भाषा से उत्पन्न तरंग मन के मार्ग से होते हुये तुरीय अवस्था तक पहुँच गयी। तरंग यदि सीमित होती तो चर्चा संभवतः दो या तीन पोस्ट में समाप्त हो गयी होती। यह ऐसा विषय है, जिसका बाहरी छोर तो दिखता है, पर दूसरा छोर जो मन के भी परे छिपा है, उसकी थाह नहीं मिलती है। विचारों की तरंग को न जाने कहाँ से ऊर्जा मिलती जा रही है, स्वतःस्फूर्त ऊर्जा, आरम्भिक उत्सुकता अभी तक बनी हुयी है। मन को जितना शब्दों में समेटने का प्रयास कर रहा हूँ, मन उतना ही फैलता जा रहा है। यदि सोचता हूँ कि इस विषय को विश्राम मिले तो अन्दर से एक अट्टाहस सा उठता है, मानो कह रहा हो कि यह विषय प्रारम्भ करने के पहले ही सोचना था। अब, जब इस अंधकूप में छलांग मार दी है तो बिना तलहटी छुये वापस आने का क्या अर्थ?
जिज्ञासा हो गयी है तो वह तब तक बनी रहेगी जब तक शमित नहीं हो जाती है। व्यक्तिगत अनुभव व ज्ञान का लम्बा मार्ग है यह, पर अब तक के अध्ययन में कुछ अद्भुत सिद्धांत मिले हैं, जिनकी चर्चा विषय को सम्यक रूप से प्रतिष्ठित करने के लिये आवश्यक है। योगियों और आत्मदृष्टाओं ने जो भी अनुभव किया और शब्दों की सीमित शक्ति उस अव्यक्त को जितना और जिस रूप में व्यक्त कर पायी, उसे अपनी सीमित समझ के अनुसार यथावत रख रहा हूँ, केवल एक सिद्धान्त ही बता रहा हूँ। यह सिद्धान्त नाम रूप भेद का है। इसे समझ सकेंगे तो कल्पवृक्ष, शब्दब्रह्म, इन्द्र की सहस्र आँखें, मंत्रशक्ति, नाम लेते ही ईश्वर के उपस्थित हो जाने जैसे कई रहस्य समझा सकेंगे।
इस जागृत विश्व में जितनी भी वस्तुयें या व्यक्ति हैं, सबका एक नाम होता है, उस नाम का उच्चारण होता है जिसे शब्द कहते हैं। साथ ही साथ उस वस्तु या व्यक्ति का एक आकार होता है, जिसे रूप कहते हैं। जो चीजें स्थूल नहीं होती हैं, जैसे भाव, उनका भी एक आकार होता है जिन्हें चेहरे की भंगिमाओं से संबद्ध किया जा सकता है। इस प्रकार हर मूर्त या अमूर्त वस्तु का रूप होता है। नाम, शब्द और रूप तीनों ही भिन्न तत्व हैं, तीनों ही अनुभव के भिन्न स्तरों पर हैं। एक भाषा के स्तर पर, एक शाब्दिक उच्चारण के स्तर पर और एक स्थूल स्तर पर। यदि इन तीनों में कोई संबंध है तो वह मनोवैज्ञानिक है जो कि हम सबके मन में बना रहता है। किसी एक के उपस्थित होते ही, मन में शेष दो भी आ जाते हैं। नाम पढ़ने से मन समझ लेता है कि इसका उच्चारण क्या होगा, इसका रूप क्या होगा? जो भी संबंध मन स्थापित कर ले, पर नाम और रूप भिन्न है, उनमें भेद है।
योगी कहते हैं कि चेतना के विश्व में नाम और रूप में भेद नहीं है या कहें कि अनुभव के ये दोनों स्तर एकरूप हैं। किसी भी व्यक्ति या वस्तु के नाम में ही वह व्यक्ति या वस्तु विद्यमान है। यदि उदाहरण से समझें तो यदि हम जलेबी कहते हैं तो सामने जलेबी उपस्थित हो जायेगी। यदि हम भय के बारे में सोचेंगे तो भयकारक प्रेत उपस्थित हो जायेंगे। हम किसी व्यक्ति को याद करेंगे और वह व्यक्ति सम्मुख होगा। उस व्यक्ति के बारे में प्रेम का चिन्तन करेंगे और वह हमारा प्रेम अनुभव कर लेगा। यह कल्पना करना थोड़ा कठिन लग रहा है। हमारी बुद्धि जागृत विश्व की नाम और रूप की अवधारणा से उतनी ग्रसित है कि यह सिद्धान्त समझने में कठिनता स्वाभाविक है। जब से मैंने यह सिद्धान्त पढ़ा है, चेतना के विश्व की धुँधली छवि क्षणिक बनती है और शीघ्र ही लुप्त हो जाती है।
