आनन्द के अतिरेक में थकान का पता नहीं चलता है। थकान तब आती है, जब आनन्द अवस्था से आप जीवन के सामान्य पर उतर आते हैं। दिनभर सहपाठियों के साथ भेंट में समय का पता ही नहीं चला। मन तो प्रसन्न ही बना रहा, पर शरीर अपनी सीमाओं से कितना परे जा चुका था, उसका प्रमाण मिलना शेष था। मन अपने सामने किसी की सुनता नहीं है, सबसे मनमाना कार्य लेता है। शेष सबको अपनी सीमाओं से आगे निकलने का पता तब चलता है जब मन तनिक शान्त होता है। मन मित्र बना रहे, सच्चा साथ देता रहे, भरमाये नहीं, उद्विग्न न करें, और भला क्या चाहिये इस चंचल जीव से।
स्टेशन जाते समय थोड़ी देर के लिये अपने मामाजी के यहाँ जाना हुआ। मन का उछाह और तन की थकान मेरे ममेरे भाई को स्पष्ट दिख गयी थी, उसने स्नान करने की भली सलाह दी। स्नान के पश्चात मन स्थिर हुआ, शरीर में शीतलता भी आयी, पर लगा कि थोड़ा विश्राम फिर भी आवश्यक है। अब थोड़ी ही देर में वापसी की यात्रा प्रारम्भ करनी है, सोचा तभी जीभर कर विश्राम हो जायेगा, अभी तन्त्रिका तन्तुओं को सचेत रखते हैं।
वहाँ से स्टेशन जाते समय एक चाट वाला ठेला दिखायी पड़ा, लिखा था, हाहाकार बतासे, ललकार टिकिया। वाह, सच में महारोचक नाम है यह, बतासे ऐसे कि आप हाहाकार कर उठें और टिकिया आपको खाने के लिये ललकारे, विपणन की भला इससे अधिक प्रभावी तकनीक और क्या हो सकती है? कानपुर में ही एक और प्रसिद्ध दुकान है, ठग्गू के लड्डू और बदनाम क़ुल्फ़ी। आनन्द की बात यह है कि इतने दमदार और दामदार नाम होने के बाद भी यह नगर मँहगा नहीं है। बंगलोर जैसे मँहगे नगर में रहने के बाद कानपुर के बारे में एक बात तो सविश्वास कहीं जा सकती है, नामों में दम पर दामों में कम। पिछली पोस्ट में कानपुर की न सुधरने वाली टिप्पणी कहीं हमारे ससुराल, विद्यालय और आईआईटी का हृदय न तोड़ बैठे, इसलिये कानपुर के कुछ अच्छे पक्ष उजागर करने का नैतिक दायित्व भी हमारा ही बनता है।
झाँसी इण्टरसिटी प्लेटफ़ार्म नम्बर एक से जानी थी। वहाँ पर पहुँच कर एक दूसरे प्रकार के आनन्द की अनुभूति हुयी। पिछले कई वर्षों से एक नम्बर प्लेटफ़ार्म को देखता आ रहा हूँ, सदा ही ऐसा लगा था कि वहाँ पर स्थान कम है और भीड़ अधिक। इस बार स्थान अधिक लगा और भीड़ कम। पिछले एक दो वर्षों से हुये बदलाव में ट्रेन से २० मीटर तक की दूरी से सारी दुकानें, बेंच और अन्य अवरोध हटा लिये गये हैं। इतना सपाट कि वहाँ पर चार सौ मीटर की दौड़ आयोजित की जा सके। ऐसा करने से यात्रियों के आवागमन में कोई कठिनाई नहीं आती है और सब कुछ बड़ा खुला खुला सा लगता है। यदि प्लेटफ़ार्म बनाये जायें तो ऐसे ही बनाये जायें, परिवर्धन भी इन्हीं सिद्धान्तों पर ही हो। दुकान, बेंच आदि बनाने से हम थोड़ी बहुत सुविधा तो देते हैं पर प्लेटफ़ार्म को उसके प्राथमिक कार्यों से वंचित कर देते हैं। प्लेटफ़ार्म का प्राथमिक कार्य अधिकतम भीड़ को निर्बाध रूप से सम्हालना है। भोजन, विश्राम आदि की व्यवस्था प्लेटफ़ार्म क्षेत्र के बाहर हो, प्लेटफ़ार्म