हमारी श्रीमतीजी को पर्यटन संबंधी पुस्तकें और आलेख पढ़ने में रुचि है। बड़े ही संक्षिप्त अन्तरालों में उनकी रुचि, रह रहकर अनुभव में बदल जाना चाहती है। न जाने कितने स्थानों के बारे में हम से कह चुकी हैं और हम हैं कि एक को भी मना नहीं किया है। वर्तमान में देखा जाये तो हमारे अगले दो वर्षों के सप्ताहान्त, छुट्टियाँ आदि सब आरक्षित हैं। यदि इतनी छुट्टी मिल सकती और व्यवस्था बन सकती तो, उनकी सारी आशायें पूरी कर देता। फिर भी हार नहीं मानता हूँ, सरकारी नौकरी में पूरा देश घूम चुका हूँ, ईश्वर की ऐसी ही कृपा रही तो श्रीमतीजी की घूमने जाने वाले स्थानों पर भी देश की सेवा का अवसर मिलेगा। नौकरी और पर्यटन साथ साथ चलते रहेंगे, न श्रीमती जी रूठेंगी, न हम व्यथित होंगे, पता नहीं कौन सा वादा कब पूरा हो जाये।
आप ऐसी दार्शनिकता झाड़ कर कुछ सप्ताहान्त तो टाल सकते हैं, सारे सप्ताहान्त उदरस्थ नहीं कर सकते, सो घूमने जाना पड़ जाता है। पहले तो वरिष्ठों से छुट्टी माँगने के लिये कुछ विशेष कार्य करना पड़ जाता है, योग्यता सिद्ध करनी पड़ जाती है। कई बार तो अन्य अवसरों पर इसीलिये शब्द नहीं फूटते हैं कि कहीं छुट्टी के लिये मना न हो जाये। जिस दिन छुट्टी स्वीकृत हो जाती है, उस दिन मन मुदित हो नाचने का करता है, जैसे अपनी श्रीमतीजी के लिये कोई हीरे का हार ले आये हों। उसके बाद की तैयारी और भी श्रमसाध्य रहती है। बच्चों को समझाना पड़ता है कि कैसे किसी विशेष स्थान पर जाना वीडियो गेम खेलने से कहीं अच्छा है। पिछली यात्रा में की गयी भूलों को न दुहराने का वचन देना पड़ता है। साथ ही साथ रेलवे की सीटों पर उन्हें नीचे सोने देने का आश्वासन भी देना पड़ता है।
यदि पर्यटन स्थान पर रेलवे की व्यवस्था है तो ठहरना रेलवे के ठिकानों पर ही होता है। अपने विभाग की कृपा से आने जाने का आरक्षण मिल ही जाता है। वहाँ पर स्थानीय साधनों की व्यवस्था और अन्य स्थानों पर ठहरने की व्यवस्था में संपर्क सूत्र खड़खड़ाने पड़ते हैं। ७ राज्यों पर रह चुकने के कारण यह प्रसाद बहुधा मिल जाता है। कई बार व्यवस्थायें बहुत अच्छी मिलती हैं, तो कई बार काम चल जाता है। उसके बाद गूगल महाराज की कृपा से मानचित्र आदि समझे जाते हैं, स्थानीय भ्रमण की योजना का सूत्र रखा जाता है, मित्रों से बातचीत होती है, यात्रा संबंधी ब्लॉग पढ़े जाते हैं, तब कहीं जाकर पर्यटन की अस्पष्ट ही सही, एक छवि बन जाती है।