अनुभवजन्य यह निष्कर्ष काल्पनिक लग सकता है, पर यह अतार्किक नहीं है। वैज्ञानिक प्रयोगों में यह देखा गया है कि जो भी संकेत हम ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण करते हैं, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध के द्वारा, सब के सब विद्युत तरंगों के रूप में हमारे चित्त में जाता है। देखा जाये तो इसी स्तर पर ही सब प्रकार के संकेतों का एकाकार हो जाता है। आध्यात्मिक विश्व में वह संचयन कैसे प्रक्षेपित होता होगा और वहाँ व्यवहार किस प्रकार होता होगा, यह अब भी अचिन्त्य है।
जागृत विश्व से हमारी चेतना का संवाद १९ माध्यमों से होता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण के चार भाग और पाँच प्रकार की वायु जिससे सारा शरीर संचालित होता है। स्वप्न में भी ये १९ माध्यम उपस्थित रहते हैं, पर संवाद अन्तर्मुखी हो जाता है। सुसुप्ति अवस्था में कोई माध्यम नहीं रहता है, अन्तःकरण के सारे भाग एकरूप हो जाते हैं और केवल चेतना रहती है। वही आनन्द होती है, वही आनन्दकारक होती है और वही आनन्द भोगती भी है। इस प्रकार देखा जाये तो माध्यमों की अनुपस्थिति में नाम रूप का भेद न रहना तार्किक तो है, पर मात्र चेतना का वह विश्व कितना रहस्यमयी होगा, यह कल्पना करना बड़ा ही कठिन है।
जिस विश्व में नाम रूप का भेद नहीं वहाँ पर आप जो भी इच्छा करेंगे, जो भी कहेंगे, वह अपने रूप में आ जायेगा। वहाँ पर शब्द सशक्त और असीम ऊर्जायुक्त हैं और अपने अर्थ में आकार ग्रहण गढ़ लेते हैं। यही कल्पवृक्ष का सिद्धान्त है कि आप जो भी माँगे, वह आपको मिल जाता है। माण्डूक्य उपनिषद के अनुसार प्रणव ऊँ आदि ध्वनि हैं, वही ब्रह्म है और उसी से सारी सृष्टि निर्मित हुयी है। नाम रूप का भेद न होने से शब्द के द्वारा वस्तु की उत्पत्ति संभव है। इसी प्रकार चेतना के विश्व के बारे में वर्णित अन्य कल्पना सी लगने वाली बातें इस सिद्धान्त से सुलझती सी लगती हैं।
अब हम किस विश्व को यथार्थ माने? जागृत विश्व को, जहाँ पर हम सब एक दूसरे को समझते हैं और व्यवहार करते हैं? या स्वप्न अवस्था को जिसे चित्रकार और संगीतकार अतियथार्थ मान समझने का प्रयास करते रहते हैं? या सुसुप्ति अवस्था को, जहाँ कोई माध्यम नहीं है, जहाँ कारण-प्रभाव का भेद नहीं है, जहाँ नाम रूप का भेद नहीं है? या फिर तुरीय स्थिति को, जहाँ पर हम विश्व चेतना से एकाकार हो अपना स्वरूप खो देते हैं।