पर केवल यात्री ही जाये, सामान ले जाने के लिये ट्रॉली हों, आने और जाने के लिये भिन्न भिन्न द्वार हों, तभी कहीं जाकर स्टेशनों पर स्वच्छता और व्यवस्था रह पायेगी। अभी तो प्लेटफ़ार्म पूरा मेलाक्षेत्र लगता है, १५-२० मीटर चौड़े और ६०० मीटर लम्बे प्लेटफ़ार्म सदा ही पूरी तरह खचाखच भरे दिखते हैं। ट्रेनों में यात्रियों की पूरी संख्या की दृष्टि से भी यह क्षेत्रफल ४ गुना है, फिर भी पैर रखने का स्थान नहीं मिलता है प्लेटफ़ार्मों पर। बताते चलें कि चीन में केवल यात्री ही प्लेटफ़ार्म पर जा सकते हैं और वह भी ट्रेन आने के मात्र ३० मिनट पहले ही। वहाँ के प्लेटफ़ार्म इतने स्वच्छ और खाली दिखते हैं कि वहाँ फ़ुटबॉल खेली जा सके।
इण्टरसिटी समय से आयी, इस बार पिछले दरवाज़े के पास की सीट मिली थी, सीट पर बैठने के बाद अत्यधिक सफल और सुचारु रूप से संचालित कार्यक्रम के लिये कई मित्रों को धन्यवाद प्रेषित किया और आँख बन्द कर कुछ सोचने लगे। थकान तो पहले से ही थी अतः बैठते ही निढाल हो सीट पर ही लुढ़क गये, कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला। अधिक विश्राम हो नहीं पाया और शीघ्र ही नींद उचट गयी। वातानुकूलन होने के बाद भी गर्मी लग रही थी, अर्धचेतना में संशय हुआ कि या तो बुखार आ गया है या वातानुकूलन कार्य नहीं कर रहा है। पूर्णचेतना में आने पर कारण तीसरा ही निकला।
कोच के बाहर खड़ा एक व्यक्ति धीरे से दरवाज़ा धकिया कर वातानुकूलन की शीतल हवा बाहर लिये ले रहा था। उसके ऐसा करने से बार बार गर्म हवा का झोंका लग रहा था और विश्राम में विघ्न पड़ रहा था। उलझन तो हुयी पर मुझे उन महाशय की जुगाड़ प्रवृत्ति पर आश्चर्य भी हुआ और हर्ष भी। तभी विद्युत विभाग के अपने एक सहयोगी अधिकारी की बात याद आयी कि यदि दरवाज़ा खुला रह जाये तो वातानुकूलित संयन्त्र पर बहुत अधिक बोझ पड़ जाता है और संभावना रहती है कि वह शीघ्र ही ढेर न हो जाये। कहीं संयन्त्र बिगड़ न जाये, इस संभावना को न आने देने की कटिबद्धता में मैंने टीटी महोदय को बुला कर वातानुकूलन का यह पक्ष समझाया और उन व्यक्ति को ऐसा न करने की सलाह देने को कहा। मेरे याचना में संभवतः उतना बल न होता जितना टीटी महोदय के एक वाक्य में दिखा। उस व्यक्ति ने मेरी ओर ऐसे देखा, मानो मैंने लोकतन्त्र या धर्मनिरपेक्षता की नयी परिभाषा प्रस्तुत कर दी है। फिर बाहर जाकर टीटी महोदय ने उन महाशय को पता नहीं किन शब्दों में क्या समझाया कि वे नत होकर दृष्टि से ओझल हो लिये।
बाहर से गर्म हवा आनी भले ही बन्द हो गयी हो पर लोगों की बातचीत का उच्च स्वर सुनायी पड़ रहा था। कान लगा कर सुना तो विषय था कि अगला प्रधानमंत्री कौन? चर्चा भले ही चलती ट्रेन में हो रही थी, भले ही वातानुकूलन के बाहर हो रही थी, भले ही खड़े खड़े हो रही थी, पर चर्चा टीवी पर होनी वाली चर्चाओं से कहीं ऊँचे स्तर की और कहीं अधिक विश्लेषणात्मक थी। