स्टेशन पर ट्रेन आने के ३० मिनट पहले पहुँच गया था, ट्रेन अपने समय से ३० मिनट देर से आयी। मेरे पास एक घंटे का समय था, थोड़ी देर पहले जमकर वर्षा हुयी थी, बाहर का वातावरण सुहावना था, प्रतीक्षालय में न बैठकर मैंने प्लेटफ़ार्म की बेंच में बैठकर चारों ओर के दृश्य देखने और उन्हें लिखते रहने का निश्चय किया।
प्लेटफ़ार्म की बेंच पर बैठ कर चारों ओर देखते रहने से आस पास चल रहे ढेरों लघुविश्व दिखने लगते हैं। पहले तो लगता है कि रेलवे प्लेटफ़ार्म पर उपस्थित लोग या तो यात्री हैं या उनकी सुविधा के लिये वहाँ उपस्थित कर्मचारी या सहयोगी सेवा देने वाले। प्रथम दृष्ट्या लगता है कि यात्रियों के चारों ओर ही घूमता होगा प्लेटफ़ार्म का चक्र। यथार्थ पर इस धारणा से कहीं अलग होता है और कहीं अधिक रोचक भी।
जिस प्लेटफार्म पर मैं खड़ा प्रतीक्षा कर रहा था, उसके एक ओर से एक दिशा में और दूसरी ओर से दूसरी दिशा में ट्रेनें जा रही थी। एक के बाद एक ट्रेनें निकल रही थीं, हर दस मिनट में दो ट्रेनें, दोनों दिशाओं से एक एक। पास में ही एक कर्मचारी खड़ा था, उसका कार्य जाती हुयी ट्रेन को ढंग से देखना था और सबकुछ ठीक होने पर गार्ड महोदय को हरी झण्डी दिखाना था। यह बहुत ही अच्छा सुरक्षा उपाय होता है। ट्रेन में ड्राइवर और गार्ड दो सिरों पर तो रहते हैं, पर बीच अवस्थित ७०० मीटर लम्बी ट्रेन मे क्या घट रहा है, इस बारे में उन्हें जानकारी नहीं रहती है। हर स्टेशन और हर रेलवे फाटक पर यही कर्मचारी उनको सब कुछ ठीक होने की सूचना देते रहते हैं। बरबस ही ध्यान देश की गहराती और गाढ़ी हो चुकी समस्याओं पर चला गया कि काश इन तन्त्रों को भी हर थोड़ी दूरी पर कोई यह बताने के लिये खड़ा किया जाता कि सब कुछ ठीक चल रहा है। कोई भी तन्त्र बनाने के समय हम इतनी छोटी सी पर इतनी प्रभावी बात कैसे भुला देते हैं?
वह कर्मचारी अपने कार्य में मगन था। वह हर डब्बे को ध्यान से देखता था और अन्त में ट्रेन के गार्ड को बड़े ही उत्साह में हरी झण्डी हिलाता था। यह उत्साह और भी बढ़ जाता यदि गार्ड उनके परिचित निकल आते। मैंने इस बात का तनिक भी आभास नहीं दिया था कि मैं भी रेलवे से ही हूँ और यह तथ्य अवलोकन को और अधिक रुचिकर बना रहा था। उस कर्मचारी का उत्साह आनन्द की एक सुखद रेख बन मन में रच बस गया। दो ट्रेनों के बीच के समय के रिक्त को वह अपने साथ खड़े एक कर्मचारी को कोई पुरानी घटना सुना कर बिता रहा था। जिस लगन से उसने अपना दायित्व निभाया और जिस तरह मगन हो उसने अपने मित्र को अपनी घटना सुनायी, उसने मुझे अत्यधिक प्रभावित किया। यह देख कर मुझे लगा ही नहीं कि एक घंटे के प्रतीक्षा समय में मुझे किसी प्रकार की उलझन होनी चाहिये।