एक बात बीच में स्पष्ट कर दूँ कि इस श्रंखला में नीरज का परिप्रेक्ष्य अविवाहित घुमक्कड़ी का है, मेरे पीछे एक पूरी श्रीमतीजी और दो प्यारे पर जिज्ञासु बच्चे हैं। मेरा परिप्रेक्ष्य निश्चय ही भिन्न होगा, क्योंकि मेरे लिये व्यवस्थाओं का न हो पाना विवशताओं को जन्म देने जैसा हो सकता है। मेरा अनुभव पर्यटन के पक्ष को उतना न कह पायेगा जितना मेरा पर्यटन अनुभव पक्ष को कह जायेगा। सच कहूँ तो इच्छा मेरी भी करती है कि मैं भी अपने पर्यटन के वृत्तान्त लिखूँ और आप सबको बताऊँ, पर उनका स्वरूप उतना गहरापन लिये हुये नहीं होगा जितना नीरज का होता है। मेरे यात्रावृत्तान्तों की कहानी बहुत कुछ सब चैनल के धारावाहिक जैसी ही हो जायेगी, चलना कम होगा, हँसी अधिक आयेगी।
रेलवे स्टेशन के निकट घर होने के कारण, पर्यटन यात्रायें रेलवे स्टेशन से ही प्रारम्भ होती हैं। मेरे साथ बच्चों को भी रेलवे बहुत भाता है। पृथु को ट्रेन में पुस्तक पढ़ना और वीडियो गेम खेलना अच्छा लगता है तो देवला को बतियाना और पहेली आदि से खेल खेलना। श्रीमतीजी को बच्चों से जूझने से बचने और आगामी यात्रा के लिये ऊर्जा संचयन की दृष्टि से सोना अच्छा लगता है और मुझे सबकी बातें मानना। रात आने पर समान के निकट रहने के कारण मुझे नीचे की सीट मिल जाती है पर इस विशेष लाभ के लिये मुझे सबके बिस्तर भी लगाने पड़ते हैं। जो भी गणित लगता हो, जो भी सन्धि प्रस्ताव पारित होते हों, पर शेष तीन सीटों के लिये कभी किसी को विशेष श्रम नहीं करना पड़ता है।
रेलवे में समान्यतः नींद अच्छी आती है, साथ ही साथ भूख भी खुलकर लगती है। हो भी क्यों न, कोई इतनी देर डुलायेगा तो लोरी जैसा लगेगा, नींद आ जायेगी। साथ ही लगातार हिलते डुलते रहने से खाना भी पच जाता है, इसीलिये भूख भी खुलकर लगती है। बच्चों को भी अपनी पसन्द का चटपटा खाने का अवसर मिल जाता है। पर्यटन में बहुधा खानपान में नियन्त्रण नहीं रह पाता है, पर मैं नियमतः कम ही खाता हूँ, अधिक खाने से पर्यटन का उत्साह कम पड़ने लगता है और सोने की इच्छा प्रबल हो जाती है। हाँ, यदि गोवा जैसे किसी स्थान में शारीरिक और मानसिक विश्राम के लिये जाते हैं तो दोपहर में पर्याप्त भोजन कर सोने में बहुत आनन्द आता है।
श्रीमतीजी को पर्यटन में प्राकृतिक दृश्य भाते हैं, मुझे ऐतिहासिक पक्ष और अनुभव और बच्चों को वहाँ की कहानियाँ। इन तीनों में संतुलन बिठाने के लिये पहले तो श्रीमतीजी के साथ प्राकृतिक दृश्यों की फोटो उतारना पड़ती है फिर वहाँ के बारे में पहले से पढ़कर कहानी सुनाना पड़ती है। इन दोनों में मुझे ऐतिहासिक पक्ष का और सौन्दर्यपक्ष का समुचित अनुभव हो जाता है। बस यही ध्यान देना पड़ता है कि एक को साधने के कार्य में दूसरा क्रोधित न हो जाये। ऐसा नहीं कि मैं सदा उन तीनों पर व्यस्त रहता हूँ, जब कभी वे आपस में व्यस्त होते हैं मैं शान्ति से पर्यटन का आनन्द ले लेता हूँ।
कपड़े थोड़े अधिक लेकर चलते हैं कि बीच यात्रा में धोने नहीं पड़ें। यही कारण रहता है कि सामान अधिक हो जाता है। बच्चे समझदार हो गये हैं, सामान उठाने और ले जाने में हाथ बँटाते हैं और यदि ट्रेन देर रात में हो, तो जगकर चल भी लेते हैं। उनके बचपन में यह सारा कार्य मुझे ही करना पड़ता था। हाँ, मेरी तरह उन्हें भी प्रतीक्षा करना बहुत अखरता है।