जो अनुभव शब्दों के द्वारा व्यक्त न किया जा सके, उसे शब्दों की सीमितता से व्यक्त करना बड़ा कठिन कार्य है। विशेषकर वहाँ, जहाँ पर ज्ञान के सारे संकेत एक चेतना में मिलकर एकाकार हो जाते हों, जहाँ नाम और रूप में भेद न रहता हो। चेतना जगत के लोग भी सोचते होंगे कि जो संवाद वे चेतना के एक माध्यम से करते हैं, उसके लिये स्थूल विश्व में प्रकृति ने १९ माध्यम दे रखे हैं, हमारे ज्ञान को सीमित रखने के लिये या आनन्द को श्रमसाध्य बनाने के लिये? हमारे विश्व का जो संप्रेषण अत्यधिक कोलाहल से भरा है, चेतना जगत में स्पष्टतम होता होगा। जिन सिद्धान्तों को समझने में हम मूढ़़ से जूझते रहते हैं, जिस शान्ति को पाने के लिये हम सम्मेलन पर सम्मेलन करते रहते हैं, चेतना जगत में वह सहज ही होता होगा।
काश नाम रूप में यहाँ पर भी भेद न होता, तब मैं यहाँ पर विचार करता और आपके बताने के बारे में जैसे ही सोचता, विचार आपके मन में स्पष्ट हो जाता।
जिज्ञासा हो गयी है तो वह तब तक बनी रहेगी जब तक शमित नहीं हो जाती है। व्यक्तिगत अनुभव व ज्ञान का लम्बा मार्ग है यह, पर अब तक के अध्ययन में कुछ अद्भुत सिद्धांत मिले हैं, जिनकी चर्चा विषय को सम्यक रूप से प्रतिष्ठित करने के लिये आवश्यक है। योगियों और आत्मदृष्टाओं ने जो भी अनुभव किया और शब्दों की सीमित शक्ति उस अव्यक्त को जितना और जिस रूप में व्यक्त कर पायी, उसे अपनी सीमित समझ के अनुसार यथावत रख रहा हूँ, केवल एक सिद्धान्त ही बता रहा हूँ। यह सिद्धान्त नाम रूप भेद का है। इसे समझ सकेंगे तो कल्पवृक्ष, शब्दब्रह्म, इन्द्र की सहस्र आँखें, मंत्रशक्ति, नाम लेते ही ईश्वर के उपस्थित हो जाने जैसे कई रहस्य समझा सकेंगे।
इस जागृत विश्व में जितनी भी वस्तुयें या व्यक्ति हैं, सबका एक नाम होता है, उस नाम का उच्चारण होता है जिसे शब्द कहते हैं। साथ ही साथ उस वस्तु या व्यक्ति का एक आकार होता है, जिसे रूप कहते हैं। जो चीजें स्थूल नहीं होती हैं, जैसे भाव, उनका भी एक आकार होता है जिन्हें चेहरे की भंगिमाओं से संबद्ध किया जा सकता है। इस प्रकार हर मूर्त या अमूर्त वस्तु का रूप होता है। नाम, शब्द और रूप तीनों ही भिन्न तत्व हैं, तीनों ही अनुभव के भिन्न स्तरों पर हैं। एक भाषा के स्तर पर, एक शाब्दिक उच्चारण के स्तर पर और एक स्थूल स्तर पर। यदि इन तीनों में कोई संबंध है तो वह मनोवैज्ञानिक है जो कि हम सबके मन में बना रहता है। किसी एक के उपस्थित होते ही, मन में शेष दो भी आ जाते हैं। नाम पढ़ने से मन समझ लेता है कि इसका उच्चारण क्या होगा, इसका रूप क्या होगा? जो भी संबंध मन स्थापित कर ले, पर नाम और रूप भिन्न है, उनमें भेद है।
योगी कहते हैं कि चेतना के विश्व में नाम और रूप में भेद नहीं है या कहें कि अनुभव के ये दोनों स्तर एकरूप हैं। किसी भी व्यक्ति या वस्तु के नाम में ही वह व्यक्ति या वस्तु विद्यमान है। यदि उदाहरण से समझें तो यदि हम जलेबी कहते हैं तो सामने जलेबी उपस्थित हो जायेगी। यदि हम भय के बारे में सोचेंगे तो भयकारक प्रेत उपस्थित हो जायेंगे। हम किसी व्यक्ति को याद करेंगे और वह व्यक्ति सम्मुख होगा। उस व्यक्ति के बारे में प्रेम का चिन्तन करेंगे और वह हमारा प्रेम अनुभव कर लेगा। यह कल्पना करना थोड़ा कठिन लग रहा है। हमारी बुद्धि जागृत विश्व की नाम और रूप की अवधारणा से उतनी ग्रसित है कि यह सिद्धान्त समझने में कठिनता स्वाभाविक है। जब से मैंने यह सिद्धान्त पढ़ा है, चेतना के विश्व की धुँधली छवि क्षणिक बनती है और शीघ्र ही लुप्त हो जाती है।
