21.9.13

साइकिल, टेण्ट और सूखे मेवे

नीरज की वर्तमान में की गयी साइकिल यात्रा के दो अन्य साथी भी थे, उनका अपना टेण्ट और बैग में पड़े सूखे मेवे। इन दोनों के सहारे उन्होने तो बहुत साहसी यात्रा सम्पादित कर ली, पर कम जीवट लोगों में इनका क्या प्रभाव पड़ता है, यह एक मननीय प्रश्न है।

जब यातायात के साधन अधिक नहीं थे, यात्रायें पैदल होती थीं। यात्रायें सीमित थी, व्यापार आधारित थीं, धर्म आधारित थीं, ज्ञान आधारित थीं। लोग पढ़ने जाते थे, बनारस, तक्षशिला, नालन्दा। चार धाम की तीर्थ यात्रा पर जाते थे। यही नहीं, जितने भी इतिहास पुरुष हुये हैं, सबने ही यात्रायें की, बड़ी बड़ी। राम की पैदल यात्रा ४००० किमी से कम नहीं थी, कृष्ण भी १५०० किमी चले, शंकराचार्य तो ७००० किमी के ऊपर चले। मार्ग, साधन और भोजन आदि की व्यापक व्यवस्था थी, हर समय उपलब्धता थी। जब कभी भी नियत मार्ग से भिन्न गाँवों तक की यात्रा होती थी, अतिथि देवो भव का भाव प्रधान रहता होगा। लोग थोड़ा बहुत भोजन लेकर चलना अवश्य चलते थे पर शेष की अनिश्चितता तो फिर भी नहीं रहती थी।

कितना अच्छा वातावरण था तब पर्यटन या देश भ्रमण के लिये। लोग घूमते भी थे, कहीं भी पहुँचे तो रहने के लिये आश्रय और खाने के लिये भोजन। अतिथि को कभी ऐसा लगता ही नहीं था कि वह कहीं और आ गया है। तब घुमक्कड़ी का महत्व था, लोग मिलते रहते थे, ज्ञान फैलता रहता था। तीर्थ स्थान आधारित पर्यटन था, धर्मशाला, छायादार वृक्ष और आतिथ्य।

अब हमें न वैसा समय मिलेगा और न ही वैसा विश्वास। अब तो साथ में टेण्ट लेकर चलना पड़ेगा, यदि कहीं सोने की व्यवस्था न मिले। अब साथ में साइकिल भी रखनी पड़ेगी, यदि नगर के बाहर कहीं सुरक्षित स्थान पर रहना पड़े। अब साथ में थोड़ा बहुत खाना, सूखे मेवे, बिस्कुट आदि भी लेकर चलना होगा, यदि कहीं कोई आतिथ्य भी न मिले।

रेलवे के माध्यम से मुख्य दूरी तय करने के बाद स्थानीय दूरियाँ साइकिल से निपटायी जा सकती हैं। यदि पर्यटन स्थल के में ही साइकिल किराये पर मिल जाये तो १०० किमी की परिधि में सारे क्षेत्र घूमे जा सकते हैं, ५० किमी प्रतिदिन के औसत से। रेलवे के मानचित्र में रेलवे लाइन के दोनों ओर १०० किमी पट्टी में पर्यटन योग्य अधिकतम भूभाग मिल जायेगा, जो एक रात टेण्ट में और शेष ट्रेन में बिता कर पूरा घूमा जा सकता है।