परिवार के साथ बहुत अधिक दिन बाहर रहना संभव नहीं होता है। स्थान परिवर्तन का अनुभव पूर्ण होते ही मानसिक थकान घिरने लगती है और अपना घर याद आने लगता है। अधिक दिनों के पर्यटनीय अनुभव के लिये, रोचकता के विशिष्ट प्रयास करने पड़ते हैं। विकल्प उपस्थित होने की स्थिति में कई बार परिवार से पूछ पूछ ही आगे बढ़ना अच्छा होता है। तब लगता है कि पर्यटन यात्रा की बागडोर उन्हें सौंप दी गयी है और पर्यटन में रुचि बनाये रखना उनका उत्तरदायित्व है।
हमारे लिये पर्यटन एक विशुद्ध पर्यटनीय अनुभव न होकर प्रबन्धन का व्यक्तिगत अनुभव जैसा हो जाता है। नीरज के ब्लॉग पढ़ने के बाद लगता है कि हम तो कुछ घूम ही नहीं पाये, केवल परिवार को घुमाने में लगे रहे। अकेले होने पर कितना घूम पाता, कहना बहुत कठिन है। विवाह के पहले भी अकेले घूमना कभी हुआ ही नहीं, मित्रगण न केवल कार्यक्रम बनाते रहे वरन उसे साधते भी रहे। तब भी मिलजुल कर घूमे, आज भी मिलजुल कर ही घूम रहे हैं, तब निश्चिन्त होकर, अब परिवार को निश्चिन्त कर के।
जो भी हो, घर वापस आने में एक उपलब्धि की अनुभूति होती है, आनन्द के कार्य की।
आप ऐसी दार्शनिकता झाड़ कर कुछ सप्ताहान्त तो टाल सकते हैं, सारे सप्ताहान्त उदरस्थ नहीं कर सकते, सो घूमने जाना पड़ जाता है। पहले तो वरिष्ठों से छुट्टी माँगने के लिये कुछ विशेष कार्य करना पड़ जाता है, योग्यता सिद्ध करनी पड़ जाती है। कई बार तो अन्य अवसरों पर इसीलिये शब्द नहीं फूटते हैं कि कहीं छुट्टी के लिये मना न हो जाये। जिस दिन छुट्टी स्वीकृत हो जाती है, उस दिन मन मुदित हो नाचने का करता है, जैसे अपनी श्रीमतीजी के लिये कोई हीरे का हार ले आये हों। उसके बाद की तैयारी और भी श्रमसाध्य रहती है। बच्चों को समझाना पड़ता है कि कैसे किसी विशेष स्थान पर जाना वीडियो गेम खेलने से कहीं अच्छा है। पिछली यात्रा में की गयी भूलों को न दुहराने का वचन देना पड़ता है। साथ ही साथ रेलवे की सीटों पर उन्हें नीचे सोने देने का आश्वासन भी देना पड़ता है।
यदि पर्यटन स्थान पर रेलवे की व्यवस्था है तो ठहरना रेलवे के ठिकानों पर ही होता है। अपने विभाग की कृपा से आने जाने का आरक्षण मिल ही जाता है। वहाँ पर स्थानीय साधनों की व्यवस्था और अन्य स्थानों पर ठहरने की व्यवस्था में संपर्क सूत्र खड़खड़ाने पड़ते हैं। ७ राज्यों पर रह चुकने के कारण यह प्रसाद बहुधा मिल जाता है। कई बार व्यवस्थायें बहुत अच्छी मिलती हैं, तो कई बार काम चल जाता है। उसके बाद गूगल महाराज की कृपा से मानचित्र आदि समझे जाते हैं, स्थानीय भ्रमण की योजना का सूत्र रखा जाता है, मित्रों से बातचीत होती है, यात्रा संबंधी ब्लॉग पढ़े जाते हैं, तब कहीं जाकर पर्यटन की अस्पष्ट ही सही, एक छवि बन जाती है।