अनुभवजन्य यह निष्कर्ष काल्पनिक लग सकता है, पर यह अतार्किक नहीं है। वैज्ञानिक प्रयोगों में यह देखा गया है कि जो भी संकेत हम ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण करते हैं, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध के द्वारा, सब के सब विद्युत तरंगों के रूप में हमारे चित्त में जाता है। देखा जाये तो इसी स्तर पर ही सब प्रकार के संकेतों का एकाकार हो जाता है। आध्यात्मिक विश्व में वह संचयन कैसे प्रक्षेपित होता होगा और वहाँ व्यवहार किस प्रकार होता होगा, यह अब भी अचिन्त्य है।
जागृत विश्व से हमारी चेतना का संवाद १९ माध्यमों से होता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण के चार भाग और पाँच प्रकार की वायु जिससे सारा शरीर संचालित होता है। स्वप्न में भी ये १९ माध्यम उपस्थित रहते हैं, पर संवाद अन्तर्मुखी हो जाता है। सुसुप्ति अवस्था में कोई माध्यम नहीं रहता है, अन्तःकरण के सारे भाग एकरूप हो जाते हैं और केवल चेतना रहती है। वही आनन्द होती है, वही आनन्दकारक होती है और वही आनन्द भोगती भी है। इस प्रकार देखा जाये तो माध्यमों की अनुपस्थिति में नाम रूप का भेद न रहना तार्किक तो है, पर मात्र चेतना का वह विश्व कितना रहस्यमयी होगा, यह कल्पना करना बड़ा ही कठिन है।
जिस विश्व में नाम रूप का भेद नहीं वहाँ पर आप जो भी इच्छा करेंगे, जो भी कहेंगे, वह अपने रूप में आ जायेगा। वहाँ पर शब्द सशक्त और असीम ऊर्जायुक्त हैं और अपने अर्थ में आकार ग्रहण गढ़ लेते हैं। यही कल्पवृक्ष का सिद्धान्त है कि आप जो भी माँगे, वह आपको मिल जाता है। माण्डूक्य उपनिषद के अनुसार प्रणव ऊँ आदि ध्वनि हैं, वही ब्रह्म है और उसी से सारी सृष्टि निर्मित हुयी है। नाम रूप का भेद न होने से शब्द के द्वारा वस्तु की उत्पत्ति संभव है। इसी प्रकार चेतना के विश्व के बारे में वर्णित अन्य कल्पना सी लगने वाली बातें इस सिद्धान्त से सुलझती सी लगती हैं।
अब हम किस विश्व को यथार्थ माने? जागृत विश्व को, जहाँ पर हम सब एक दूसरे को समझते हैं और व्यवहार करते हैं? या स्वप्न अवस्था को जिसे चित्रकार और संगीतकार अतियथार्थ मान समझने का प्रयास करते रहते हैं? या सुसुप्ति अवस्था को, जहाँ कोई माध्यम नहीं है, जहाँ कारण-प्रभाव का भेद नहीं है, जहाँ नाम रूप का भेद नहीं है? या फिर तुरीय स्थिति को, जहाँ पर हम विश्व चेतना से एकाकार हो अपना स्वरूप खो देते हैं।
जो अनुभव शब्दों के द्वारा व्यक्त न किया जा सके, उसे शब्दों की सीमितता से व्यक्त करना बड़ा कठिन कार्य है। विशेषकर वहाँ, जहाँ पर ज्ञान के सारे संकेत एक चेतना में मिलकर एकाकार हो जाते हों, जहाँ नाम और रूप में भेद न रहता हो। चेतना जगत के लोग भी सोचते होंगे कि जो संवाद वे चेतना के एक माध्यम से करते हैं, उसके लिये स्थूल विश्व में प्रकृति ने १९ माध्यम दे रखे हैं, हमारे ज्ञान को सीमित रखने के लिये या आनन्द को श्रमसाध्य बनाने के लिये? हमारे विश्व का जो संप्रेषण अत्यधिक कोलाहल से भरा है, चेतना जगत में स्पष्टतम होता होगा। जिन सिद्धान्तों को समझने में हम मूढ़़ से जूझते रहते हैं, जिस शान्ति को पाने के लिये हम सम्मेलन पर सम्मेलन करते रहते हैं, चेतना जगत में वह सहज ही होता होगा।
