एक बार आपकी यात्रा पूरी होती है तो अगली चिन्ता होती है, रुकने की। किसी स्थान में ठहरने का उद्देश्य तीन बातों के लिये होता है, पहला स्नानादि के लिये, दूसरा विश्रामादि के लिये और तीसरा अपना सामान रखने के लिये। नीरज बहुधा अपनी यात्राओं में ये पहले दो कार्य टाल जाते हैं और यदि सामान अधिक हो तो तीसरे के लिये क्लॉक रूम का सहारा लेते हैं। सही भी है, जब दिन भर पर्यटन में ही व्यतीत करना हो तो होटल आदि में व्यय क्यों? जब दो घंटे से अधिक भी उस स्थान पर नहीं बिताना है, तो दिन भर के लिये उसे क्यों आरक्षित करना और दिन भर का किराया क्यों देना? एक दिन में घूमे जा सकने वाले स्थानों में सुबह की ट्रेन से आकर सायं की ट्रेन से जाया जा सकता है। अब प्रश्न दो हैं, कहाँ तैयार हों और थोड़ा थक जाने की स्थिति में कहाँ िवश्राम करें?
अपने १७ वर्षों के रेलवे कार्यकाल में मैंने कई जीवटों को देखा है। सुबह नित्यक्रिया ट्रेन में ही, गंतव्य में उतर कर ट्रेन में पानी भरने वाले पाइपों में स्नान, रेलवे प्लेटफार्मों में विश्राम, क्लॉक रूम में सामान, लीजिये बच गया होटल का अपव्यय। तनिक और सकुचाये लोग प्रतीक्षालयों में स्नानादि करते हैं और वहीं पर विश्राम भी। झाँसी या राउरकेला के स्टेशनों पर सुबह के तीन बजे आप चले जाइये, आपको स्टेशनों में पाँव धरने का स्थान नहीं मिलेगा, सुबह की ट्रेनों से कहीं जाने वाला सारा जनमानस रेलवे के प्लेटफ़ार्मों पर ही रात से आकर सो जाता है। इसमें बहुधा लोग अपनी जीविका के लिये जाने वाले निर्धनजन होते हैं, पर बहुत से घुमक्कड़ों के लिये इस प्रकार की घुमक्कड़ी कोई आश्चर्य की बात नहीं है?
आप में बहुतों को ज्ञात होगा कि रेलवे में वातानुकूलित प्रथम श्रेणी के कोच के चार बॉथरूमों में एक में स्नान की व्यवस्था भी रहती है। मैंने कई बार उसका उपयोग किया भी है, अत्यधिक सुविधाजनक है वह। हाँ, उतने आनन्द से तो नहीं नहा सकते हैं जितने घर में या नदी में नहाते हैं पर शुचिता की दृष्टि से बहुत उपयोगी सुविधा है। यदि पूरी तरह से तैयार होकर ही निकला जाये तो गंतव्य में न जाने कितना समय बचाया जा सकता है। कई बार ऐसे ही समय बचाया है। अभी कुछ दिन पहले एक सलाह मिली थी कि यदि रेलवे अन्य कोचों में इसी तरह स्नान की व्यवस्था कर दे तो न जाने कितना समय बचाया जा सकता है, चाहे तो इसके लिये पैसा भी लिया जा सकता है। यदि यह व्यवस्था की जा सके तो प्रातः शीघ्र ट्रेन पहुँचाने की आवश्यकता कम हो जायेगी, किसी स्थान पर पहुँचने वाली ट्रेनों के लिये सुबह ५ बजे से ११ बजे तक का सुविधाजनक कालखण्ड मिल जायेगा। यदि यह भी संभव न हो सके तो स्टेशन में ही बस तैयार होने के लिये सुविधा की व्यवस्था कर दी जाये, बस १ घंटे के लिये, शुल्क सहित। वह एक होटल के व्यय से बहुत कम पड़ेगा। घुमक्कड़ों और घुमक्कड़ी के लिये इससे अधिक बचत का कोई साधन तब हो ही नहीं सकता।