एक बात बीच में स्पष्ट कर दूँ कि इस श्रंखला में नीरज का परिप्रेक्ष्य अविवाहित घुमक्कड़ी का है, मेरे पीछे एक पूरी श्रीमतीजी और दो प्यारे पर जिज्ञासु बच्चे हैं। मेरा परिप्रेक्ष्य निश्चय ही भिन्न होगा, क्योंकि मेरे लिये व्यवस्थाओं का न हो पाना विवशताओं को जन्म देने जैसा हो सकता है। मेरा अनुभव पर्यटन के पक्ष को उतना न कह पायेगा जितना मेरा पर्यटन अनुभव पक्ष को कह जायेगा। सच कहूँ तो इच्छा मेरी भी करती है कि मैं भी अपने पर्यटन के वृत्तान्त लिखूँ और आप सबको बताऊँ, पर उनका स्वरूप उतना गहरापन लिये हुये नहीं होगा जितना नीरज का होता है। मेरे यात्रावृत्तान्तों की कहानी बहुत कुछ सब चैनल के धारावाहिक जैसी ही हो जायेगी, चलना कम होगा, हँसी अधिक आयेगी।
रेलवे स्टेशन के निकट घर होने के कारण, पर्यटन यात्रायें रेलवे स्टेशन से ही प्रारम्भ होती हैं। मेरे साथ बच्चों को भी रेलवे बहुत भाता है। पृथु को ट्रेन में पुस्तक पढ़ना और वीडियो गेम खेलना अच्छा लगता है तो देवला को बतियाना और पहेली आदि से खेल खेलना। श्रीमतीजी को बच्चों से जूझने से बचने और आगामी यात्रा के लिये ऊर्जा संचयन की दृष्टि से सोना अच्छा लगता है और मुझे सबकी बातें मानना। रात आने पर समान के निकट रहने के कारण मुझे नीचे की सीट मिल जाती है पर इस विशेष लाभ के लिये मुझे सबके बिस्तर भी लगाने पड़ते हैं। जो भी गणित लगता हो, जो भी सन्धि प्रस्ताव पारित होते हों, पर शेष तीन सीटों के लिये कभी किसी को विशेष श्रम नहीं करना पड़ता है।
रेलवे में समान्यतः नींद अच्छी आती है, साथ ही साथ भूख भी खुलकर लगती है। हो भी क्यों न, कोई इतनी देर डुलायेगा तो लोरी जैसा लगेगा, नींद आ जायेगी। साथ ही लगातार हिलते डुलते रहने से खाना भी पच जाता है, इसीलिये भूख भी खुलकर लगती है। बच्चों को भी अपनी पसन्द का चटपटा खाने का अवसर मिल जाता है। पर्यटन में बहुधा खानपान में नियन्त्रण नहीं रह पाता है, पर मैं नियमतः कम ही खाता हूँ, अधिक खाने से पर्यटन का उत्साह कम पड़ने लगता है और सोने की इच्छा प्रबल हो जाती है। हाँ, यदि गोवा जैसे किसी स्थान में शारीरिक और मानसिक विश्राम के लिये जाते हैं तो दोपहर में पर्याप्त भोजन कर सोने में बहुत आनन्द आता है।
श्रीमतीजी को पर्यटन में प्राकृतिक दृश्य भाते हैं, मुझे ऐतिहासिक पक्ष और अनुभव और बच्चों को वहाँ की कहानियाँ। इन तीनों में संतुलन बिठाने के लिये पहले तो श्रीमतीजी के साथ प्राकृतिक दृश्यों की फोटो उतारना पड़ती है फिर वहाँ के बारे में पहले से पढ़कर कहानी सुनाना पड़ती है। इन दोनों में मुझे ऐतिहासिक पक्ष का और सौन्दर्यपक्ष का समुचित अनुभव हो जाता है। बस यही ध्यान देना पड़ता है कि एक को साधने के कार्य में दूसरा क्रोधित न हो जाये। ऐसा नहीं कि मैं सदा उन तीनों पर व्यस्त रहता हूँ, जब कभी वे आपस में व्यस्त होते हैं मैं शान्ति से पर्यटन का आनन्द ले लेता हूँ।
