कभी कभी लगता है, भगवान जो करता है, बहुत अच्छा करता है।
दो कार्यक्रमों में भाग लेना था, वर्धा में ब्लॉगरीय कार्यशाला और कानपुर में विद्यालय के सहपाठियों से २५ वर्षीय पुनर्मिलन। कानपुर का कार्यक्रम १० वर्ष पहले से नियत किये बैठे थे मित्रगण और वर्धा के लिये सिद्धार्थजी का आदेश दो माह पहले आया। अच्छी बात यह थी कि एक ही यात्रा में वर्धा और कानपुर, दोनों ही समेटे जा सकते थे, असहजता इस बात की थी कि दोनों ही स्थानों पर पूरे कार्यक्रम में भाग न लेकर आंशिक कटौती करनी पड़ रही थी।
कानपुर की ओर सपरिवार ही निकलना होता है, पर परिवार चाह कर भी साथ नहीं चल पा रहा था। बच्चों की परीक्षायें चल रही थी और अपने कार्य के लिये उनकी परीक्षायें को छुड़वाने की सोचना गृह-अपराधों की श्रेणी में आता। जब भी अकेले निकलना होता है, तब यात्रा पूरी तरह से अपने अनुसार ढाली जा सकती है, जहाँ भी समय बचाया जा सकता है, बचाया जाता है भले ही थोड़ी असुविधा ही क्यों न हो? रात और दिन का कोई भेद नहीं रहता है इन यात्राओं में क्योंकि अकेले होने पर कभी भी सोया जा सकता है और कभी भी जागा जा सकता है।
पहले एक यात्रा कार्यक्रम बना। उसमें ट्रेन के अन्दर तो कम समय लग रहा था पर ट्रेनों की प्रतीक्षा और सड़क यात्रा मिला कर कहीं अधिक समय लग रहा था। समय निचोड़ने की मानसिकता ने वैकल्पिक और समयोत्पादक कार्यक्रम बनाने के लिये उकसाया। अन्ततः ११० घंटे का कार्यक्रम बना, उसमें ४० घंटे स्थिर और शेष ७० घंटे ट्रेन में। कार्यक्रम और सिकोड़ा जा सकता था, पर हवाई जहाज़ वाले ही फैल गये, किराया बढ़ाते गये। ट्रेन में जाना अधिक सुविधाजनक लगता है, धरती से जुड़े मानुषों को। पूरे कार्यक्रम के लिये सप्ताहान्त के अतिरिक्त केवल २ दिन का अवकाश लेना पड़ रहा था। कार्यक्रम की लम्बाई चौड़ाई को देखते हुये २ दिन का अवकाश देने में प्रशासन को भी कोई कठिनाई नहीं हुयी।
वर्धा और कानपुर में मिला कर ४० घंटे पास में थे, उसमें तो पूरा समय ब्लॉगरों और मित्रों से मिलने में बीतने वाला था। ट्रेन के ७० घंटों में ४ रातें थी, उसमें ३० घंटे निकलने वाले थे। शेष बचे ४० घंटे विशुद्ध रूप से अपने थे। अब उन ४० घंटों में क्या किया जाये, इस पर पहले से विचार करना आवश्यक था। ट्रेन में संभावनायें तो बहुत होती हैं, इस पर एक पूरा लेख लिख चुका हूँ। सहयात्रियों के साथ परिचर्चायें रोचक हो सकती, पर उसके लिये सहयात्री भी रोचक होना आवश्यक हैं। कई बार भाग्य साथ नहीं देता है अतः समय बिताने के लिये अपनी व्यवस्थायें स्वयं करके चलनी होती हैं। न अब संभावनाओं की उम्र ही रह गयी है और न ही संभावनाओं के सहारे यात्रायें अनियोजित छोड़ी ही जा सकती हैं।