काश नाम रूप में यहाँ पर भी भेद न होता, तब मैं यहाँ पर विचार करता और आपके बताने के बारे में जैसे ही सोचता, विचार आपके मन में स्पष्ट हो जाता।
बहुदा ऐसे लेखो के अध्यन के पश्चात् ज्यादा भ्रमित हो जाता हु ……. बार-बार अवलोकन करने योग्य।
ReplyDeleteशुभप्रभात
ReplyDeleteलाजबाब आलेख
वो कहते हैं
गागर में सागर
समेट दिया
हार्दिक शुभकामनायें
ज्ञाता और ज्ञेय का परस्पर संपर्क ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाणित कर रहा है .
ReplyDeleteइत्ता दार्शनिक लेख ????
ReplyDeleteइत्ता दार्शनिक लेख ????
ReplyDeleteकल्पवृक्ष का सिद्धांत, चेतना जगत की बातें, नामरूप की अवधारणा सब स्पष्ट करने का सुन्दर प्रयास है. आपके शोधपरक अध्ययन का परिणाम यह श्रृंखला हमेशा पढ़ी जाती रहेगी!
ReplyDeleteतत्व का महत्व तो माया की महिमा भी कम अनूठी नहीं.
ReplyDeleteपहले रूप देख कर शब्द सीखे जाते हैं और फिर शब्द रूप धारण कर लेते हैं ... गहन वैचारिक लेख ।
ReplyDeleteहम लोग "कल्पवृक्ष " की बात करते हैं न ! वह कल्पवृक्ष कहीं और नही हमारे मन में है । मनुष्य सम्पूर्ण मनोयोग से जैसा सोचता है वैसा ही होने लगता है । यह सकारात्मक और नकारात्मक दोनों होता है । जैसी चिन्तन की दिशा धारा होगी वैसा ही प्रत्युत्तर मिलेगा । आप तो वह कथा जानते हैं । एक आदमी एक बार जंगल में भटक गया । जब वह थककर चूर हो गया तब उसने सोचा कि थोडा विश्राम कर लूँ। वह एक पेड के नीचे बैठ गया उसे जोर से भूख लगी थी उसने सोचा कि कुछ खाने को मिल जाता तो कितना अच्छा होता बस फिर क्या था सुन्दर सोने-चॉंदी के बर्तनों में भॉंति-भॉति के व्यञ्जन उसके सामने आ गए । वह बहुत खुश हुआ और खाने पर टूट पडा । पेट भरने के बाद उसे नींद आने लगी उसने सोचा बिस्तर मिल जाता वहॉ बिस्तर बिछ गया । जैसे ही बिस्तर पर लेटा वह सोचने लगा यहॉ कोई भूत तो नहीं है, भूत आ गया वह डर गया उसने सोचा यह तो मुझे मार डालेगा और भूत ने उसे मार डाला क्योंकि वह कल्पवृक्ष के नीचे था । वस्तुतः कल्पवृक्ष कहीं बाहर नहीं हमारे भीतर है । " युग निर्माण योजना " में एक सद्वाक्य है- " मनुष्य जैसा सोचता और करता है वह वैसा ही बन जाता है ।"
ReplyDeletenice www.hinditechtrick.blogspot.com
ReplyDeleteपठनीय और विचारणीय चिंतन ........आभार
ReplyDeleteचिंतनीय लेख मेरे लिए खास तौर पर, प्रवीण भाई
ReplyDelete:)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - रविवार- 25/08/2013 को
ReplyDeleteवो शहीद कहलाते हैं ,,हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः5 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
इसीलिये भाषा और संवाद दोनों ही बड़े आवश्यक हैं.