कपड़े थोड़े अधिक लेकर चलते हैं कि बीच यात्रा में धोने नहीं पड़ें। यही कारण रहता है कि सामान अधिक हो जाता है। बच्चे समझदार हो गये हैं, सामान उठाने और ले जाने में हाथ बँटाते हैं और यदि ट्रेन देर रात में हो, तो जगकर चल भी लेते हैं। उनके बचपन में यह सारा कार्य मुझे ही करना पड़ता था। हाँ, मेरी तरह उन्हें भी प्रतीक्षा करना बहुत अखरता है।
परिवार के साथ बहुत अधिक दिन बाहर रहना संभव नहीं होता है। स्थान परिवर्तन का अनुभव पूर्ण होते ही मानसिक थकान घिरने लगती है और अपना घर याद आने लगता है। अधिक दिनों के पर्यटनीय अनुभव के लिये, रोचकता के विशिष्ट प्रयास करने पड़ते हैं। विकल्प उपस्थित होने की स्थिति में कई बार परिवार से पूछ पूछ ही आगे बढ़ना अच्छा होता है। तब लगता है कि पर्यटन यात्रा की बागडोर उन्हें सौंप दी गयी है और पर्यटन में रुचि बनाये रखना उनका उत्तरदायित्व है।
हमारे लिये पर्यटन एक विशुद्ध पर्यटनीय अनुभव न होकर प्रबन्धन का व्यक्तिगत अनुभव जैसा हो जाता है। नीरज के ब्लॉग पढ़ने के बाद लगता है कि हम तो कुछ घूम ही नहीं पाये, केवल परिवार को घुमाने में लगे रहे। अकेले होने पर कितना घूम पाता, कहना बहुत कठिन है। विवाह के पहले भी अकेले घूमना कभी हुआ ही नहीं, मित्रगण न केवल कार्यक्रम बनाते रहे वरन उसे साधते भी रहे। तब भी मिलजुल कर घूमे, आज भी मिलजुल कर ही घूम रहे हैं, तब निश्चिन्त होकर, अब परिवार को निश्चिन्त कर के।
जो भी हो, घर वापस आने में एक उपलब्धि की अनुभूति होती है, आनन्द के कार्य की।
आनंद यात्रा है आपका यह आलेख... घुमाना भी तो घूमना ही होता है और एक विशेष संतोष भी साथ लिए आता है!
ReplyDeleteये पर्यटन जीवनपर्यंत चलता रहे, परिवार के साथ साथ आप पूरी दुनिया घूमें.
शुभकामनाएं!
सब पति एक जैसे होते हैं ....
ReplyDeleteमेरे पति भी लिखते तो कुछ ऐसा ही लिखते
अगली कड़ी लिखने के लिए
हार्दिक शुभकामनायें
परिवार आनंद में है तो आप भी आनंद में हैं, जीवन यात्रा को पर्यटन यात्रा निश्चय ही आनंद मय बनाती है, शुभकामनाएँ ।वैसे विभा रानी श्रीवास्तव जी की उपरोक्त टिप्पणी समझ में नहीं आयी, यह उनकी पति जाति हेतु उलाहना है अथवा प्रोत्साहन?
ReplyDeleteशादी शुदा या कुवारा होने से घुमक्कड़ी जीवन जीने वालों पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। मुझे तो शादी से पहले ना शादी के बाद आज तक महसूस ही नहीं हुआ कि शादी से घुमक्कड़ी में कुछ अन्तर आया क्या?
ReplyDeleteजेहि के रही भावना जैसी ……… सही कहा सभी अपने -अपने रूप में इसका आनंद लेते है ……सुन्दर
ReplyDeleteऐसा भी होता है, ... अक्सर ऐसा ही होता है.