पुस्तकें ही सर्वोत्तम रहती हैं यात्रा में और हर बार पुस्तकों के सहारे ही यात्रायें कटती हैं। इस बार सोचा कि कुछ अलग किया जाये। कुछ फ़िल्में थी देखने के लिये, पर इस बार मैं अपना मैकबुक एयर घर छोड़कर जा रहा था। पहली बार प्रयोगिक तौर पर आईपैड मिनी लेकर जा रहा था। आईपैड मिनी में फ़िल्में तो देखी जा सकती हैं पर फ़िल्मों को आईपैड मिनी में स्थानान्तरित करना अपने आप में कठिन है। १५ जीबी के रिक्त स्थान पर अधिक फ़िल्में आ भी नहीं सकती थीं। फ़िल्में विशुद्ध मनोरंजन होती हैं और कुछ सोचने को प्रेरित नहीं करती हैं। यही कारण रहा कि फ़िल्मों का विचार त्याग दिया गया।
संगीत में बहुत समय बिताया जा सकता था पर परिवार साथ में नहीं होने के कारण मनोरंजन की अधिक इच्छा नहीं थी। इस बार कुछ सृजनात्मक करने की इच्छा थी, कुछ नया जानने की इच्छा थी, कुछ नया लिखने की इच्छा थी। अन्ततः इस पर निर्णय लिया कि टेड की शिक्षा और मन संबंधी वार्ताओं को सुना जाये। अभी तक जितनी भी टेड वार्तायें सुनी थीं, सब इंटरनेट पर थी। तभी टेड का एक एप्प मिला जिसमें आप ऑफ़ लाइन वार्तायें भी सुन सकते थे, उन्हें डाउनलोड करने के पश्चात।
जब निर्णय ले लिया तो एक सप्ताह पहले से ही उन वार्ताओं को चुन कर उन्हें आईपैड मिनी में डाउनलोड करने में लगा दिया। इण्टरनेट की गति अच्छी थी कि दो दिन में ही कुल ८ जीबी की ६० वार्तायें डाउनलोड हो गयीं। हम भी प्रसन्न थे, उन्हें ऑफ़ लाइन चला कर देख भी लिया, वे बिना किसी व्यवधान के सुव्यवस्थित चल रहीं थीं। एक बार निरीक्षण में जाते समय एक दो वार्तायें चलायीं, रोचक थीं। २० घंटे की और वार्तायें भी उसी स्तर की होंगी, यह सोचकर मन आनन्द से भर गया। ४० घंटों की रिक्त ट्रेन अवधि में २० घंटों के ज्ञानप्रवाह की अच्छी व्यवस्था, यात्रा सुखद होने के प्रति मुझे पूरी तरह से आश्वस्त कर गयी।
यात्रा प्रारम्भ करने के एक दिन पहले ही एप्पल ने अपना नया आईओएस ७ निकाल दिया। जिस दिन भी कुछ नया निकलता है, अद्यतन रहने की आतुरता मन में घिर आती है। बिना यह सोचे कि आईपैड मिनी को अद्यतन करने में किसी प्रोग्राम पर क्या प्रभाव पड़ेगा, हमने उसे प्रयोग करने हेतु डाउनलोड कर लिया। हर बार यही होता है कि ऐसा करने के पश्चात पुराने प्रोग्रामों को चलाने में कोई समस्या नहीं आती है। हम भी आश्वस्त रहे कि सब कुछ पहले जैसा ही रहेगा।
यात्रा प्रारम्भ हुयी। यात्रा से पूर्व व्यस्तता अधिक रहने के कारण थकान बहुत अधिक थी, ट्रेन में बैठते ही जाते निद्रा ने आ घेरा। दो तीन घंटे सोने के बाद जब शेष समय का सदुपयोग करने की याद आयी तो आईपैड मिनी खोलकर बैठ गये और टेड वार्ता का बटन दबा दिया। जैसे ही उसमें न चलने का संदेश आया, मन बैठ गया। दूसरी वार्ता चलायी, उसकी भी वही स्थिति। अब समझ में आ चुका था कि आईपैड मिनी को अद्यतन करने के क्रम में समन्वय का हृास हो चुका था, अब कोई भी वार्ता उसमें चलने से रही।
न केवल डाउनलोड में लगे प्रयास मिट्टी में मिल चुके थे, वरन इन वार्ताओं के लुप्त होने के साथ ही यात्रा को सार्थक और उपयोगी बनाने के स्वप्न भी धूल फाँक रहे थे। अब सामने पूरी यात्रा थी और पढ़ने के लिये अन्तिम समय में रख ली आधी पढ़ी एक छोटी पुस्तक और लिखने के लिये ढेरों पड़े आधे अधूरे अनुभव।