इस तरह का मितव्ययी साधन होने के बाद भी बहुतों को भागादौड़ी में आनन्द नहीं आता है। किसी स्थान पर पहुँचने के बाद थोड़ा सुस्ताना अनिवार्य हो जाता है। उन पर्यटकों के लिये भी रेलवे स्टेशन से कहीं दूर पर होटल में जाकर ठहरना तनिक कष्टकर हो जाता है। कई लोगों को यदि रेलवे स्टेशनों के रिटायरिंग रूम में रहने को मिल जाये, तो वे दूर जाकर रहना नहीं चाहते। स्टेशन पर स्थानीय यातायात के सारे साधन रहते हैं, भोजन की व्यवस्था रहती है, इस दृष्टि से देखा जाये तो किसी भी होटल की तुलना में रेलवे के रिटायरिंग रूम अधिक सुविधाजनक हैं। लोगों ने दो और सुविधायें मुझे बतायीं, जिन पर सामान्यतः रेलवे में कार्य करने वालों का ध्यान नहीं जाता है। पहली यह कि रात में कभी भी ट्रेन पहुँच जाये, उतर कर सीधे विश्राम किया जा सकता है, रात में नींद में अधिक व्यवधान नहीं पड़ता है। दूसरा यह कि किसी ट्रेन को पकड़ने के लिये प्लेटफार्म पर बहुत पहले से नहीं आना पड़ता है, समय की बचत होती है और किसी भी समय ट्रेन हो, पर्यटन की सततता बनी रहती है।
होटल में जाने से यात्रा के स्तरों की संख्या बढ़ जाती है। किन्हीं भी दो स्तरों के बीच में समय व्यर्थ होता है, धन व्यय होता है और अनिश्चितता भी बनी रहती है। बैंगलोर का ही उदाहरण लें। रात्रि में ८ बजे के बाद ऑटो का किराया दुगना हो जाता है, इस कारण से रात्रि में जाने वाली ट्रेनों के यात्री सायं से ही स्टेशन पर आकर जम जाते हैं, इसमें बहुत समय व्यर्थ हो जाता है। वैसे मैनें कई युवाओं को अपना लैपटॉप खोल कर कार्य करते हुये देखा है, पर जिस निश्चिन्तता से वह रिटायरिंग रूम में कार्य कर सकते हैं, भरी भीड़ में कर पाना संभव नहीं है। यद्यपि रेलवे में इस प्रकार के यात्रियों के लिये एयरपोर्ट जैसे आधुनिक सुविधाओं से युक्त प्रतीक्षालय बहुत उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं, पर फिर भी रिटायरिंग रूम से अधिक सुविधाजनक कुछ और नहीं पाया है। जहाँ कहीं भी सरकारी विश्रामगृह की सुविधा नहीं रहती है, मैं भी रिटायरिंग रूम में ही रुकता हूँ।
जब भी हम यात्रा की योजना बनाते हैं, सदा ही ऐसी ट्रेनें ढूँढते हैं जो सायं ६ से ९ के बीच चले और सुबह ५ से ८ बजे के बीच पहुँच जाये। उस समय हम उन ट्रेनों को छोड़ देते हैं जो या तो रात में चलती हैं या रात में पहुँचती हैं। कारण बस यही रहता है कि इतनी रात में स्टेशन से उतर कर कहाँ जायेंगे? यदि थोड़ा ध्यान दिया जाये और स्टेशन पर अल्पकालिक या दिन भर रहने की व्यवस्था मिल रही हो तो उन ट्रेनों में भी यात्रा असुविधाजनक नहीं रहेगी। तब सुविधाजनक दिखने वाली ट्रेनों की भीड़ ऐसी ट्रेनों में भी आरक्षण ढूँढने का प्रयास करेगी। स्टेशनों पर गतिविधि का कालखण्ड बढ़ेगा, व्यस्त समय की भीड़ नियन्त्रित होगी, उतने ही रेलवे संसाधनों में अधिक लोग यात्रा कर सकेंगे।
जो यात्रियों की सुविधाजनक मानसिकता होती है, उसी के अनुसार रेलवे अपनी समय सारिणी भी बनाती है। प्रथम दृष्ट्या, उन ट्रेनों के प्रस्ताव पर विचार तक नहीं होता है जो देर रात को चलें या देर रात को पहुँचें। ऐसा होने से सारा का सारा दबाव सुबह और सायं की ट्रेनों में पड़ने लगता है और बहुधा ही संसाधनों के अभाव में नयी ट्रेन का प्रारम्भ हो ही नहीं पाता है। यदि स्टेशन स्थिति रिटायरिंग रूमों को यात्रा का एक अभिन्न अंग मान कर योजना बनायी