ReplyDeleteयूँ ही घूमते रहिये मिलजुल कर । हमारे तो जब बच्चे पास थे तब उनकी शिक्षा बाधित न होने के भय से नहीं घूमे कहीं और अब निवेदिता कहती हैं बिना बच्चों के घूमने का मन नहीं करता । भ्रमण से अधिक आनंददायक कुछ नहीं और इस भ्रमण में अधिकतर जो समस्या होती है ,उस समस्या के निदान के तो आप मालिक स्वयं है । अतः घूमते रहिये खूब ।
ReplyDeleteआनंद संप्रेषित करता आलेख..
ReplyDeleteसबकी रूचियाँ अलग अलग हैं |वैसे सच कहूँ ,मुझे विश्वास हैं की आप एक दिन अपने घुम्मकड़ी वाले स्थानों के विषय में जरुर शेयर करेंगे |
ReplyDeleteआपका -डॉ अजय
मेरी नजर में पूरे परिवार के साथ साथ घुमने का आनद ही अलग है
ReplyDeleteरेलयात्रा अरसे से नहीं की है , इस बार लम्बी दूरी की अच्छा है ..
ReplyDeleteपरिवार की खुशी ही सबसे बडी़ खुशी होती है..यूँ ही घूमते रहिये आनंद मनाए ..शुभकामनाएं
ReplyDeleteआनन्द का कार्य अर्थात पर्यटनीय अनुभव का आनन्द लेते रहना चाहिए .
ReplyDeleteतब भी मिलजुल कर घूमे, आज भी मिलजुल कर ही घूम रहे हैं, तब निश्चिन्त होकर, अब परिवार को निश्चिन्त कर के।
ReplyDeleteपरिवार निश्चिंत रहे ये भी बड़ी उपलब्धि है .... हर यात्रा के अपने अपने आनंद
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल गुरुवार (05-09-2013) को "ब्लॉग प्रसारण : अंक 107" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.
ReplyDeleteपर्यटन तो आनन्ददायी ही होता है , परिवार के साथ हो या अकेले .....शुभकामनायें
ReplyDeleteप्रवीन जी,
ReplyDeleteआपने बिलकुल मेरी मन की बात कह दी..
घूमना निसंदेह एक स्फ़ूर्तिदायक कार्य है जो जीवन का सबसे अहम शौक है.
ReplyDeleteरामराम.
क्षमा कीजियेगा, शयनयान में रेल यात्रा के दौरान मिलनेवाला खाना, चाय आदि रेलवे के लूटतंत्र का पक्का प्रमाण होता है. विभागीय अधिकारियों के लिए रेल यात्रा आनंददायक हो सकती है, आम आदमी को तो आरक्षित टिकट पाना ही आसान नहीं होता। इसके लिए नौकरशाहों से ज्यादा जिम्मदार राजनेता हैं।
ReplyDeleteइसके बावजूद पर्यटन का अपना आनंद है। जब लोग जान जोखिम में डालकर नाव से यात्रा करते थे तभी से पर्यटन का आकर्षण है. इस श्रृंखला को आगे बढाइए।
यात्रा ओर घर लौटने का आनंद ... दोनों में ही मज़ा है ...
ReplyDeleteशुभकामनाएं।
ReplyDeleteहम तो जब भी पत्नी बच्चों को साथ लेकर जाते हैं, उस समय घर से निकलने से वापिस आने तक खुद को गाइड, कुली, ड्राइवर, बैंकर, हैल्पर आदि से ज्यादा नहीं समझते। इसलिये वहीं लेकर जाता हूं, जो जगह पहले अकेले जाकर देखी होती है। :-)
ReplyDeleteप्रणाम
सही कहा..जिंदगी में ताजगी भरने के लिये पर्यटन से आनंदकारी कुछ भी नहीं हो सकता।।।
ReplyDeleteचलिये थोड़ा तो घूम लेते हैं यहाँ तो वो भी नहीं....
ReplyDeleteपर्यटन मेरे लिए तो अब जैसे एक विस्मृत प्रसंग सा होता जा रहा -साथ में डेजी को ले नहीं जा सकते और अकेले वह हमें जाने नहीं देती ! :-(
ReplyDeleteहमें भी घूमने का बहुत शौक है!!