दुखी होकर खिड़की से बाहर देखने लगा। अपनी तकनीकी समझ पर झल्लाहट हो रही थी और लग रहा था कि इतनी छोटी सी बात पर ध्यान क्यों नहीं गया? संयोगवश खिड़की के बाहर वर्षा हो रही थी, पूरे परिवेश में हरीतिमा फैली थी और वातावरण हृदय की तरह रुक्ष नहीं था। खिड़की के बाहर का दृश्य तब तक देखता रहा, जब तक मन हल्का नहीं हो गया।
अब न कोई बाहरी ज्ञान आना है, अब न कोई नये विषयों के बारे में कुछ जानने को मिलेगा। यदि साथ रहेगा तो यात्रा का अपना अनुभव और उसे लिखने के लिये आईपैड मिनी। हो न हो यही ईश्वर की चाह थी कि इस यात्रा में कुछ मौलिक ही किया जाये।
दो कार्यक्रमों में भाग लेना था, वर्धा में ब्लॉगरीय कार्यशाला और कानपुर में विद्यालय के सहपाठियों से २५ वर्षीय पुनर्मिलन। कानपुर का कार्यक्रम १० वर्ष पहले से नियत किये बैठे थे मित्रगण और वर्धा के लिये सिद्धार्थजी का आदेश दो माह पहले आया। अच्छी बात यह थी कि एक ही यात्रा में वर्धा और कानपुर, दोनों ही समेटे जा सकते थे, असहजता इस बात की थी कि दोनों ही स्थानों पर पूरे कार्यक्रम में भाग न लेकर आंशिक कटौती करनी पड़ रही थी।
कानपुर की ओर सपरिवार ही निकलना होता है, पर परिवार चाह कर भी साथ नहीं चल पा रहा था। बच्चों की परीक्षायें चल रही थी और अपने कार्य के लिये उनकी परीक्षायें को छुड़वाने की सोचना गृह-अपराधों की श्रेणी में आता। जब भी अकेले निकलना होता है, तब यात्रा पूरी तरह से अपने अनुसार ढाली जा सकती है, जहाँ भी समय बचाया जा सकता है, बचाया जाता है भले ही थोड़ी असुविधा ही क्यों न हो? रात और दिन का कोई भेद नहीं रहता है इन यात्राओं में क्योंकि अकेले होने पर कभी भी सोया जा सकता है और कभी भी जागा जा सकता है।
पहले एक यात्रा कार्यक्रम बना। उसमें ट्रेन के अन्दर तो कम समय लग रहा था पर ट्रेनों की प्रतीक्षा और सड़क यात्रा मिला कर कहीं अधिक समय लग रहा था। समय निचोड़ने की मानसिकता ने वैकल्पिक और समयोत्पादक कार्यक्रम बनाने के लिये उकसाया। अन्ततः ११० घंटे का कार्यक्रम बना, उसमें ४० घंटे स्थिर और शेष ७० घंटे ट्रेन में। कार्यक्रम और सिकोड़ा जा सकता था, पर हवाई जहाज़ वाले ही फैल गये, किराया बढ़ाते गये। ट्रेन में जाना अधिक सुविधाजनक लगता है, धरती से जुड़े मानुषों को। पूरे कार्यक्रम के लिये सप्ताहान्त के अतिरिक्त केवल २ दिन का अवकाश लेना पड़ रहा था। कार्यक्रम की लम्बाई चौड़ाई को देखते हुये २ दिन का अवकाश देने में प्रशासन को भी कोई कठिनाई नहीं हुयी।
वर्धा और कानपुर में मिला कर ४० घंटे पास में थे, उसमें तो पूरा समय ब्लॉगरों और मित्रों से मिलने में बीतने वाला था। ट्रेन के ७० घंटों में ४ रातें थी, उसमें ३० घंटे निकलने वाले थे। शेष बचे ४० घंटे विशुद्ध रूप से अपने थे। अब उन ४० घंटों में क्या किया जाये, इस पर पहले से विचार करना आवश्यक था। ट्रेन में संभावनायें तो बहुत होती हैं, इस पर एक पूरा लेख लिख चुका हूँ। सहयात्रियों के साथ परिचर्चायें रोचक हो सकती, पर उसके लिये सहयात्री भी रोचक होना आवश्यक हैं। कई बार भाग्य साथ नहीं देता है अतः समय बिताने के लिये अपनी व्यवस्थायें स्वयं करके चलनी होती हैं। न अब संभावनाओं की उम्र ही रह गयी है और न ही संभावनाओं के सहारे यात्रायें अनियोजित छोड़ी ही जा सकती हैं।