जायेगी तो रात्रि में न केवल ट्रेनों का संचालन किया जा सकेगा वरन व्यस्त समय के अतिरिक्त और लोगों को ट्रेन सुविधा का लाभ दिया जा सकेगा। ट्रेनें वैसे तो २४ घंटों दौड़ती हैं पर वाह्य परिवेश से असमयीय संपर्क के कारण रात के समय का उपयोग बड़े स्टेशनों पर नहीं कर पाती हैं। रिटायरिंग रूम की व्यवस्थायें व्यर्थ जा रहे समय के संसाधन का सदुपयोग कर सकती है और न केवल पर्यटकों को सुविधा वरन रेलवे की आय में भी वृद्धि कर सकती है।
कुछ छोटी सुविधायें स्टेशनों की व्यस्तता को विस्तारित कर अधिक ट्रेनों और यात्रियों को रेलवे तन्त्र में समाहित करती है और ही साथ यात्रियों और पर्यटकों को कहीं अधिक सुविधाजनक अनुभव भी प्रदान करती हैं। बंगलोर का अनुभव पुनः लेता हूँ, यहाँ पर रात्रि के ५ घंटे पूरा सन्नाटा रहता है,वहीं दूसरी ओर सुबह और सायं के समय ट्रेनों और यात्रियों के लिये प्लेटफार्मों का अभाव हो जाता है। जिस प्रकार से बंगलोर के लिये ट्रेनें चलाने के लिये माँग है, उसकी दृष्टि से देर सबेर रेलवे इन छोटी छोटी सुविधाओं को बड़े स्तर पर जुटाने का प्रयत्न करने वाला है, अधिक को समाहित करने हेतु, अधिक सुविधा हेतु और अधिक आय हेतु। इस प्रक्रिया में पर्यटन भी लाभान्वित पक्षों में उभरेगा।
आइये अब स्थानीय साधनों के बारे में चर्चा करते हैं। एक उदाहरण मैं अपने मित्रों को बहुधा देता हूँ। किसी साधारण श्रेणी से दिल्ली जाने वाले कि लिये, जिसके पास थोड़ा सामान भी है, पूरी यात्रा में उसका धन किस तरह से व्यय होता है? लगभग १० किमी की दूरी से ऑटो से आने में २०० रुपये, क़ुली को २०० रुपये और दिल्ली तक का टिकट भी २०० रुपये। एक आश्चर्य का भाव आता है सुनने वालों में, पर यह शब्दों सत्य है। हमारे पर्यटनीय बजट का बड़ा भाग स्थानीय साधनों पर न्योछावर हो जाता है। नीरज जैसी घुमक्कड़ी के लिये इतना धन स्थानीय साधनों में व्यर्थ कर पाना सबके लिये संभव नहीं। कोई न कोई साधन तो ढूँढना ही पड़ेगा जिससे देश के विस्तार का पूरक भाग मापा जा सके। मेरी दृष्टि में वह साइकिल है।
पिछली पोस्टों में मैंने अपने एक वरिष्ठ अधिकारी के बारे में बताया था जो ट्रेन में भी अपनी मोटरसाइकिल लेकर चलते थे। मैं उन वरिष्ठ अधिकारी की तरह मोटर साइकिल से तो नहीं चल पाऊँगा, किन्तु साइकिल साथ में ले जाने का विचार सदा ही मन में रहा है। साइकिल भी बहुत बड़ी नहीं। यदि साइकिलों के बारे में तनिक शोध करें इण्टरनेट पर तो १२ किलो तक की साइकिलें आती हैं जो अपनी सीट के नीचे मोड़ कर रखी जा सकती है। किसी भी स्थान पर पहुँच कर उसे सरलता से खोला जा सकता है और स्थानीय स्थल ही नहीं वरन ६०-७० किमी के पर्यटन बिन्दु नापे जा सकते हैं।
मुझे यूरोप के वे नगर बहुत अच्छे लगते हैं, जहाँ पर साइकिल का उपयोग प्रमुखता से किया जाता है और उसे समुचित प्रोत्साहन भी मिलता है। गूगल बाबा आपको ऐसे नगरों की सूची पकड़ा देंगे। जिस प्रकार से प्रदूषण और यातायात से कण्ठ और पंथ अवरूद्ध होता है, भविष्य साइकिलों का आने वाला है। जितना संसाधन और प्रदूषण इस क़दम से बढ़ सकता है, उसे देखते हुये वहाँ के प्रशासन ने निशुल्क साइकिलों की व्यवस्था कर रखी है। भारतीय नगरों में तो निशुल्क साइकिलें बहुत दूर की सोच हैं, पर घुमक्कड़ी के लिये हल्की व उन्नत साइकिलें वरदान हैं।
