पाश्चात्य दर्शन मन की सतही व्याख्या करता है। उसके अनुसार मन की दो ही अवस्थायें हैं, चेतन और अवचेतन। चेतन मन समझता है, सोचता है, याद रखता है और किसी भी भौतिक कार्य में प्रमुख भूमिका निभाता है। मन को ही अस्तित्व माना गया है और मन के सोचने को अस्तित्व सिद्ध करने का एकमेव माध्यम। एक अवचेतन मन भी होता है, जो स्वप्न के माध्यम से व्यक्त होता है। अवचेतन मन हमारी दबी हुयी इच्छाओं का प्रक्षेपण है और जब चेतना का पहरा नहीं होता है, अवचेतन मन व्यक्त हो जाता है। फ्रॉयड ने तो स्वप्नों की विस्तृत व्याख्या करके अवचेतन मन को रहस्यमयी और रोचक आधार दिया। मन की व्याख्या में ही पाश्चात्य जीवन दर्शन भी छिपा है, मन की सारी अतृप्त इच्छाओं को जी लेना।
वहीं दूसरी ओर येरुशलम में उत्पन्न तीनों धर्मों में मन की अवधारणा तो है, पर उनमें मन को पापमार्गी बताया गया है। उनके अनुसार धर्म के ऐतिहासिक पक्ष के प्रति पूर्ण श्रद्धा से ही स्वर्ग संभव है। यहाँ पर मानसिक प्रवृत्तियाँ का विश्लेषण तो है, पर मन की कार्यशैली की व्याख्या का अभाव है। संभवत: पूर्व के धर्मों और पश्चिम के धर्मों में यही प्रमुख अन्तर है। जहाँ पश्चिम के धर्मों में ऐतिहासिकता प्रमुख है, पूर्व के धर्मों में अनुभव प्रमुख है। जहाँ एक ओर समर्पण मात्र से स्वर्गपद को प्राप्य बताया गया है, वहीं दूसरी ओर अनुभव के आधार पर स्वर्ग की अनुभूति की जा सकती है। एक ओर पथ पर सामाजिकता का आधार आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत स्तर पर साधना प्रेरित अथक प्रयास।
यही एक विशेष अन्तर रहा होगा, जिस कारण पूर्व के धर्मों में मन को इतनी प्रमुखता से विश्लेषित किया गया है। सनातन, बौद्ध, जैन, सिख, सभी मन की महत्ता समझते हैं और जितना मन के बारे में जानते हैं, वह एक सतत जिज्ञासा बनाये रखने के लिये पर्याप्त है। मन के बारे में जितनी गहराई से वैदिक ग्रंथों में वर्णन है, उतनी गहराई और सूक्ष्मता कहीं और देखने को नहीं मिलती। योग का समस्त आधार मन को समझने और उसे आत्मोन्नति में उद्धत करने के लिये है। योग का प्रायोजन व्यक्ति को दृष्टा का अनुभव प्रदान करने का है। दृष्टा की दृष्टि पाने के पहले जो मन द्वारा आरोपित बाधायें हैं, उन्हें पार करने के लिये मन की कार्यशैली और मन की भाषा समझना आवश्यक है। यह कार्य पतंजलि योग सूत्र और माण्डूक्य उपनिषद में भलीभाँति किया गया है। वर्तमान लेखकीय संदर्भ में, मन की प्राच्य धारणा का आधार यही दो मूल ग्रन्थ रहेंगे।
पतंजलि ने योग पर एक अमूल्य ग्रन्थ लिखा है, पाश्चात्य जगत उनकी ऐतिहासिकता में रुचि ले सकता है, उनसे संबद्ध तथ्य जोड़ तोड़ कर उनकी इस जगत में उपस्थिति सत्य या काल्पनिक बता सकता है। पर इस ग्रन्थ में क्या लिखा है, क्या नहीं, उसके ऊपर प्रयोग कर उसकी प्रामाणिकता को अनुभव से सत्य या असत्य सिद्ध करने की कभी उनकी मानसिकता रही ही नहीं। वहीं दूसरी ओर भारतीय जनमानस की पंतजलि के ऐतिहासिक पक्ष में उतनी रुचि नहीं जितनी कि उनके द्वारा वर्णित योग सूत्र के अनुभव पक्ष में है। पाश्चात्य ज्ञान के इस दृष्टिकोणिक अभाव के कारण मन की सम्यक व्याख्या वैदिक ग्रन्थों में ही प्रमुखता से मिलती है।
योग के बारे में जनसाधारण की धारणा शरीर के कठिन आसन या एक रहस्यमयी आध्यात्मिक स्थिति के जैसी हो सकती है, पर जो लिखा है उसके अनुसार वस्तुस्थिति बड़ी ही वैज्ञानिक और हर स्तर पर सिद्ध करने योग्य है। योगसूत्र के बारे में भ्रामक अवधारणा से जनसामान्य ही क्या, हमारा बौद्धिक समाज भी ग्रसित है। एक बार पढ़ना प्रारम्भ किया तभी समझ में आया कि यह कितना सिद्धान्तपरक और व्यवस्थित है। यही नहीं, हर स्तर पर पाये गये अनुभव, इसमें लिखे प्रत्येक वाक्य को मस्तिष्क में सदा के लिये गढ़ देते हैं।