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के राजनैतिक प्रभाव, दशकों से वोटर की बदलती मानसिकता, राजनैतिक पार्टियों की सूचना संग्रहण प्रक्रिया और निर्णयों को किस समय लेना है, इन जैसे कई विषयों पर जो सुनने को मिला, वैसा आज तक न किसी चैनल में सुना और न किसी समाचार विश्लेषण में पढ़ा। कानपुर के आस पास के जनों की इतनी उच्च राजनैतिक चेतना देख कर मन किया कि अपनी सीट उन्हें देकर उनका त्वरित सम्मान कर दें, पर अपनी थकान का स्वार्थ सर चढ़ कर बोलने लगा और यह सुविचार उतनी ही त्वरित गति से त्याग दिया गया। हाँ यदि टीवी चैनल वालों को अपनी टीआरपी स्तरीय विश्लेषणों से बढ़ाने की इच्छा हो तो उन्हें कानपुर-झाँसी के बीच चलने वाली ट्रेनों में अपना स्थायी प्रतिनिधि नियुक्त कर देना चाहिये।
झाँसी उतर कर ३ घंटे का विश्राम था, पर पूर्व परिचितों के आ जाने और उनके साथ बतियाने में वह समय भी निकल गया। नींद का ब्याज बढ़ता जा रहा था, पर राजधानी ट्रेन का आश्रय था कि उसमें सोकर सारी थकान उतारी जायेगी।
बंगलोर राजधानी झाँसी के प्लेटफ़ार्म नम्बर एक पर ही आयी। कोच पीछे था, वहाँ पहुँचने के क्रम में सारे प्लेटफ़ार्म पर एक विहंगम दृष्टि डाली। कानपुर की तुलना में झाँसी का प्लेटफ़ार्म पूरी तरह से भरा और अव्यवस्थित लग रहा था। अव्यवस्था से अधिक, झाँसी का प्लेटफ़ार्म वहाँ पर व्याप्त घोर निर्धनता को भी अभिव्यक्त कर रहा था। रात को कई ट्रेनें झाँसी से होकर निकलती हैं, कई ट्रेनें सुबह जाती है, लोग सायं से ही आकर स्टेशन पर डेरा डाल लेते हैं। प्लेटफ़ार्म पर ग्रेनाइट या अच्छा पत्थर लगने से लोगों को वहाँ पर सो लेने में कष्ट नहीं होता है। बहुतों के पास चद्दर नहीं थी, कई गत्ते बिछाकर सोये थे, कई नीचे अखबार बिछाये लेटे थे। छोटी छोटी गठरियाँ, मैले कुचैले कपड़े, सोये समाज में श्रमिक वर्ग प्रमुख था। पाँच छह के समूह में एक व्यक्ति आधी आँख खोले सामान की सुरक्षा कर रहा था। जो एकल थे, वे अपना सामान या तो हाथों में बाँधे थे या पैरों से दबाये सो रहे थे। बीस मीटर चौड़े प्लेटफ़ार्म पर दो फ़ुट चौड़ा रास्ता नहीं मिल रहा था चलने को। ऐसा नहीं है कि आवश्यकता पड़ने पर प्लेटफ़ार्म पर सोया नहीं जा सकता, पर यह दृश्य देख कर विवशता शब्द अधिक मुखरित होता है।
राजधानी के अन्दर पहुँच कर लगा कि सहसा विश्व परिवर्तन हो गया। रात्रि का डेढ़ बजा था, झाँसी के प्लेटफ़ार्म नम्बर एक का दृश्य मन को व्यथित अवश्य कर रहा था पर इस बार मन पर शरीर ने सहज अधिकार जमा लिया। थकान और शीतल वायु ने कुछ ही मिनटों में सोने को विवश कर दिया। स्वप्नहीन निशा थी, निश्चिन्त निशा थी, पिछले न जाने कितने दिनों की शारीरिक व मानसिक व्यस्तता के बाद घर वापसी की पूर्वनिशा थी। पता ही नहीं चला कि कब रात निकली, कब दिन चढ़ा, कब नागपुर आया और वर्धा पीछे छूट गया। जब नींद खुली तब अच्छा लग रहा था, थकान जा चुकी थी, परिचारक कई बार अल्पाहार व चाय के बारे में पूछ चुके थे। भोजन में क्या लेना है क्या नहीं, कब लेना है, आदि कई प्रश्नों से अपने ही देश में राजा होने का क्षणिक सुख अवश्य देती है राजधानी ट्रेन।