पास में ही एक सास, एक बहू और उसके चार बच्चे बैठे थे। देखने से लगा कि वे भी उसी ट्रेन की प्रतीक्षा में हैं और मुझसे पर्या्प्त पहले से वहाँ विद्यमान हैं। सास के चेहरे पर आधिपत्य झलक रहा था और वह कम बोल रही थी, बहू भी हल्का मुँह बनाये अपनी बात बोले ही जा रही थी। माँ और दादी के बीच चल रहे रासायनिक युद्ध का लाभ उठा बच्चे दोनों ओर पटरियोों में झाँक झाँक कर अपनी उत्सुकता को व्यक्त कर रहे थे। जब भी वे प्लेटफार्म के किनारे पर पहुँचते, दोनों सास बहू युद्धविराम कर बच्चों पर चिल्लाती, कहना न मानने पर झल्लाती और उन्हें उठाकर ले आतीं। युद्ध तो रह रह रुका जा रहा था, पर क्रोध कम नहीं था दोनों के मन में। बहू जब सास से अधिक नहीं जूझ पायी तो उसने अपने सबसे ऊधमी बच्चे के धमक कर अपने क्रोध का स्पष्ट संकेत दे दिया। यही नहीं, उस समय चारों ओर अपनी क्रोध भरी आँखे घुमाकर अश्वमेघ यज्ञ भी कर डाला। मैं अब तक उनके गृहनाट्य पटकथा का आनन्द उठा रहा था, बहू की उस दृष्टि ने मुझे अपना सारा ध्यान अपने आईफोन पर केन्द्रित करने पर विवश कर दिया।
जब से आईफ़ोन और आईपैड मिनी अद्यतन किया है तब से उसके विशिष्ट पक्ष अधिक नहीं देख पाया था। आईओएस७ से आईफोन पूरी तरह से नया लगने लगा है। वर्ष भर इस नयेपन को जीने के बाद ही नये आईफोन के बारे में सोचा जायेगा और तब तक इसके ही प्रयोग से ही तकनीक में बने रहा जायेगा। फ़ोन आदि करने के अतिरिक्त आईफ़ोन का सर्वाधिक उपयोग ईमेल, फेसबुक और टाइप करने में ही होता है। उसका हिन्दी कीबोर्ड और भी अच्छा हो गया है, अब अधिक समय तक टाइप करने में आनन्द आने लगा है। साथ ही साथ उसमें नोट का पार्श्व रंग पीले के स्थान पर श्वेत कर दिया गया है और लाइनें हटा दी गयी हैं। जिससे वह दिखने में और भी सुन्दर लगने लगा है।
ट्रेन आ गयी, सीट देखी तो किनारे की ऊपर वाली सीट थी। यात्रा के बीच के स्टेशन पर होने के कारण यह कोने की सीट भाग्य में अवतरित हुयी थी, नहीं तो बहुधा अन्दर की ही सीट मिलती रही है। लोगों को भले ही यह सीट थोड़ी अटपटी लगे पर मेरे कुछ मित्रों को यह सीट बड़ी भली लगती है। जब तक चाहिये चुपचाप लेटे रहिये, कोई व्यवधान नहीं, कोई पूछने वाला नहीं। मुझे बस तीन समस्यायें आयी। पहली, नीचे एक महिला के सोते रहने के कारण जब भी बैठने की इच्छा होती तो अन्दर वाली सीटों के मालिकों से पूछना पड़ता था। दूसरी, बार बार उतरने चढ़ने में कष्ट होने के कारण तब तक नीचे नहीं उतरता था जब तक उसके लिये पर्याप्त कार्य एकत्र न हो जाये। तीसरी, ऊपर की सीट में कोई चार्जिंग प्वाइंट नहीं होने से हर बार नीचे वाली सीट से बिजली उधार माँगनी पड़ती है। दो बार ही पूछा होगा, पर नीचे वाली महिला ने ऐसे देखा मानो ४०-५० लाख का होम लोन माँग लिया हो।
तीन समस्याओं को यथासंभव साधते हुये मैं स्वयं में व्यस्त हो गया। अन्दर की सीट में ऊपर की ओर एक वृद्ध बैठे थे, निश्चय ही ६० के ऊपर थे, उन्हें हर बार चढ़ने उतरने में कष्ट हो रहा था। चाह कर भी उनकी सहायता नहीं कर पा रहा था। यदि कोई इस तरह से नीचे की सीट माँगता है तो मैं बदलने को तुरन्त तैयार हो जाता हूँ, आज मैं भी किनारे की छत पर टँगा था। अन्दर की ओर दो अन्य युवा जीव नीचे बैठे थे पर उन्हें लगा कि वृद्ध को नीचे की सीट देने से उनके सम्मान को ठेस पहुँच जायेगी। वृद्ध भी सज्जन थे, उन्होंने अधिक ज़ोर नहीं डाला और चुपचाप ऊपर नीचे करने लगे। रात में एक बार उतरते हुये उनका हाथ सरक गया और वे गिर पड़े, बड़ी चोट लगी। फिर भी नीचे बैठे मूढ़ों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उन्होंने अपनी नीचे की सीट उन वृद्ध को नहीं दी। यूएन की एक आयी रिपोर्ट में ठीक ही कहा गया है कि वृद्ध लोगों की सुविधा की दृष्टि से भारत का स्थान विश्व में ७३वाँ है। ऐसे दृश्य देख कर यूएन की रिपोर्ट पर अविश्वास भी तो नहीं किया जा सकता है।