कहीं भी मंगल हो जायेगा
अपने एक रेलवे के मित्र से बात कर रहा था, विषय था रेलवे की पटरियों के किनारों के क्षेत्रों में बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य। हम दोनों साथ में किसी कार्यवश बंगलोर से ७० किमी उत्तर में गये थे। एक ओर पहाड़ी, दूसरी ओर मैदान, मैदान में झील। अपना कार्य समाप्त करने के बाद हम दोनों अपनी शारीरिक क्षमता परखने के लिये पहाड़ी पर बहुत ऊपर चढ़ते चले गये। ऊपर से जो दृश्य दिखा, जो शीतल हवा का आनन्द मिला, वह अतुलनीय था। बहुत देर तक बस ऐसे ही बैठे रहे और प्रकृति के सौन्दर्य को आँकते और फाँकते रहे। बात चली कि हम कितने दूर तक घूमने जाते हैं, पैसा व्यय करते हैं, अच्छा लगता है, संतुष्टि भी मिलती है, पर रेलवे के पटरियों के किनारे सौन्दर्य के सागर बिखरे पड़े हैं, उन्हें कैसे उलीचा जाये। जिस खंड में भी आप निकल जायें, नगर की सीमायें समाप्त होते ही आनन्द की सीमायें प्रारम्भ हो जाती हैं।

तब क्यों न पटरियों के किनारे किनारे चल कर ही सारे देश को देखा जाये? हमारे मित्र उत्साह में बोल उठे। विचार अभिभूत कर देने वाला था, कोई कठिनता नहीं थी, दिन भर २५-३० किमी की पैदल यात्रा, सुन्दर और मनोहारी स्थानों का दर्शन, स्टेशन पहुँच कर भोजन आदि, पैसेन्जर ट्रेन द्वारा सुविधाजनक स्टेशन पर पहुँच कर रात्रि का विश्राम, अगले दिन पुनः वही क्रम। यदि टेण्ट और साइकिल आदि ले लिया तो और भी सुविधा। रेलवे स्टेशन के मार्ग में सहजता इसलिये भी लगी कि यह एक परिचित तन्त्र है और किसी भी पटरी से ७-८ किमी की परिधि में कोई पहचान का है।

क्या इस तरह ही पर्यटन गाँवों का पूरा संजाल हम नहीं बना सकते हैं, जिनका आधार बना कर सारे देश को इस तरह के पैदल और साइकिल के माध्यमों से जोड़ा जा सकता है। यदि बड़े नगर और उनके साधन हमारी आर्थिक पहुँच के बाहर हों तो उसकी परिधि में बसे गाँवों में पर्यटन गाँवों की संभावनायें खोजी जा सकती हैं। यदि स्थानीय यातायात के साधन मँहगे हों तो साइकिल जैसे सुलभ और स्वास्थ्यवर्धक साधनों से पर्यटन किया जा सकता है। तनिक कल्पना कीजिये कि कितना आनन्द आयेगा, जब पटरियों के किनारे, जंगलों के बीच, झरनों के नीचे, पहाड़ियों के बीच से, सागर के सामने होते हुये सारे देश का अनुभव करेंगे हमारे युवा। पर्यटन तब न केवल मनोरंजन के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करेगा वरन हमारे बौद्धिक और सांस्कृतिक एकता के आधार भी निर्माण करेगा।

पर्यटन के ऊपर मेरी सोच भले ही अभी व्यावहारिक न लगे पर इस प्रकार ही इसे विकसित करने से पर्यटन न केवल सर्वसुलभ हो जायेगा वरन अपने परिवेश में सारे देश को जोड़ लेगा। अभी पर्यटन में लगे व्यय को देखता हूँ तो लगता है कि पर्यटन भी सबकी पहुँच के बाहर होता जा रहा है, एक सुविधा होता जा रहा है। जिनके पास धन है, वे पर्यटन का आनन्द उठा पाते हैं, वे ही प्रारम्भ से अन्त तक सारे साधन व्यवस्थित रूप से साध पाते हैं। आज भले ही सुझाव व्यावहारिक न लगें, पर यदि पर्यटन को जनमानस के व्यवहार में उतारना है तो उसे सबकी पहुँच में लाना होगा।

ट्रेन की यात्रा, एक फोल्डेबल साइकिल, एक टेण्ट और सूखे मेवे। साथ में कुछ मित्र, थोड़ी जीवटता, माटी से जुड़ी मानसिकता, गले तक भरा उत्साह और पूरा देश नाप लेने का समय। बस इतना कुछ तो ही चाहिये हमें। यदि फिर भी स्वयं पर विश्वास न आये तो बार बार नीरज का ब्लॉग पढ़ते रहिये।