जब हम रेलवे स्टेशनों से निकल कर पर्यटकीय अन्तस्थल में बढ़ चुके हैं, साइकिल, टेण्ट और आतिथ्य की विमायें प्रमुख हो जाती हैं। अगली पोस्ट पर इन तीनों पर चर्चा।
अपने १७ वर्षों के रेलवे कार्यकाल में मैंने कई जीवटों को देखा है। सुबह नित्यक्रिया ट्रेन में ही, गंतव्य में उतर कर ट्रेन में पानी भरने वाले पाइपों में स्नान, रेलवे प्लेटफार्मों में विश्राम, क्लॉक रूम में सामान, लीजिये बच गया होटल का अपव्यय। तनिक और सकुचाये लोग प्रतीक्षालयों में स्नानादि करते हैं और वहीं पर विश्राम भी। झाँसी या राउरकेला के स्टेशनों पर सुबह के तीन बजे आप चले जाइये, आपको स्टेशनों में पाँव धरने का स्थान नहीं मिलेगा, सुबह की ट्रेनों से कहीं जाने वाला सारा जनमानस रेलवे के प्लेटफ़ार्मों पर ही रात से आकर सो जाता है। इसमें बहुधा लोग अपनी जीविका के लिये जाने वाले निर्धनजन होते हैं, पर बहुत से घुमक्कड़ों के लिये इस प्रकार की घुमक्कड़ी कोई आश्चर्य की बात नहीं है?
आप में बहुतों को ज्ञात होगा कि रेलवे में वातानुकूलित प्रथम श्रेणी के कोच के चार बॉथरूमों में एक में स्नान की व्यवस्था भी रहती है। मैंने कई बार उसका उपयोग किया भी है, अत्यधिक सुविधाजनक है वह। हाँ, उतने आनन्द से तो नहीं नहा सकते हैं जितने घर में या नदी में नहाते हैं पर शुचिता की दृष्टि से बहुत उपयोगी सुविधा है। यदि पूरी तरह से तैयार होकर ही निकला जाये तो गंतव्य में न जाने कितना समय बचाया जा सकता है। कई बार ऐसे ही समय बचाया है। अभी कुछ दिन पहले एक सलाह मिली थी कि यदि रेलवे अन्य कोचों में इसी तरह स्नान की व्यवस्था कर दे तो न जाने कितना समय बचाया जा सकता है, चाहे तो इसके लिये पैसा भी लिया जा सकता है। यदि यह व्यवस्था की जा सके तो प्रातः शीघ्र ट्रेन पहुँचाने की आवश्यकता कम हो जायेगी, किसी स्थान पर पहुँचने वाली ट्रेनों के लिये सुबह ५ बजे से ११ बजे तक का सुविधाजनक कालखण्ड मिल जायेगा। यदि यह भी संभव न हो सके तो स्टेशन में ही बस तैयार होने के लिये सुविधा की व्यवस्था कर दी जाये, बस १ घंटे के लिये, शुल्क सहित। वह एक होटल के व्यय से बहुत कम पड़ेगा। घुमक्कड़ों और घुमक्कड़ी के लिये इससे अधिक बचत का कोई साधन तब हो ही नहीं सकता।
इस तरह का मितव्ययी साधन होने के बाद भी बहुतों को भागादौड़ी में आनन्द नहीं आता है। किसी स्थान पर पहुँचने के बाद थोड़ा सुस्ताना अनिवार्य हो जाता है। उन पर्यटकों के लिये भी रेलवे स्टेशन से कहीं दूर पर होटल में जाकर ठहरना तनिक कष्टकर हो जाता है। कई लोगों को यदि रेलवे स्टेशनों के रिटायरिंग रूम में रहने को मिल जाये, तो वे दूर जाकर रहना नहीं चाहते। स्टेशन पर स्थानीय यातायात के सारे साधन रहते हैं, भोजन की व्यवस्था रहती है, इस दृष्टि से देखा जाये तो किसी भी होटल की तुलना में रेलवे के रिटायरिंग रूम अधिक सुविधाजनक हैं। लोगों ने दो और सुविधायें मुझे बतायीं, जिन पर सामान्यतः रेलवे में कार्य करने वालों का ध्यान नहीं जाता है। पहली यह कि रात में कभी भी ट्रेन पहुँच जाये, उतर कर सीधे विश्राम किया जा सकता है, रात में नींद में अधिक व्यवधान नहीं पड़ता है। दूसरा यह कि किसी ट्रेन को पकड़ने के लिये प्लेटफार्म पर बहुत पहले से नहीं आना पड़ता है, समय की बचत होती है और किसी भी समय ट्रेन हो, पर्यटन की सततता बनी रहती है।