एक युगल था ऊपर की दो सीटों पर, नया विवाह था और प्रेम विवाह था, अनौपचारिकता और व्यवहारिकता अधिक थी, कोई झिझक व संकोच नहीं। हमारे घर में तो कई दिन इस बात पर चर्चा चली कि हमारी श्रीमतीजी हमें क्या संबोधन करें। हमारी माताजी और पिता जी एक दूसरे को पापा और मम्मी ही कहते हैं। कई लोग माँ और पिता के सम्बोधन को वैश्विक न बना कर बच्चों के नाम भी विशेषण के रूप में जोड़ देते हैं। अन्ततः बात पाण्डेजी पर आकर नियत हुयी, साथ में हमसे श्रद्धा कहने का अधिकार भी नहीं छीना गया, यह बात अलग है कि भरी भीड़ में हम भी सुनोजी जैसे सम्बोधनों पर उतर आते हैं। यह युगल था कि धाँय धाँय एक दूसरे का नाम लिये जा रहा था। कितने ही आधुनिकता में आ गये हों पर सार्वजनिक नाम लेना अब भी अटपटा लगता है। अच्छा ही है, माँ बाप ने इतने प्यार से नाम रखा है, लेने देने में क्या जाता है।
सायं से अगली सुबह तक ट्रेन तेलंगाना और सीमान्ध्र क्षेत्र में थी, पूरे आन्ध्र में आन्दोलन की स्थिति थी, भय इस बात का था कि कहीं रास्ते में रोक न लिया जाये। कहीं कुछ भी व्यवधान नहीं आया और हम ११० घंटे के पश्चात अपने परिवार के साथ सकुशल और प्रसन्न थे।
इति यात्रा।
स्टेशन जाते समय थोड़ी देर के लिये अपने मामाजी के यहाँ जाना हुआ। मन का उछाह और तन की थकान मेरे ममेरे भाई को स्पष्ट दिख गयी थी, उसने स्नान करने की भली सलाह दी। स्नान के पश्चात मन स्थिर हुआ, शरीर में शीतलता भी आयी, पर लगा कि थोड़ा विश्राम फिर भी आवश्यक है। अब थोड़ी ही देर में वापसी की यात्रा प्रारम्भ करनी है, सोचा तभी जीभर कर विश्राम हो जायेगा, अभी तन्त्रिका तन्तुओं को सचेत रखते हैं।
नाम में दम |
इदमपि कानपुरम् |
इण्टरसिटी समय से आयी, इस बार पिछले दरवाज़े के पास की सीट मिली थी, सीट पर बैठने के बाद अत्यधिक सफल और सुचारु रूप से संचालित कार्यक्रम के लिये कई मित्रों को धन्यवाद प्रेषित किया और आँख बन्द कर कुछ सोचने लगे। थकान तो पहले से ही थी अतः बैठते ही निढाल हो सीट पर ही लुढ़क गये, कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला। अधिक विश्राम हो नहीं पाया और शीघ्र ही नींद उचट गयी। वातानुकूलन होने के बाद भी गर्मी लग रही थी, अर्धचेतना में संशय हुआ कि या तो बुखार आ गया है या वातानुकूलन कार्य नहीं कर रहा है। पूर्णचेतना में आने पर कारण तीसरा ही निकला।
कोच के बाहर खड़ा एक व्यक्ति धीरे से दरवाज़ा धकिया कर वातानुकूलन की शीतल हवा बाहर लिये ले रहा था। उसके ऐसा करने से बार बार गर्म हवा का झोंका लग रहा था और विश्राम में विघ्न पड़ रहा था। उलझन तो हुयी पर मुझे उन महाशय की जुगाड़ प्रवृत्ति पर आश्चर्य भी हुआ और हर्ष भी। तभी विद्युत विभाग के अपने एक सहयोगी अधिकारी की बात याद आयी कि यदि दरवाज़ा खुला रह जाये तो वातानुकूलित संयन्त्र पर बहुत अधिक बोझ पड़ जाता है और संभावना रहती है कि वह शीघ्र ही ढेर न हो जाये। कहीं संयन्त्र बिगड़ न जाये, इस