कई बार इस विषय पर चर्चा की है कि किस तरह से रेलवे में वयोवृद्ध यात्रियों को स्वतः ही नीचे की सीट दी जा सके। रेलवे में यह व्यवस्था वांछनीय तो है पर उसका क्रियान्वयन उतना ही कठिन है। चर्चा के निष्कर्ष इस प्रकार हैं। जैसे ही टिकट बिकने प्रारम्भ होते हैं, उपलब्धता के अनुसार सीटों का आवंटन प्रारम्भ हो जाता है। हर आरक्षित टिकट पर एक सीट नम्बर होता है और आवंटन एक ओर से प्रारम्भ होता है। उस समय इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाता है कि एक टिकट पर सभी व्यक्तियों को एक साथ रखा जाये। जब अधिकतम सीटें भर जाती हैं तो फुटकर स्थान एक के बाद एक भरते जाते हैं और उसमें प्रारम्भिक चरणों की तुलना में सुविधाओं का ध्यान रखना संभव नहीं होता है। किसी के टिकट निरस्त कराने से छूटे स्थान भी इसी तरह अस्त व्यस्त बँटते हैं।
समाधान तब संभव है, जब प्रारम्भ में मात्र आरक्षण दिया जाये, सीट नम्बर न बताया जाये, जैसा कि प्रथम वातानुकूलित श्रेणी में होता है। ट्रेन चलने के नियत समय पहले सभी मानवीय सुविधाओं को ध्यान में रखकर सीटों का आवंटन किया जा सकता है। ठीक इसी तरह का सीट आवंटन हवाई यात्राओं में भी होता है। इसमें समस्या बस इतनी है कि अन्तिम समय में सबके लिये अपना सीट नम्बर पता करने में और उसके अनुसार अपनी नियत सीट में बैठने में अव्यवस्था फैलने का डर है। वर्तमान में पहले से सारी सीटें नियत रहने से अन्तिम समय में अव्यवस्था न्यूनतम रहती है और केवल प्रतीक्षारत यात्री अपने टिकट की स्थिति जानने को उत्सुक रहते हैं। व्यवस्था में परिवर्तन और आईटी और मोबाइल के समुचित उपयोग से शीघ्र ही ऐसी समस्याओं का समाधान होगा, ऐसी भविष्य से आशा है।
रात में यात्रा का पहला भोजन था जो ट्रेन से मँगाया था, एक रोटी से अधिक नहीं खा सका, शेष छोड़ दिया। नागपुर से कुछ केले ले लिये थे जिनसे क्षुधा भी शान्त हुयी और ऊर्जा भी मिली। थोड़ा प्रयास करते तो यात्रा के बीच के स्टेशनों पर परिचितों के घर से भोजन आ सकता था, पर संकोचवश उनसे कह न सका। रात में शीघ्र ही सो जाने से झाँसी में प्रातः नींद खुल गयी, खिड़की से ही अपने पुराने स्टेशन को देखता रहा। तब जिन कार्यों का प्रस्ताव भेजा था, सब आधारभूत निर्माण पूरा हो चुका था। दो दिन पहले ही झाँसी कानपुर का विद्युतीकरण भी सम्पन्न हुआ था, अब झाँसी में इंजन बदलने में व्यर्थ हुआ समय कम हो जायेगा। बड़ा अच्छा लग रहा था, प्रभात का समय और सच हुये स्वप्न।
उन स्वप्नों को तब झटका लगा जब ट्रेन कानपुर पहुँच रही थी। कूड़े के वही ढेर और नगरीय अव्यवस्था। सब सुधर गये, तुम न सुधरे कानपुर।
कितने विश्व यहाँ दिखते हैं |