इस ग्रन्थ में यदि मन की भाषा का विवरण ढूँढ़ें तो किसी मानवीय भाषा विशेष का संदर्भ नहीं मिलता है। मन जिसके बारे में सोचता है, अपने मस्तिष्क में उसका आकार गढ़ लेता है। यदि किसी भौतिक वस्तु के बारे में सोचता है तो स्मृति के आधार पर उसका आकार मन में बन जाता है। यदि किसी व्यक्ति के बारे में सोचता है, तो स्मृति में पड़ी उसकी सर्वाधिक पहचानी प्रतिलिपि उसे दिखती है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो किसी भी व्यक्ति के बारे में हमारी अवधारणा उस व्यक्ति के बारे में हर ओर से प्राप्त अनगिनत संकेतों से बनती है। कोई एक विशेष गुण मन में बनने वाले उस आकार में क्या प्रभाव डालेगा, क्या सच बोलने वाले की मानसिक छवि अधिक उजली बनेगी, क्या कटु बोलने वाले की छवि में कुछ धुँधलापन रहेगा? उसका रंग, रूप, गुण, वाणी, चाल आदि टैग के रूप में उस छवि में संबद्ध हो जाते होंगे और तब कहीं जाकर मन में उसका चित्र बनता होगा।
कम्प्यूटर की भाषा हर वस्तु को ० या १ में गढ़ती है, मानव की भाषा हर वस्तु को नाम और उच्चारण देती है। इसी प्रकार किसी भी वस्तु के बारे में पाँच स्रोतों से एकत्र ज्ञान विद्युततरंगों के रूप में हमारे मस्तिष्क में संचित हो जाता है। जब मन में किसी के बारे में छवि बनती होगी तो उस व्यक्ति के बारे में संबद्ध विद्युत तरंगें कैसे एक साथ आती होगीं और उस छवि को बनाने में अपना योगदान देती होंगी? दृश्य, ध्वनि, स्वाद, स्पर्श, गंध किस प्रकार से उस छवि में आरोपित होती होंगी।
किसी वस्तु या व्यक्ति के बारे में तो फिर भी मस्तिष्क में कोई छवि आकार ले सकती है, भाव, कल्पना, तर्क आदि अभौतिक तत्व मन में कौन सी छवि बनाते होंगे। एक बात तो स्पष्ट है कि जिस रूप में भाव आदि संचित होते होंगे, उसी रूप में उनकी छवि बनती होगी या किसी व्यक्ति की छवि के साथ संबद्ध होती होगी। कौन भाव कितना गाढ़ा है और किस रूप में ग्रहण किया गया है, यह दोनों ही निर्मित छवि के प्रमुख पक्ष निर्धारित करते होंगे।
मस्तिष्क सारी इन्द्रियों का अनुभव कर सकता है, आँख बन्द हो फिर भी किसी व्यक्ति की छवि बना सकता है, कान बन्द हों फिर भी संचित अनुनाद सुन सकता है, इसी प्रकार स्पर्श कर सकता है, चख सकता है, सूँघ सकता है। आश्चर्य ही है कि इन पाँच भिन्न सी लगने वाले माध्यमों के लिये मन स्मृति में समान प्रकार की ही प्रक्रिया अपनाता है। क्या मस्तिष्क या मन के स्तर पर इन पाँचों में भेद नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह पाँचों अनुभव मन के स्तर पर जाकर एक हो जाते हों। संभव है, तभी यो एक से संचित होते हैं, तभी ये एक से व्यक्त हैं, चिन्तन में, स्वप्न में।
एक और प्रश्न जो मन की भाषा को रोचक बना देता है। जो अनुभव हम जागृत अवस्था में करते हैं, वही अनुभव जब चिन्तन में या स्वप्न में होता है तो उन दोनों में क्या अन्तर आ जाता है? यदि मन के स्तर पर रूप, रस ,रंग आदि घुल कर एक से हो जाते हैं तो क्या स्वप्न में भी आनन्द या दुख की अनुभूति हमें उसी तीव्रता और उसी विविधता में होती होगी जिस तीव्रता में जागृत अवस्था में होती है।
ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न लिये आयेगी मन की सम्यक व्याख्या जो पतंजलि योगसूत्र और माण्डूक्य उपनिषद पर आधारित होगी। समझते हैं, अगली पोस्ट में।