ReplyDeleteमन की जिज्ञासापूर्ण व्याख्या .
ReplyDeleteवैसे सब कुछा जुड़ा हुआ है। जागृति, चेतना, अवचेतन, तुरीय का प्रथम आधार तो जागरण ही होना चाहिए। क्योंकि जब जागकर भोगा और देखा गया तब ही तो वह अन्य अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न रुपों में परिणत होता होगा।
ReplyDeleteइस श्रॄंखला ने बहुत प्रभावित किया प्रवीण जी,आभार।
ReplyDeleteविषय को बहुत ही सहज रूप से समझाने की आपने कोशीश की है और उसमें सफ़ल भी रहे हैं. शायद एक अवस्था पर पहुंचने के बाद कबीर ने जिसे गूंगे का गुड कह कर अभिव्यक्त किया है, वही हाल हो जाता है.
ReplyDeleteबहुत ही उपयोगी, ज्ञान व विज्ञान से परिपूर्ण श्रंखला चल रही है, बहुत आभार.
रामराम
नमस्कार आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (25-08-2013) के चर्चा मंच -1348 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteबहुत ही दार्शनिक विषय को सरल शब्दों में बताया है, बहुत सुन्दर आलेख , पुनः पढना होगा .. :)
ReplyDelete--सुन्दर चर्चा.....
ReplyDeleteया अनुरागी चित्त की, गति समुझे नहिं कोय |
ज्यों ज्यों बूढे श्याम रंग त्यों त्यों उज्वल होय |
ज्ञाता ज्ञान औ ज्ञेय का, भेद रहे नहिं रूप,
वह तो स्वयं प्रकाश है, परमानंद स्वरुप |
आज की ब्लॉग बुलेटिन वाकई हम मूर्ख हैं? - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ...
ReplyDeleteसादर आभार !
मानवी अनुभूतियाँ सीमित हैं -सब भिन्नभिन्न मार्गों से आत्मस्थ होती हैं ,तब कुछ समग्रता लगती है लेकिन उसे भी पूर्णता कैसे कहें ?
ReplyDelete
ReplyDelete"जिस विश्व में नाम रूप का भेद नहीं वहाँ पर आप जो भी इच्छा करेंगे, जो भी कहेंगे, वह अपने रूप में आ जायेगा। वहाँ पर शब्द सशक्त और असीम ऊर्जायुक्त हैं और अपने अर्थ में आकार ग्रहण गढ़ लेते हैं। यही कल्पवृक्ष का सिद्धान्त है कि आप जो भी माँगे, वह आपको मिल जाता है।"
अद्भुत है यह व्याख्या! पाश्चात्य तर्क व सिद्धांत कहता है कि हम किसी वस्तु या व्यक्ति के बारे वस्तुतः चित्र रूप, पिक्सल में सोचते हैं, वस्तु का नाम तो बस एक भाषा की सहूलियत मात्र है ।
इसके विपरीत हमारा आध्यात्म व दर्शन नाम के महत्व सर्वोपरि रखता है,कहते हैं -राम से अधिक राम कर नामा अर्थात् राम से अधिक प्रभावी राम का नाम है ।
अति रोचक,तथ्यपूर्ण व नवचिंतन को उत्प्रेरित करता अति सार्थक लेख श्रृंखला ।बहुत बहुत बधाई।
http://ddmishra.blogspot.in/2013/08/blog-post_24.html?m=1
थोड़ा समझकर वापस पढूंगी।
ReplyDeleteबहुत ही उपयोगी गहन वैचारिक लेख ।
ReplyDeleteअर्थात् नाम ,शब्द, रूप, एक दूसरे के पूरक हैं।
ReplyDeleteप्रवीण जी आप लिखते तो बहुत अच्छा है पर मैने आज पहली बार ही आपका ब्लोग पढ़ा है. शायद आपकी पोस्ट का अर्थ मैं 16 वर्ष की कम आयु होने के कारण नही समझ पाया. किन्तु अपनी हिन्दी को और शुद्ध करने के लिए आपका ब्लोग पढ़ रहा हुँ. कृप्या
ReplyDeleteन दैन्यं न पलायनम्
का अर्थ बताएँ.