संभावना को न आने देने की कटिबद्धता में मैंने टीटी महोदय को बुला कर वातानुकूलन का यह पक्ष समझाया और उन व्यक्ति को ऐसा न करने की सलाह देने को कहा। मेरे याचना में संभवतः उतना बल न होता जितना टीटी महोदय के एक वाक्य में दिखा। उस व्यक्ति ने मेरी ओर ऐसे देखा, मानो मैंने लोकतन्त्र या धर्मनिरपेक्षता की नयी परिभाषा प्रस्तुत कर दी है। फिर बाहर जाकर टीटी महोदय ने उन महाशय को पता नहीं किन शब्दों में क्या समझाया कि वे नत होकर दृष्टि से ओझल हो लिये।
बाहर से गर्म हवा आनी भले ही बन्द हो गयी हो पर लोगों की बातचीत का उच्च स्वर सुनायी पड़ रहा था। कान लगा कर सुना तो विषय था कि अगला प्रधानमंत्री कौन? चर्चा भले ही चलती ट्रेन में हो रही थी, भले ही वातानुकूलन के बाहर हो रही थी, भले ही खड़े खड़े हो रही थी, पर चर्चा टीवी पर होनी वाली चर्चाओं से कहीं ऊँचे स्तर की और कहीं अधिक विश्लेषणात्मक थी। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के राजनैतिक प्रभाव, दशकों से वोटर की बदलती मानसिकता, राजनैतिक पार्टियों की सूचना संग्रहण प्रक्रिया और निर्णयों को किस समय लेना है, इन जैसे कई विषयों पर जो सुनने को मिला, वैसा आज तक न किसी चैनल में सुना और न किसी समाचार विश्लेषण में पढ़ा। कानपुर के आस पास के जनों की इतनी उच्च राजनैतिक चेतना देख कर मन किया कि अपनी सीट उन्हें देकर उनका त्वरित सम्मान कर दें, पर अपनी थकान का स्वार्थ सर चढ़ कर बोलने लगा और यह सुविचार उतनी ही त्वरित गति से त्याग दिया गया। हाँ यदि टीवी चैनल वालों को अपनी टीआरपी स्तरीय विश्लेषणों से बढ़ाने की इच्छा हो तो उन्हें कानपुर-झाँसी के बीच चलने वाली ट्रेनों में अपना स्थायी प्रतिनिधि नियुक्त कर देना चाहिये।
झाँसी उतर कर ३ घंटे का विश्राम था, पर पूर्व परिचितों के आ जाने और उनके साथ बतियाने में वह समय भी निकल गया। नींद का ब्याज बढ़ता जा रहा था, पर राजधानी ट्रेन का आश्रय था कि उसमें सोकर सारी थकान उतारी जायेगी।
बंगलोर राजधानी झाँसी के प्लेटफ़ार्म नम्बर एक पर ही आयी। कोच पीछे था, वहाँ पहुँचने के क्रम में सारे प्लेटफ़ार्म पर एक विहंगम दृष्टि डाली। कानपुर की तुलना में झाँसी का प्लेटफ़ार्म पूरी तरह से भरा और अव्यवस्थित लग रहा था। अव्यवस्था से अधिक, झाँसी का प्लेटफ़ार्म वहाँ पर व्याप्त घोर निर्धनता को भी अभिव्यक्त कर रहा था। रात को कई ट्रेनें झाँसी से होकर निकलती हैं, कई ट्रेनें सुबह जाती है, लोग सायं से ही आकर स्टेशन पर डेरा डाल लेते हैं। प्लेटफ़ार्म पर ग्रेनाइट या अच्छा पत्थर लगने से लोगों को वहाँ पर सो लेने में कष्ट नहीं होता है। बहुतों के पास चद्दर नहीं थी, कई गत्ते बिछाकर सोये थे, कई नीचे अखबार बिछाये लेटे थे। छोटी छोटी गठरियाँ, मैले कुचैले कपड़े, सोये समाज में श्रमिक वर्ग प्रमुख था। पाँच छह के समूह में एक व्यक्ति आधी आँख खोले सामान की सुरक्षा कर रहा था। जो एकल थे, वे अपना सामान या तो हाथों में बाँधे थे या पैरों से दबाये सो रहे थे। बीस मीटर चौड़े प्लेटफ़ार्म पर दो फ़ुट चौड़ा रास्ता नहीं मिल रहा था चलने को। ऐसा नहीं है कि आवश्यकता पड़ने पर प्लेटफ़ार्म पर सोया नहीं जा सकता, पर यह दृश्य देख कर विवशता शब्द अधिक मुखरित होता है।
