययनकर्ताओं को नहीं चल पाता है।

ऐसा ही एक अनुभव मुझे एक वर्ष पहले हुआ, जब मैं श्रवणबेलागोला गया। श्रवणबेलागोला गोमतेश्वर की विशाल प्रतिमा के लिये प्रसिद्ध है और जैन मतावलम्बियों के लिये अत्यन्त पवित्र तीर्थ स्थान है। बंगलोर से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर स्थित यह स्थान अपने अन्दर इतिहास का एक और तथ्य छिपाये है जो गोमतेश्वर के सामने वाली पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ पर चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने प्राण त्यागे थे।

सम्राटों की मृत्यु उनकी सन्ततियों के लिये राज्यारोहण का समय होता है। अतः स्वाभाविक ही है कि उस समय इतिहास का सारा ध्यान नये राजाओं पर ही रहता है। मृत्यु वैसे भी इतिहास के लिये महत्वपूर्ण या आकर्षक घटना नहीं होती है, यदि वह अत्यन्त अस्वाभाविक न हो। चन्द्रगुप्त की मृत्यु भी इतिहास का ऐसा ही बिसराया अध्याय है। संभवतः मेरे लिये भी सामान्य ज्ञान बन कर रह जाता, इतिहास का यह बिसराया तथ्य यदि उसमें तीन रोचक विमायें न जुड़ी होतीं।

पहली, चन्द्रगुप्त की मृत्यु मात्र ४२ वर्ष में हुयी। दूसरी, मृत्यु के समय वह एक जैन सन्त हो चुके थे। तीसरी, उनकी मृत्यु स्वैच्छिक थी और आहार त्याग देने के कारण हुयी थी।

सम्राट चन्द्रगुप्त
ये तथ्य जितने रोचक हैं, उससे भी अधिक आश्चर्य उत्पन्न करने वाले भी। ये तथ्य जब चन्द्रगुप्त के शेष जीवन से जुड़ जाते हैं तो चन्द्रगुप्त के जीवन में कुछ भी सामान्य शेष रहता ही नहीं है। बचपन में चरवाहा, यौवन में सम्राट और मृत्यु जैन सन्तों सी। जन्म पाटलिपुत्र में, अध्ययन व कार्यक्षेत्र गान्धार में, सम्राट देश भर के और मृत्यु कर्नाटक के श्रवणबेलागोला में। चन्द्रगुप्त का आरोह, विस्तार और अवरोह, सभी आश्चर्य के विषय हैं। यह सत्य है कि उन्हें गढ़ने में चाणक्य का वृहद योगदान रहा, पर उस उत्तरदायित्व का निर्वहन कभी भी सामान्य नहीं रहा होगा।

जब मैं सामने की पहाड़ी में चन्द्रगुप्त के समाधिस्थल को देख रहा था, मेरे मन में तिथियों की गणना चल रही थी। चन्द्रगुप्त २० वर्ष की आयु में भारत का सम्राट बन गया था, २२ वर्षों के शासनकाल में प्रारम्भिक ५ वर्ष विस्तार और स्थायित्व के प्रयासों में बीते होंगे। १५-१६ वर्ष का ही स्थिर शासन रहा होगा। तब क्या हुआ होगा कि चन्द्रगुप्त सारा राज्य अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंप कर ४२ वर्ष की आयु में न केवल जैन सन्त बन गये वरन निराहार कर स्वैच्छिक मृत्यु का वरण कर लिये। इतिहास के अध्याय इस विषय पर मुख्यतः मौन ही दिखे। जिसने सारा जीवन संघर्षों में काटा हो, जो उत्कर्षों को उसके निष्कर्षों तक छूकर आया हो, जिसने विस्तारों को उनकी सीमाओं तक पहुँचा कर आया हो, उसका असमय अवसान इतिहास की उत्सुकता का विषय ही नहीं?