होटल में जाने से यात्रा के स्तरों की संख्या बढ़ जाती है। किन्हीं भी दो स्तरों के बीच में समय व्यर्थ होता है, धन व्यय होता है और अनिश्चितता भी बनी रहती है। बैंगलोर का ही उदाहरण लें। रात्रि में ८ बजे के बाद ऑटो का किराया दुगना हो जाता है, इस कारण से रात्रि में जाने वाली ट्रेनों के यात्री सायं से ही स्टेशन पर आकर जम जाते हैं, इसमें बहुत समय व्यर्थ हो जाता है। वैसे मैनें कई युवाओं को अपना लैपटॉप खोल कर कार्य करते हुये देखा है, पर जिस निश्चिन्तता से वह रिटायरिंग रूम में कार्य कर सकते हैं, भरी भीड़ में कर पाना संभव नहीं है। यद्यपि रेलवे में इस प्रकार के यात्रियों के लिये एयरपोर्ट जैसे आधुनिक सुविधाओं से युक्त प्रतीक्षालय बहुत उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं, पर फिर भी रिटायरिंग रूम से अधिक सुविधाजनक कुछ और नहीं पाया है। जहाँ कहीं भी सरकारी विश्रामगृह की सुविधा नहीं रहती है, मैं भी रिटायरिंग रूम में ही रुकता हूँ।
जब भी हम यात्रा की योजना बनाते हैं, सदा ही ऐसी ट्रेनें ढूँढते हैं जो सायं ६ से ९ के बीच चले और सुबह ५ से ८ बजे के बीच पहुँच जाये। उस समय हम उन ट्रेनों को छोड़ देते हैं जो या तो रात में चलती हैं या रात में पहुँचती हैं। कारण बस यही रहता है कि इतनी रात में स्टेशन से उतर कर कहाँ जायेंगे? यदि थोड़ा ध्यान दिया जाये और स्टेशन पर अल्पकालिक या दिन भर रहने की व्यवस्था मिल रही हो तो उन ट्रेनों में भी यात्रा असुविधाजनक नहीं रहेगी। तब सुविधाजनक दिखने वाली ट्रेनों की भीड़ ऐसी ट्रेनों में भी आरक्षण ढूँढने का प्रयास करेगी। स्टेशनों पर गतिविधि का कालखण्ड बढ़ेगा, व्यस्त समय की भीड़ नियन्त्रित होगी, उतने ही रेलवे संसाधनों में अधिक लोग यात्रा कर सकेंगे।
जो यात्रियों की सुविधाजनक मानसिकता होती है, उसी के अनुसार रेलवे अपनी समय सारिणी भी बनाती है। प्रथम दृष्ट्या, उन ट्रेनों के प्रस्ताव पर विचार तक नहीं होता है जो देर रात को चलें या देर रात को पहुँचें। ऐसा होने से सारा का सारा दबाव सुबह और सायं की ट्रेनों में पड़ने लगता है और बहुधा ही संसाधनों के अभाव में नयी ट्रेन का प्रारम्भ हो ही नहीं पाता है। यदि स्टेशन स्थिति रिटायरिंग रूमों को यात्रा का एक अभिन्न अंग मान कर योजना बनायी जायेगी तो रात्रि में न केवल ट्रेनों का संचालन किया जा सकेगा वरन व्यस्त समय के अतिरिक्त और लोगों को ट्रेन सुविधा का लाभ दिया जा सकेगा। ट्रेनें वैसे तो २४ घंटों दौड़ती हैं पर वाह्य परिवेश से असमयीय संपर्क के कारण रात के समय का उपयोग बड़े स्टेशनों पर नहीं कर पाती हैं। रिटायरिंग रूम की व्यवस्थायें व्यर्थ जा रहे समय के संसाधन का सदुपयोग कर सकती है और न केवल पर्यटकों को सुविधा वरन रेलवे की आय में भी वृद्धि कर सकती है।
