फेसबुक पर ज्ञानदत्तजी की एक पोस्ट पर ध्यान गया। उनका कहना था कि जब वह भावुक होते हैं तो हिन्दी में सोचते हैं, जब अच्छे निर्णय लेने होते हैं तो चिन्तन अंग्रेजी में हो जाता है।
यह एक ऐसा विषय है जिस पर बहुत शोध, सुशोध, प्रतिशोध और महाशोध हो चुका है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों में तो नहीं पर कहते हैं कि बाइबिल में एक उद्धरण हैं कि सबसे पहले एक ही भाषा थी, उसका आधार पा सब जन संगठित भी थे। अब सब अपनी संगठित शक्ति में मदांध हो स्वर्ग के लिये एक सीढ़ी बनाने लगे। यह देवों को कहाँ स्वीकार था, उन्होंने मानवता को श्राप दे दिया और श्राप स्वरूप इतनी अधिक भाषायें दे दीं कि मानवता कभी संगठित ही न रह पाये। लगता है कि सीढ़ी बनाने वालों में सर्वाधिक उत्साही जन भारत के ही होंगे, तभी भारत को सर्वाधिक भाषाओं का श्राप मिला।
ज्ञानदत्तजी उन वृहदचेतनमना जनों की श्रेणी में आते हैं जिन्हें दो भाषाओं पर पूर्ण नियन्त्रण है, यहाँ तक, कि भाषा चिन्तन प्रक्रिया में धँस चुकी है। वैसे देखा जाये तो देशवासी बहुधा अपनी मातृभाषा ही जान पाते हैं, दूसरी भाषा तो काम चला लेने के भाव से सीखी जाती हैं। थोड़ी बहुत अंग्रेजी सीख जाने पर भौकाल उत्पन्न करने की पूरी संभावना रहती है, विशेषकर उन पर जो उसे अत्यन्त प्रभावकारी भाषा मानते हैं। उस जनमानस के लिये अंग्रेजी मुख या आँख की सीमाओं के अन्दर नहीं जा पाती है। एक सरल प्रयोग किया जा सकता है कि अंग्रेजी जानने का दंभ भरने वालों को एक अंग्रेजी पुस्तक पढ़ने को दी जाये और देखा जाये कि १५ मिनट तक कितने लोग उसका प्रकोप झेल पाते हैं। जो १५ मिनट से अधिक जगे रह पाये तो समझ लीजिये कि उनके अन्दर अंग्रेजी में चिन्तन करने के लक्षण जाग रहे हैं। सारी संभावनायें जोड़ ली जायें तो भी उनकी संख्या १५ प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।
विश्व में अधिकता एक भाषा बोलने वालों की ही है। जहाँ पर वैश्वीकरण के संपर्कक्षेत्र हैं, बस वहीं पर दो या दो से अधिक भाषा बोलने वालों की संख्या पनप रही है। अब भारत में इतनी भाषायें हैं कि एक भाषा समाप्त होते ही दूसरी प्रारम्भ हो जाती है, यहाँ पर दो भाषायें बोलने वालों की संख्या अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक होगी। यदि भारतीय भाषाओं के शब्दकोश पर दृष्टि डाली जाये और संस्कृत शब्दावली से उसका मिलान किया जाये तो दो पड़ोसी भाषाओं में भिन्नता का प्रतिशत १५ प्रतिशत से अधिक नहीं आयेगा।
विश्व में कितने प्रतिशत लोग दो या अधिक भाषा जानते हैं, इस बारे में कोई आधिकारिक आँकड़े नहीं मिले। अनुमान यही है कि २५-३० प्रतिशत ही ऐसे हैं जो दो या अधिक भाषा बोल पाते हैं। अब उनमें से ऐसे कितने हैं जिनका दो भाषाओं पर इतना सम अधिकार हो कि वे चिन्तन पटल पर अधिकार जमा लें, तो प्रतिशत सिकुड़ कर दशमलव के कुछ स्थान अन्दर चला जायेगा। ऐसे जनों को वृहदचेतनमना ही कहा जा सकता है, ऐसे लोग ही उत्कृष्ट अनुवादक हो सकते हैं, ऐसे लोग ही दो संस्कृतियों के बीच सेतुबन्ध हो सकते हैं, ऐसे लोग ही विश्व एकीकरण के प्रबल कारक हो सकते हैं।
दो या अधिक भाषा जानने वालों की यह संख्या देख सर्वाधिक निराश वे होंगे जिन्हें भाषायी विविधता विघटनकारी लगती है। उन्हें लगता है कि एकीकरण का एकमेव मार्ग भाषायी एकरूपता है, सांस्कृतिक एकरूपता है, धार्मिक एकरूपता है। इस एकरूपता के बिना कोई समरसता, सौहार्द या सहजीवन संभव नहीं है। विविधता में भी जीवन पल्लवित होता है, इस पर ध्यान देने की न ही उनकी मानसिकता है, न ही समय है और न ही मंशा है। शोध भी यही बताते हैं कि हमारा मन, हमारे भाव, हमारा चिन्तन किसी भाषा, संस्कृति, धर्म आदि से प्रभावित तो हो सकते हैं पर उनका अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व है। यही कारण है कि सर्वथा भिन्न जन भी एक दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक रह लेते हैं, समाज में व्याप्त विघटनकारी विष नित फैलने के बाद भी।
