मेरा विद्यालय |
२५ वर्ष बीत गये हैं यहाँ से गये हुये, पर स्मृतियों में आज भी एक एक दृश्य स्पष्ट दिखता है। २५ वर्ष के कालखण्ड में स्मृतियों बिसरा जाती हैं, उनका स्थान न जाने कितने नये घटनाक्रम ले लेते हैं, न जाने कितने नये व्यक्तित्व ले लेते हैं। पता नहीं क्या बात है यहाँ की स्मृतियों में कि वे हृदय से जाने का नाम ही नहीं लेती हैं। मेरे लिये स्मृतियों के रंग औरों की तुलना में कहीं गाढ़े हैं, मैंने सात वर्ष का समय यहाँ के छात्रावास में व्यतीत किया है। मेरी स्मृति में सुबह पाँच बजे उठने से लेकर रात दस बजे सोने तक के हज़ारों अनुभव एक स्थायी स्थान बना चुके हैं।
मेरा बेटा पृथु १३ वर्ष का है और बिटिया देवला १० वर्ष की। उनको सदा ही अपना काम करने के लिये उकसाता रहता हूँ। बहुधा वे कहना नहीं टालते हैं, विशेषकर इस तथ्य को जानने के बाद कि छात्रावास में मैं अपना सारा कार्य स्वयं ही करता था, कपड़े धोने से लेकर, कमरे में झाड़ू लगाने तक। स्वयं को ही नियत करना होता था कि कितना पढ़ना है, कब पढ़ना है और कैसे पढ़ना है? स्वयं को ही यह विचारना होता था कि व्यक्तित्वों से भरी भीड़ के इस विश्व में आपका नियत स्थान क्या है, और उस स्थान तक पहुँचने के लिये आपको क्या साधना आवश्यक है? स्वावलम्बन और अपने निर्णय स्वयं लेने के प्रथम बीज इसी विद्यालय के परिवेश की देन है।
अनुभव बहुत कुछ सिखाता है, कभी वह शिक्षा व्यवस्थित और मध्यम गति में होती है, कभी समय के थपेड़े आपको विचलित कर जाते हैं। हर अनुभव के बाद आप उसका विश्लेषण करते हैं, भले ही पेन पेपर लेकर न करते हों या कम्प्यूटर पर कोई एक्सेल शीट न तैयार करते हों, पर मन में विश्लेषण इस बात का अवश्य होता है कि उस अनुभव में हुयी आपकी क्षति, लाभ, आपकी स्थिरता और सीखने योग्य बातें क्या क्या रहीं? कौन सी वह दृढ़ता थी जिसने आपको सहारा दिया, कौन सी वे बातें थी जिन्होंने आपको निराशा के तम में जाने से बचाया, कौन सी वे बातें थीं जो सदा आपको उछाह देती रहीं? मुझे हर बार इस बात की संतुष्टि रहती है कि उन सभी विश्लेषणों के उजले पक्षों के स्रोत इसी विद्यालय से उद्गमित होते हैं। मेरी कृतज्ञता आनन्दित हो जाती है, मेरा यहाँ बिताया हुआ एक एक वर्ष अपनी सार्थकता के गीत गाने लगता है, मेरा विद्यालय मेरे जीवन का आधार स्तम्भ बन कर खड़ा हो जाता है़, मेरा विद्यालय मेरे जीवन के शेष मार्ग का प्रकाश स्तम्भ बन खड़ा हो जाता है।
आज उसी कृतज्ञता का उत्सव मनाने के लिये हम सभी मित्र एकत्रित हैं। हम सबके बच्चे अभी उसी आयु के होंगे जिस आयु में हम पहली बार इस विद्यालय में आये थे। उनकी गतिविधियों में हमें अपना विद्यालय याद आता है, उनकी गतिविधियों में हमें हमारा वह समय याद आता है जो हमने यहाँ पर आकर साथ साथ बिताया था। सब कहते हैं कि मैं ४१ वर्ष का हो गया हूँ, पर अभी भी १० वर्ष का एक छोटा बच्चा मन में बसा हुआ है। वह बच्चा जो उत्साह से भरा है, वह बच्चा जो स्वप्न देखना जानता है, वह बच्चा जिसे किसी बात का भय नहीं है, वह बच्चा जिसे प्रकृति के साथ रहना अच्छा लगता है, वह बच्चा जिसमें मन में कोई भेद नहीं, वह बच्चा जो निश्छल है, जो निर्मल है, जो प्रवाहयुक्त है, जो चिन्तामुक्त है। हम सभी मित्र अपने अन्दर रह रहे उसी बच्चे को उसके विद्यालय घुमाने लाये हैं, यह हम सबके लिये उसी कृतज्ञता का उत्सव है।