जिस प्लेटफार्म पर मैं खड़ा प्रतीक्षा कर रहा था, उसके एक ओर से एक दिशा में और दूसरी ओर से दूसरी दिशा में ट्रेनें जा रही थी। एक के बाद एक ट्रेनें निकल रही थीं, हर दस मिनट में दो ट्रेनें, दोनों दिशाओं से एक एक। पास में ही एक कर्मचारी खड़ा था, उसका कार्य जाती हुयी ट्रेन को ढंग से देखना था और सबकुछ ठीक होने पर गार्ड महोदय को हरी झण्डी दिखाना था। यह बहुत ही अच्छा सुरक्षा उपाय होता है। ट्रेन में ड्राइवर और गार्ड दो सिरों पर तो रहते हैं, पर बीच अवस्थित ७०० मीटर लम्बी ट्रेन मे क्या घट रहा है, इस बारे में उन्हें जानकारी नहीं रहती है। हर स्टेशन और हर रेलवे फाटक पर यही कर्मचारी उनको सब कुछ ठीक होने की सूचना देते रहते हैं। बरबस ही ध्यान देश की गहराती और गाढ़ी हो चुकी समस्याओं पर चला गया कि काश इन तन्त्रों को भी हर थोड़ी दूरी पर कोई यह बताने के लिये खड़ा किया जाता कि सब कुछ ठीक चल रहा है। कोई भी तन्त्र बनाने के समय हम इतनी छोटी सी पर इतनी प्रभावी बात कैसे भुला देते हैं?
वह कर्मचारी अपने कार्य में मगन था। वह हर डब्बे को ध्यान से देखता था और अन्त में ट्रेन के गार्ड को बड़े ही उत्साह में हरी झण्डी हिलाता था। यह उत्साह और भी बढ़ जाता यदि गार्ड उनके परिचित निकल आते। मैंने इस बात का तनिक भी आभास नहीं दिया था कि मैं भी रेलवे से ही हूँ और यह तथ्य अवलोकन को और अधिक रुचिकर बना रहा था। उस कर्मचारी का उत्साह आनन्द की एक सुखद रेख बन मन में रच बस गया। दो ट्रेनों के बीच के समय के रिक्त को वह अपने साथ खड़े एक कर्मचारी को कोई पुरानी घटना सुना कर बिता रहा था। जिस लगन से उसने अपना दायित्व निभाया और जिस तरह मगन हो उसने अपने मित्र को अपनी घटना सुनायी, उसने मुझे अत्यधिक प्रभावित किया। यह देख कर मुझे लगा ही नहीं कि एक घंटे के प्रतीक्षा समय में मुझे किसी प्रकार की उलझन होनी चाहिये।
पास में ही एक सास, एक बहू और उसके चार बच्चे बैठे थे। देखने से लगा कि वे भी उसी ट्रेन की प्रतीक्षा में हैं और मुझसे पर्या्प्त पहले से वहाँ विद्यमान हैं। सास के चेहरे पर आधिपत्य झलक रहा था और वह कम बोल रही थी, बहू भी हल्का मुँह बनाये अपनी बात बोले ही जा रही थी। माँ और दादी के बीच चल रहे रासायनिक युद्ध का लाभ उठा बच्चे दोनों ओर पटरियोों में झाँक झाँक कर अपनी उत्सुकता को व्यक्त कर रहे थे। जब भी वे प्लेटफार्म के किनारे पर पहुँचते, दोनों सास बहू युद्धविराम कर बच्चों पर चिल्लाती, कहना न मानने पर झल्लाती और उन्हें उठाकर ले आतीं। युद्ध तो रह रह रुका जा रहा था, पर क्रोध कम नहीं था दोनों के मन में। बहू जब सास से अधिक नहीं जूझ पायी तो उसने अपने सबसे ऊधमी बच्चे के धमक कर अपने क्रोध का स्पष्ट संकेत दे दिया। यही नहीं, उस समय चारों ओर अपनी क्रोध भरी आँखे घुमाकर अश्वमेघ यज्ञ भी कर डाला। मैं अब तक उनके गृहनाट्य पटकथा का आनन्द उठा रहा था, बहू की उस दृष्टि ने मुझे अपना सारा ध्यान अपने आईफोन पर केन्द्रित करने पर विवश कर दिया।
जब से आईफ़ोन और आईपैड मिनी अद्यतन किया है तब से उसके विशिष्ट पक्ष अधिक नहीं देख पाया था। आईओएस७ से आईफोन पूरी तरह से नया लगने लगा है। वर्ष भर इस नयेपन को जीने के बाद ही नये आईफोन के बारे में सोचा जायेगा और तब तक इसके ही प्रयोग से ही तकनीक में बने रहा जायेगा। फ़ोन आदि करने के अतिरिक्त आईफ़ोन का सर्वाधिक उपयोग ईमेल, फेसबुक और टाइप करने में ही होता है। उसका हिन्दी कीबोर्ड और भी अच्छा हो गया है, अब अधिक समय तक टाइप करने में आनन्द आने लगा है। साथ ही साथ उसमें नोट का पार्श्व रंग पीले के स्थान पर श्वेत कर दिया गया है और लाइनें हटा दी गयी हैं। जिससे वह दिखने में और भी सुन्दर लगने लगा है।