क्या हम किसी भाषा में चिन्तन करते हैं या चिन्तन की कोई अपनी ही भाषा होती है जो ईश्वर ने हमारे अस्तित्व में पूर्वबद्ध कर के भेजी है। पशु तो कभी कोई भाषा सीखते नहीं तो क्या वे सोचते भी नहीं हैं? एक बधिर व्यक्ति तो कभी कोई भाषा सीख ही नहीं पाता है तो क्या वह कभी सोचता ही नहीं? एक बच्चा जो अपनी माँ पर आँखें स्थिर कर उसे पहचान लेता है, क्या वह कुछ सोचता ही नहीं? यही प्रश्न चिन्तन की भाषा सम्बन्धी शोध के आधारभूत प्रश्न बने होंगे।
हम सबके अन्दर चिन्तन की एक भाषा पहले से ही विद्यमान है। भले ही उस भाषा को हम न समझ पायें और न ही उसे व्यक्त कर पायें, पर जब भी हम स्वयं से संवाद करते हैं, हम उसी भाषा का सहारा लेते हैं। विचार एक के बाद एक उसी भाषा में आते हैं। शरीर को संकेत भी उसी भाषा में मिलते हैं। प्यास लगती है, भूख लगती है, पीड़ा होती है, आनन्द होता है, संवेदना जागती है, क्रोध भड़कता है, दया उमड़ती है, सब का सब कार्य हमारी मूल भाषा में ही तो होता है। शिशु, बधिर, पशु आदि सभी तो स्वयं से बात करते ही होंगे, कुछ न कुछ तो संवाद अन्तरमन में चलता ही होगा। जिन्होंने कभी कोई भाषा ही नहीं सीखी, यदि उनकी बात भी छोड़ दें तो सिद्ध संगीतज्ञ, चित्रकार आदि किस भाषा में अपना मन रचते हैं, संभवतः वे विचारों की उस भाषा को समझने का प्रयास करते हों जो हमने कभी सुनी ही नहीं, उस समय के बाद, जब से हमने दूसरी भाषा का सहारा ले लिया।
इसका अर्थ यह हुआ कि जो भाषा हम सर्वप्रथम सीखते हैं, वह हमारी द्वितीय भाषा है, पर उस भाषा से हमारी आन्तरिक भाषा का प्राथमिक सम्बन्ध है। उसके माध्यम से हम जगत के साथ संवाद स्थापित करते हैं। सीखी हुयी भाषा सामाजिकता में सहयोगी भी है, उसके माध्यम से हम एक दूसरे को समझ पाते हैं, स्वयं को व्यक्त कर पाते हैं, सहजीवन का और ज्ञानवर्धन का एक माध्यम स्थापित कर पाते हैं। उसके बाद की जितनी भाषायें सीखी जाती हैं, वे एक दूसरे पर आरोपित होती रहती है। ज्ञान की कुछ छिटकन एक भाषा में, दूसरी छिटकन दूसरी भाषा में, एक सुभाषित एक भाषा में, दूसरा उद्धरण दूसरी भाषा में।
ज्ञान तो मस्तिष्क की परतों में अपनी जगह जाकर स्थापित होता रहता है, पर इन सीखी हुयी भाषाओं का क्या संघर्ष चलता होगा? कौन सी भाषा ऐसी होती होगी जो चिन्तन प्रकोष्ठ में जाकर अपना अधिकार जमा लेती होगी? कौन सी भाषा जाकर चिन्तन की मौलिक अदृश्य भाषा को विस्थापित कर चिन्तन की भाषा बन जाती हो? कौन किस भाषा में सोचता है, यदि एक से अधिक भाषा में सोचता हो तो कौन सी भाषा किन परिस्थितियों में प्रधान हो जाती हो? इन प्रश्नों का उत्तर बहुत कठिन है, क्योंकि इन पर कोई विधिवत शोध हुआ ही नहीं। जो भी आँकड़ा उपस्थित है, अनुभवजन्य है।
यह भी हो सकता है कि हम अपनी मौलिक भाषा में ही सोचते हों, पर जो ज्ञान हमने एकत्र कर रखा होता है, वह किसी विशेष भाषा में रहा होगा, अतः हमें उस भाषा विशेष में सोचने की अनुभूति होती होगी। उदाहरणार्थ यदि अध्यात्म के बारे में सोच रहे हों तो विचार संस्कृत में प्रवाहित होते प्रतीत होंगे। भौतिक विज्ञान के बारे में सोचेंगे तो अंग्रेजी में प्रवाह होता हुआ प्रतीत होगा। इन विषयों पर भी शोध होना शेष है कि यदि हम अध्यात्म और विज्ञान के सम्बन्धों के बारे में सोचेंगे तो विचारों का प्रवाह किस भाषा में होता हुआ लगेगा? संस्कृत में, अंग्रेजी में या मन की मौलिक भाषा में। एक बात और स्पष्ट होना आवश्यक है कि रटा रटाया कह देना चिन्तन नहीं है, मौलिक कहना चिन्तन है, तो वह मौलिक किस भाषा में सोचा जायेगा?
यह भी संभव है कि जब भी निर्णय लेने की बात होगी, ज्ञानदत्तजी को अंग्रेजी उद्धरण अधिक याद आते होंगे, प्रबन्धन के सूत्र अधिक याद आते होंगे, इसीलिये उन्हें लगता होगा कि वह अंग्रेजी में सोच रहे हैं। भावनात्मक विषयों पर अंग्रेजी कभी अपना स्थान बना नहीं पायी होगी, अतः उस विषय में हिन्दी में विचारशीलता प्रतीत होती होगी।
कल एक कार्यक्रम देख रहा था, कॉमेडी नाइट्स विद कपिल, उसमें किसी ने कहा था कि जिस भाषा में गाली निकलती है, वही आपकी असली भाषा है, वही आपकी चिन्तन की भाषा है। इसी तर्क को और बढ़ा दिया जाये तो जिस भाषा में आपके भाव बह निकलें वही आपकी चिन्तन की भाषा है।
यक्ष प्रश्न तो फिर भी रहा, कि चिन्तन की भाषा क्या है, मौलिक अदृश्य वाली या सीखी हुयी प्रथम भाषा या विषयगत ज्ञान देने वाली भाषा? आपके क्या विचार हैं, अपनी मौलिक भाषा में ही सोचकर बताइयेगा?