वहीं दूसरी ओर येरुशलम में उत्पन्न तीनों धर्मों में मन की अवधारणा तो है, पर उनमें मन को पापमार्गी बताया गया है। उनके अनुसार धर्म के ऐतिहासिक पक्ष के प्रति पूर्ण श्रद्धा से ही स्वर्ग संभव है। यहाँ पर मानसिक प्रवृत्तियाँ का विश्लेषण तो है, पर मन की कार्यशैली की व्याख्या का अभाव है। संभवत: पूर्व के धर्मों और पश्चिम के धर्मों में यही प्रमुख अन्तर है। जहाँ पश्चिम के धर्मों में ऐतिहासिकता प्रमुख है, पूर्व के धर्मों में अनुभव प्रमुख है। जहाँ एक ओर समर्पण मात्र से स्वर्गपद को प्राप्य बताया गया है, वहीं दूसरी ओर अनुभव के आधार पर स्वर्ग की अनुभूति की जा सकती है। एक ओर पथ पर सामाजिकता का आधार आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत स्तर पर साधना प्रेरित अथक प्रयास।
यही एक विशेष अन्तर रहा होगा, जिस कारण पूर्व के धर्मों में मन को इतनी प्रमुखता से विश्लेषित किया गया है। सनातन, बौद्ध, जैन, सिख, सभी मन की महत्ता समझते हैं और जितना मन के बारे में जानते हैं, वह एक सतत जिज्ञासा बनाये रखने के लिये पर्याप्त है। मन के बारे में जितनी गहराई से वैदिक ग्रंथों में वर्णन है, उतनी गहराई और सूक्ष्मता कहीं और देखने को नहीं मिलती। योग का समस्त आधार मन को समझने और उसे आत्मोन्नति में उद्धत करने के लिये है। योग का प्रायोजन व्यक्ति को दृष्टा का अनुभव प्रदान करने का है। दृष्टा की दृष्टि पाने के पहले जो मन द्वारा आरोपित बाधायें हैं, उन्हें पार करने के लिये मन की कार्यशैली और मन की भाषा समझना आवश्यक है। यह कार्य पतंजलि योग सूत्र और माण्डूक्य उपनिषद में भलीभाँति किया गया है। वर्तमान लेखकीय संदर्भ में, मन की प्राच्य धारणा का आधार यही दो मूल ग्रन्थ रहेंगे।
पतंजलि ने योग पर एक अमूल्य ग्रन्थ लिखा है, पाश्चात्य जगत उनकी ऐतिहासिकता में रुचि ले सकता है, उनसे संबद्ध तथ्य जोड़ तोड़ कर उनकी इस जगत में उपस्थिति सत्य या काल्पनिक बता सकता है। पर इस ग्रन्थ में क्या लिखा है, क्या नहीं, उसके ऊपर प्रयोग कर उसकी प्रामाणिकता को अनुभव से सत्य या असत्य सिद्ध करने की कभी उनकी मानसिकता रही ही नहीं। वहीं दूसरी ओर भारतीय जनमानस की पंतजलि के ऐतिहासिक पक्ष में उतनी रुचि नहीं जितनी कि उनके द्वारा वर्णित योग सूत्र के अनुभव पक्ष में है। पाश्चात्य ज्ञान के इस दृष्टिकोणिक अभाव के कारण मन की सम्यक व्याख्या वैदिक ग्रन्थों में ही प्रमुखता से मिलती है।
योग के बारे में जनसाधारण की धारणा शरीर के कठिन आसन या एक रहस्यमयी आध्यात्मिक स्थिति के जैसी हो सकती है, पर जो लिखा है उसके अनुसार वस्तुस्थिति बड़ी ही वैज्ञानिक और हर स्तर पर सिद्ध करने योग्य है। योगसूत्र के बारे में भ्रामक अवधारणा से जनसामान्य ही क्या, हमारा बौद्धिक समाज भी ग्रसित है। एक बार पढ़ना प्रारम्भ किया तभी समझ में आया कि यह कितना सिद्धान्तपरक और व्यवस्थित है। यही नहीं, हर स्तर पर पाये गये अनुभव, इसमें लिखे प्रत्येक वाक्य को मस्तिष्क में सदा के लिये गढ़ देते हैं।
इस ग्रन्थ में यदि मन की भाषा का विवरण ढूँढ़ें तो किसी मानवीय भाषा विशेष का संदर्भ नहीं मिलता है। मन जिसके बारे में सोचता है, अपने मस्तिष्क में उसका आकार गढ़ लेता है। यदि किसी भौतिक वस्तु के बारे में सोचता है तो स्मृति के आधार पर उसका आकार मन में बन जाता है। यदि किसी व्यक्ति के बारे में सोचता है, तो स्मृति में पड़ी उसकी सर्वाधिक पहचानी प्रतिलिपि उसे दिखती है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो किसी भी व्यक्ति के बारे में हमारी अवधारणा उस व्यक्ति के बारे में हर ओर से प्राप्त अनगिनत संकेतों से बनती है। कोई एक विशेष गुण मन में बनने वाले उस आकार में क्या प्रभाव डालेगा, क्या सच बोलने वाले की मानसिक छवि अधिक उजली बनेगी, क्या कटु बोलने वाले की छवि में कुछ धुँधलापन रहेगा? उसका रंग, रूप, गुण, वाणी, चाल आदि टैग के रूप में उस छवि में संबद्ध हो जाते होंगे और तब कहीं जाकर मन में उसका चित्र बनता होगा।