ट्रेन आ गयी, सीट देखी तो किनारे की ऊपर वाली सीट थी। यात्रा के बीच के स्टेशन पर होने के कारण यह कोने की सीट भाग्य में अवतरित हुयी थी, नहीं तो बहुधा अन्दर की ही सीट मिलती रही है। लोगों को भले ही यह सीट थोड़ी अटपटी लगे पर मेरे कुछ मित्रों को यह सीट बड़ी भली लगती है। जब तक चाहिये चुपचाप लेटे रहिये, कोई व्यवधान नहीं, कोई पूछने वाला नहीं। मुझे बस तीन समस्यायें आयी। पहली, नीचे एक महिला के सोते रहने के कारण जब भी बैठने की इच्छा होती तो अन्दर वाली सीटों के मालिकों से पूछना पड़ता था। दूसरी, बार बार उतरने चढ़ने में कष्ट होने के कारण तब तक नीचे नहीं उतरता था जब तक उसके लिये पर्याप्त कार्य एकत्र न हो जाये। तीसरी, ऊपर की सीट में कोई चार्जिंग प्वाइंट नहीं होने से हर बार नीचे वाली सीट से बिजली उधार माँगनी पड़ती है। दो बार ही पूछा होगा, पर नीचे वाली महिला ने ऐसे देखा मानो ४०-५० लाख का होम लोन माँग लिया हो।
कष्टभरी है ऊपरी शैय्या |
कई बार इस विषय पर चर्चा की है कि किस तरह से रेलवे में वयोवृद्ध यात्रियों को स्वतः ही नीचे की सीट दी जा सके। रेलवे में यह व्यवस्था वांछनीय तो है पर उसका क्रियान्वयन उतना ही कठिन है। चर्चा के निष्कर्ष इस प्रकार हैं। जैसे ही टिकट बिकने प्रारम्भ होते हैं, उपलब्धता के अनुसार सीटों का आवंटन प्रारम्भ हो जाता है। हर आरक्षित टिकट पर एक सीट नम्बर होता है और आवंटन एक ओर से प्रारम्भ होता है। उस समय इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाता है कि एक टिकट पर सभी व्यक्तियों को एक साथ रखा जाये। जब अधिकतम सीटें भर जाती हैं तो फुटकर स्थान एक के बाद एक भरते जाते हैं और उसमें प्रारम्भिक चरणों की तुलना में सुविधाओं का ध्यान रखना संभव नहीं होता है। किसी के टिकट निरस्त कराने से छूटे स्थान भी इसी तरह अस्त व्यस्त बँटते हैं।
समाधान तब संभव है, जब प्रारम्भ में मात्र आरक्षण दिया जाये, सीट नम्बर न बताया जाये, जैसा कि प्रथम वातानुकूलित श्रेणी में होता है। ट्रेन चलने के नियत समय पहले सभी मानवीय सुविधाओं को ध्यान में रखकर सीटों का आवंटन किया जा सकता है। ठीक इसी तरह का सीट आवंटन हवाई यात्राओं में भी होता है। इसमें समस्या बस इतनी है कि अन्तिम समय में सबके लिये अपना सीट नम्बर पता करने में और उसके अनुसार अपनी नियत सीट में बैठने में अव्यवस्था फैलने का डर है। वर्तमान में पहले से सारी सीटें नियत रहने से अन्तिम समय में अव्यवस्था न्यूनतम रहती है और केवल प्रतीक्षारत यात्री अपने टिकट की स्थिति जानने को उत्सुक रहते हैं। व्यवस्था में परिवर्तन और आईटी और मोबाइल के समुचित उपयोग से शीघ्र ही ऐसी समस्याओं का समाधान होगा, ऐसी भविष्य से आशा है।
