कभी कभी लगता है कि यात्रा के बारे में क्या लिखूँ? यात्रायें सामान्य क्रियाओं की श्रेणी में आ चुकी हैं। सबकी यात्रायें एक जैसी ही होती होंगी, यदि कुछ विशेष रहता होगा तो वह है यात्रा में मिले लोग। यदि आप बातें करने में उत्सुक हैं तो आपकी हर यात्रा रोचक होगी। यदि ऐसा नहीं है और आप पूर्णतया अन्तर्मुखी हैं तो आपकी यात्राओं में कुछ विशेष कहने को नहीं होगा।
पहचानों, हैं कौन मुखी हम |
मुझे अब तक समझ नहीं आया है कि मैं बहिर्मुखी हूँ या अन्तर्मुखी। कभी कभी न चाहते हुये भी सामने वाले से इस लिये भी बतिया लेते हैं कि कहीं ऐसा न लगने लगे कि मानसिकता में भी प्रौढ़ता छाने लगी है। पता नहीं युवावस्था किस अवस्था तक मानी जाती है़, पर मन यह मानने को करता ही नहीं कि हम प्रौढ़ता के द्वार खटखटा रहे हैं। जब से लिखना अधिक हो गया, सोचना अधिक हो गया, अब अधिक बतियाने से समय व्यर्थ होने का बोध होता है, लगता है कि इससे अच्छा कुछ लिख लिया होता।
क्या हम यात्राओं में सामने वाले से बस क्या इसीलिये बतियाते हैं कि समय कट जाये, या संभव है कि कुछ नया और रोचक जानने को मिल जाये। २०-३० घंटे के यात्रा में उत्पन्न बौद्धिक व मानसिक संबंधों की इच्छा तब बहुत अधिक नहीं रहती जब आपके पास स्वयं ही करने के लिये पर्याप्त कार्य हों। अपने कार्यों के बन्धनों का बोझ जब अधिक कर लें तो सारी शक्ति उसी को साधने में निकल जाती है, पर सबको लगता है कि हम अन्तर्मुखी हो चले हैं। जब हम सभी बोझों से मुक्त रहते हैं और स्वयं को अनुभव से भरने को प्रस्तुत रहते हैं तब सबको लगता है कि हम बहुर्मुखी हो चले।
मैं भी अन्तर्मुखी और बहुर्मुखी की अवस्थाओं में बहुधा उतराता हूँ, इस यात्रा में पूरी तरह से निर्धारित कर के चला था कि ज्ञान के सागर भरूँगा, इसीलिये टेड की ढेरों वार्तायें अपने आईपैड में भरकर ले गया था। अनुभव भरने को प्रस्तुत था तो बहुर्मुखी होना था, पर अनुभव पूर्वनियोजित था और स्वयं में ही व्यस्त रहना था, अतः व्यवहार अन्तर्मुखी था।
पूर्वनियोजित अन्तर्मुखी बने रहने की सारी योजना तब धूल धूसरित हो गयी जब टेड की वार्ताओं ने बतियाना बन्द कर दिया। अब तो चाह कर भी व्यस्त नहीं लग सकते थे, अतः निश्चय किया कि कृत्रिम आवरण छोड़कर बहुर्मुखी हो जाया जाये।
सामने की सीट में एक वृद्ध महिला को बिठा कर उनके सहायक उतर गये थे। सामने की सीट रिक्त होने के कारण वह वहाँ बैठकर सुस्ता रही थीं। उन्हें यह तो ज्ञात था कि उनकी सीट पक्की है पर कौन सी वह सीट है, इसकी समुचित सूचना नहीं थी उन्हें। संभवतः ट्रेन चलने के तुरन्त पहले ही उनका आना हुआ था और सामने वाला कोच का दरवाज़ा खुला होने के कारण उसमें उन्हें चढ़ा दिया गया था। मुझे भी कुछ कार्य नहीं था अतः उनसे थोड़ी देर बैठ कर बात करता रहा। उनका व्यवहार मातृवत लगा और उनके हर वाक्य में एक बार बेटा अवश्य निकल रहा था। मुझे लगा कि मुझे उनकी सीट ढूँढ़ने में उनकी सहायता करनी चाहिये पर टीटी महोदय के आने तक कुछ कर भी नहीं सकता था।