कुछ छोटी सुविधायें स्टेशनों की व्यस्तता को विस्तारित कर अधिक ट्रेनों और यात्रियों को रेलवे तन्त्र में समाहित करती है और ही साथ यात्रियों और पर्यटकों को कहीं अधिक सुविधाजनक अनुभव भी प्रदान करती हैं। बंगलोर का अनुभव पुनः लेता हूँ, यहाँ पर रात्रि के ५ घंटे पूरा सन्नाटा रहता है,वहीं दूसरी ओर सुबह और सायं के समय ट्रेनों और यात्रियों के लिये प्लेटफार्मों का अभाव हो जाता है। जिस प्रकार से बंगलोर के लिये ट्रेनें चलाने के लिये माँग है, उसकी दृष्टि से देर सबेर रेलवे इन छोटी छोटी सुविधाओं को बड़े स्तर पर जुटाने का प्रयत्न करने वाला है, अधिक को समाहित करने हेतु, अधिक सुविधा हेतु और अधिक आय हेतु। इस प्रक्रिया में पर्यटन भी लाभान्वित पक्षों में उभरेगा।
आइये अब स्थानीय साधनों के बारे में चर्चा करते हैं। एक उदाहरण मैं अपने मित्रों को बहुधा देता हूँ। किसी साधारण श्रेणी से दिल्ली जाने वाले कि लिये, जिसके पास थोड़ा सामान भी है, पूरी यात्रा में उसका धन किस तरह से व्यय होता है? लगभग १० किमी की दूरी से ऑटो से आने में २०० रुपये, क़ुली को २०० रुपये और दिल्ली तक का टिकट भी २०० रुपये। एक आश्चर्य का भाव आता है सुनने वालों में, पर यह शब्दों सत्य है। हमारे पर्यटनीय बजट का बड़ा भाग स्थानीय साधनों पर न्योछावर हो जाता है। नीरज जैसी घुमक्कड़ी के लिये इतना धन स्थानीय साधनों में व्यर्थ कर पाना सबके लिये संभव नहीं। कोई न कोई साधन तो ढूँढना ही पड़ेगा जिससे देश के विस्तार का पूरक भाग मापा जा सके। मेरी दृष्टि में वह साइकिल है।
पिछली पोस्टों में मैंने अपने एक वरिष्ठ अधिकारी के बारे में बताया था जो ट्रेन में भी अपनी मोटरसाइकिल लेकर चलते थे। मैं उन वरिष्ठ अधिकारी की तरह मोटर साइकिल से तो नहीं चल पाऊँगा, किन्तु साइकिल साथ में ले जाने का विचार सदा ही मन में रहा है। साइकिल भी बहुत बड़ी नहीं। यदि साइकिलों के बारे में तनिक शोध करें इण्टरनेट पर तो १२ किलो तक की साइकिलें आती हैं जो अपनी सीट के नीचे मोड़ कर रखी जा सकती है। किसी भी स्थान पर पहुँच कर उसे सरलता से खोला जा सकता है और स्थानीय स्थल ही नहीं वरन ६०-७० किमी के पर्यटन बिन्दु नापे जा सकते हैं।
मुझे यूरोप के वे नगर बहुत अच्छे लगते हैं, जहाँ पर साइकिल का उपयोग प्रमुखता से किया जाता है और उसे समुचित प्रोत्साहन भी मिलता है। गूगल बाबा आपको ऐसे नगरों की सूची पकड़ा देंगे। जिस प्रकार से प्रदूषण और यातायात से कण्ठ और पंथ अवरूद्ध होता है, भविष्य साइकिलों का आने वाला है। जितना संसाधन और प्रदूषण इस क़दम से बढ़ सकता है, उसे देखते हुये वहाँ के प्रशासन ने निशुल्क साइकिलों की व्यवस्था कर रखी है। भारतीय नगरों में तो निशुल्क साइकिलें बहुत दूर की सोच हैं, पर घुमक्कड़ी के लिये हल्की व उन्नत साइकिलें वरदान हैं।
जब हम रेलवे स्टेशनों से निकल कर पर्यटकीय अन्तस्थल में बढ़ चुके हैं, साइकिल, टेण्ट और आतिथ्य की विमायें प्रमुख हो जाती हैं। अगली पोस्ट पर इन तीनों पर चर्चा।
शुभप्रभात
ReplyDeleteमैं और मेरे पति पूरा तमिलनाडू रात में सफर और दिन में स्थल-दर्शन किए थे
समय की बचत हुई थी
हार्दिक शुभकामनायें