रात में यात्रा का पहला भोजन था जो ट्रेन से मँगाया था, एक रोटी से अधिक नहीं खा सका, शेष छोड़ दिया। नागपुर से कुछ केले ले लिये थे जिनसे क्षुधा भी शान्त हुयी और ऊर्जा भी मिली। थोड़ा प्रयास करते तो यात्रा के बीच के स्टेशनों पर परिचितों के घर से भोजन आ सकता था, पर संकोचवश उनसे कह न सका। रात में शीघ्र ही सो जाने से झाँसी में प्रातः नींद खुल गयी, खिड़की से ही अपने पुराने स्टेशन को देखता रहा। तब जिन कार्यों का प्रस्ताव भेजा था, सब आधारभूत निर्माण पूरा हो चुका था। दो दिन पहले ही झाँसी कानपुर का विद्युतीकरण भी सम्पन्न हुआ था, अब झाँसी में इंजन बदलने में व्यर्थ हुआ समय कम हो जायेगा। बड़ा अच्छा लग रहा था, प्रभात का समय और सच हुये स्वप्न।
उन स्वप्नों को तब झटका लगा जब ट्रेन कानपुर पहुँच रही थी। कूड़े के वही ढेर और नगरीय अव्यवस्था। सब सुधर गये, तुम न सुधरे कानपुर।
कूड़े के वही ढेर और नगरीय अव्यवस्था।
ReplyDeleteअभी भी ऐसा ही है ?
सुधार की सम्भावनाये हर स्तर पर है ........?
ReplyDeleteआपने आईफ़ोन के बारे में इतना लिखा है कि अब अपना लेने की इच्छा बलवती होने लगी है, आईपेड ले नहीं सकते.. वह हमारी कार्यालयीन दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ती और सुरक्षित नेटवर्क पर खरा नहीं है.. हमें ऊपर की बर्थे अच्छी लगती है.. पर बगल वाली बिल्कुल नहीं.. पैर ही लंबे नहीं हो पाते.. कानपुर बच्चे थे तब गये थे.. जब से होश सँभाला है तब से नहीं जा पाये हैं.. हमें लगता था कि सहारनपुर सबसे गंदा शहर है.. जगह जगह कूड़े के ढ़ेर से स्वागत होता है ..
ReplyDeleteवर्धा से कानपुर की यात्रा पाठक की भी हो गई । सुन्दर यात्रा-वर्णन ।
ReplyDeleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीय चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteआपकी लेखनी कई रंग दिखलाती है
ReplyDeleteसार्थक लेखन
नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें
कानपुर के लिए हमारे यहाँ कहते है जो कूड़ा बीस साल पहले जहाँ डाल आओ वो बीस साल बाद भी वही मिलेगा
ReplyDeleteये ऊपर वाली सीट की बात आपने सही याद दिलाई। ज्यादातर पुराने हो चुके कोच में ऊपर की सीट पर तो संतुलन बनाने में ही रात गुजर जाती है बिना नींद के। सीट से गिरने का डर हमेशा विद्यमान रहता है।
ReplyDeleteयात्रा के सुंदर रंग .... गंदगी के ढेर किसी भी शहर में बिखरे पड़े हों, बड़ा बुरा लगता है ....
ReplyDeleteवर्धा से कानपुर की रोचक यात्रा-वर्णन,,,!
ReplyDeleteRECENT POST : अपनी राम कहानी में.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल गुरुवार (10-10-2013) को "ब्लॉग प्रसारण : अंक 142"शक्ति हो तुम
ReplyDeleteपर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.
आपने लिखा है -
ReplyDeleteउसका हिन्दी कीबोर्ड और भी अच्छा हो गया है, अब अधिक समय तक टाइप करने में आनन्द आने लगा है।
तो कृपया किसी एक पोस्ट में विस्तार से बताएं कि हिंदी कीबोर्ड अच्छा कैसे हो गया है और क्या सुविधा आ गई है. क्या इसमें हिंदी टैक्स्ट प्रेडिक्शन की भी सुविधा आ गई है? यदि ऐसा है तो लेने का विचार किया जा सकता है.
जी, बड़ा ही रोचक विषय है यह। लिखना प्रारम्भ कर दिया है।
Deleteकहते हैं .....once railway is always railway .....रेल की समस्याओं से जुड़ा रेल यात्रा का सुंदर वर्णन ....