टीटी महोदय आये और टिकट देख कर बोले कि माताजी आपका तो प्रथम वातानुकूलित कोच में है, आप द्वितीय वातानुकूलित कोच में क्यों बैठी हैं? माताजी के चेहरे पर रेलवे संबंधित इतनी जटिलता न जानने के मन्द भाव उभर आये। टीटी महोदय ने बताया कि उनका कोच दो कोच के बाद है। वे अकेली थीं और एक बड़ा बैग लिये थीं। हमने टीटी महोदय से कहा कि आप जाकर उन्हें बैठा दीजिये, हम पीछे उनका सामान भिजवा देते हैं। यह कह तो दिया था पर भूल गये थे कि हम पूरी तरह से व्यक्तिगत यात्रा पर थे और कोई भी सहायक हमारे साथ नहीं था। जब अगले स्टेशन पर एक और सहयात्री आ गये तो उन्हें अपना सामान देखने को कह कर हम स्वयं ही माताजी का सामान उठाकर उनके कोच में पहुँचा आये। माताजी गदगद हो गयीं, तनिक असहज भी कि क्या बोलें? उन्हें बस इतना ही कहा कि आपने इतनी बार बेटा बोला है तो बेटे को सामान उठाने का अधिकार है।
छोटा ही सही पर एक अच्छा कार्य करके मन प्रसन्न हो गया था। टेड की वार्तायें धुल जाने का दुख पूरी तरह से जा चुका था। अब सामने वाली सीटों पर एक वयोवृद्ध दम्पति थी, जैन मतावलम्बी थे, बंगलोर में किसी धार्मिक आयोजन में भाग लेकर वापस जा रहे थे। पत्नी किसी उपवास में थीं अतः विश्राम कर रही थीं, पतिदेव को दोपहर में नींद नहीं आ रही थी और वे ऊपर की सीट पर बैठकर पुरानी फ़िल्मों के गाने सुन रहे थे। मैनें भी कुछ विशेष न करने का निश्चित किया और आईपैड मिनी पर ही अपने कार्यों को व्यवस्थित करने में लग गया। कुछ पुरानी लेख छिटकनों का संपादन भी करना था, वह भी कार्य में जोड़ लिया। सच में आनन्द आ रहा था, बाहर के सुन्दर दृश्य, ट्रेन के सवेग भागने से उत्पन्न पवन का सुन्दर नाद, पार्श्व में पुराने गीतों का कर्णप्रिय संगीत और व्यस्तताओं के कारण छूटे रह गये कार्य का व्यवस्थित संपादन। सब कुछ लयबद्ध लग रहा था। अब तक टेड वार्तायें बह जाने का दुख पूर्ण रूप से जा चुका था और उसके स्थान पर बहिर्मुखी चेतना आनन्दमयी थी।
दृश्य मगन था |
कार्य करने के बाद पुनः बाहर देखने लगा। हरीतिमा से पूरा यात्रा-क्षेत्र लहलहा रहा था। नदी नालों में पानी पूरे वेग में था। पानी का मटमैला रंग इस बात का प्रमाण था कि ग्रीष्म से प्यासी धरती की प्यास बुझाकर आया है वह वर्षा जल। ऊपर हल्के स्याह रंग के बादल से भरा आसमान और नीचे गहरे हरे रंग में लिपटा धरती का विस्तार, निश्चय ही वर्षा बड़ा हो मोहक दृश्य प्रस्तुत कर रही थी।
जैन दम्पति अपने खाने का पूरा सामान लेकर आये थे और घर में बनी चीज़ों को धीरे धीरे और रस लेकर खा रहे थे। सच में देखकर अच्छा लगा कि उनके पास दो बड़े बैगों में एक बैग केवल खाद्य सामग्री से ही भरा था। न बाहर का भोजन और न ही किसी से अधिक बातचीत। प्रारम्भिक परिचय के बाद वे आपस में ही अपने संबंधियों के बारे में कुछ बतियाने लगे। उनकी निजता को सम्मान देने के भाव से मैंने भी कुछ नहीं कहा, अपने लेखन में व्यस्त हो गया। बंगलोर और वर्धा के बीच की ट्रेन यात्रा में मैंने भी बाहर का कुछ नहीं खाया था। श्रीमतीजी ने पराँठे और सब्ज़ी बनाकर दे दी थी, साथ ही साथ १० केले ले लिये थे। उसी में सारा भोजनीय कार्य हो गया।