पुस्तकें ही सर्वोत्तम रहती हैं यात्रा में और हर बार पुस्तकों के सहारे ही यात्रायें कटती हैं। इस बार सोचा कि कुछ अलग किया जाये। कुछ फ़िल्में थी देखने के लिये, पर इस बार मैं अपना मैकबुक एयर घर छोड़कर जा रहा था। पहली बार प्रयोगिक तौर पर आईपैड मिनी लेकर जा रहा था। आईपैड मिनी में फ़िल्में तो देखी जा सकती हैं पर फ़िल्मों को आईपैड मिनी में स्थानान्तरित करना अपने आप में कठिन है। १५ जीबी के रिक्त स्थान पर अधिक फ़िल्में आ भी नहीं सकती थीं। फ़िल्में विशुद्ध मनोरंजन होती हैं और कुछ सोचने को प्रेरित नहीं करती हैं। यही कारण रहा कि फ़िल्मों का विचार त्याग दिया गया।
संगीत में बहुत समय बिताया जा सकता था पर परिवार साथ में नहीं होने के कारण मनोरंजन की अधिक इच्छा नहीं थी। इस बार कुछ सृजनात्मक करने की इच्छा थी, कुछ नया जानने की इच्छा थी, कुछ नया लिखने की इच्छा थी। अन्ततः इस पर निर्णय लिया कि टेड की शिक्षा और मन संबंधी वार्ताओं को सुना जाये। अभी तक जितनी भी टेड वार्तायें सुनी थीं, सब इंटरनेट पर थी। तभी टेड का एक एप्प मिला जिसमें आप ऑफ़ लाइन वार्तायें भी सुन सकते थे, उन्हें डाउनलोड करने के पश्चात।
जब निर्णय ले लिया तो एक सप्ताह पहले से ही उन वार्ताओं को चुन कर उन्हें आईपैड मिनी में डाउनलोड करने में लगा दिया। इण्टरनेट की गति अच्छी थी कि दो दिन में ही कुल ८ जीबी की ६० वार्तायें डाउनलोड हो गयीं। हम भी प्रसन्न थे, उन्हें ऑफ़ लाइन चला कर देख भी लिया, वे बिना किसी व्यवधान के सुव्यवस्थित चल रहीं थीं। एक बार निरीक्षण में जाते समय एक दो वार्तायें चलायीं, रोचक थीं। २० घंटे की और वार्तायें भी उसी स्तर की होंगी, यह सोचकर मन आनन्द से भर गया। ४० घंटों की रिक्त ट्रेन अवधि में २० घंटों के ज्ञानप्रवाह की अच्छी व्यवस्था, यात्रा सुखद होने के प्रति मुझे पूरी तरह से आश्वस्त कर गयी।
यात्रा प्रारम्भ करने के एक दिन पहले ही एप्पल ने अपना नया आईओएस ७ निकाल दिया। जिस दिन भी कुछ नया निकलता है, अद्यतन रहने की आतुरता मन में घिर आती है। बिना यह सोचे कि आईपैड मिनी को अद्यतन करने में किसी प्रोग्राम पर क्या प्रभाव पड़ेगा, हमने उसे प्रयोग करने हेतु डाउनलोड कर लिया। हर बार यही होता है कि ऐसा करने के पश्चात पुराने प्रोग्रामों को चलाने में कोई समस्या नहीं आती है। हम भी आश्वस्त रहे कि सब कुछ पहले जैसा ही रहेगा।
यात्रा प्रारम्भ हुयी। यात्रा से पूर्व व्यस्तता अधिक रहने के कारण थकान बहुत अधिक थी, ट्रेन में बैठते ही जाते निद्रा ने आ घेरा। दो तीन घंटे सोने के बाद जब शेष समय का सदुपयोग करने की याद आयी तो आईपैड मिनी खोलकर बैठ गये और टेड वार्ता का बटन दबा दिया। जैसे ही उसमें न चलने का संदेश आया, मन बैठ गया। दूसरी वार्ता चलायी, उसकी भी वही स्थिति। अब समझ में आ चुका था कि आईपैड मिनी को अद्यतन करने के क्रम में समन्वय का हृास हो चुका था, अब कोई भी वार्ता उसमें चलने से रही।