ReplyDeleteवरीय अधिकारियो को समस्या से दो चार होने से ही समस्या का निदान संभव है. बर्थ नम्बर यदि चार्ट बनते समय मिलता है और उसे आयु के साथ आवंटित किया जाये तो संभव है निदान पर रेलवे में सभी प्रकार के संभव कार्यो का तोड़ है.
ReplyDeleteसुधार की सम्भावनाये हर स्तर पर है सर, सुन्दर जागरूक करता आलेख।
ReplyDeleteसम्भवतह कानपुर अपने औद्य़ोगिक नगर होने का संकेत दे रहा हो।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteअच्छा यात्रा संस्मरण। वाकई मूढ़ों को वृद्धजनों के प्रति कोई लगाव, दायित्व, सम्मान और कर्तव्य का अनुभव नहीं होत। यह स्थिति अत्यन्त सोचनीय है। एक रोटी ही खाई इसका मतलब खाने की गुणवत्ता रसातल वाली होगी। रेलवे से सम्बद्ध हैं इसकी समुचित शिकायत और निवारणार्थ कुछ आपके स्तर पर किया ही गया होगा। कानपुर क्या सभी शहरों में ज्यादातर यही स्थिति है। इस्तेमाल करो और फेंकोवाली मानसिकता न जाने कब रुकेगी अपने देश में!
ReplyDeleteआपकी यह गांधी की रेल यात्रा हो गई -वर्धा से जो चढ़े :-) आज मुझे भी एक साईड ऊपर वाली बर्थ का टेंशन है
ReplyDeleteआपकी ट्रेन यात्रा पसंद आयीं . . .
ReplyDeleteआभार !
प्लेटफार्म बहुत साफ दिख रहा है !
ReplyDeleteहमे तो आज भी प्लेटफार्म पर बनी दुकाने देखकर बड़ा मज़ा आता है.
लेकिन बुजुर्गों की सहायता करना तो आवश्यक है.
दो बार ही पूछा होगा, पर नीचे वाली महिला ने ऐसे देखा मानो ४०-५० लाख का होम लोन माँग लिया हो।
ReplyDeletehilarious.. :)
ट्रेन यात्रा बहुत बढिया रही.. जागरूक करता सुन्दर आलेख।
ReplyDelete'पर्याप्त पहले से' ऐसे शब्द समूह आज कल कम पढ़ने को मिलते हैं
ReplyDeleteयात्रा का सूक्ष्म अवलोकन .... वरिष्ठ नागरिकों के लिए रेल विभाग को कुछ प्रयास करने चाहिए .... आम नागरिकों में इतनी मानवीयता नहीं होती कि बुजुर्ग को देख कर अपनी आरक्षित सीट से बदल लें .... रोचक संस्मरण ।
ReplyDeleteदेखने में भी कुशल प्रबंधन।
ReplyDeleteबहुत रुचिकर आलेख एक रेलवे उच्चाधिकारी द्वारा दृश्य का आम आदमी बनकर अवलोकन और अधिक अच्छा लगा |आभार सर
ReplyDeleteऊपर की सीट बहुत तकलीफ देती है। पता नही वृद्ध की परेशानी देखकर भी लोग कैसे निस्पृह रहे।
ReplyDeleteबरबस ही ध्यान देश की गहराती और गाढ़ी हो चुकी समस्याओं पर चला गया कि काश इन तन्त्रों को भी हर थोड़ी दूरी पर कोई यह बताने के लिये खड़ा किया जाता कि सब कुछ ठीक चल रहा है। कोई भी तन्त्र बनाने के समय हम इतनी छोटी सी पर इतनी प्रभावी बात कैसे भुला देते हैं?