वर्धा पहुँचने के तीन घंटे पहले, पति ने पत्नी से रुई के बारे में पूछा, पति के नाख़ून में चोट लग गयी थी और हल्का ख़ून निकल रहा था। मेरे पास एक बैण्डेज था, निकालकर दे दिया, उन्हें अच्छा लगा। अगले तीन घंटे हम एक दूसरे को अपने बारे में बताते रहे, दूसरे के बारे में जानते रहे, स्नेहिल भाव से। वर्धा पहुँचने पर हमने उनसे विदा ली और उतर गये।
छोटे छोटे कार्यों की प्रसन्नता में हमारी यात्रा का प्रथम चरण बीत गया। भले ही पूर्वनियोजित यात्रा न हो पायी हो, भले ही अन्तर्मुखी यात्रा न हुयी हो, भले ही पूरी तरह बहिर्मुखी यात्रा भी न हुयी हो, पर यात्रा सरलमुखी थी, सहजमुखी थी।
यह अनर्तमुखी, बहिर्मुखी, सहजमुखी, सरलमुखी के साथ मल्टीमुखी यात्रा रही। वैसे भी मल्टीमुखी रावण का दहनपर्व दशहरा आने को है। आप बुराइयों की ओर प्रवृत्त हैं नहीं, और अच्छाइयों के विस्तार में प्रवीण हैं इसलिए यह मल्टीमुखिता आपके जीवन और मन की संवेदनाओं के कई रूपों के दर्शन करा गई। यही लेखन की थाती है, आप इसे थाली मत समझ लेना, वैसे थाती और थाली में कोई विशेष अंतर नहीं है। थाती पत्तल की प्लेट और थाली स्टील की या कांच की।
ReplyDeleteसरल मुखी यात्रा…… बधाई
ReplyDeleteये सहजता... सरलता बनी रहे!
ReplyDeleteबुजुर्गों का खयाल रखना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।आप ऐसा कर पाए,भाग्यशाली हैं।
ReplyDeleteआपके वृत्तांत ने यात्रा को सजीव कर दिया हम सहज ही सहयात्री बन गए।
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ReplyDeleteपहचानों, हैं कौन मुखी हम
इतना सरल सवाल है मुन्नी
सबकी सब तुम सुमुखी हवै।
ReplyDeleteबुजुर्गों का सम्मान करना ध्यान रखना हमारी जिम्मेदारी बनती है .!
RECENT POST : पाँच दोहे,
आज सुबह किसी चैनल पर दिखा रहे थे कि एक 92 वर्षीय सज्जन प्लेन के ऊपर बंध कर उड़ रहे थे.
ReplyDeleteउमर बस दिमाग़ में होती है.
प्रिय प्रवीण ! परमेश्वर ने हमें इतना कुछ दिया है कि जिसका मूल्याञ्कन हम नहीं कर पाते । हम सबकी स्थिति उस भिखारी की तरह है जो किसी खज़ाने के ऊपर बैठकर भीख मॉंग रहा हो । खुश होने का एकमात्र मंत्र है हमारे पास और वह है "दान।" यदि मनुष्य को प्रसन्न रहना है तो उसे देने की कला सीखनी होगी । ईश्वर की कृपा से आप में यह गुण विद्यमान है, और आप देने की कला में "प्रवीण " हैं । मैंने आपके व्यक्तित्व में एक अल्हड किशोर देखा, जो अबोध है , भावुक है और चुलबुला है , पर आप उसे कभी बाहर आने नहीं देते । कभी -कभी बच्चों की तरह भी जीना चाहिए । सहज-सरल जीवन और फिर सरलता ही तो साधुता है ।
ReplyDeleteबुजुर्गों का खयाल कर पाए..... जिम्मेदारी बनती है
ReplyDeleteमुझे तो आप मध्यमुखी लगे हैं :-) - यात्रा संस्मरण अच्छा लगा
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - रविवार - 06/10/2013 को
ReplyDeleteवोट / पात्रता - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः30 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra
Nice post
ReplyDeleteसुंदर यात्रा संस्मरण .... सहज, सरल और जीवन से जुड़ा सा ....