राजधानी के अन्दर पहुँच कर लगा कि सहसा विश्व परिवर्तन हो गया। रात्रि का डेढ़ बजा था, झाँसी के प्लेटफ़ार्म नम्बर एक का दृश्य मन को व्यथित अवश्य कर रहा था पर इस बार मन पर शरीर ने सहज अधिकार जमा लिया। थकान और शीतल वायु ने कुछ ही मिनटों में सोने को विवश कर दिया। स्वप्नहीन निशा थी, निश्चिन्त निशा थी, पिछले न जाने कितने दिनों की शारीरिक व मानसिक व्यस्तता के बाद घर वापसी की पूर्वनिशा थी। पता ही नहीं चला कि कब रात निकली, कब दिन चढ़ा, कब नागपुर आया और वर्धा पीछे छूट गया। जब नींद खुली तब अच्छा लग रहा था, थकान जा चुकी थी, परिचारक कई बार अल्पाहार व चाय के बारे में पूछ चुके थे। भोजन में क्या लेना है क्या नहीं, कब लेना है, आदि कई प्रश्नों से अपने ही देश में राजा होने का क्षणिक सुख अवश्य देती है राजधानी ट्रेन।
एक युगल था ऊपर की दो सीटों पर, नया विवाह था और प्रेम विवाह था, अनौपचारिकता और व्यवहारिकता अधिक थी, कोई झिझक व संकोच नहीं। हमारे घर में तो कई दिन इस बात पर चर्चा चली कि हमारी श्रीमतीजी हमें क्या संबोधन करें। हमारी माताजी और पिता जी एक दूसरे को पापा और मम्मी ही कहते हैं। कई लोग माँ और पिता के सम्बोधन को वैश्विक न बना कर बच्चों के नाम भी विशेषण के रूप में जोड़ देते हैं। अन्ततः बात पाण्डेजी पर आकर नियत हुयी, साथ में हमसे श्रद्धा कहने का अधिकार भी नहीं छीना गया, यह बात अलग है कि भरी भीड़ में हम भी सुनोजी जैसे सम्बोधनों पर उतर आते हैं। यह युगल था कि धाँय धाँय एक दूसरे का नाम लिये जा रहा था। कितने ही आधुनिकता में आ गये हों पर सार्वजनिक नाम लेना अब भी अटपटा लगता है। अच्छा ही है, माँ बाप ने इतने प्यार से नाम रखा है, लेने देने में क्या जाता है।
सायं से अगली सुबह तक ट्रेन तेलंगाना और सीमान्ध्र क्षेत्र में थी, पूरे आन्ध्र में आन्दोलन की स्थिति थी, भय इस बात का था कि कहीं रास्ते में रोक न लिया जाये। कहीं कुछ भी व्यवधान नहीं आया और हम ११० घंटे के पश्चात अपने परिवार के साथ सकुशल और प्रसन्न थे।
इति यात्रा।
कभी हम भी जालौन से बंगलौर की दूरी झाँसी इण्टरसिटी और बंगलौर राजधानी द्वारा पूरी किया करते थे, लेख पढकर यादें ताजा हो गयी।
ReplyDeleteरोचक यात्रा विवरण
ReplyDelete" इदमपि कानपुरम् ।" इस कानपुर को देखकर बहुत मज़ा आया । मनुष्य थकता तभी है जब उसका मन थक जाता है । मनुष्य की थकान यह सम्प्रेषित करती है कि उसके जीवन जीने की शैली में कहीं कुछ कमी है अन्यथा मनुष्य थकता नहीं है । यायावर की शैली आप पर खूब फबती है । सुखद सुन्दर संरचना ।
ReplyDeleteआपकी लेखनी सम्मोहन विद्या में निपुण है
ReplyDeleteनवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें
यात्रा के सभी आयाम आपकी लेखनी बखूबी लिख गयी...