चित्र साभार - thereandbackagain-hendrikcyclessouth.blogspot.com

36 comments:

  1. एकदम मौजूं और रोमांचकता परिपूर्ण परिकल्‍पना जिसे वास्‍तविकता में परिणत कर खूब मन के आनंद की प्राप्ति की जा सकती है। इन विचारों को असलियत में बदलने की इच्‍छाशक्ति और सरकारों के सहयोग की जरूरत है।

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  2. शुभप्रभात
    बरौनी पटना शिमला का चक्कर है
    अधूरा रह गया है आलेख पढ़ना
    शुभ दिन

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  3. aap mujhe aalekh mail kar den plz
    baad men padh sku ??

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  4. यायावरी...... अति सुन्दर

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  5. पर्यटन का असली मजा नीरज स्टाइल में ही लिया जा सकता है :)

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  6. एक अछूता और बिलकुल नया विषय पढ़कर बहुत अच्छा लगा खासतौर पर प्राचीन संस्कृति को आपने जोड़कर और भी अच्छा आलेख बना दिया |बधाई सर उन महानुभाव को भी जिन्होंने पैदल चलकर ज्ञान को संजोया |

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  7. अब तो बेगाने भी न काम आएँ
    इस क़दर छल किये हैं दुनिया ने

    पर्यटन प्रेमियों के लिए अच्छी ख़ासी जानकारियाँ इकट्ठी हो रही हैं :)

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  8. ट्रेन की यात्रा, एक फोल्डेबल साइकिल, एक टेण्ट और सूखे मेवे। साथ में कुछ मित्र, थोड़ी जीवटता, माटी से जुड़ी मानसिकता, गले तक भरा उत्साह और पूरा देश नाप लेने का समय।
    पर्यटन पर बहुत सुंदर और सार्थक आलेख ........विदेशों में तो इसी प्रकार घूमते है लोग ....अब हमारे देश में भी प्रयास तो प्रारम्भ हो ही चुके हैं और आशा है ...वो दिन दूर नहीं जब हमारे देश में भी पर्यटन को उसकी सही जगह मिल जाएगी ।

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  9. माटी से जुड़ी यह मानसीकता सम्पूर्ण देश को पर्यटन के माध्यम से यूँ जोड़ दे कि संवेदना का वह दौर जीवंत हो उठे जब अथिति देवोभव सामाजिक व्यवहार हुआ करता था!

    To explore the beauty around railway tracks.... I must say:: very innovative!

    wonderful article!

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  10. इस ग्रुप में मुझे शामिल कर लीजियेगा , एक क्लब बना लें तो बेहतर होगा !
    अगले साल मेरा प्लान देश भ्रमण का है , देखता हूँ कितना सफल होगा !
    नीरज काफी हद तक श्रेय नीरज को जाता है ब्लोगर्स को प्रोत्साहित करने के लिए !

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  11. parytan ke dauran aise hi dandin ne raja ke garib brahman pariwar ki kutiya main bhojan ka varnan kiya hai, yeh baat fir yaad aa gai, sunder post

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  12. यात्रा करनी चाहिए चाहे माध्यम एवं प्रयोजन खुछ भी हो क्योंकि सतत् यात्रा ही जीवन है.

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  13. Nice www.hinditechtrick.blogspot.com

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  14. आज की विशेष बुलेटिन विश्व शांति दिवस .... ब्लॉग बुलेटिन में आपकी इस पोस्ट को भी शामिल किया गया है। सादर .... आभार।।

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  15. पर्यटन की ओर यदि दृढ इक्छा हो तभी यह कार्य संभव है,,,

    RECENT POST : हल निकलेगा

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  16. बहुत सुन्दर प्रस्तुति सर थैंक्स।

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  17. “अजेय-असीम{Unlimited Potential}” -
    मैंने रेलवे के पटरियों के किनारे सौंदर्य और सुरम्य वातावरण देखा हैं |महसूस किया हैं |उर्जा /सकून/ताजगी बड़ी लुभावनी लगती हैं |
    बहुत सुंदर लेखन |