ReplyDeleteझलकी दिखाई दी आपके अन्दर के तटस्थ एवं शिष्ट प्रेक्षक की। हिन्दुस्तान में पनपते क्षयकारी संबंधों की।
बेहतरीन यात्रा संस्मरण, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
अत्यंत रोचक यात्रा-संस्मरण |कानपुर के बारे में एक ऐसा सत्य,इस लेख में पढ़ने को मिला , जो कोई ठुकरा नहीं सकता |सिंगापुर में भी एक विशेष स्थान है "लिटिल इंडिया " जहाँ पहुचते ही लगता है कि सच में कानपुर में आ गये हैं |इस तरह कानपुर केवल भारत में ही नहीं अपितु विदेश में भी हमें अपने देश में में होने का आभास दिलाता है,शायद कूढ़े के ये ढेर भी कुछ अपनी ही कहानी कहते हैं | दूसरे, यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि रलवे में भी संवेदन शील लोग मौजूद हैं,अगर ऐसे लोग प्रयास करें तो आशा है कि कम से कम वृद्धों की परेशानी थोड़ी कम हो जायेगी |जागरूक करता लेखन प्रंशसनीय है |
ReplyDeleteआभार
रजनी सडाना
सादर प्रणाम |
ReplyDeleteरेल यात्रा का बड़ा ही जीवंत वर्णन आपने किया हैं |रोचकता बनी रही ,यूँ कहिये एक सांस में पूरा पढ़ गया |
**********
दृष्टा की भूमिका आप खूब निभाते हैं, बिना इन्वोल्व हुये घटनाओं या पात्रों को देखना एक विशेषता ही है। सास-बहू प्रकरण में तो दृष्टा की भूमिका ही उचित थी लेकिन झंडी दिखाने वाले कर्मचारी का उत्साहवर्धन और कोच में युवा जीवों की स्थितप्रज्ञता पर प्रतिक्रिया अवश्य दिखानी चाहिये थी।
ReplyDeleteबहरहाल आपकी नजर से यात्रा के बहाने व्यवस्था का विश्लेषण शानदार है।
रेल यात्रा को जीवंत कर दिया ... ओर कानपुर की पुरानी पहचान बरकरार है ... हम नहीं बदलेंगे ...
ReplyDeleteरोचक संस्मरण। कहते हैं जिंदगी एक प्लेटफार्म है.
ReplyDeleteवृद्ध जनो के लिए नीचे की सीट आरक्षित होनी ही चाहिए।
बहुत खूब सरजी रेलवे की मारफत आज के इंतजामिया पर सामाजिक परिवेश पर कटाक्ष।
ReplyDeleteएक रेलवे अधिकारी से रेलवे यात्रा का वर्णन उसकी समस्याओं से दो चार होना पढ़कर बहुत अच्छा लगा,अधिकारी ,नेता गण जब खुद यात्रा करेंगे तभी तो व्यवस्था में कमियाँ जान सकेंगे न :):):): सास बहु का सीन भी मजेदार रहा वैसे यात्रा में इस तरह के सीन से बहुत मनोरंजन होता है इस संस्मरण पोस्ट को साझा करने के लिए आभार.
ReplyDeleteEk Aise Sachhi Kahani Rachna Jo Mere Dil Ko Bhaut Achhi Lagi, Praveen Ji Ko Mere Or Se Koti-2 Dhnaywad.
ReplyDeleteJo bhi ho rail yaatra ka koi vikalp nahi hai.... havai jahaaj se safar kab khatma ho gaya pata hi nahi chalta aur bas mein wo aaraam nahi ...isliye Railway zindabad tha....zindabaad hai ...aur zindabaad rahega... :)
ReplyDeleteसास-बहू की ‘गुड़ेरा-गुड़ेरी’ पर आपका प्रेक्षण बहुत मजेदार है। आपने चुपके-चुपके उनकी सारी बातें सुन लीं।
ReplyDeleteरेलवे की प्राइवेसी पॉलिसी क्या है? :) यात्रियों की प्राइवेसी का उल्लंघन उनकी यात्रा-श्रेणी के व्युत्क्रमानुपाती होता है।:)
आज आपकी पोस्ट को पढकर अफसोस हुआ कि काश ये पोस्ट दो दिन पहले पढ ली होती तो आपसे कानपुर मे मुलाकात तो हो जाती ।
ReplyDeleteरेल यात्रा बहुत बेकार लगाती हैं। परन्तु आज कल लोगो का अवलोकन , एक किताब और कुछ ऑडियो समय का पता ही नहीं चलने देते. कुछ समय लेकिन काफी दिलचस्प इन्सान भी मिल जाते हैं।
ReplyDeleteलिखते रहिये , कुछ सिखने को ही मिलता हैं।
जीवंत लेखन ...कुछ बात है कि आदत बदलती नहीं ..अपने शहरों की..
ReplyDeleteयात्रा वृतांत ... एवं प्रस्तुति अच्छी लगी
ReplyDeletegreat article sir
ReplyDelete