टेड पर सर केन रॉबिन्सन के विचार सुन रहा था, शिक्षा पर। विचार सरल थे, सहज थे और सारगर्भित थे। अनुभव जैसे जैसे गाढ़ा होता जाता है, अभिव्यक्ति तरल होती जाती है, श्री रॉबिन्सन को सुनकर यह सिद्धान्त और भी दृढ़ हो चला। यही नहीं, जब कोई ज्ञान तत्व बिना किसी श्रांगारिक कोलाहल के सुनने को मिलता है, वह ग्रहणीयता के तार झंकृत कर देता है। एक स्थान पर खड़े हुये दिये गये २० मिनट के इस आख्यान में दशकों की अनुभव यात्रा का निचोड़ था।
शिक्षा पर विचारणीय दृष्टि |
श्री रॉबिन्सन के अनुसार मानव की शिक्षा पद्धति मानव के मूलभूत गुणों के अनुरूप होनी चाहिये, पर वर्तमान शिक्षा पद्धति इनकी अनदेखी कर रही है। केवल अनदेखी ही नहीं कर रही है वरन उसके विपरीत जा रही है। यदि यही होता रहा तो मानव धीरे धीरे मशीन होता जायेगा, सभ्यता के विस्तृत प्राचीर में एक ईंट। यन्त्रवत से जीवन हो जायेंगे, तन्त्र मानवीय न रहेंगे।
मानव के तीन मूलभूत गुण हैं। पहला है उनकी भिन्नता और विविधता। दूसरा है उनमें निहित उत्सुकता। तीसरा है उनकी सृजनात्मकता। यही तीन गुण उसे मानसिक और बौद्धिक रूप से पूरी तरह से विकसित करते हैं। बिना इन तीन गुणों के मानव स्वयं को पूर्णता से व्यक्त नहीं कर सकता है। एक भी विमा यदि अनुपस्थिति रही तो विकास आंशिक होगा, सर्वपक्षीय नहीं होगा। आइये देखते हैं कि वर्तमान शिक्षा पद्धति किस प्रकार इन तीनों मूलभूत धारणाओं के विपरीत कार्य कर रही है।
कोई दो बच्चे एक जैसे नहीं होते हैं, जन्म से भी नहीं, परिवेश से भी नहीं, भले ही वे सगे भाई या सगी बहनें ही क्यों न हों? सबकी अपनी क्षमता होती है, सबकी अपनी विशिष्टता होती है। फिर भी हमारी शिक्षा पद्धति ऐसी है कि हम सबको एक जैसा ही बनाना चाहते हैं। प्रारम्भ से एक ही विषय पढ़ाते हैं, एक सा ही समझते हैं, फैक्टरी के उत्पाद जैसा। एक जैसी शिक्षा सबके काम नहीं आती है, कुछ को रुचिकर लगती है, कुछ सामाजिक कारणों से लग कर पढ़ते हैं, कुछ माता पिता को दिखाने के लिये पढ़ते हैं, कुछ का मन तनिक भी नहीं लगता है, कुछ पढ़ाई छोड़ ही देते हैं। हमें लगता रहता है कि बच्चों का मन पढ़ाई में क्यों नहीं लग रहा है? उपाय भी सरल ही है, देखिये कि पढ़ाई छोड़ने के बाद किन किन क्षेत्रों में बच्चों का मन लगता, वे सारे विषय पढ़ाये जाये। हर एक के लिये अपनी रुचि के अनुसार पढ़ने को मिले तो समय के पहले पढ़ाई छोड़ देने वालों की संख्या न्यूनतम हो जायेगी।
क्या शिक्षा में यह उत्सुकता पल्लवित होती है? |
सृजनात्मकता हमारा सर्वाधिक सशक्त गुण है। आप एक समस्या दस बच्चों को देकर देखिये, सब के सब अपने सृजनात्मक वैशिष्ट्य के अनुसार उसका समाधान ढूँढ़ लेगे। जीवन की समस्या है, ज्ञान की समस्या हो, विकास के सारे अध्याय इसी गुण ने लिखे हैं। इस गुण को उभारने के स्थान पर वर्तमान शिक्षापद्धति सबको समान रूप से उत्तर देने की अपेक्षा रखती है और जो सबसे भिन्न रहता है, वह दौड़ में पिछड़ जाता है। हम मानकीकरण को अपना मूलमन्त्र बनाये बैठे हैं, सबको एक ही तुला से तौलने चले हैं।
जब तक ये तीनों गुण पोषित रहते हैं, बच्चे को अपना महत्व पता चलता रहता है। उसे लगता है कि वह अपने प्रयास से सीख रहा है, न कि शिक्षा पद्धति से बौद्धिक अनुदान पा रहा है। उसे करने का भाव मिलता है, न कि कुछ पा जाने का। आन्तरिक क्रियाशीलता बच्चे को प्रेरित करती है, उकसाती है। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो वह अपना रुझान खो देता है, ठंडा पड़ जाता है। थोपे हुये तत्व व्यक्तित्व को ठेस पहुँचाते हैं, वह उन्हें स्वीकार नहीं कर पाता है। विविधता बनी रहती है तो कुछ भी थोपा हुआ सा नहीं लगता है, उत्सुकता बनी रहती है तो कुछ थोपा हुआ सा नहीं लगता है, सृजनात्मकता बनी रहती है तो कुछ थोपा हुआ सा नहीं लगता है।