गोवा में देखा , बाईक्स किराये पर मिल जाती है , इसी तर्ज पर स्टेशन पर ही किराये की साईकिल , बाईक या चौपहिया वहां किराये पर मिल सके तो.…
ReplyDeleteरेलवे द्वारा की जा सकने वाली सुविधाओं की वाले व्यापक पड़ताल , काश ये सुधर संभव पाते।
यात्रा में आपके सुझावों पर अवस्य अमल करने की कोशिश होगी....... सुन्दर आलेख
ReplyDeleteप्रवीण जी !सुप्रभात ! यात्रा की बारीकियों का आपने बडी सूक्ष्मता से अवलोकन किया है और उसके सार को हमें परोसने के लिए, धन्यवाद ।
ReplyDeletecycle vala idea zordar hai
ReplyDeleteयात्रा से सम्बन्धित बेहतरीन आलेख,धन्यबाद।
ReplyDeleteवाकई अगर सुबह तैयार होने की सुविधा मिल जाये तो अलसुबह गंतव्य पर पहुँचने की जल्दी खत्म हो जायेगी.. साईकिल के पहलू के बारे में भी सोचने की जरूरत है.. वैसे रेल्वे को यात्रियों के बढ़ते दबाब को देखते हुए रिटायरिंग रूमों की संख्या बढ़ाने के लिये सोचना चाहिये, रेल्वे के लिये आमदनी का अच्छा जरिया भी होगा और यात्रियों के लिये सुविधा भी ।
ReplyDeleteउद्देश्य जब पर्यटन का हो तब निजी आवश्यकताएं / सामान न्यूनतम रखना चाहिए और जो भी व्यवस्थाएं उपलब्ध हैं उनका प्रयोग ईमानदारी से करना चाहिए । चाहे प्रथम श्रेणी का बाथरूम हो चाहे जनरल क्लास का टॉयलेट ,किसी के द्वारा प्रयोग करने के बाद तत्काल पुनः प्रयोग करने लायक कम ही मिलते हैं और यह दोष हमारा है ,रेलवे का नहीं । यात्रियों और पर्यटकों में अंतर करने के लिए रेलवे को अवश्य कुछ विचार करना चाहिए ।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteनीरज से मुलाक़ात आपके काम आई है :)
ReplyDeleteमुम्बई के प्रतीक्षालय में तो वहां का केयर टेकर खुलेआम पैसे वसूलता है। इसलिए वह खाली पड़ा रहता है। यदि रेलवे थोड़ा सा ध्यान दे तो ये सुविधाएं यात्रियों के लिए बहुत उपयोग हैं।
ReplyDeleteरेलवे का मकसद ही जनता के हितार्थ कार्य करना हैं |
ReplyDeleteअरे वाह नीरज जाट देवता ने इतनी लम्बी यात्रा का सहयात्री हमें भी बना लिया
ReplyDeleteआपके सुझाव सवारी और रेलवे दोनों के लिए लाभ का सौदा हैं। लेकिन व्यवहार में प्रथम श्रेणी प्रतीक्षालय बंद रहते हैं कारण एक ही व्यक्ति होता है जो हरेक श्रेणी के प्रतीक्षालय की संभाल करता है। हमें यह दिक्कत आबू रोड रेलवे स्टेशन पर पेश आई। एसी II का टिकिट क्या बैठके चाटें जब प्रतीक्षालय पर ही ताला जड़ा हो और बिना पूर्व इत्तल्ला के ट्रेन आने से दस मिनिट पूर्व प्लेटफोर्म भी बदल दिया जाए। यह सब हमारे साथ मुंबई आबू रोड वाया एहमदाबाद यात्रा के दौरान हो चुका है।
बढ़िया मिजाज़ की पोस्ट
बहुत ही सुंदर और विचारणीय आलेख.
ReplyDeleteरामराम.
सुविधाएं कुछ पैसा ले कर भी मुहैया कराई जाएँ तो यात्रियों को बहुत लाभ मिलेगा ।
ReplyDeleteसाइकिल वाली बात कितनी सटीक है!
ReplyDeleteकाश! मैंने बचपन में चलाना सीखा होता...
सोचता हूँ,दिल्ली में साइकल से चलूँ।
ReplyDeleteसोचता हूँ,दिल्ली में साइकल से चलूँ।
ReplyDeleteविचारणीय सुझाव ,पर अमल करने की जरूरत है !!!
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख !!