ReplyDeleteमल्टीमुखी .... नया शब्द मिला है ये तो :)
वर्धा की ओर एक सहज मुखी यात्रा- वृतांत्।
ReplyDeleteकिसी की छोटी छोटी सहायता करके , मन को बड़ी बड़ी ख़ुशी होती है.
ReplyDeleteआप अपनी दृष्टि और शब्दों से अपने हर संस्मरण को रोचक और ज्ञानवर्धक बना देते हैं..ऐसी यात्रा हमें मिली होती तो शायद हमारे लिये तो ये सामान्य सी ही होती...बहुत सुंदर वृत्तांत। खासतौर से जैन दंपत्ति की मनोदशा को जिस तरह आपने समझा है उसे मैं भी उसी कम्युनिटी से बिलांग करने के कारण समझ सकता हूँ...
ReplyDeleteस्वयं से स्वयं तक की आनंद यात्रा ....सरल सहज सुंदर संस्मरण ...!!
ReplyDeleteबहुमुखी संभावनाएं.
ReplyDeleteसुंदर यात्रा संस्मरण
ReplyDeleteआनंदित हुए हम पढ़कर जितना आप लिखकर हुए होंगे।
ReplyDeleteसहजता और सरलता ही बेहतर है , बधाई !
ReplyDeleteरोचकता भावों में लिपटी हुई , अत्यंत सहज और प्रवाहमान .
ReplyDeleteश्रीमान जी,
ReplyDeleteसादर प्रणाम |
बहुत प्रेरक संस्मरण हैं |
उदारता और दयालुता के छोटे कार्य भी ,हमे बहुत सकूंन देते हैं |
डॉ अजय
परोपकारी यात्रा, आत्मतृप्त संस्मरण।
ReplyDeleteसबसे पहली बात तो यह कि ट्रेन यात्रा में अन्तर्मुखी बनकर रहना कम से कम मेरे लिए तो कभी संभव नहीं हो पाया। मेरी ट्रेन यात्रा अक्सर लम्बी होती है और यात्रा शुरू होने से पहले ही प्रार्थना करने लगता हूँ कि अच्छे लोगों का साथ मिले. अक्सर मिलता भी है.
ReplyDeleteआपसे कई मुलाकातों व बातचीत के बाद मैं दावे से कह सकता हूँ कि आप हंसमुखी हैं।
आपने यात्रा के दौरान लिखने के अलावा दो काम अच्छे किए। साधुवाद।
लम्बी यात्रा में अन्तर्मुखी चाह कर भी नही रह पाते ।
ReplyDeleteAapki haar yatri shubh aur sukhi rhe, yhi dua karte hai
ReplyDeleteयात्राओं के द्वारा हमें देश-दुनिया का पता चलता है...आज ट्रेन में एक बहिर्मुखी व्यक्ति से मुलाकात हो गयी...रस्ते भर वो बोलता रहा...और आपका लेख पढ़ के खुद पे डाउट हो गया...अंतर्मुखी या बहिर्मुखी...या परिस्थितियां...
ReplyDeleteयानि एक भी पल व्यर्थ नहीं होने दिया गया :)
ReplyDeleteकृत्रिम आवरण भी अपना सही रूप दिखा देता है..