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  18. अभी पर्यटन में लगे व्यय को देखता हूँ तो लगता है कि पर्यटन भी सबकी पहुँच के बाहर होता जा रहा है, एक सुविधा होता जा रहा है। (सुविधा) के बजाय (दुविधा) कर लें। अभी अव्‍यावहारिक लगनेवाली आपकी पर्यटनोचित संकल्‍पनाएं निश्‍चय ही निकट भविष्‍य में व्‍यावहारिक रंग में रंगी होंगी, ऐसी कामना करता हूँ।

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  19. पर्यटन को एक नयी सोच और दिशा देता हुआ आलेख ।

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  20. आपकी बदौलत नीरज को लगातार पढ रही हूँ । उनके यात्रा-वृतान्त अनूठे हैं । रोचक हैं और सुन्दर चित्रमय हैं । हाँ हर किसी के लिये यह चाहते हुए भी सम्भव नही है । पर जिनके लिये है वे सचमुच जीवन का सच्चा आनन्द ले रहे हैं आप भी उनमें से एक हैं ।

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  21. सच में अच्छा तो लगता है उनका ब्लॉग पढ़कर ..... उनका उत्साह और हिम्मत दोनों प्रशंसनीय हैं

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  22. राहुल सांकृत्यायन प्रसिद्ध घुमक्कड़ थे।एक बार तिब्बत यात्रा के दौरान सत्तू ले गए थे।

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  23. राहुल सांकृत्यायन प्रसिद्ध घुमक्कड़ थे।एक बार तिब्बत यात्रा के दौरान सत्तू ले गए थे।

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  24. बहुत खूब लिखा है अभी इतने बुरे दिन नहीं आये हैं आप अपनी पीठ के पीछे बस एक प्लास्टिक का डिब्बा और साईं बाबा की एक तस्वीर चिपका लें फिर ड्राई फ्रूट्स का खर्चा निकलता जाएगा।

    असल बात है देश दर्शन के अलावा देश की नवज टटोलना।

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  25. नीरज की तो बात ही अलहदा है... हम तो यही सोचते हैं, चलो हुमसे तो इतना न हो पाएगा.... देख के ही मज़े ले लो....

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  26. बहुत सुन्दर आलेख नगर की सीमा ख़तम होते ही आनंद की सीमा प्रारंभ होती है.. भ्रमण को प्रेरित करती हुई .... फिर भी घुम्म्क्कड़ी कई बातों पर निर्भर करती है , कई लोग चाहकर भी ऐसा नहीं कर पाते ..

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  27. सायकिल आज भी एक महत्पुन्र्ण सवारी है ... वो भी बिना खर्च के ';मेरे भी ब्लॉग पर आये

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  28. पटरियों के किनारे-किनारे सायकिल से नापा हुआ पूरा देश..सोच कर ही रोमांच हो आया..

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  29. नये विषयों पर आपके लेख बरबस खींच लेते हैं। अच्छा विचार।

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  30. ख्याल तो अच्छा है
    लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन!?

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  31. यात्रा में अद्भुत आनन्द है ।

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  32. नीरज की यायावरी पढ़ते जमाना गुजरा...बस, वाह वाह ही कर पाते हैं और उससे आगे अपने बस का नहीं जैसे कि आपके लेखन पर बस वाह वाह कह पाते हैं...मेरे लिए दोनों...बस, स्वप्न की सी बातें हैं.

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  33. prakrti to adi sikshika hai

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  34. ट्रेन की यात्रा, एक फोल्डेबल साइकिल, एक टेण्ट और सूखे मेवे
    आनंद के क्षण यहां भी साथ रहेंगे .... अच्‍छा लग रहा है नीरज जी को आपकी कलम से पढ़ना

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  35. एक और पर्यटन आपकी अद्भुत लेखनी की बाट जोह रही है !

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  36. यात्रा का सुख, मित्र का साथ और प्रकृति की गोद में विश्राम। मन के साथ ही तन के लिए भी हितकारी। कब निकल रहे हैं।

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