ReplyDeleteबिना व्यवधान सुन्दर यात्रा हेतु बहुत बहुत बधाई!!!
हमारी गाड़ी तो बिना एजी, ओजी, सुनो जी संबोधन के ही सुपर फ़ास्ट पैसेंजर हो रही है, अभी तक सोचा ही नहीं किस संबोधन से पुकारा जाए :)
ReplyDeleteवैचारिकता को उद्वेलित करती रही यात्रा
ReplyDeleteठग्गू के लड्डू की यू एस पी हमें मजेदार लगती है -
ReplyDeleteऐसा कोई सगा नहीं जिसको हमने ठगा नहीं
रोचक यात्रा विवरण सर. ऍसा लगा मानों मै स्यंव सफ़र में हूँ।
ReplyDeleteठग्गू के लड्डू तो हम भी चख चुके हैं:-)
ReplyDeleteकहीं कुछ भी व्यवधान नहीं आया और हम ११० घंटे के पश्चात अपने परिवार के साथ सकुशल और प्रसन्न थे।
ReplyDeleteसुंदर एवं रोचक यात्रा वर्णन ॥.....ऐसे ही प्रसन्न बने रहें और जीवन यात्रा बिना व्यवधान बढ़ती रहे ....!!
लंबी ट्रेन हमेशा यात्रा की थकान मिटाने में मददगार होती हैं.. अकेले लंबी यात्रा करने के सुखद क्षण कभी कभी ही मिलते हैं, पर भरपूर आराम मिलता है.. साथ ही एक किताब भी खत्म हो जाती है, हम तो अब भी नाम नहीं ले पाते, ऐ जी ओ जी लो जी सुनो जी.. से ही कार्यक्रम चलता है..
ReplyDeleteका बात है , एकदम राजधानी दौडाय दिए हैं , पिलेटफ़ार्म से लेकर बर्थ तक पर और पोलटिस से लेकर सोशियोलॉजी तक सब के छाती पर चढा चढा के दौडाए हैं राजधनिया को । एकदम टनाटन पोस्ट है हो :)
ReplyDeleteरोचक विवरण ....... बहुत बहुत शुभकामनायें
ReplyDeleteपढ़कर आनन्द आ गया। लोगों की राजनीतिक चर्चाएं, राजधानी की सेवा-सुश्रूषा से राजा होने का अहसास, नव-युगल के प्रेम विहार में अपना वैवाहिक जीवन याद आना..................अनेक अनुभवों से भरा सुन्दर यात्रा संस्मरण।
ReplyDeleteआपसे नाराजगी है । कानपुर आये और हमे पता भी नहीं चला । हमारी मुलाकात हो जाती ।
ReplyDeleteझाँसी-- कानपुर के बीच जो कुछ होता है उसका अनुभव दो-तीन बार होचुका है । अगर स्लीपर में आपकी सीट आरक्षित है तो उसे आप भूल जाइये । और अपना मनन चिन्तन एक तरफ उठाकर रख दीजिये और कोने में बैठे सुनते रहिये चाहे-अनचाहे लोगों की बहस ..तर्क-वितर्क ..। हाँ झाँसी में जो विपन्नता का दृश्य देखा उसके अलावा एक और भी सच है कि वहाँ चोरी ठगी भी खूब होती है । लोग अक्सर कहते सुने जा सकते हैं ---झाँसी पर सावधान रहना । सामान को सम्हाल कर रखना ...।
ReplyDeleteरोचक यात्रा विवरण..बहुत बहुत शुभकामनायें
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन काम बहुत हैं हाथ बटाओ अल्ला मियाँ - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबेहद रोचक और प्रभावशाली यात्रा विवरण
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - रविवार - 13/10/2013 को किसानी को बलिदान करने की एक शासकीय साजिश.... - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः34 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra
ReplyDelete"नामों में दम. पर दामों में कम" :-)
ReplyDeleteआजकल में भी अपने आस पास राजनीती पर चर्चाये करने को प्रेरित करता हूँ . युवाओ की सोचना ही होगा, तभी देश बदलेगा।
उस व्यक्ति ने मेरी ओर ऐसे देखा, मानो मैंने लोकतन्त्र या धर्मनिरपेक्षता की नयी परिभाषा प्रस्तुत कर दी है।
ReplyDeleteहमारी माताजी और पिता जी एक दूसरे को पापा और मम्मी ही कहते हैं। कई लोग माँ और पिता के सम्बोधन को वैश्विक न बना कर बच्चों के नाम भी विशेषण के रूप में जोड़ देते हैं। अन्ततः बात पाण्डेजी पर आकर नियत हुयी, साथ में हमसे श्रद्धा कहने का अधिकार भी नहीं छीना गया, यह बात अलग है कि भरी भीड़ में हम भी सुनोजी जैसे सम्बोधनों पर उतर आते हैं। यह युगल था कि धाँय धाँय एक दूसरे का नाम लिये जा रहा था।
"ये कर ले वो कर ले ये करता ही नहीं है कई दिन से कह रही हूँ .... "ज्यादा ज़हीन लोग ऐसे बोलते हैं आपस में मेरिज वाले (अजी लव फव कहाँ हैं आजकल ,एक दूसरे पर हावी होने की जी तोड़ कोशिश होती है ).
क्या बात है "पांडेजी "
"अजी सुन रहे हो" अरमान के पापा। मैंने एक मर्तबा एक मोतरमा से उनका नाम पूछा -अरमान की मम्मी -ज़वाब मिला।
इतना रोचक लिखा है की लगता है आपके साथ सफर कर रहे हों ... रेल रात्र में विविध बातें अनेक प्रसंग आनंदित करते हैं ...
ReplyDeleteदशहरा की मंगल कामनाएं ...
रोचक यात्रा विवरण........दशहरा की मंगल कामनाएं....... .
ReplyDeleteएक साथ कितने चित्र. सभी बिलकुल स्पष्ट। बोलते, बतियाते हुए।
ReplyDeleteरोचक यात्रा विवरण.
ReplyDeleteदशहरा की मंगल कामनाएं.
सुंदर यात्रा वृतांत .. रोचक लेखन भी
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Deleteबहुत सुंदर यात्रा वृतांत
हाहाकार बताशे,ललकार टिकिया---
ठग्गू के लड्डू----नामों में दम,कामों में कम
नामों ने मोहलिया.
यूँ ही कट जाए सफ़र तो क्या कहना..वैसे सुन्दर कहा है..
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर यात्रा का वर्णन |
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ReplyDeleteबहुत सुंदर यात्रा वृतांत
हाहाकार बताशे,ललकार टिकिया---
ठग्गू के लड्डू----नामों में दम,कामों में कम
नामों ने मोहलिया.
Nothing like travelling and meeting your loved ones.
ReplyDeleteआप बेशक यात्रा में थके हुए थे . पर आपके शब्दों में बहुत जान है :).
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ReplyDeleteबढ़िया झलकी लिए रहते हैं समाज की आपके संस्मरण आँखों देखा हाल से।
सुंदर यात्रा वृतांत, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
......अनेक अनुभवों से भरारोचक यात्रा विवरण......बहुत बहुत शुभकामनायें !!!
ReplyDelete:) रोचक यात्रा वृतांत ... दमदार नाम
ReplyDeleteसाथ ही लेखनी का जादू
आभार
चकाचक यात्रा विवरण!
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