कुछ तो बात रही होगी हम सबके भाग्यों में कि हमें यह परिवेश मिला। हो सकता है कि यहाँ पर उतनी सुविधायें न मिली हों जो आज कल के नगरीय विद्यालयों में हमारे बच्चों को उपलब्ध रहती हैं, हो सकता है कि यहाँ पर अंग्रेजी बोलना और समझना न सीख पाने से विश्वपटल से जुड़ने में प्रारम्भिक कठिनाई आयी हो, हो सकता है कि कुछ विषय अस्पष्ट रह गये हों, हो सकता है कि प्रतियोगी परीक्षाओं का आधार यहाँ निर्मित न हो पाया हो। यह सब होने के बाद भी जो आत्मीयता, जो गुरुत्व, जो विश्वास, जो गाम्भीर्य हमें मिला है वह तब कहीं और संभव भी नहीं था, और न अब वर्तमान में कहीं दिखायी पड़ता है। मेरे लिये वही एक धरोहर है। जो व्यक्तित्व यहाँ से विकसित होकर निकलता है, वह एक ठोस ढाँचा होता है, वह अपने शेष सभी रिक्त भरने में सक्षम होता है।
जीवन विशिष्ट है, जीवन विविधता से भरा है, हम सभी मित्र विविध क्षेत्रों में अपना योगदान दे रहे हैं। प्रकृति ने सबको भिन्न कार्य दिया है, सबको भिन्न स्थान दिया है। वही हमारा मान है, वही हमारा प्राकृतिक साम्य है, वही हमारा वैशिष्टय है। किसी भी प्रकार की तुलना इस वैशिष्टय का अपमान है। हम जब इस शरीर में दो जीवन नहीं जी सकते हैं तो दूसरे से अन्यथा प्रभावित होकर अपने अन्दर रिक्तता का भाव क्यों लायें? अपने व्यक्तित्व, परिवार, परिवेश में जो भी सुन्दर परिवर्तन संभव हैं, उसका सुखद आधार बनें। यह विद्यालय भी विशिष्ट है, जैसा है, वैसा ही प्रिय है, इसके मूलभूत गुण ही इसकी आत्मा है, यदि कुछ बदलाव आवश्यक लगें तो वे केवल वाह्य ही होगें। वैशिष्टय बचा रहेगा, प्रकृति प्रसन्न बनी रहेगी।
जन्म के समय हम शून्य होते है, मृत्यु के समय हम पुनः शून्य हो जाते हैं। बीच का कालखण्ड जिसे हम जीवन कहते हैं, एक आरोह और अवरोह का संमिश्रण है। आरोह मर्यादापूर्ण और अवरोह गरिमा युक्त। एक पीढ़ी दूसरे का स्थान लेती है और उसे आने वाली पीढ़ियों को सौंप देती है। अग्रजों का स्थान लेने में मर्यादा बनी रहे और अनुजों को स्थान देने में गरिमा। अग्रजों के अनुभवों से हम सीखते हैं, अनुजों को स्वयं से सीखने देते हैं। यही क्रम चलता रहता है, प्रकृति बढ़ती रहती है। आज जो बच्चे इस विद्यालय मे पढ़ रहे हैं, वे भी २५ वर्ष बाद आयेंगे और इसी विशालकक्ष में अपने विद्यालय को और उससे ग्रहण किये गये तत्वों को याद करेंगे।
शून्य से शून्य की इस यात्रा में जुटाया हुआ हर तत्व किसी न किसी के उपयोग का होता है। यदि हम उसे सीने से चिपकाये बैठे रहे तो सब व्यर्थ हो जायेगा। हम सब संभवतः उस आयुक्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं कि हमें अपनी उपयोगितानुसार अपने परिवेश को अपने संग्रहणीय तत्व वापस करने हैं। वही हमारा योगदान है। जीवन को उसके निष्कर्ष में पहुँचाने के क्रम में जीवन भारहीन हो जाना चाहता है। अर्जित ज्ञान, अनुभव, विवेक, सामाजिकता, धन, श्रम, सब का सब समाज के ही कार्य आना होता है। यह वह समय है जब हमें विवेकशीलता से यह विचार करना प्रारम्भ कर देना चाहिये कि हमारे योगदान का स्वरूप क्या रहेगा। कोई अपने शब्दों से परिवेश में प्राण भरेगा, कोई अपने शौर्य से उसका नेतृत्व करेगा, कोई आधारभूत संरचनायें तैयार करने में अपना योगदान देगा, कोई अपने समाज में व्याप्त समस्याओं से दो दो हाथ करेगा। करना सभी को है। शून्य से शून्य तक की यात्रा आरोह के शिखर छुयेगी, आने वाली पीढ़ी को अपने कर्मों से अनुप्राणित करेगी और अन्ततः उन्हें अपना स्थान सौंप कर गरिमा के साथ अवरोह पर निकल पड़ेगी।