यह एक ऐसा विषय है जिस पर बहुत शोध, सुशोध, प्रतिशोध और महाशोध हो चुका है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों में तो नहीं पर कहते हैं कि बाइबिल में एक उद्धरण हैं कि सबसे पहले एक ही भाषा थी, उसका आधार पा सब जन संगठित भी थे। अब सब अपनी संगठित शक्ति में मदांध हो स्वर्ग के लिये एक सीढ़ी बनाने लगे। यह देवों को कहाँ स्वीकार था, उन्होंने मानवता को श्राप दे दिया और श्राप स्वरूप इतनी अधिक भाषायें दे दीं कि मानवता कभी संगठित ही न रह पाये। लगता है कि सीढ़ी बनाने वालों में सर्वाधिक उत्साही जन भारत के ही होंगे, तभी भारत को सर्वाधिक भाषाओं का श्राप मिला।
ज्ञानदत्तजी उन वृहदचेतनमना जनों की श्रेणी में आते हैं जिन्हें दो भाषाओं पर पूर्ण नियन्त्रण है, यहाँ तक, कि भाषा चिन्तन प्रक्रिया में धँस चुकी है। वैसे देखा जाये तो देशवासी बहुधा अपनी मातृभाषा ही जान पाते हैं, दूसरी भाषा तो काम चला लेने के भाव से सीखी जाती हैं। थोड़ी बहुत अंग्रेजी सीख जाने पर भौकाल उत्पन्न करने की पूरी संभावना रहती है, विशेषकर उन पर जो उसे अत्यन्त प्रभावकारी भाषा मानते हैं। उस जनमानस के लिये अंग्रेजी मुख या आँख की सीमाओं के अन्दर नहीं जा पाती है। एक सरल प्रयोग किया जा सकता है कि अंग्रेजी जानने का दंभ भरने वालों को एक अंग्रेजी पुस्तक पढ़ने को दी जाये और देखा जाये कि १५ मिनट तक कितने लोग उसका प्रकोप झेल पाते हैं। जो १५ मिनट से अधिक जगे रह पाये तो समझ लीजिये कि उनके अन्दर अंग्रेजी में चिन्तन करने के लक्षण जाग रहे हैं। सारी संभावनायें जोड़ ली जायें तो भी उनकी संख्या १५ प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।
विश्व में अधिकता एक भाषा बोलने वालों की ही है। जहाँ पर वैश्वीकरण के संपर्कक्षेत्र हैं, बस वहीं पर दो या दो से अधिक भाषा बोलने वालों की संख्या पनप रही है। अब भारत में इतनी भाषायें हैं कि एक भाषा समाप्त होते ही दूसरी प्रारम्भ हो जाती है, यहाँ पर दो भाषायें बोलने वालों की संख्या अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक होगी। यदि भारतीय भाषाओं के शब्दकोश पर दृष्टि डाली जाये और संस्कृत शब्दावली से उसका मिलान किया जाये तो दो पड़ोसी भाषाओं में भिन्नता का प्रतिशत १५ प्रतिशत से अधिक नहीं आयेगा।
विश्व में कितने प्रतिशत लोग दो या अधिक भाषा जानते हैं, इस बारे में कोई आधिकारिक आँकड़े नहीं मिले। अनुमान यही है कि २५-३० प्रतिशत ही ऐसे हैं जो दो या अधिक भाषा बोल पाते हैं। अब उनमें से ऐसे कितने हैं जिनका दो भाषाओं पर इतना सम अधिकार हो कि वे चिन्तन पटल पर अधिकार जमा लें, तो प्रतिशत सिकुड़ कर दशमलव के कुछ स्थान अन्दर चला जायेगा। ऐसे जनों को वृहदचेतनमना ही कहा जा सकता है, ऐसे लोग ही उत्कृष्ट अनुवादक हो सकते हैं, ऐसे लोग ही दो संस्कृतियों के बीच सेतुबन्ध हो सकते हैं, ऐसे लोग ही विश्व एकीकरण के प्रबल कारक हो सकते हैं।
दो या अधिक भाषा जानने वालों की यह संख्या देख सर्वाधिक निराश वे होंगे जिन्हें भाषायी विविधता विघटनकारी लगती है। उन्हें लगता है कि एकीकरण का एकमेव मार्ग भाषायी एकरूपता है, सांस्कृतिक एकरूपता है, धार्मिक एकरूपता है। इस एकरूपता के बिना कोई समरसता, सौहार्द या सहजीवन संभव नहीं है। विविधता में भी जीवन पल्लवित होता है, इस पर ध्यान देने की न ही उनकी मानसिकता है, न ही समय है और न ही मंशा है। शोध भी यही बताते हैं कि हमारा मन, हमारे भाव, हमारा चिन्तन किसी भाषा, संस्कृति, धर्म आदि से प्रभावित तो हो सकते हैं पर उनका अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व है। यही कारण है कि सर्वथा भिन्न जन भी एक दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक रह लेते हैं, समाज में व्याप्त विघटनकारी विष नित फैलने के बाद भी।
क्या हम किसी भाषा में चिन्तन करते हैं या चिन्तन की कोई अपनी ही भाषा होती है जो ईश्वर ने हमारे अस्तित्व में पूर्वबद्ध कर के भेजी है। पशु तो कभी कोई भाषा सीखते नहीं तो क्या वे सोचते भी नहीं हैं? एक बधिर व्यक्ति तो कभी कोई भाषा सीख ही नहीं पाता है तो क्या वह कभी सोचता ही नहीं? एक बच्चा जो अपनी माँ पर आँखें स्थिर कर उसे पहचान लेता है, क्या वह कुछ सोचता ही नहीं? यही प्रश्न चिन्तन की भाषा सम्बन्धी शोध के आधारभूत प्रश्न बने होंगे।
हम सबके अन्दर चिन्तन की एक भाषा पहले से ही विद्यमान है। भले ही उस भाषा को हम न समझ पायें और न ही उसे व्यक्त कर पायें, पर जब भी हम स्वयं से संवाद करते हैं, हम उसी भाषा का सहारा लेते हैं। विचार एक के बाद एक उसी भाषा में आते हैं। शरीर को संकेत भी उसी भाषा में मिलते हैं। प्यास लगती है, भूख लगती है, पीड़ा होती है, आनन्द होता है, संवेदना जागती है, क्रोध भड़कता है, दया उमड़ती है, सब का सब कार्य हमारी मूल भाषा में ही तो होता है। शिशु, बधिर, पशु आदि सभी तो स्वयं से बात करते ही होंगे, कुछ न कुछ तो संवाद अन्तरमन में चलता ही होगा। जिन्होंने कभी कोई भाषा ही नहीं सीखी, यदि उनकी बात भी छोड़ दें तो सिद्ध संगीतज्ञ, चित्रकार आदि किस भाषा में अपना मन रचते हैं, संभवतः वे विचारों की उस भाषा को समझने का प्रयास करते हों जो हमने कभी सुनी ही नहीं, उस समय के बाद, जब से हमने दूसरी भाषा का सहारा ले लिया।