न केवल डाउनलोड में लगे प्रयास मिट्टी में मिल चुके थे, वरन इन वार्ताओं के लुप्त होने के साथ ही यात्रा को सार्थक और उपयोगी बनाने के स्वप्न भी धूल फाँक रहे थे। अब सामने पूरी यात्रा थी और पढ़ने के लिये अन्तिम समय में रख ली आधी पढ़ी एक छोटी पुस्तक और लिखने के लिये ढेरों पड़े आधे अधूरे अनुभव।
दुखी होकर खिड़की से बाहर देखने लगा। अपनी तकनीकी समझ पर झल्लाहट हो रही थी और लग रहा था कि इतनी छोटी सी बात पर ध्यान क्यों नहीं गया? संयोगवश खिड़की के बाहर वर्षा हो रही थी, पूरे परिवेश में हरीतिमा फैली थी और वातावरण हृदय की तरह रुक्ष नहीं था। खिड़की के बाहर का दृश्य तब तक देखता रहा, जब तक मन हल्का नहीं हो गया।
अब न कोई बाहरी ज्ञान आना है, अब न कोई नये विषयों के बारे में कुछ जानने को मिलेगा। यदि साथ रहेगा तो यात्रा का अपना अनुभव और उसे लिखने के लिये आईपैड मिनी। हो न हो यही ईश्वर की चाह थी कि इस यात्रा में कुछ मौलिक ही किया जाये।
होहि है वहीँ जो राम रचि राखा........ अवश्य कुछ विशेष सृजन होगा .........
ReplyDeleteखाली समय अपना विकल्प खोज लेता है। प्रकृति को निहारने का सौभाग्य इस बीच मिल गया।:)
ReplyDeleteखाली समय का सदूउपयोग करना ही उचित विकल्प है !
ReplyDeleteRECENT POST : मर्ज जो अच्छा नहीं होता.
यात्रा में सहयात्रियों से बातचीत , ट्रेन के बाहर और भीतर के नजारों का अवलोकन मौलिक विचारों को जन्म देता है , अब हम ठहरे ठेठ मध्यमवर्गीय भारतीय!
ReplyDeleteओह
ReplyDeleteकुछ लिखते चलो :)
ReplyDeleteएप्पल जब भी मेजर अपडेट करता है, जैसे कि इस बार ios7 था तो अक्सर कुछ माइनर बग्स रहते हैं फिर जब तब सारे एप्स बग फिक्स न कर दें दिक्कत आती है. कुणाल मोबिलिटी में ही काम करता है इसलिए उसका सुझाव हमेशा यही रहता है. कुछ दिन रुक जाओ, उससे बग फिक्स आ जायेंगे, फिर अपडेट करना :)
ReplyDeleteट्रेन में अगर पढ़ने को कुछ न रहे तो मुझे भी बड़ी घबराहट होती है.इस बारे में सबसे बड़ी गलती स्वित्ज़रलैंड जाते वक़्त की थी. सोचा था इतना खूबसूरत नज़ारा होगा, किताबों की क्या जरूरत. दो हफ्ते का ट्रिप था, अनगिनत ट्रेन जर्नी प्लान की थीं. नज़ारे कितने भी सुन्दर हो दो दिन में बोर हो गए. फिर अपने पसंद की किताब नहीं होने पर बहुत कोफ़्त हुयी. उसके बाद किसी भी सफ़र में बिना किताब के नहीं निकलती हूँ. :)
वैसे आईपैड में गैरेज बैण्ड है क्या? सफ़र में म्यूजिक कम्पोज कर सकते हैं. काफी इंट्रेस्टिंग एप्प है.
अभी तक कभी भी गड़बड़ नहीं हुआ था। पहली गड़बड़, वह भी जब अवलम्बन सर्वाधिक थे।
Deleteगैरेजबैण्ड है आईपैड में, पर मैकबुक एयर में ही गैरेजबैण्ड का उपयोग करते हैं, अपनी बेसुरी आवाज में सुर बैठाने के लिये।
Murphy's Law :)
Deleteसृजन, बलिदान मॉंगता है ।
ReplyDelete८ जीबी का बलिदान कुछ अधिक नहीं हो गया?