वर्तमान शिक्षा पद्धति को इस दिशा में सोचना होगा। फैक्टरी के स्वरूप में शिक्षा को उत्पाद नहीं बनाया जा सकता। शिक्षक और शिष्य के बीच वैयक्तिक और दीर्घकालिक संबंध और क्रियाशीलता आवश्यक है। एक के बाद एक सारे महान जनों को देख लें, उनके ऊपर किसी शिक्षक की कृपादृष्टि रही है, जिसने ये तीन गुण न केवल समझे, वरन व्यक्तित्व में विकसित कराये। बच्चे को पढ़ाने भर से शिक्षकीय कर्मों की इतिश्री नहीं हो सकती है। एक बच्चे को पढ़ना और तदानुसार गढ़ना, यही एक शिक्षक का मूल कार्य है, यही शिक्षा पद्धति की सार्थकता है।
शिक्षा को लेकर कई प्रयोग चलते रहते हैं -होल इन द वाल एक नया प्रयोग था . मगर हर ऐसे अभिनव प्रयास सम्पूर्ण पैकेज नहीं बन पाते -आज शिक्षा में भी गुरुकुल से लेकर तमाम पद्धतियों से सारभूत लेकर एक समेकन की जरुरत है !
ReplyDeleteजिज्ञासा ही शिक्षा और दीक्षा का मूल- बिन्दु है ।
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ReplyDeleteसारगर्भित विचारपरक आलेख ...आपने ठीक कहा ....
ReplyDeleteबच्चे को पढ़ाने भर से शिक्षकीय कर्मों की इतिश्री नहीं हो सकती है। एक बच्चे को पढ़ना और तदानुसार गढ़ना, यही एक शिक्षक का मूल कार्य है, यही शिक्षा पद्धति की सार्थकता है।
गुरु शिष्य परंपरा जहां फलीभूत होगी वहाँ शिक्षा पद्धति सार्थक होगी .....संगीत मे तो गुरु-शिष्य परंपरा बहुत मायने रखती है ...क्योंकि इसे करत की विद्या कहा जाता है ....बहुत भाग्य से ऐसा शिक्षक मिलते हैं जो कला को निखारते चले जाएँ !संगीत के क्षेत्र मे तो ऐसे शिक्षक ज़रूर हैं जो श्रद्धा , विश्वास और एकाग्रता से अपना कार्य करते ही जा रहे हैं ...........बल्कि अन्य क्षेत्र मे भी ऐसे शिक्षक हैं ज़रूर हाँ संख्या कम है और शिक्षा पद्धति को सुधारने के लिए ऐसे ही शिक्षकों की नितांत आवश्यकता है ......
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यह कहना के शिक्षा सभी को समरूप बना रही है अधूरा सच है या कहें सच ही नहीं है। यह जो जैसा है उसे वैसा बनाए रखने का उपकरण है औज़ार है। यह किसी भी तरह के आमूलचुल परिवर्तन के साथ नहीं है। अपने आस पास विद्यालयों को देखिये। उनमे एक तरह का पदानुक्रम है। वहाँ के ढाँचे में किसे 'फिट' होना है, यह पहले से तय है। यह विकल्प नहीं विकल्प हीनता है।
ReplyDeleteफ़िर जिस परीक्षा या ऐसे किसी भी तंत्र की आप जो बात कर रहे हैं तो ध्यान से देखिये..आठवीं तक किसी भी छात्र को कोई स्कूल अब नहीं रोक सकता। दसवीं की बोर्ड परीक्षा के साथ विकल्प आ गया है। जो देना चाहे वही दे। फ़िर बची बरहवीं। उसमे क्या हो रहा है किसी से छिपा नहीं है। 'प्रथम' ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रहा है। उसे भी पढ़ा जा सकता है।
हमारी जो सबसे बड़ी दिक्कत है वह यह के हम इस शिक्षा पद्धति से किसी भी तरह की अपेक्षा कर रहे हैं। जबकि इसने कभी भी उनके अनुरूप ढाला ही नहीं। वरना 'आधुनिक' होने में जो ध्वनियाँ हैं उन्हे किसी स्तर पर तो हम प्राप्त कर ही चुके होते।
और जहाँ तक अरविंद जी का गुरुकुल आदि का आग्रह है वह अतीतोन्मुख है। प्रतिगामी है। हम लगातार बदलते रहे हैं बदल रहे हैं। पीछे मुड़ने के बजाए इन नयी बन गयी परिस्थितियों के अनुरूप कुछ सोचने की ज़रूरत है। किसी नए विचार के आने से कई क्षणों पहले ही हम डरने लगते हैं, समझ नहीं आता..