मैं भी अगले वर्ष ४२ का हो जाऊँगा। एक ४२ वर्ष के वयस्क के रूप में चन्द्रगुप्त को स्वेच्छा से मृत्यु वरण करते देखता हूँ तो चिन्तनमग्न हो जाता हूँ। चिन्तन इस बात का नहीं था कि चन्द्रगुप्त कि मृत्यु किस प्रकार हुयी, चिन्तन इस बात का था कि ४२ वर्ष की आयु में ऐसा क्या हो गया कि चन्द्रगुप्त जैसा सम्राट अवसानोन्मुख हो गया। न कोई नैराश्य था, न पुत्रों में शासन पाने की व्यग्रता, न कहीं गृहयुद्ध, न कहीं कोई व्यवधान, तब क्या कारण रहा इस निर्णय का? आजकल की राजनीति देखता हूँ तो ४२ वर्ष तो प्रारम्भ की आयु मानी जाती है। ५० वर्ष के पहले तो वानप्रस्थ आश्रम का भी प्रावधान नहीं रहा है, उसके बाद सन्यास आश्रम, तब कहीं जाकर मृत्यु और वह भी स्वाभाविक।

शान्तचित्त वह चन्द्रगिरि में
इतिहासविदों ने भले ही चन्द्रगुप्त पर कितना ही लिखा हो पर इन तथ्यों पर जैसे ही विचार करना प्रारम्भ करता हूँ, चन्द्रगुप्त कहीं खोया हुआ सा लगता है। ऐसा लगता ही नहीं कि हम चन्द्रगुप्त के सारे पक्षों को समझ पाये हैं, ऐसा लगता ही नहीं कि सम्राट के मन में चल रहे विचारक्रम को हम समझ पाये हैं, ऐसा लगता ही नहीं कि हम इतिहास के इस महत्वपूर्ण कालखण्ड को समझ पाये। इतिहास तो सदा ही हड़बड़ी में रहता है, उसे न जाने कितने और कालखण्ड समेटने होते हैं, पर चन्द्रगुप्त हमारे गौरव का प्रतीक रहा है, हमें यह अधिकार है कि हम उसके बारे में और अधिक जाने।

चन्द्रगुप्त के व्यक्तित्व ने सदा मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित किया है। जीवन यात्रा कितनी उपलब्धिपूर्ण हो सकती है, कितनी सार्थक हो सकती है, कितने आयाम माप सकती है, यह चन्द्रगुप्त का जीवन बता जाता है। श्रवणबेलागोला में शिला सा शान्त बैठा चन्द्रगुप्त पर मेरी समझ को भ्रमित कर देता है। वहाँ से आये लगभग एक वर्ष हो गया, मेरे प्रश्न को न ही कोई ऐतिहासिक उत्तर मिल पाया है और न ही कोई आध्यात्मिक उत्तर मिल पाया है। ४२ वर्ष की आयु में भला जीवन का कितना गाढ़ापन जी लिया कि चन्द्रगुप्त विरक्तिमना हो गये।

जहाँ कुछ राजकुलों का जीवन लोभ और लोलुपता से सना दिखता है, भाईयों के रक्त से सना दिखता है, पिताओं के अपमान से दग्ध दिखता है, चन्द्रगुप्त का न केवल जीवन अभिभूत करता है, वरन उसकी मृत्यु भी आश्चर्यकृत कर जाती है।

मेरे प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं, मुझे प्रभावित करने वाले व्यक्तित्व का जीवनक्रम आज भी मेरी बुद्धि के क्षमताओं की परिधि तोड़कर गोमतेश्वर की महान प्रतिमा के सम्मुख शिला रूप धर शान्त बैठा है। वह अब कुछ भी बताने से रहा। मैं भी ४२ वर्ष का हो जाऊँगा, मुझे भी अनुभवजन्य उत्तर नहीं सूझते हैं। मेरा आदर्श मुझे अपने हाथ से छूटता हुआ सा प्रतीत होता है, चन्द्रगुप्त इतिहास के पन्नों से सरकता हुआ सा लगता है, सम्राट की व्यक्तिगत चिन्तन प्रक्रिया खोयी सी लगती है।