Deleteयात्रा वृत्तांत संपन्न हो गया लगा अभी बहुत कुछ शेष है पढ़ने अरे! ये तो प्रवीण जी का मन ही पढ़ लिए अब और क्या करना है कुछ पढ़के मानसिक कुहासे को बुनना निर्ममता के साथ उतना आसान भी कहाँ होता है। लेकिन प्रवीण जी के यहाँ यह खूब होता है और बा -कायदा और पुर्सूकून होता है।
ReplyDeleteट्रेन यात्रा मे सबसे बढिया रहता है , बाहर के दृश्यों का अवलोकन करना. बाकी के सारे काम तो आप कहीं भी कर सकते हैं।
ReplyDeleteजब बाहर से बहलाने के लिये कुछ नही होता तब हम पूरी तरह अपने पास होते हैं और यही समय सृजन के लिये बेहतर होता है । आजकल यही पाना तो कठिन होगया है इसलिये कभी-कभी कुछ अच्छे के लिये होता है ।
ReplyDeleteखाली समय ,कई नई रचनात्मकता को जन्म दे जाती है .
ReplyDeleteआत्म ज्ञान के लिए गजेट्स की आवश्यकता नहीं होती...पर इतने गजेट्स और एप्स हैं कि उन्हें सीखते समझते समय निकल जाता है...तब तक कुछ नया आ जाता है...आशा है आपको अपने से मिलने का पर्याप्त समय मिला होगा...
ReplyDeleteगजेट्स से अधिक उन वार्ताओं का महत्व था, जिन्हें सुनने की इच्छा थी, बस तकनीक ने रगड़ दिया।
Deleteकभी किसी की सोच परवान चढ़ी है जो प्रवीण जी की चढ़ती। रेल तक पटरियों पर चलने से इंकार कर देती हैं। मन साधे सब नहीं सधता है। यही जीवन की विविधता है और संघर्ष भी। सब तयशुदा मनमुताबिक चलता जाए तो मन की गुलामियत वाला भाव आ जाता हे। सो जान लो मित्र, न समय बंधा और न मन इसलिए तैयारी रखो पर सबको निर्बन्ध होकर बहने दो। यही परमसत्य है।
ReplyDeleteसच है, बह निर्बन्ध, तभी मन सोहे। जब भी बाँधा है, बँध गये हैं।
Deleteप्रकृति से मिलन भी कोई घाटे का सौदा नही है, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
कभी कभार मौन में बैठने पर प्रकृति से आत्म साक्षात्कार होने लगता हैं |हम अपनी असीमित शक्तियों से जुड़ने लगते हैं |यात्रा में पुस्तके पढ़ने का अलग ही आनंद हैं |
ReplyDeleteपुस्तकें सदा ही सहारा देती हैं, इस बार हल्का चलने के उत्साह में पुस्तकें छोड़ बैठे।
Deleteविराम का ऐसा वक्त ही विचार का वक्त होता है...सुंदर और ज्ञानवर्धक प्रस्तुति।
ReplyDeleteइस पोस्ट की चर्चा, बृहस्पतिवार, दिनांक :-03/10/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -15 पर.
ReplyDeleteआप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा
हो न हो यही ईश्वर की चाह थी कि इस यात्रा में कुछ मौलिक ही किया जाये।
ReplyDeleteरेल यात्रा का सबसे बड़ा फाइदा यही है कि आप प्रकृति से जुड़ सकते हैं ....!!
सुंदर ,प्रकृति से जुड़ता संस्मरण ....!!
बहुत लिखा इन ४० घंटों में, जो देखा. सब लिख डाला।
Deleteजाने कितने नए भाव, नए शब्द जन्म लेते हैं प्रकृति से जुड़कर ......
ReplyDeleteमैं भी हवाई यात्रा से ज्यादा रेल यात्रा को ही प्रधानता देता हूँ ..इसमें जो मजा वो और किसी में नहीं आता
ReplyDeleteनवीनतम पोस्ट मिट्टी का खिलौना !