एकदम सही कहा प्रवीणजी..वास्तव में तो सृजनात्मकता उत्तर खोजने में नहीं बल्कि सवाल खोजने में हैं..जब नवीन-नवीन सवालों को खोजने का हुनर आज की पीढ़ी में आ जायेगा तो निश्चित ही उनके समाधान भी अधिक उत्पादक व जनोपयोगी साबित होंगे.. सुंदर विवेचन।।।
ReplyDeleteसार्थक लेखन |
ReplyDeleteभिन्नता और विविधता ,उत्सुकता ,सृजनात्मकता ( difference,inquisitiveness,constructiveness) ये शिक्षा के सैधांतिक विचार है,केवल इस से शिक्षा क्षेत्र में परिवर्तन नहीं हो सकता और ना समाज का हित हो सकता है जैसे केवल बिल्डिंग बना देने से ही विद्यालय नहीं हो जाता है | उसके लिए शिक्षक विद्यार्थी ,किताब/कापी विद्यालय के साजो सामान भी चाहिए | आज विद्यार्थी ,अभिभावक एवं एम्प्लायर क्या चाहता है ? उसको ध्यान में रखकर ही शिक्षा पद्धति में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है | कोई भी माँ बाप नहीं चाहेगा कि उसके बच्चे पढलिख कर बेकार घर में बैठे रहे |आज सबसे अधिक आवश्यकता है सृजनात्मक व्यव शायिक शिक्षा की जिसमे सैद्धांतिक शिक्षा के साथ साथ कार्य कुशलता- ज्ञान की शिक्षा भी हो |
ReplyDeletelatest post महिषासुर बध (भाग २ )
मेरे विचार से 10 वर्ष की उम्र तक तो बच्चों को घर, परिवार, समाज, गांव, शहर में उन्मुक्त भाव से विचरने देना चाहिए। स्कूल भेजना ही नहीं चाहिए। 10 से 15 वर्ष के बीच की स्कूली शिक्षा विषय आधारित हो जिसमें वह काम की जरूरी सभी बातें सीख सके। 15 वर्ष को बाद उसमे पाई जानी वाल सृजनात्मकता को ध्यान में रखकर, उसके मन के अनुरूप विषय का चयन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। शिक्षा कभी थोपी नहीं जानी चाहिए। मगर न ऐसा होता है, न हम ऐसा करते हैं। देखा देखी दौड़ में शामिल हो जाते हैं।
ReplyDeleteपं रामनारायण उपाध्याय ने जब लिखा कि --यह नई शिक्षा नीति जिसमें न शिक्षा है न नीति --तब वे ऐसे ही सवाल उठा रहे थे । दरअसल शिक्षा-नीति-निर्धारकों को भी नही पता कि वे किस रास्ते पर जा रहे हैं । आज विद्यार्थी को कल्पना व सृजन का अवकाश ही नही है । वह केवल रटने में लगा हुआ है । एक छात्र बहुत सुन्दर पेंटिंग करता है लेकिन पडाई में कमजोर है कुछ मनमौजी भी है अब वह कक्षाध्यापक व प्राचार्य की नजर में उद्दण्ड व बिगडा हुआ लडका है । ऐसा इसलिये कि आज केवल परीक्षापरिणाम पर जोर दिया जाता है चाहे वह परिणाम किसी तरह पाया गया हो ।
ReplyDeleteजीवन से जुड़े एक ज़रूरी पक्ष पर सार्थक विचार .... पाठ्य पुस्तकों और अंकों के खेल तक ही सब कुछ सिमट कर रह गया है | एक सहज सरल संतुलन ज़रूरी है बच्चों के पालन पोषण में ताकि वे सही अर्थों में शिक्षित हों
ReplyDeleteनितांत आवश्यक विषय और व्यापक चिंतन की आवश्यकता है इस पर ।
ReplyDeleteआज शिक्षा पद्धति को सुधारने की नितांत आवश्यकता है .. !