इसका अर्थ यह हुआ कि जो भाषा हम सर्वप्रथम सीखते हैं, वह हमारी द्वितीय भाषा है, पर उस भाषा से हमारी आन्तरिक भाषा का प्राथमिक सम्बन्ध है। उसके माध्यम से हम जगत के साथ संवाद स्थापित करते हैं। सीखी हुयी भाषा सामाजिकता में सहयोगी भी है, उसके माध्यम से हम एक दूसरे को समझ पाते हैं, स्वयं को व्यक्त कर पाते हैं, सहजीवन का और ज्ञानवर्धन का एक माध्यम स्थापित कर पाते हैं। उसके बाद की जितनी भाषायें सीखी जाती हैं, वे एक दूसरे पर आरोपित होती रहती है। ज्ञान की कुछ छिटकन एक भाषा में, दूसरी छिटकन दूसरी भाषा में, एक सुभाषित एक भाषा में, दूसरा उद्धरण दूसरी भाषा में।
ज्ञान तो मस्तिष्क की परतों में अपनी जगह जाकर स्थापित होता रहता है, पर इन सीखी हुयी भाषाओं का क्या संघर्ष चलता होगा? कौन सी भाषा ऐसी होती होगी जो चिन्तन प्रकोष्ठ में जाकर अपना अधिकार जमा लेती होगी? कौन सी भाषा जाकर चिन्तन की मौलिक अदृश्य भाषा को विस्थापित कर चिन्तन की भाषा बन जाती हो? कौन किस भाषा में सोचता है, यदि एक से अधिक भाषा में सोचता हो तो कौन सी भाषा किन परिस्थितियों में प्रधान हो जाती हो? इन प्रश्नों का उत्तर बहुत कठिन है, क्योंकि इन पर कोई विधिवत शोध हुआ ही नहीं। जो भी आँकड़ा उपस्थित है, अनुभवजन्य है।
यह भी हो सकता है कि हम अपनी मौलिक भाषा में ही सोचते हों, पर जो ज्ञान हमने एकत्र कर रखा होता है, वह किसी विशेष भाषा में रहा होगा, अतः हमें उस भाषा विशेष में सोचने की अनुभूति होती होगी। उदाहरणार्थ यदि अध्यात्म के बारे में सोच रहे हों तो विचार संस्कृत में प्रवाहित होते प्रतीत होंगे। भौतिक विज्ञान के बारे में सोचेंगे तो अंग्रेजी में प्रवाह होता हुआ प्रतीत होगा। इन विषयों पर भी शोध होना शेष है कि यदि हम अध्यात्म और विज्ञान के सम्बन्धों के बारे में सोचेंगे तो विचारों का प्रवाह किस भाषा में होता हुआ लगेगा? संस्कृत में, अंग्रेजी में या मन की मौलिक भाषा में। एक बात और स्पष्ट होना आवश्यक है कि रटा रटाया कह देना चिन्तन नहीं है, मौलिक कहना चिन्तन है, तो वह मौलिक किस भाषा में सोचा जायेगा?
यह भी संभव है कि जब भी निर्णय लेने की बात होगी, ज्ञानदत्तजी को अंग्रेजी उद्धरण अधिक याद आते होंगे, प्रबन्धन के सूत्र अधिक याद आते होंगे, इसीलिये उन्हें लगता होगा कि वह अंग्रेजी में सोच रहे हैं। भावनात्मक विषयों पर अंग्रेजी कभी अपना स्थान बना नहीं पायी होगी, अतः उस विषय में हिन्दी में विचारशीलता प्रतीत होती होगी।
कल एक कार्यक्रम देख रहा था, कॉमेडी नाइट्स विद कपिल, उसमें किसी ने कहा था कि जिस भाषा में गाली निकलती है, वही आपकी असली भाषा है, वही आपकी चिन्तन की भाषा है। इसी तर्क को और बढ़ा दिया जाये तो जिस भाषा में आपके भाव बह निकलें वही आपकी चिन्तन की भाषा है।
यक्ष प्रश्न तो फिर भी रहा, कि चिन्तन की भाषा क्या है, मौलिक अदृश्य वाली या सीखी हुयी प्रथम भाषा या विषयगत ज्ञान देने वाली भाषा? आपके क्या विचार हैं, अपनी मौलिक भाषा में ही सोचकर बताइयेगा?
अंग्रेजी में सोंचने की कोशिश भी करें तो फेल हो जायेंगे ! यहाँ तो सब कुछ हिंदी में ...
ReplyDeleteचिंतन और विश्लेषण से उपजा एक महत्वपूर्ण आलेख |आभार सर
ReplyDeleteकिसी ने कहा था कि जिस भाषा में गाली निकलती है, वही आपकी असली भाषा है, वही आपकी चिन्तन की भाषा है। इसी तर्क को और बढ़ा दिया जाये तो जिस भाषा में आपके भाव बह निकलें वही आपकी चिन्तन की भाषा है।
ReplyDelete"इस चिन्तन में यह पंक्ति भी लिखी है और यही सारे सच का तोड़ है.... हम अपनी माता-पिता से जो पहला शब्द सीखते है, चाहे वह जिस भाषा में हो वही भाषा सोचने व निर्णय लेने में सहायक होती है "
आभार, प्रवीण भाई
चिंतन और मनन की संभवतः कोई भाषाई रूप होता होगा ऐसा प्रतीत नहीं होता है.। आपकी बात बिलकुल गौर करने योग्य है की पशु तो कभी कोई भाषा सीखते नहीं तो क्या वे सोचते भी नहीं हैं? एक बधिर व्यक्ति तो कभी कोई भाषा सीख ही नहीं पाता है तो क्या वह कभी सोचता ही नहीं? एक बच्चा जो अपनी माँ पर आँखें स्थिर कर उसे पहचान लेता है, क्या वह कुछ सोचता ही नहीं?
ReplyDeleteऐसा लगता है की जब चिंतन और मनन को वो मूर्त रूप में व्यक्त की जाती है तो उसे किसी न किसी आवरण में लपेटना ही होता है,जहा से भाषाओ बिभाजन सुरु होता है की आप अपनी भाषा में चिंतन करते है या किसी अपनाई हुई भाषा मे। जब चिंतन और अभिवयक्ति साथ-साथ हो तो ये प्रश्न और भी जटिल हो जाता है। अपना व्यक्तिगत अनुभव कहता है जहा हम मात्री भाषा ,राष्ट्र भाषा ,पेशागत भाषाओ के जाल में उलझे है चिंतन का आन्तरिक मूक भाषाई अभिव्यक्ति मात्री भाषा में ही होता है जिसे जरुरत के अनुसार बाहर बिभिन्न आवरणों में पड़ोसना पड़ता है।
अच्छी चिंतनीय आलेख धन्यबाद। ….