मुझे मेरा खोया चन्द्रगुप्त चाहिये।

2.11.13

भाषायी संबंध

न जाने कितना कुछ कहती यह भाषा
भाषा संबंधी अध्ययन के समय में एक विशेष प्रश्न आया था, कि किस प्रकार भाषा संस्कृतियों के पक्षों को अपने में समा कर रखती है और किस प्रकार वह चिन्तन को प्रभावित करती है। छोटा सा एक तुलनात्मक उदाहरण लें, वैज्ञानिक भाषा का और आदिवासी क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं का। वैज्ञानिक भाषा में प्रयुक्त शब्द जैसे एन्ट्रॉपी अपने आप में न जाने कितने सिद्धान्त समाहित किये बैठा है। जब भी वह बोला जायेगा, ऊष्मागतिकी के द्वितीय सिद्धांत तक प्रयुक्त सारा ज्ञान उस शब्द में व्याख्या सहित समाया मिलेगा। इसी प्रकार आदिवासीय क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा में प्रकृति की उपासना की प्रमुखता होगी, उन्नत शब्द प्रकृति की किसी शक्ति का वर्णन करते हुये ही दिखेंगे। ज्ञान के विकास में शब्द सामर्थ्यशाली होते चले जाते हैं और आने वाली पीढ़ियों की चिन्तन प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाते रहते हैं।

गहरे सिद्धान्तों को वहन कर सकने के लिये भाषा का स्वरूप और बनावट भी गहरी होनी चाहिये। रोमन अंक किसी भी स्थिति में गणित के अग्रतम सिद्धान्तों को व्यक्त नहीं कर पायेंगे। कल्पना कीजिये कि यदि रोमन अंकों में आपको गुणा करने का भी कार्य दिया जाता तो गणित के प्रति आपका क्या रुझान होता? इसी प्रकार देखिये तो कम्प्यूटर को अंग्रेजी सीधे समझ नहीं आती, अतः उससे कार्य निकालने के लिये जावा या सी प्लस आदि कम्प्यूटर भाषाओं का उपयोग किया जा रहा है। एस क्यू एल(Structured Query Language, SQL) के नाम से नयी कम्प्यूटर भाषा विकसित हो रही है, जिसमें एक व्यवस्थित क्रम हो और कम्प्यूटर को उस भाषा को समझने में कोई भी भ्रम न रहे, हर बार शब्द और निर्देश वही अर्थ बता सकें।

जहाँ तक देखा गया है, कोई एक संस्कृति या तन्त्र एक दिशा में बहुत आगे तक चली जाती है और उस संस्कृति को व्यक्त करने वाली भाषा संस्कृति के सशक्त पक्षों को अपने में समेट लेती है। कल्पना कीजिये कि भाषा की विकास प्रक्रिया तब कैसी होती होगी, जब किसी संस्कृति में दो पक्ष सशक्त होते होंगे। भाषा का आकार और शब्दकोश तब कैसे विकसित होता होगा? क्या होता होगा, जब संस्कृति का भौतिक पक्ष, मानसिक पक्ष, बौद्धिक पक्ष या आध्यात्मिक पक्ष संतुलित रहता होगा, भाषा तब कैसे अपना मार्ग ढूंढ़ती होगी, कैसे अपना समन्वय बिठाती होगी?