ReplyDeleteRECENT POST : - एक जबाब माँगा था.
सार्थक लेखन
ReplyDeleteनितांत आवश्यक ,जीवन से जुड़े एक ज़रूरी पक्ष पर सार्थक विचार ....
हार्दिक शुभकामनायें
आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा 17-10-2013 को
ReplyDeleteचर्चा मंच पर है ।
कृपया पधारें
आभार
सारगर्भित विचारपरक आलेख .
ReplyDeleteइस पोस्ट की चर्चा, बृहस्पतिवार, दिनांक :-17/10/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -26 पर.
ReplyDeleteआप भी पधारें, सादर ....
कल 17/10/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
बेहद रोचक एंव आवश्यक विषय और व्यापक चिंतन की आवश्यकता है इस पर प्रवीण सर, इस तरह के विषयों पर गंभीर चर्चा की जरुरत हमेशा से रही है।
ReplyDeleteपढने के साथ गढ़ना भी जरूरी है.
ReplyDeleteसार्थक विचार लिए. सुन्दर रचना..
ReplyDeleteपढ़ाने के साथ सिखाना भी जरुरी..
ReplyDeleteशिक्षा को जीवनोपयोगी होनो चाहिए, न कि जीविकोपार्जन के लिए उपयोगी।
ReplyDeleteबुनियादी सवाल उठाए हैं आपने इस पोस्ट की मारफत।
ReplyDeleteजब तक ये तीनों गुण पोषित रहते हैं, बच्चे को अपना महत्व पता चलता रहता है। उसे लगता है कि वह अपने प्रयास से सीख रहा है, न कि शिक्षा पद्धति से बौद्धिक अनुदान पा रहा है। उसे करने का भाव मिलता है, न कि कुछ पा जाने का.
यहाँ तो शिक्षा पद्धति "फिट इन आल "साइज़ की तरह काम कर रही है। जबकि शरीर के साइज़ की तरह सबका दिमाग भी अलग अलग है। हरेक का अपना वैशिष्ठ्य है जो शिक्षा पद्धति विनष्ट करने पर आमादा है।
हालांकि शिक्षा के क्षेत्र में काफी प्रयोग हो रहे हैं लेकिन विद्यालय में समरूपता भी होना ज़रूरी है ... पाठ्यक्रम बच्छों के अनुसार भिन्न भिन्न तो नहीं हो सकता .... हाँ आज कल बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए सह पाठ्यक्रम रखे जाते हैं .... आवश्यकता है ईमानदारी से लागू करने की .... सार्थक मुद्दा
ReplyDeleteये सारा झगडा संगीता जी पाठ्यक्रम का ही है जो प्रतिभा का किरया -कर्म कर देता है। रटंत विद्या फलन्त नहीं।
Deleteहोना तो नहीं चाहिए था पर बन ही गया शिक्षा एक उत्पाद
ReplyDeleteजिज्ञासा, उत्सुकता प्रेरित करती है अग्रस होने को जो की मूल में है किसी भी क्षिक्षा के ...
ReplyDeleteपद्धति पे निरंतर बहस जरूरी है ...
जो सबसे भिन्न रहता है, वह दौड़ में पिछड़ जाता है।............ऐसी शिक्षा का क्या करना?
ReplyDeleteसटीक लेखन...
ReplyDeleteशिक्षा के प्रति हमारी सोच में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है...बहुत प्रभावी, विचारणीय और सारगर्भित आलेख...
ReplyDeleteशिक्षा एक ही तत्व के विभिन्न अपरूप पैदा कर रही है।
ReplyDeleteमैकाले के मानसपुत्रों के लिए विचारणीय गंभीर आलेख. बहुत अच्छा लिखा है, बधाई.
ReplyDeleteसही है इस शिक्षा ने सभी को एक से सांचे में ढालने का प्रयास किया है जो विनाशक है।
ReplyDeleteप्रश्न तो ये है कि आमूल-चूल बदलाव कब होगा ?
ReplyDeleteअनुभव जैसे जैसे गाढ़ा होता जाता है, अभिव्यक्ति तरल होती जाती है
ReplyDeleteगहन भाव लिये ... सशक्त लेखन
जबरजस्त अनुभव की छाप / टिप्पणी करना तो बस ख़ुद को मुखातिब करवाने की कोशिश h / :)
ReplyDeleteशिक्षा नीति की जब भी बात कहीं आती है तो श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी का डायलाग याद आ जाता है- हमारे देश की शिक्षा नीति रास्ते में पड़ी कुतिया है........
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