ReplyDeleteबुजुर्गो का ख्याल समाज की जिम्मेवारी है . रेल की यात्रा में लोग बहिर्मुखी हो ही जाते हैं
ReplyDeleteआप अपनी दृष्टि और शब्दों से अपने हर संस्मरण को रोचक और ज्ञानवर्धक बना देते हैं, आपकी प्रत्येक पोस्ट एक अलग अनुभव देती है आप इसी तरह लिखते रहें मेरी यही आपसे गुज़ारिश है।
ReplyDeleteबहुत बार हम किसी बड़े अवसर को तलाशते रह जाते हैं ताकि अपनी हीरोगिरी दिखा सकें जबकि बहुत से साधारण दिखने वाले कार्य अनायास ही उपलब्ध होते रहते हैं लेकिन हम उनपर ध्यान ही नहीं देते क्योंकि हम तो कुछ बड़ा करना चाहते हैं। सरल और सहज सौजन्यता आपके पारिवारिक\सामाजिक संस्कारों का परिणाम है जो आपको असाधारण बनाते हैं बेशक आप अंतर्मुखी हों या बहिर्मुखी।
ReplyDeleteसहज और सरल स्वभाव ही सद्गुण है, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
पोस्ट के पहले चित्र ने भ्रम में डाल दिया कि क्या आप रेलवे छोड़कर छात्राओं के जमघट को संभालने वाले प्रोफेसर बन गए हैं..तो युवा होने से आपको ये ही छात्राएं रोकती रहेंगी..फिर पोस्ट पढ़ने पर पता चला कि यात्रा के साथ अंतर्मुखी और बहिर्मूखी के बीच की है...अक्सर ऐसा क्यों होता की रेल यात्राएं इसी तरह की यात्रा कराती रहती हैं..समझ नहीं पाया कभी...रेल की नौकरी छोड़ने का दुख नहीं रहा मुझे कभी..बस यही सालता है कि काश रेल की यात्रा का सुख मिलता रहता
ReplyDeleteऊर्ध्व गामी यात्रा वही है जो अंतर (अन्दर )से बाहर की तरफ हो।
ReplyDeleteऊर्ध्व गामी यात्रा वही है जो अंतर (अन्दर )से बाहर की तरफ हो। तोरा मन दर्पण कहलाये।
ReplyDeleteसतत यात्री को कभी स्वयं को चिकोटी नहीं कटनी पड़ती, वह सदा जागृत होता है. फिर चाहे सफ़र अंतर का ही क्यों न हो. चैरेवेती चैरेवेती।
ReplyDeleteयात्राएँ अपरिचितों से मिलाती है, जिसका स्टेशन पहले आये , पहले उतरे , और नए यात्री जुड़ जाते हैं , सिलसिला चलता रहता है ! जीवन की ही तरह !
ReplyDeleteसहज आत्मीय संस्मरण !
परसाईजी अपनी यात्रायें हमेशा बस से या ट्रेन से करते थे ताकि अधिक से अधिक लोगों से मिल-बात कर सकें।
ReplyDeleteअब वर्धा के किस्सों का इंतजार है।
यात्राओं का अपना अनूठा अनुभव होता है ।
ReplyDeleteसुखमय यात्रा...
ReplyDeleteसहज कटना ज्यादा महत्वपूर्ण है यात्रा का ... जिसमें आनद हो भरपूर ...
ReplyDeleteसुन्दर यात्रा संस्मरण
ReplyDeleteमहाकवि दुरसा आढ़ा
जब से लिखना अधिक हो गया, सोचना अधिक हो गया, अब अधिक बतियाने से समय व्यर्थ होने का बोध होता है, लगता है कि इससे अच्छा कुछ लिख लिया होता---- लेकिन यात्रा के दौरान लिखा भी तो नहीं जाता ....... ऐसा होता है लेकिन उस समय आपस में मिल बैठ जो बहुत सारी बातें हो जाती हैं वह कागज़ में लिखे स कम भी तो नहीं ..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रोचक यात्रा वृतांत ..
अंतर्मुखी अधिक बहिर्मुखी भी ..सद्गुण से भरपूर ..यथासंभव सहायता पहुँचाना हमारा कर्म धर्म हो ...सुखद और सहज यात्रा वृतांत
ReplyDeleteभ्रमर ५
कुल्लू हिमाचल
सजीव यात्रा वर्णन .... लगा कि यात्रा में साथ हैं :)
ReplyDeleteअच्छा लगा
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