आचार्यों का आशीर्वाद रहा है हम पर, जो भी हम बन सके। आशीर्वाद की वह तेजस्वी ऊर्जा ही हमारा विश्वास है, हमारा अभिमान है। हमारे कर्म उन्हें भी ऐसे अभिमान से भर सकें, वही हमारी गुरुदक्षिणा है। ईश्वर हम सबको इतनी शक्ति दे और हमारी उपलब्धियाँ को उत्कृष्टता दे, जिससे हम अपने गुरुजनों का मस्तक ऊँचा और सीना चौड़ा रख सकें।
(पं. दीनदयाल विद्यालय में, २५ वर्षों बाद पुनर्मिलन समारोह में व्यक्त मन के उद्गार)
सब कहते हैं कि मैं ४१ वर्ष का हो गया हूँ, पर अभी भी १० वर्ष का एक छोटा बच्चा मन में बसा हुआ है। वह बच्चा जो उत्साह से भरा है, वह बच्चा जो स्वप्न देखना जानता है, वह बच्चा जिसे किसी बात का भय नहीं है, वह बच्चा जिसे प्रकृति के साथ रहना अच्छा लगता है, वह बच्चा जिसमें मन में कोई भेद नहीं, वह बच्चा जो निश्छल है, जो निर्मल है, जो प्रवाहयुक्त है, जो चिन्तामुक्त है। हम सभी मित्र अपने अन्दर रह रहे उसी बच्चे को उसके विद्यालय घुमाने लाये हैं
ReplyDeleteजन्म के समय हम शून्य होते है, मृत्यु के समय हम पुनः शून्य हो जाते हैं।
सार्थक अभिव्यक्ति
आचार्यों का आशीर्वाद रहा है हम पर, जो भी हम बन सके। आशीर्वाद की वह तेजस्वी ऊर्जा ही हमारा विश्वास है, हमारा अभिमान है। हमारे कर्म उन्हें भी ऐसे अभिमान से भर सकें, वही हमारी गुरुदक्षिणा है। ईश्वर हम सबको इतनी शक्ति दे और हमारी उपलब्धियाँ को उत्कृष्टता दे, जिससे हम अपने गुरुजनों का मस्तक ऊँचा और सीना चौड़ा रख सकें।
ReplyDeleteगहन जीवन दर्शन ............मन के भावों को भलीभाँति उकेरा है ...!!कई रंग भरा आलेख .............जितनी बार पढ़ें कुछ नया समझ में आता है !!सार्थक संग्रहणीय आलेख ....!!
वे भी २५ वर्ष बाद आयेंगे और इसी विशालकक्ष में अपने विद्यालय को और उससे ग्रहण किये गये तत्वों को याद करेंगे।
ReplyDelete.........बहुत ही संग्रहणीय आलेख प्रवीण जी विद्यालय 24 वर्षो बाद की स्मृतियों में आज भी तजा और स्पष्ट दिखता है।....मुझे तो अभी 6 साल ही हुए है कालेज छोड़े पर और मेरा एक दोस्त वही पर प्रोफेसर हो गये है इसलिए अक्सर उनसे मिलने जाता हूँ पर जब भी जाता हूँ तो कुछ देर के लिए ....वही खो जाता हूँ .....मेरा ये हाल है केवल 6 वर्षो में तो आपको तो 24 वर्ष हो गए ......आपके मन के भावों को मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ .........................बहुत ही संग्रहणीय आलेख आभार आपका स्मृतियों को ताजा करने के लिए
आचार्यों का आशीर्वाद रहा है हम पर, जो भी हम बन सके। आशीर्वाद की वह तेजस्वी ऊर्जा ही हमारा विश्वास है, हमारा अभिमान है। हमारे कर्म उन्हें भी ऐसे अभिमान से भर सकें, वही हमारी गुरुदक्षिणा है। ईश्वर हम सबको इतनी शक्ति दे और हमारी उपलब्धियाँ को उत्कृष्टता दे, जिससे हम अपने गुरुजनों का मस्तक ऊँचा और सीना चौड़ा रख सकें।
ReplyDeleteवाकई ! जीवन के कई रंग दिखाता है हमारा अतीत .पुरानी स्मृतियों को ताजा करना सुखद अहसास से कम नहीं .