नई पोस्ट साधू या शैतान
ये तो बहुत ही गलत हो गया - i OS ७ को अपग्रेड करते समय मेरा भी यही हाल हुआ। अच्छा हुआ कुछ ज्यादा डाउनलोड नहीं किया था :-)
ReplyDeleteक्षमा करें, पर मुझे आपका पोस्ट पढ़कर अपना ट्रेन में फिल्म देखना और गाने सुनना अपरध सा लग रहा है :-(
मजे की बात यह रही कि कोई और प्रोग्राम प्रभावित नहीं हुआ।
Deleteहमेशा वैसा कहाँ होता है जैसा सोचा गया हो ..परन्तु इन्हीं परिस्थितों में कुछ मौलिक निकलता है जो सार्थक भी होता है और रोचक भी, आपकी इस पोस्ट की तरह :)
ReplyDeleteआपने बिलकुल सही कहा कि भगवान् जो करता है सही करता है. लेकिन मेरे भाई इसका दोष भगवान् को क्यूँ दे रहे हैं। इसमें तो सारा किया धरा आपका ही था .
ReplyDeleteहा हा हा हा हा .
चिन्तन सूत्र तो ईश्वर ही देता है, बुद्धि भरमाना भी उसी की कृपा है।
Deletetechnology ka mu'aamla hai
ReplyDeleteतकनीक द्वारा दिये धोखे का मुआमला है।
DeleteMan proposes God disposes :-)
ReplyDelete। फ़िल्में विशुद्ध मनोरंजन होती हैं और कुछ सोचने को प्रेरित नहीं करती हैं।
ReplyDeleteI beg to differ sir.
सारी फिल्मों को विशुद्ध मनोरंजन की सूची में नहीं रखूँगा, पर अधिकांश तो होती ही हैं।
Deleteadhikansh... stands of more then 90%
Deletewell, american aur bhartiya chalchitra se bahar nikalenge to ye vishuddh manoranjan ka pratishat girata jayega sriman.
baharhaal, tatyatmak aankdon ke abhav mein aapki baat manane ke alawa koi vikalp nahi hai mere pass. :)
हाँ! इस स्थिति में झल्लाहटों के बीच की मुस्कान भी चुटकी ही लेती है..
ReplyDeleteचलिए ये सृजन एप्पल के नाम ... इसी बहाने कुछ नया पढ़ने को मिलेगा ... मुझे भी कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है अपने मोबाइल में ...
ReplyDeleteऐसे वक़्त में थोड़ा गुस्सा तो आता है, लेकिन कर भी क्या सकते .. चलिए कोई बात नहीं इसी बहाने आपने अपनी रेल यात्रा का आनंद तो लिया ही होगा !! :)
ReplyDeleteकोई नहीं, आपके साथ अच्छा यह रहा कि बाहर का मौसम ह्रदय की तरह रुग्ण न था, बारिश की बूंदों ने अनेकों कमाल किये होंगे, इसमें कोई दो राय नहीं है, अगली बार से पुस्तक साथ में रखना न भूलें, सबसे ज्यादा साथ देती हैं, और सफ़र में तो हम ऐसी भी किताबें पढ़ जाते हैं जी ज्ञानोपयोगी तो होती हैं लेकिन हमसे घर पर पढ़ा ही नहीं जाता, कोलकाता में ग्रेजुएशन करते समय जान बूझ कर बहुत सी ऐसी यात्राएं की थी, सुबह की पहली लोकल और साथ में कोर्स की नासमझ किताब, और सफ़र के साथ साथ नोटबुक भी तैयार और किताब भी ख़तम, प्रोफेसर का दिमाग चाटने के लिए प्रश्न भी, कुल मिलाकर प्रोडक्टिव जर्नी :)
ReplyDeletedairy/note book bhi rakh lete saath me kuchh pen par ungliyan chal padti :)
ReplyDeleteसमय का सदूउपयोग
ReplyDeleteयह होना शायद ज्यादा सार्थक रहा। प्रकृति से बड़ा ज्ञान आप और कहां से प्राप्त कर सकते हैं। वह भी यात्रा में देखी अनुभव की गई प्रकृति। बहुत सुन्दर यात्रा संस्मरण।
ReplyDeleteप्रकृति से करीब और कौन । जो हो रहा था उसे स्वीकार किया यही सही है।
ReplyDeleteप्रकृति से करीब और कौन । जो हो रहा था उसे स्वीकार किया यही सही है।
ReplyDelete"...कि इस यात्रा में कुछ मौलिक ही किया जाये।"
ReplyDeleteईश्वर इच्छा मान कर स्थिति को स्वीकार किया है, मौलिकता सृजित हो गयी उसी क्षण और निकल पड़ी सफ़र पर आपके साथ!
शुभकामनाएं!!!
सोचिये कुछ हो जाता है कुछ
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