ReplyDeleteनये लेख : - Alexa के टूलबार से उपयोगी Extension अपने ब्राउज़र में इनस्टॉल करें।
आज की बुलेटिन फटफटिया …. ब्लॉग बुलेटिन में आपकी इस पोस्ट को भी शामिल किया गया है। सादर .... आभार।।
ReplyDeleteय़ात्रा का अपना ही आनंद होता है । परिवार के साथ हो या दोस्तों के । आपका पर्टयन विषयक लेख भी एक किस्म का पर्टन ही हुआ । वापसी पर घर का वातावरण अत्यंत सुखद लगता है ये बात सोलह आने सच है ।
ReplyDeleteरेलवे वालों का घूमने में कठिनाई नहीं है, हमें तो आरक्षण कराने में ही पसीने आ जाते हैं।
ReplyDeleteजीवन खुद एक मुसाफिरी है उसे पर्यटन में बदलना भी एक कला है। वरना सामान ही ढोते रहो। प्रबंधन के गुर सबसे ज्यादा परिवार में ही काम आते हैं। परिवार चलाने के लिए भी एम बी ए होना ज़रूरी है। एक जीवंत रिपोर्ताज है यह पोस्ट जैसे रोजनामचा हो एक सच्चे आदमी का।
ReplyDeleteमनुष्य मुसाफिर तो है ही । आपने भाभी जी को पूरा आलेख समर्पित किया है । क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि उनकी त्याग-भावना की तुलना में यह कुछ कम है । वैसे उनके विषय में कुछ और लिखेंगे तो हमें और अच्छा लगेगा । आपके परिवार हेतु अशेष शुभकामनायें । प्राञ्जल प्रस्तुति ।
ReplyDeleteपर्यटनीय अनुभव भी लेना जरूरी है .
ReplyDeleteहाँ,ये बात तो है कि परिवार के साथ भ्रमण करने में अपनी बहुत सी सुविधाएँ ताक पर रख देनी पड़ती हैं .
ReplyDeleteसुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति.शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामना
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें
पर्यटन का आनंद घर लौटने पर भी बना रहता है !!
ReplyDeleteयूँ जीवन भी एक सफ़र ही है और हम सब पर्यटन पर !!
क्या बात वाह!
ReplyDeleteघूमने का शौक तो बहुत है ...पर किसी न किसी कारण से अटक ही जाती हूं ..खैर ...फ़िर कभी सही ...
ReplyDeleteपर्यटन मनभावन ही होता है..पर साथ परिवार हो तो चार चाँद लग जाता है..
ReplyDeleteपर्यटन का शौक तो हमें भी बहुत है.;मगर सच है कि परिवार को साथ लेकर जाने में उस तरह से नहीं घूम पाते जैसा चाहते हैं। क्योंकि बच्चों का ध्यान रखना पहला कार्य हो जाता है। मगर ये भी सही है कि अकेले घूमना मुमकिन नहीं...जिनके परिवार साथ होते हैं।
ReplyDeleteये जीवन भी पर्यटन है पूरा आनंद लो इसका।
ReplyDeleteअभी अभी घूम कर आये...
ReplyDeleteआपको पढना हर समय अच्छा लगा :)
यात्रा का एक अलग आनंद है लेकिन सबसे अधिक आनंद मिलता है घर वापिस आने पर...
ReplyDeleteपर्यटन में सबकी रूचि का ख्याल रखना ही पड़ता है .
ReplyDeleteयात्रा का अपना अलग ही आनंद है
ReplyDeletetraveling with family has its own perks :)
ReplyDeleteloved the snippets of your life you added in this post.
जो भी गणित लगता हो, जो भी सन्धि प्रस्ताव पारित होते हों, पर शेष तीन सीटों के लिये कभी किसी को विशेष श्रम नहीं करना पड़ता है। :)
ReplyDeleteयात्रा आनन्द का संगम बन जाती है .... अच्छा लगा पढ़कर