वह १० वर्ष का निर्मल, निश्छल, मुस्काता हुआ बच्चा ४१ वर्ष के होने पर भी आपके व्यक्तित्व में स्पष्ट दिखाई देता है. मेरी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteयह संभवतः प्रकृति का स्वभाव है कि वह समय की आवश्यकता-पूर्ति के लिए निर्माण करती चलती है । इस निर्माण के स्वरुप भिन्न हो सकते हैं, होते हैं । पर, हम लोगों के लिए दीनदयाल विद्यालय जो बनकर आया, कितना दे गया, भर गया कि कहाँ हिसाब लग सकता है ! पर, कुछ चीज़ें ऐसी हैं, जो अब संस्थान देते हैं, कभी-कभी लगता है कि संभव ही नहीं है । सोचने की दिशा- गहराई, मस्ती से लबरेज निश्छलता, साहस, सम्मान , स्नेह, आत्म-सम्मान इतनी सहजता से पीढ़ी-दर-पीढ़ी को दे दिया कि बाहर के संसार को विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा संभव भी है .......… बहुत अच्छा, मार्मिक आलेख है तुम्हारा! अभिनन्दन!
ReplyDeleteआप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {बृहस्पतिवार} 26/09/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" पर.
ReplyDeleteआप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा
सुनहरी यादें
ReplyDeleteशून्य से शून्य की इस यात्रा में जुटाया हुआ हर तत्व किसी न किसी के उपयोग का होता है। यदि हम उसे सीने से चिपकाये बैठे रहे तो सब व्यर्थ हो जायेगा। हम सब संभवतः उस आयुक्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं कि हमें अपनी उपयोगितानुसार अपने परिवेश को अपने संग्रहणीय तत्व वापस करने हैं। वही हमारा योगदान है। जीवन को उसके निष्कर्ष में पहुँचाने के क्रम में जीवन भारहीन हो जाना चाहता है।
ReplyDeleteशिक्षक और परिवेश अपनी छाप छोड़ते हैं बढ़िया हों तो हमारे हिमोग्लोबीन का अंश बन जाते हैं। बहुत बढ़िया पोस्ट -
कबीर याद आगये -
दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया। …
शून्य से शून्य तक ,एक छोले से दूसरे तक मुसाफिर के अनेक जन्म हैं। सार्थक कर जा इन्हें।
शून्य से शून्य की इस यात्रा में जुटाया हुआ हर तत्व किसी न किसी के उपयोग का होता है। यदि हम उसे सीने से चिपकाये बैठे रहे तो सब व्यर्थ हो जायेगा। हम सब संभवतः उस आयुक्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं कि हमें अपनी उपयोगितानुसार अपने परिवेश को अपने संग्रहणीय तत्व वापस करने हैं। वही हमारा योगदान है। जीवन को उसके निष्कर्ष में पहुँचाने के क्रम में जीवन भारहीन हो जाना चाहता है।
ReplyDeleteशिक्षक और परिवेश अपनी छाप छोड़ते हैं बढ़िया हों तो हमारे हिमोग्लोबीन का अंश बन जाते हैं। बहुत बढ़िया पोस्ट -
कबीर याद आगये -
दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया। …
शून्य से शून्य तक ,एक चोले से दूसरे तक मुसाफिर के अनेक जन्म हैं। सार्थक कर जा इन्हें।
मनुष्य जिन्दगी भर अपने बचपन को ढूढता है इसका आकर्षण इतना प्रबल होता है कि वह इसके मोह-पाश से कभी छूट नहीं पाता ,तभी तो जगजीत सिंह झूम-झूम कर गाता है -" ये शोहरत भी ले लो ये दौलत भी ले लो भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी । मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज़ की क़श्ती वो बारिश का पानी । वो कागज़ की क़श्ती वो बारिश का पानी ।
ReplyDeleteज्ञान और कला को भावी पीढ़ी को गौरवपूर्ण हस्तांतरित करना समाज के लिए निश्चित ही उपयोगी होता है !