यहां तो चाह कर भी साइकिल के बारे में नहीं सोचा जा सकता , न जाने कोई कब ठोक जाए
ReplyDeleteयात्रियों के लिए विभिन्न संभावनाएं खोजता अच्छा आलेख है !
ReplyDeleteमुझे यूरोप के वे नगर बहुत अच्छे लगते हैं, जहाँ पर साइकिल का उपयोग प्रमुखता से किया जाता है। काश डीजल ईंधन केवल प्लेनों, ट्रेनों, सार्वजनिक परिवहनों, पब्लिक कैरियरों, चिकित्सालय के एम्बुलेंस के लिए ही उपलब्ध हो। कार,मोटरसाइकिल के लिए यह समाप्त हो जाए तो साइकिलें सड़कों पर निकल आएं।
ReplyDeleteयात्रा का उद्देश्य , अनुभव और सामर्थ्य सबका भिन्न होता है. अकेले घूमना और परिवार के साथ घूमने में फर्क होता है. समय और उम्र के साथ भी घूमने का अर्थ बदलता रहता है.
ReplyDeleteयात्रा की बारीकियों से अवगत कराती पोस्ट...धन्यवाद...हिंदुस्तान में आपकी रचना छपी इसके लिए बधाइयाँ...
ReplyDeleteपर्यटन से जुड़े ज़रूरी बिन्दुओं की और ध्यान आकर्षित करती पोस्ट .....
ReplyDeleteये पूरी शृंखला ही सहेजने की है, कौन इनकार कर सकता है रेल के हमारे जीवन में अमूल्य हिस्सा होने से
ReplyDeleteअच्छा सुझाव है -
ReplyDelete-हाँ भारतीय पर्यटन स्थल प्रायः पर्वतीय स्थानों पर होते हैं एवं नगर/सड़कें भी ऊंचे-नीचे जहां पैदल ही घूमा जा सकता है ...साइकल उपयुक्त नहीं हो पाती ....
भारतीय रेल में भी कितनी सुविधाएँ है ये जानने का मौका कम ही मिलता है ...एनी जानकारियों के साथ आपकी पोस्ट इस कमी को भी पूरा कर रही है ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - सोमवार - 16/09/2013 को
ReplyDeleteकानून और दंड - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः19 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
आपकी हर पोस्ट आपके मिजाज़ सदाशयता और लोककल्याण से प्रेरित उपयोगी सुझाव और विमर्श पैदा करती चलती है। शुक्रिया आपकी टिपण्णी का।
ReplyDeleteयात्रा में होने वाली दिक्कतों और उसके समाधान पर सुन्दर चर्चा
ReplyDeletelatest post कानून और दंड
atest post गुरु वन्दना (रुबाइयाँ)
I'm really enjoying these posts on traveling..
ReplyDeleteso much to learn and to be kept safely in mind for my future adventures.. :)
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार १७/९/१३ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका वहां स्वागत है।
ReplyDeleteउपयोगी प्रस्तुति..
ReplyDeleteपर्यटन स्थानीय पक्ष तमाम अनुकरणीय सुझावों से लबालब है।
ReplyDeleteपर्यटन - स्थानीय पक्ष
noreply@blogger.com (प्रवीण पाण्डेय) at न दैन्यं न पलायनम्
बढ़िया रचना
ReplyDeletedownloading sites के प्रीमियम अकाउंट के यूजर नाम और पासवर्ड
उपयोगी प्रस्तुति..
ReplyDeleteपापा मेरी भी शादी करवा दो ना
जहां तक रेलों के समय का सवाल है, संघमित्रा शुरू होने से सबसे ज्यादा गाज इलाहाबाद जानेवालों पर गिरी है। पहले चेन्नई से वाराणसी के लिए गंगा कावेरी एक्सप्रेस चलती थी जो इलाहाबाद सुबह पांच बजे पहुंचती थी और वापसी में रात नौ बजे चलती थी। कोई ऐसा रेलमंत्री हुआ जिसे सारी ट्रेनों को बिहार तक पहुंचाने की सनक थी। उसने गंगा कावेरी को छपरा चेन्नई एक्सप्रेस बना दिया। अब गंगा कावेरी रात डेढ़ बजे पुहंचती है और रात में लगभग इसी समय वहां से रवाना होती है। कभी साफ सुथरी ट्रेन थी अब गंदगी से भरी रहती है। संघमित्रा चलाई गई उसका भी समय ऐसा ही है।
ReplyDeleteबहुत उपयोगी जानकारी...
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