भाषा के शब्दों में कितना अर्थ छिपा है और वे एक वाक्य के रूप में कितना भ्रमरहित संप्रेषण करते हैं, यह किसी भी भाषा के सामर्थ्य को दिखाते हैं। यहाँ पर एक बात समझनी आवश्यक हो जाती है जो भाषा के अनुवादकों के कठिन श्रम को समझने में सहायक है। किसी एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद की प्रक्रिया केवल दोनों भाषाओं के शब्दकोश से होकर नहीं जाती है, वरन अनुवाद से न्याय करने के लिये शब्दों द्वारा व्यक्त संास्कृतिक अनुगूँज और उस भाषा में छिपे व्याकरणीय भ्रमतन्तु समझने आवश्यक हैं। सफल अनुवाद इन दोनों को पूरी तरह से समझे बिना संभव ही नहीं है। अनुवादकों का कार्य सृजनशीलता में लेखकों से भले ही कम हो, पर संप्रेषण में लगे श्रम और समझ की दृष्टि से बहुत अधिक है, दो भाषाओं की संस्कृति और भाषायी शैली समझने की दृष्टि से बहुत अधिक है।

अनुवादकों का कार्य तब कठिन हो जाता है जब संस्कृतियाँ सर्वथा भिन्न हो। गणित और विज्ञान ने पूरे विश्व में अपनी भाषा एक सी बना ली है अतः एक देश में हुये विकास को दूसरे देश में सरलता से पढ़ा जा सकता है, बिना अनुवादकों की सहायता के। वहीं दूसरी ओर एक संस्कृति में ही पोषित दो पड़ोसी भाषाओं के बीच भी अनुवाद बड़ी समस्या नहीं है। कई शब्दों की समानता और व्याकरण की समरूपता इस कार्य को उतना कठिन नहीं रहने देती है। भिन्न संस्कृतियों की भाषा के बीच सेतु का कार्य करने के लिये मन में SQL जैसी ही किसी भाषा का निर्माण करना पड़ता है, या कहें सेतुबन्ध बनाने के लिये अनुवादक को अलिखित तीसरी भाषा गढ़नी पड़ती है।

जब दो भाषायें संपर्क में आती हैं, उन दोनों के बीच शब्दों और सिद्धान्तों के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान की प्रक्रिया चलती है। जानकर कोई आश्चर्य नहीं होगा कि जहाँ वैज्ञानिक शब्दकोश अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं में आया है, भारतीय भाषाओं के आध्यात्मिक शब्दकोश से अंग्रेजी सम्पन्न हुयी है। कारण स्पष्ट है जब सारी वैज्ञानिक प्रगति अंग्रेजी में हो रही थी, भारतीय भाषाओं के अधिनायक अपनी स्वतन्त्रता के संघर्ष में डूबे थे। इसी प्रकार जब भारत में मनीषी अध्यात्म के उन्नत ग्रन्थ लिख रहे थे, यूरोप व अरब के देश अपने अंधे युग में थे।

हमको अपने सूत्र साधने
भारतीय भाषाओं में उपस्थित समानता और व्याकरण भारतीय भाषाओं के एक स्रोत की ओर इंगित करता है। यदि संस्कृत को केन्द्र में रखकर देखें तो तमिल को छोड़कर शेष सभी भारतीय भाषाओं की समरूपता का प्रतिशत ६५ से ऊपर है, कुछ में यह प्रतिशत ८५ तक भी पहुँच जाता है। व्याकरण और वर्णमाला के अतिरिक्त संस्कृति की समानता इसका प्रमुख कारण है। तमिल के साथ जहाँ सांस्कृतिक समैक्य है, व्याकरण और वर्णमाला थोड़ी भिन्न होने पर भी समानता का प्रतिशत ४५ के आसपास आता है। भाषाओं में बटे भारत में इस प्रकार की समानता ढूँढ निकालने का कार्य गम्भीरता से नहीं लिया गया है, एक भाषा को थोपे जाने के भावनात्मक भय ने एकता पाने की संभावनाओं पर भी कुठाराघात किया है। ६५ प्रतिशत की शाब्दिक समानता क्या पर्याप्त नहीं थी, हम लोगों को एक दूसरे के हृदय में पहुँच पाने के लिये?