ReplyDeleteउत्कृष्ट लेखन !
वाकई,अतीत से मिलना सुखद होता है।
ReplyDeleteवाकई,अतीत से मिलना सुखद होता है।
ReplyDeletejyada to mujhe likhna nahin aata bhai, par padh kar achcha laga. Bahut khoob likha hai, jaise hum sab ke man ki baat ho.
ReplyDeletebahut achcha laga padhkar......
ReplyDeleteNice post
ReplyDeleteये उद्गार उद्भासित हो रहा है..
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित और प्रभावी आलेख...
ReplyDeleteअतीत की यादों में झांकना हमेशा उन्हीम लम्हों में पहुचा देता है, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
मुझे भी अपने स्कूल जाने का मन हो रहा है अब ..
ReplyDeleteवास्तव में सब कुछ अद्भुत था , जब प्रवीण आप अपना यह ब्लाग हम सबके सामने पढ़ रहे थे, मै यह भी देख पा रहा था कि कैसे आप भावनाओ को नियंत्रित करते हुए इन उदगारों को उकेर रहे थे साथ ही साथ आचार्य श्री ओमशंकर जी के भी मनोभावों को महसूस कर रहा था जो अपने लेखन को आपके योग्य हाथों में सवारता हुआ देख आनंदित हो रहे थे .... अदभुत !! सचमुच अदभुत ....
ReplyDeleteअपने विद्यालय की ऐसी अद्भुत झांकी आपके उद्गारों से महसूस करके आनंद आ गया भैया.. जैसा मोहन भैया ने कहा कि आचार्य श्री ओमशंकर जी वाकई आपके ये उदगार सुनकर गर्वान्वित हो रहे होंगे.. ये हनुमान जी का आशीर्वाद ही है कि मुझे ऐसे विद्यालय और आप जैसे अग्रजों के सानिध्य में पढने का अवसर मिला..
ReplyDeleteअभिनन्दन....
शून्य से शून्य की इस यात्रा में समाजापयोगी तत्वों को बिखरा कर, अपने आरोह को गरिमामयी और अवरोह को मर्यादित कर हमें सतत् बढ़ते ही जाना है कर्तव्य पथ पर। अपने विद्यालय, गुरुजनों और बचपन के प्रति जो कृतज्ञता, कह सकता हूँ कि दार्शनिक और व्यावहारिक कृतज्ञता आपने महसूस की उसके पीछे विद्यालय और गुरुओं का श्रम स्पष्ट दीखता है। आपकी इस खुशी में मैं भी आपके साथ हूँ। शुभकामनाओं सहित, विकुब
ReplyDeleteस्मृतियों के कोलाज
ReplyDeleteउल्लासित उद्गार .. प्रत्येक व्यक्ति में एक छोटा बछा हमेशा जिन्दा होता है ... बहुत दार्शनिक भाव..
ReplyDeleteस्मृतियों की सारगर्भित प्रस्तुति,,,शुभकामनाए !
ReplyDeleteनई रचना : सुधि नहि आवत.( विरह गीत )
आपकी यह प्रस्तुति 26-09-2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
धन्यवाद
कितना अच्छा लगता है न!! :)
ReplyDeleteजब तक यह बच्चा आपके साथ है आप जवान रहेंगे . . .
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteहम भी अपने बीते हुए दिन याद कये।
1997 में, हम (BITS-Pilani के 1967-72 Batch) पच्चीस साल बाद मिले थे और मैं भी उसमे शामिल हुआ था।
हाल ही में ४० साल बाद, २०१२ में फ़िरसे पुनर्मिलन समारोह का आयोजन हुआ था पर हम किसी कारण शामिल नहीं हो सके थे।
क्या पता, शायद ५० साल बाद एक और मौका मिलेगा और आशा है कि हम तब तक जीवित रहेंगे!
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
(आजकल फ़िर कैलिफ़ोर्निया में स्थित। नाती अब एक साल का हो गया है)
भावभीना उद्बोधन !
ReplyDeleteआदरणीय पाण्डे सर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपके इस अनुभव की प्रत्येक पंक्ति ने फिर से बचपन याद दिला दिया। आपको इस प्यारे से अनुभव के लिए अनेकोनेक बधाई।
कहते हैं न, स्मृतियाँ कभी पुरानी नहीं होतीं.....