आम भारतीय हिंदी में ही सोचता बोलता है , मगर गुस्से में अंग्रेजी झाड़ता है !
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ReplyDeleteमैं जब गुस्सा हो कर डांटता हूं तब अंग्रेजी ही निकलती लेकिन अन्य समय हिन्दी ही याद रहती है।
ReplyDeleteविविधता में भी जीवन पल्लवित होता है, इस पर ध्यान देने की न ही उनकी मानसिकता है, न ही समय है और न ही मंशा है। शोध भी यही बताते हैं कि हमारा मन, हमारे भाव, हमारा चिन्तन किसी भाषा, संस्कृति, धर्म आदि से प्रभावित तो हो सकते हैं पर उनका अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व है। यही कारण है कि सर्वथा भिन्न जन भी एक दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक रह लेते हैं, समाज में व्याप्त विघटनकारी विष नित फैलने के बाद भी।
ReplyDeleteसारगर्भित आलेख है ....!!ईश्वर ने खुश रहने के लिए एक ही भाषा हम सब को सिखाई है ....आंदोलन (vibrations )की भाषा .......बाकी सब हमारा अपना बनाया हुआ है ....भ्रम जो हमें भ्रमित कर दुखी ही करता है ....इसलिए संगीत की भाषा,संगीत के नाद , प्रायः सब समझ सकते हैं ....
मेडिकल साइंस की मानेंगे तो दो वर्ष की आयु तक आते आते मनुष्य की आधी हाइट और आधी शब्दावली विकसित हो जाती है ।इस प्रकार मनुष्य के अपने जीवन अवधि में बुद्धि विकसित करने, सीखने की जो भी गुंजाइश बचती है वह इसी बाकी बचे आधे हिस्से में ही संभव है ।अब वह अपनी खुद की वाहवाही व तसल्ली के लिए जो भी दावा करे कि चूँकि गुस्सा आने पर उसके मुँह से गाली अंग्रेजी में निकलती है इसका मायने कि उसका दिमाग अंग्रेजी से लबालब है ।एक बात और, कहते हैं कि सबसे प्रभावशाली संवाद माँ और अबोध बच्चे के बीच होता है जहाँ कोई शब्द नहीं सिर्फ भावना व समझ काम करती है ।इसी प्रकार प्रेम, दया, करुणा भी किसी शब्द या भाषा की गुलाम व निर्भर नहीं हैं ।कुल मिलाकर यही निष्कर्ष निकलता है कि भाषा और शब्द हमारे जीवन, कार्य व्यवहार व भावना अभिव्यक्ति में मात्र एक उपयोगी सहायक हैं, न कि सब कुछ अथवा कोई जीवन मरण के कोई प्रश्न ।बहुत सुंदर व सार्थक चिंतन पूर्ण लेख ।
ReplyDeleteअंग्रेजी ,उर्दू तो ठीक हैं ,अच्छी तरह समझ लेता हूँ .पर अंतर्मन से चिंतन की भाषा ..हिंदी ही हैं |मेरे विचार से चिंतन की कोई धारा से ,भाषा का सम्बन्ध .................शायद सटीकता से स्थापित करना मुश्किल हैं |
ReplyDelete-डॉ अजय
सारगर्भित आलेख !!
ReplyDeleteचिंतन, मनन एवं रूदन अपनी भाषा में ही संभव हैं!
ReplyDeleteसुन्दर आलेख... सारगर्भित विश्लेषण!
आज लोग सोचते हिन्दी में पर गाली देते है अंग्रेजी में..यहाँ तक कि अपने कुत्तों के साथ भी अंग्रेजी..
ReplyDeleteविचारणीय आलेख
ReplyDeleteमैं विचार क्या दूँ
ख़ुद
भोजपुरी में बात शुरू करती हूँ तो हिन्दी में अंत करती हूँ
हिन्दी में बात शुरू करती हूँ तो भोजपुरी में अंत करती हूँ
Wah kya baat he
ReplyDeleteगालियाँ तो हमें भी संकृतनिष्ठ ही सूझती है !
ReplyDeleteजिस भाषा में सोचते है वही अपनी भाषा . सत्य वचन .
ReplyDeleteचिंतन की कोई
ReplyDeleteभाषा नहीं भाव होते हैं ब उन भाव को बताया जाता हैं भाषा के माध्यम से।
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ReplyDeleteinteresting read. really got me think.. in Hindi or in English..
ReplyDeletewell I don't know :P
I think the language in which one can oversimplify his/her feelings is the one which means most.
चिंता यह नहीं है कि चिंतन की भाषा क्या , प्रश्न यह है की निर्णय लेनी की भाषा अंग्रेजी है , जो कि प्रकारांतर से यह सिद्ध करना चाहती है कि अंग्रेजी जानने वाले ही नहीं अंग्रेजी में सोचने वाले ही निर्णय ले सकते हो , अब यह कुछ एशा है की परमात्मा जो की निर्विकार है वाही आपका निर्णय लेगा , तो आप निर्णय लेने की प्रक्रिया कोआउटसोर्स करिए उन्हें जिन्हों ने अंग्रेजी में सोचा है जो कि स्वाभाविक है वह मेरे पास नहीं होगी या मुझे सार्वजानिक रूप से कहना होगा कि मै अंग्रेजी में सोचता हु , हम जो हिंदी में सोच कर अपना घर चलाते है वो तो इस चक्र्विह्व में फस जांयगे पर अंग्रेज नहीं फसेगा गा मित्र हम जाने अनजाने में निर्णय लेने की शक्ति को उन लोगो को दे रहे है जो कुछ उल्टा सीधा शोध कर इस तरह के सिन्ध्न्तो को बनाते है, संदर्भित शोध के ऊपर ऊपर बहुत से लेख है कृपया अध्यान करके आलेख लिखे मेरा आग्रह है.
ReplyDeleteहम हर बार हिंदी से आगे नहीं बढ़ पाते ... मुझे लगता है बचपन में जिस भाषा में बात, सोच और व्यवहार होता है शायद चिन्तन, मनन, सोच भी उसी भाषा में होती है ...