देश के भाषायी प्रश्न को भावनात्मकता से विलग कर तथ्यात्मक आधार पर देखा जाये तो भाषायें न केवल एक दूसरे पर अपना प्रभाव डालती रहती हैं, वरन औरों के प्रभाव से स्वयं को बचाती रहती हैं। दूसरी भाषा के शब्दों को अपनी भाषा में लेने से भाषा के समृद्धिकरण के लाभ भी हैं और स्वयं के निगले जाने का भय भी। दो भाषाओं के जन के बीच संपर्क किसी एक भाषा में ही होता है। आवश्यकतानुसार लोग एक दूसरे की भाषा बोल भी लेते हैं, पर यह बात मानकर चलिये कि आवश्यकता कितनी भी गहरी हो, अपनी भाषा के मोहतन्तु इतनी सरलता से जाते नहीं हैं। बाह्य परिवेश में विवशतावश कोई भी भाषा बोले, पर घर आकर लोग अपनी मातृभाषा ही बोलते हैं। अपनी भाषा को, अपनी संस्कृति को बचाये रखने का मोह सबको होता है।

कभी सोचा है कि किसी एक बांग्लाभाषी का बंगलोर में क्या भाषायी आधार रहता होगा? मैं बताता हूँ क्योंकि मैं ऐसे कई परिवारों को जानता हूँ। घर में बांग्ला, बाहर कन्नड़, कार्यालय में अंग्रेजी और मेरे साथ हिन्दी। प्रश्न और जटिल कर देते हैं, पति पत्नी दोनों ही अलग भाषा बोलते हैं, बच्चा कौन सी भाषा सीखेगा? अंग्रेजी विश्व से जुड़ने की भाषा है, परिवेश की भाषा कुछ और हो सकती है? ऐसी भाषायी संबंधों में वह क्या ग्रहण करता होगा, किस भाषा में कितनी गहराई तक जा पाता होगा? या भ्रम में कुछ भी नहीं सीख पाता होगा? एक से अधिक भाषा जानने के लिये तब अधिक समस्या नहीं रहती होगी जब दोनों भाषाओं में सांस्कृतिक समानता हो। तब संभव है कि शब्द भी उभयनिष्ठ हों। समस्या तब आती है जब भाषाओं से संबद्ध संस्कृतियाँ भिन्न होती हैं, उनके भौतिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विमायें भिन्न होती हैं। अनुवादक का कार्य भी इसी आधार पर अपनी सरलता या जटिलता ढूँढता होगा।

जिस तरह से विश्व में भौगोलिकता के पार पारस्परिक संपर्कबिन्दु बढ़ रहे हैं, जिस तरह भाषाओं का आवागमन हो रहा है, जिस प्रकार बहुभाषी जन तैयार हो रहे हैं, उससे यह तो निश्चित है कि सभी भाषाओं में सतत परिवर्धन होगा। संस्कृतियों के इस वृहद मेले में भाषायें किस तरह प्रभावित होगीं, उनके आपसी संबंध किस तरह के होंगे, उनके संमिश्रण से शब्दकोश क्या आकार धरेंगे, यह शोध का विषय है। अंग्रेजी संस्कृति हर ओर फैली और निष्कर्ष स्वरूप शब्दकोश का आकार ३ हजार शब्दों से ३ लाख शब्दों तक हो गया है। अन्य भाषायें अंग्रेजी के इस ऐश्वर्य से प्रभावित होंगी कि अपनी राह स्वयं गढ़ेंगी? भारतीय भाषायें किस ओर बढ़ेंगी?

भाषाओं का प्रश्न जितना सरल लोग बनाने का प्रयास करते हैं, उतना सरल वह होता नहीं। मानव संबंधों से भी अधिक दुलार पाती हैं भाषाओं की भावनायें। जो हमको हमारे भाव समझाने का प्रयत्न अपने हर शब्द से करती हैं, हम भी उसके भाव समझ सकें, हम भी नित एक होते विश्व में भाषायी संबंध समझ सकें।