ReplyDeleteप्रणाम आपको, आपकी लेखनी को, आपकी उज्जवल स्मृतियों को....!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - शुक्रवार - 27/09/2013 को
ReplyDeleteविवेकानंद जी का शिकागो संभाषण: भारत का वैश्विक परिचय - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः24 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra
25 वर्ष बाद विद्यालय जाना और मित्रों से मिलना निश्चय ही आनंद की अनुभूति दे रहा होगा .... और इन उद्गारों के साथ जीवन का दर्शन जो आपने दिया है निश्चय ही विचारणीय है
ReplyDeleteसुन्दर भाव बोध की रचना।
ReplyDeleteजिनको कल तक अंधा देखा, जिनको कल तक नंगा देखा,
आज उन्हीं की स्तुति गा लो, उनके हाथों झण्डा देखा,
सहृदयता संजय भास्कर सी हो। दूसरे की प्रशंशा करना लिखना योग है। ईश्वरीय गुण है। सहज निरभिमानी ,जिज्ञासु ही दूसरे के गुणों का गायन कर सकता है। शुक्रिया प्रवीण जी की यह रचना पढ़वाने का। सामिजिक स्थितियों से प्रसूत चिंतन उनकी रचनाओं में रिसता है ललित निबन्ध सा ,प्रबंध सा। व्यक्तित्व भी निरभिमानी है।
सुन्दर भाव बोध की रचना।
ReplyDeleteजिनको कल तक अंधा देखा, जिनको कल तक नंगा देखा,
आज उन्हीं की स्तुति गा लो, उनके हाथों झण्डा देखा,
सहृदयता संजय भास्कर सी हो। दूसरे की प्रशंशा करना लिखना योग है। ईश्वरीय गुण है। सहज निरभिमानी ,जिज्ञासु ही दूसरे के गुणों का गायन कर सकता है। शुक्रिया प्रवीण जी की यह रचना पढ़वाने का। सामिजिक स्थितियों से प्रसूत चिंतन उनकी रचनाओं में रिसता है ललित निबन्ध सा ,प्रबंध सा।आप भाव बोध के कवि हैं तो प्रबंधन के गुरु प्रहलाद और अद्यतन प्रोद्योगिकी के सुपर एपिल भी हैं।
संग्रहनीय लेखन बड़ी शख्सियत -- प्रवीण पाण्डेय जी :))
संजय भास्कर
शब्दों की मुस्कुराहट
सुन्दर.अच्छी रचना.रुचिकर प्रस्तुति .; हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ
ReplyDeleteकभी इधर भी पधारिये ,
Emotional touch and beautification of nostalgia ! I got your Blog after a long time, in between it was lost for me. Really, I tried but could not find it. I am now happy to find it again.
ReplyDeleteजन्म के समय हम शून्य होते है, मृत्यु के समय हम पुनः शून्य हो जाते हैं। बीच का कालखण्ड जिसे हम जीवन कहते हैं, एक आरोह और अवरोह का संमिश्रण है। आरोह मर्यादापूर्ण और अवरोह गरिमा युक्त। एक पीढ़ी दूसरे का स्थान लेती है और उसे आने वाली पीढ़ियों को सौंप देती है। अग्रजों का स्थान लेने में मर्यादा बनी रहे और अनुजों को स्थान देने में गरिमा। अग्रजों के अनुभवों से हम सीखते हैं, अनुजों को स्वयं से सीखने देते हैं। यही क्रम चलता रहता है, प्रकृति बढ़ती रहती है।
ReplyDeleteवाह, कितना सारगर्भित, कितना अर्थपूर्ण और दिशाबोधक.
नमस्कार
आपकी अभिव्यक्ति मन को दूर खींच के ले जाती है ...
ReplyDeleteआज भी जब कभी अपने कालेज के सामने से गुज़रता हूं तो सभी कुछ याद आ जाता है ...
मनोरम यादों का पुर्नमिलन!!!!!!!!!! बधाई स्वीकार कीजिये।
ReplyDeleteBahut kuch ghoom gaya saamne se.....
ReplyDeleteएक एक पल .... बिल्डिंग ब्लॉक्स।
ReplyDeleteयादगार पल
ReplyDeleteमहेन्द्र जैन
कोयंबटूर
9362093740