ReplyDelete
ReplyDeleteलोग जब लिखते हैं ,बोलते हैं तो अपनी भाषा में ही सोचते है .गुस्से में सोचने की जरुरत कहाँ पड़ती है ? इसीलिए लोग अंग्रेजी में गाली देते हैं .गाली तो बिना ग्रामर के भी चल सकता है
latest post: भ्रष्टाचार और अपराध पोषित भारत!!
latest post,नेताजी कहीन है।
भाव को भाषा अभिष्ट नहीं है , चिन्तन के लिए भाषा चाहिए । चिन्तन के लिए Input चाहिए . Input जिस भाषा मे है Processing भी उसी भाषा मे होगी, देखने वाली बात है कि आप तथ्य को ग्रहण किस भाषा मे करते हैं सीधे English में या हिन्दी में convert कर के । जहाँ तक शब्दों का सवाल है तो वे अपने अर्थ के साथ चिपक कर भाषाओं को transcend कर सकते हैं ।
ReplyDeleteरही बात गालियों की तो वो आप दूसरी भाषाओं में सहजता से प्रयोग कर सकते हो
क्योंकि अपनी भाषा से प्रारंभ से ही गाली के साथ guilt जुड़ा होता है । परंतु त्वरित आवेग की अभिव्यक्ति अपनी भाषा मे होती है । शब्द यहाँ भी अन्य भाषाओं से हो सकते हैं जैसे - O! Shit. O! My god. Please.
स्वाभाविक रूप से बचपन में बोली समझी गई भाषा में ही विचार आते हैं पर जब किसी से झगडना हो तो कामेडी नाईटस विद कपिल वाली ही बात सही लगती है.
ReplyDeleteरामराम.
एक बात और स्पष्ट होना आवश्यक है कि रटा रटाया कह देना चिन्तन नहीं है, मौलिक कहना चिन्तन है, तो वह मौलिक किस भाषा में सोचा जायेगा?................महत्वपूर्ण और विचारणीय चिंतन। गालीवाली बात पर आएं तो मातृभाषा में ही मौलिक चिंतन-भावन हो सकता है।
ReplyDeleteचिंतन मनन अपनी ही मातृ भाषा में हो पाता है ...लेकिन इस सीखिए जाने वाली भाषा को भी आपने द्वीतीय स्थान पर रखा है यह विचारणीय बात है ... सारगर्भित लेख ।
ReplyDeleteमन स्वाभाविक रूप से वो राह पकड़ लेता है जो शुरू से देखी है .... भाषा और सोचने विचारने का सम्बन्ध भी संभवतः ऐसा ही है ....
ReplyDeleteभाषा गत सुन्दर विश्लेषण..
ReplyDeleteमैं समझता हूं चिंतन के लिए कोई शुद्ध स्वरूप भाषा नहीं होती। सटीक शब्दों का उद्भवता ही चिंतन में होती है। यदि हमारे चेतन में एकाधिक भाषाएं है तो मिश्रित किन्तु भिन्न भिन्न भाषाओं के उपयुक्त शब्दों का समूह चिंतन में हो सकता है।
ReplyDeleteजिस भाषा में कमांड हो चिन्तन के लिए वही भाषा सही है ,,
ReplyDeleteRECENT POST : तस्वीर नही बदली
कठिन सवाल है, सर्वमन्य हल मिलना कठिन ही लग रहा है।
ReplyDeleteदुःख के अतिरेक में जो भाषा मुंह से निकले, चिन्तन उसी भाषा में संभव है..
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख है.
ReplyDelete'गाली' से याद आया, …….
ReplyDeleteअकबर के दरबार में एक विद्वान आये, बहु भाषा भाषी और हर भाषा पर पूरी कमाण्ड और चुनौती दे दी कि सुन के बताओ मेरी मातृभाषा कौन सी है ? एज यूज्युअल काम बीरबल को सौंप दिया गया। बीरबल अपने गुरु जी चौबे जी के पास जा कर तिकड़म सीख आये। अगली भोर यह विद्वान सोये हुये थे, बीरबल ने जा कर ये बालटा भर पानी उस पर डाल दिया। विद्वान महाशय गुस्से में तिलमिला कर उठे और बोले 'तुझी आई ची ……' और दरबार लगते ही बीरबल ने उन विद्वान की मातृभाषा का खुलासा कर दिया।
इति श्री ब्लोगस्पोट खण्डे प्रवीण पुराणे मातृभाषा चेकिंग कर्णे फालतू अध्याय
मैं तो इस मामले में घनघोर कन्फ़्यूजन का शिकार होता रहा हूँ। मुझे ले-देकर तीन भाषाएँ व बोलियाँ आती हैं- भोजपुरी, हिंदी और अंग्रेजी। इनको सीखने का क्रम भी यही रहा। यदि मुझे अपने गाँव-घर का मिल जाता है तो बरबस ही, अनायास ही भोजपुरी में शुरू हो जाता हूँ। सोचने से लेकर बोलने तक। सरकारी काम-काज से लेकर पढ़े-लिखे समाज में हिंदी का सहज प्रयोग होता रहता है। यदि कुछ ऐसे अंग्रेजी बोलने वाले मिल जाते हैं जिन्हें हिंदी भी आती है तो उनसे अंग्रेजी वार्तालाप करने में मैं असहज महसूस करता हूँ। शायद इसलिए कि सोचने और बोलने में अनुवाद की प्रक्रिया होती रहती है। लेकिन आश्चर्य तब होता है जब किसी गैर हिंदी भाषी ‘अंग्रेज’ से बात करनी हुई तो बहुत सहज होकर अंग्रेजी में ही बात करता रहा। शायद सोचना भी अंग्रेजी में ही होता रहा। कभी परेशानी नहीं महसूस हुई।
ReplyDeleteआप इस विचित्र प्रक्रिया को कैसे व्याख्यायित करेंगे।
एक बात और- मैं आज भी सबसे सहज भोजपुरी में महसूस करता हूँ, विचार संप्रेषण हेतु सबसे दक्ष हिंदी में महसूस करता हूँ और शिक्षा-प्रतियोगिता आदि में सबसे सफल अंग्रेजी माध्यम में रहा हूँ। इसका अर्थ यह है कि भाषा सिर्फ़ एक औंजार है जिसका प्रयोग सब लोग अपने paradigm (इसकी हिंदी नहीं सूझ रही-शायद परिप्रेक्ष्य) के अनुसार करते हैं।
यह हुयी न बात -मैंने देखा है कि प्रतिभाशाली लोग अपनी मातृभाषा में ही सहज महसूस करते हैं -हाँ विद्वता झाड़ने की भाषा कोई भी हो सकती है -फिलहाल तो सिद्धार्थ जी को इस मापदंड पर इच्छा या अनिच्छा से विद्वान तो मानना ही पड़ेगा :-)
Deleteज्ञानदत जी ने बात तो बड़ी ऊंची की थी मगर यह नहीं बताया कि आखिर में निष्कर्ष कौन सी भाषा में निकलता है ! :)
ReplyDeleteसामयिक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteनई सी सोच और नई सी बात परन्तु जिज्ञासा अभी शांत हुई । शायद अंतर्मन में भाषा के अभाव में चित्र गतिमय होते होंगे (जैसे अबोध बच्चों अथवा पशु पक्षियों के मन में ) । भाषा आने पर वो ही चित्रावली शब्द और वाक्य बन जाती होगी ।
ReplyDeleteजो भाषा हम सर्वप्रथम सीखते हैं, वह हमारी द्वितीय भाषा है, पर उस भाषा से हमारी आन्तरिक भाषा का प्राथमिक सम्बन्ध है। --सच है ..