चंद पोस्टों तक जाती एक गली , जिसमें हमने आपका एक ठिकाना भी सहेज़ लिया है , और उसके साथ एक मुस्कुराहट के लिए चंद शब्द जोड दिए हैं , आइए मिलिए उनसे और दोस्तों के अन्य पोस्टों से , आज की ब्लॉग बुलेटिन पर
ReplyDelete
ReplyDeleteहर शब्द की उत्पत्ति इन्सान ने किसी विशेष अर्थ /अनुभव /एहसास इत्यादि व्यक्त करने के लिए किया है इसीलिए शब्द शक्ति सिमित है ,ईश्वर को इन शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता क्योंकि ईस्वर अनंत है असीमित है .यही कारण है आजतक कोई भी धर्मशास्त्र ईश्वर का सही स्वरुपम को व्यक्त करने में असमर्थ है .कोई धर्म शास्त्र पूर्ण नहीं है जबकि ईश्वर पूर्ण हैं
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मानवीय अनुभितियाँ भी अनंत हैं ,इसका आयाम भी अनंत है, अत : मानव की हर अनुभूति को शब्द व्यक्त नहीं कर सकता ,गुड मीठा ,शक्कर मीठा है ,शहद मीठा है पर हर मिठास अलग अलग है ,उस अंतर को निश्चित रूप से बताने वाला कोई शब्द नहीं है .ईश्वर के आसपास हम घूमते हैं पर ईश्वर तक पहुँच नहीं पाते
Deleteविषय तो गूढ़ है ही विवेचना भी गूढ़ । हम तो बंद आँखों से ही अक्सर मन ही मन उनके मन की बात जान लेते हैं । पता नहीं कैसे होता है यह , और हम जानना भी नहीं चाहते । बस इतना जानते हैं कि परस्पर प्रेम हो अगर तो संवाद के लिए न कोई माध्यम चाहिए और न कोई भाषा । बस मन में उमंग हो ,तरंग हो न हो ।
ReplyDeleteबहुत ही उपयोगी और गहन लेख..आभार
ReplyDeleteप्रवीण भाई यह श्रंखला बहुत अच्छी जा रही है ......
ReplyDeleteमन से पृथक हुए बिना, मन से ऊपर उठे बिना मन को समझने का प्रयास मन के ही खेल का हिस्सा है.
ReplyDeleteबहुत ही गहन विचार
ReplyDeleteबहुत ही गहन और सारगर्भित आलेख...
ReplyDeleteचिंतन!!
ReplyDelete@ यदि हम जलेबी कहते हैं तो सामने जलेबी उपस्थित हो जायेगी।
ReplyDelete- स्वादिष्ट चिंतन!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeletejeevan me aisee bahut see bate vicharniy hain kintu ham hi unhen talte hain aur bhram kee sthiti me pade rahte hain .
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और आध्यात्मिक आलेख । अत्यन्त विचारणीय । मैने तो इसे अपने पॅाकेट एप्प मे सेव कर लिया है जिससे मै इस आलेख को जब चाहूँ जहाँ चाहूँ पढ सकता हूँ ।
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