ReplyDelete--वास्तव में चिंतन की अपनी स्वयं की भाषा होती है जो अनुभव-सूत्रों से उपलब्ध होती है यह आत्मतत्व की भाषा है ....चिन्तनोपरान्त उसे व्यक्त करने हेतु व्यक्त-भाषा की आवश्यकता होती है|... वाणी -चार प्रकार की होती हैं...
१,परा --आत्मा की आत्मचिंतन ,
२.पश्यन्ति-ह्रदय---आत्मा से ह्रदय पटल पर व्याख्यायित होती हुई....
३.मध्यमा -मन में तत्वों-भावों का संयोजन करती हुई ....
४.बैखरी - मुख.... व्यक्त भाषा मुख द्वारा बोली जाने वाली .. इसलिए कवि ने कहा है--"ह्रदय तराजू तौल के तब मुख बाहर आनि "
--अतः भावों, तथ्यों को अंतर्मन में संयोजित करके व्यक्त भाषा में कहा जाता है ...सोचें चाहे जिस भाषा में परन्तु व्यक्त उसी भाषामें होता है जो सहज प्रयोग में लाई जाती रही है...
-----सीखी जाने वाली प्रथम भाषा-मातृभाषा में अभिव्यक्ति सहज, स्वाभाविक होती है| परन्तु उच्च ज्ञान-चिंतन हेतु जिस भाषा में विविध ज्ञान-प्राप्ति की जाती है एवं सामान्यतया प्रयोग में लाई जाती है उसी में चिंतन व अभिव्यक्ति सहज होने लगती है |
जड़ चेतन में अभिव्यक्ति बिखरी पड़ी है। सामर्थ्य के अनुसार हम शब्द देते हैं। शब्द उसी भाषा के होते हैं जिनका हम अधिक प्रयोग करते हैं। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। किसी ने कहा कि यदि तुम अच्छी अंग्रेजी सीखना चाहते हो तो अंग्रेजी में सोचना शुरू करो..मगर हम लाख प्रयास के बाद भी हिंदी में ही सोच पाते हैं।
ReplyDeleteहमारे आवेग जिस भाषा में सहज हो बहते हैं रोके नहीं रुकते एक भाषा वह होती है। यही वह भाषा है जिसके हम मुहावरे से भी परिचित रहते हैं। हम हिंदी भाषी लोगों की कह रहे हैं। टाइम्स आफ इंडिया का तीसरा सम्पादकीय अति क्लिष्ट हुआ करता था। किम्वंद्न्तियों और अंग्रेजी के मुहावरों साहित्य अंशों महा कवियों द्वारा प्रयुक्त अभिनव शब्दों से ,उसे समझने के लिए बेहद के पापड़ बेलने पड़ते थे इसी क्रम में हमारे पास अनेक शब्दकोशों का आगार लग गया ऑक्सफोर्ड से एनकार्टा तक लेकिन बात भी तब भी पूरी बनती कहाँ थी हम पूरा सम्पादकीय चाट ही नहीं पाते थे जिसे हम पूरा चाट सकें वहीँ हमारी चिंतन धारा में पैठेगी अंग्रेजी हो या हिंदी।ॐ शान्ति
ReplyDeleteमैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ वह गजल आपको सुनाता हूँ।
जिसे हम ओढ़ बिछा सकें जिसमें छींक मार सकें वही निज भाषा है। ॐ शान्ति।
चिंतन और उसका संप्रेषण दो अलग प्रक्रियां हैं...चिंतन की कोई भाषा नहीं, और उसका संप्रेषण किसी भी भाषा में जिसमें आप कुशल हैं किया जा सकता है...बहुत सारगर्भित आलेख...
ReplyDeleteभाषा तो वाहन मात्र है। अब चाहे वो खुद के जाने के लिए हो या दुसरे को ले जाने के लिये। Let it be bus, truck, train or walk it doesn't matter. If purpose of communication is solved than language is secondary। इसलिए धव्नियों को ही भाषा तक सिमित न रखे। हाव भाव भी बहुत कुछ कह जाते है। Every person can have different choice of vehicle.So same could be applied to thoughts. You will use most comfortable vehicle to carry your thoughts at that time. अब आप फॅमिली के साथ फिल्म जाने के लिए सायद कार का साथ ले और स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए साइकल का, इसका निर्णय तो काम की सफलता पे है। मेरा तो जो विचार जिस भाषा में अच्छा समझ आए वो ही उत्तम है। वैसे आज कल Hinglish भी खूब प्रचलित है। बहशा आती जाती रहेगी बस बातचीत बनी रहनी चाहिए।
ReplyDelete-sushil (http://khaalibheja.blogspot.com/)
जो भाषा हमारे लिये सबसे स्वाभाविक हो उसी में मन के ऊहापोह जागते हैं ,और अनायास आनेवाले विचार भी उसी में चलते हैं -अपनी मातृभाषा ही सबसे सहजगम्य होती है जैसे हमारे लिये हिन्दी !
ReplyDeleteभाषा तो वही है जो जन्म से मिली हो -मुझे आश्चर्य होता है कि लोग मां से न जुड़ कैसे मेम से जा जुड़ते हैं -जरुर उनके मातृत्व में कहीं कोई बड़ी रिक्तता रह जाती होगी !
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ReplyDeleteमैं ज्ञान अंग्रेजी से उठाता हूँ उसे हिंदी में समझता हूँ समझाता हूँ। ज्ञान और सूचना की खिड़की अपने अपने क्षेत्र में कोई भी भाषा हो सकती है लेकिन चिंतन की भाषा तो निज भाषा ही होगी। अंग्रेजी का कोई वाक्य विन्यास भले आपको लुभाए लेकिन वह हिंदी का अलंकार नहीं बन सकता। मन का गहना कैसे बनेगा राम जाने।
केवल मातृ भाषा मे ही चिन्तन हो पाता है।
ReplyDeleteचिन्तन और गुणा भाग, पहाड़ा सब हिन्दी में... :)
ReplyDeleteभाषा कोई भी हो, बस सोच सही दिशा में जाये।
ReplyDeleteइस बात का ख्याल रखना ज्यादा ज़रूरी है।
अतिउत्तम :)
Deleteचिंतन उसी भाषा में होता है जिसमें आपका मन रचा हो । सुशीला मेरी मराठी भाषी सहेजी जो कलकत्ता में लड़कियों के हॉस्टल में रहती थी मुझे बताया करती थी कि आशा,मुझे तो आजकल सपने भी बंगला में ही आते हैं ।
Deleteजिस भाषा पर हमारी पकड़ अच्छी होती है,या यूँ कहा जाये कि जिस भाषा की हमारे मन में गहरी पैठ होती है, हम उसी भाषा में स्वयं को ज्यादा सहज पाते हैं। वही भाषा हमारे अंतर्मन की भाषा होती है. संभवतः यह मातृभाषा होती है.
ReplyDeleteमन की समझ .... जहाँ आप सहज़ हों
ReplyDeleteहमेशा की तरह उत्कृष्ट आलेख
Bhashaein to bahut hain par maatr bhasha waali mithaas kahin nahi milti...
ReplyDeleteमेरी दृष्टि में भावुकता के क्षण में हमारे भीतर की मूलप्रवृत्तियाँ प्रभावी हो जाती हैं। व्यक्त व्यवहार में मूलप्रवृत्तियाँ सामूहिक चेतना से गहरे सम्बद्ध होने के कारण हमेशा अपने निज भाषा का वरण करती हैं। वजह यह कि हमारे संस्कार-बोध, परवरिश और परिवेश के पाश्र्व में हमारी अपनी मातृभाषा ही टंकी होती हंै। दरअसल, व्यक्ति के मूलप्रवृत्तियों का पोषण जिस भाषा में हुआ होता है या कि उसके भूख, प्यास, निद्रा इत्यादि की देखभाल, सुरक्षा और क्रमिक विकास के लिए जिस भाषा को व्यवहार में लाया गया होता है; भावावेश या मनोवेश के क्षण में वही भाषा प्रकट होती है। ‘गाली देना’ एक ऐसी ही क्षुद्र स्थिति है। देखना होगा कि भाव, संवेग, प्रेरण और प्रत्यक्षीकरण की मात्रा इस भाव-स्थिति में बहुलांश पाई जाती है। मौलिक चिन्तन के लिए भी यही सबसे उपयुक्त क्षण माना जाता है; क्योंकि इस घड़ी हमारी मूल-प्रवृत्तियाँ के साथ मानसिक सम्प्रत्यय भी सक्रिय एवं संयुक्त होते हैं। ऐसे में हम अथाह को थाह पाते हैं; अनचाहे को चाह पाते हैं; अनजाने को जान पाते हैं। यहाँ तक कि खुद से जिरह या खुद की ज़लालत/मलालत भी हम इसी क्षण में कर पाते हैं। स्मरण रखना होगा कि मूलप्रवृत्तियाँ मनुष्य के भीतरी कोख से प्रसूत होती हैं। अतः हमारा प्रकट व्यवहार सार्वभौमिक एकत्व को प्रमाणित एवं संपुष्ट करता है। इसी तरह चिन्तन में मानसिक-सम्प्रत्यय जिस भाषा में सर्वाधिक अनुभूतिपरक/अभिव्यक्तिपरक दक्षता-दृष्टि हासिल किए होते हैं; उसी भाषा में स्थूल-रूप ग्रहण करते हैं। जिस तरह बाँयें हाथ से लिखने का आदती व्यक्ति दाएँ हाथ से लिखने में कठिनाई महसूस करता है; उसी तरह जो जिस भाषा में जितना प्रवीण और अभ्यस्त है उसके चिन्तन के बिम्ब, प्रतीक, संकेत, प्रतिमा या अन्यान्य अर्थच्छवियाँ उसी भाषिक-प्रवाह में सहजतम ढंग से अभिव्यक्त अथवा अभिव्यंजित हो पाते हैं। इसका ज्ञान के स्तर, शुद्धता या मौलिकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। चिन्तन वास्तव में आन्तरिक सम्भाषण है जो प्रत्येक भाषा में उच्चतम बिन्दु तक पहुँच कर किसी चयनित विषय या समस्या के सम्बन्ध में तार्किक/बौद्धिक हल के लिए विशिष्ट उद्बोधन प्राप्त करता है। यह उद्बोधन हमारे साधारण चित्त-व्यवहार से अलहदा अर्थ सिरजते हैं; इस कारण हम इनकी उपस्थिति को अधिक महत्त्व देते हैं या स्वीकारते हैं। जहाँ तक अच्छे/बुरे निर्णय लेने का प्रश्न है तो इसके लिए चिन्तन की प्रक्रिया तक पहुँचने की आवश्यकता ही नहीं है....स्थिर चित्त का होना ही काफी है। खैर! इस बहस को और आगे बढ़ाने की जरूरत है ताकि वास्तविक सत्य तक हम अपनी यात्रा तय कर सकें।
ReplyDeleteआपका यह ब्लाॅग चिन्तनपरक और ज्ञानतत्त्व से सम्पन्न है; इसके लिए आपको बहुत-बहुत साधुवाद! इस ब्लाॅग पर दिए जाने वाले सामग्री के संपादन-निर्धारण का निर्णय आपने चाहे अंग्रेजी में लिया हो या हिन्दी में...आपका निर्णय बिल्कुल मौलिक है।
आपकी इस ब्लॉग-प्रस्तुति को हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ ( 6 अगस्त से 10 अगस्त, 2013 तक) में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।
ReplyDeleteकृपया "ब्लॉग - चिठ्ठा" के फेसबुक पेज को भी लाइक करें :- ब्लॉग - चिठ्ठा