कम्प्यूटर की भाषा हर वस्तु को ० या १ में गढ़ती है, मानव की भाषा हर वस्तु को नाम और उच्चारण देती है। इसी प्रकार किसी भी वस्तु के बारे में पाँच स्रोतों से एकत्र ज्ञान विद्युततरंगों के रूप में हमारे मस्तिष्क में संचित हो जाता है। जब मन में किसी के बारे में छवि बनती होगी तो उस व्यक्ति के बारे में संबद्ध विद्युत तरंगें कैसे एक साथ आती होगीं और उस छवि को बनाने में अपना योगदान देती होंगी? दृश्य, ध्वनि, स्वाद, स्पर्श, गंध किस प्रकार से उस छवि में आरोपित होती होंगी।
किसी वस्तु या व्यक्ति के बारे में तो फिर भी मस्तिष्क में कोई छवि आकार ले सकती है, भाव, कल्पना, तर्क आदि अभौतिक तत्व मन में कौन सी छवि बनाते होंगे। एक बात तो स्पष्ट है कि जिस रूप में भाव आदि संचित होते होंगे, उसी रूप में उनकी छवि बनती होगी या किसी व्यक्ति की छवि के साथ संबद्ध होती होगी। कौन भाव कितना गाढ़ा है और किस रूप में ग्रहण किया गया है, यह दोनों ही निर्मित छवि के प्रमुख पक्ष निर्धारित करते होंगे।
मस्तिष्क सारी इन्द्रियों का अनुभव कर सकता है, आँख बन्द हो फिर भी किसी व्यक्ति की छवि बना सकता है, कान बन्द हों फिर भी संचित अनुनाद सुन सकता है, इसी प्रकार स्पर्श कर सकता है, चख सकता है, सूँघ सकता है। आश्चर्य ही है कि इन पाँच भिन्न सी लगने वाले माध्यमों के लिये मन स्मृति में समान प्रकार की ही प्रक्रिया अपनाता है। क्या मस्तिष्क या मन के स्तर पर इन पाँचों में भेद नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह पाँचों अनुभव मन के स्तर पर जाकर एक हो जाते हों। संभव है, तभी यो एक से संचित होते हैं, तभी ये एक से व्यक्त हैं, चिन्तन में, स्वप्न में।
एक और प्रश्न जो मन की भाषा को रोचक बना देता है। जो अनुभव हम जागृत अवस्था में करते हैं, वही अनुभव जब चिन्तन में या स्वप्न में होता है तो उन दोनों में क्या अन्तर आ जाता है? यदि मन के स्तर पर रूप, रस ,रंग आदि घुल कर एक से हो जाते हैं तो क्या स्वप्न में भी आनन्द या दुख की अनुभूति हमें उसी तीव्रता और उसी विविधता में होती होगी जिस तीव्रता में जागृत अवस्था में होती है।
ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न लिये आयेगी मन की सम्यक व्याख्या जो पतंजलि योगसूत्र और माण्डूक्य उपनिषद पर आधारित होगी। समझते हैं, अगली पोस्ट में।
कौन भाव कितना गाढ़ा है और किस रूप में ग्रहण किया गया है, यह दोनों ही निर्मित छवि के प्रमुख पक्ष निर्धारित करते होंगे।
ReplyDelete***
निश्चित ही, ऐसा ही होता होगा!
अगली पोस्ट प्रतीक्षित रहेगी!
सार गर्भित व्याख्या
ReplyDeleteसंग्रहणीय आलेख
ReplyDeleteज्ञान वर्धक पोस्ट के लिए शुक्रिया
पूरा मनोवैज्ञानिक है
अब दर्शन का सरल विश्लेषण रोचक ,अगली प्रति का इंतजार
ReplyDeleteमन सदियों से एक अबूझ पहेली बना रहा है -चेतना और मन या तो पर्यायवाची हैं या बहुत निकट का अंतर्संबंध होना चाहिए इनमें ....आधुनिक तंत्रिका विज्ञान ने विगत दस वर्षों में मनुष्य की चेतना -कांशसनेस पर विपुल अध्ययन किया है -मस्तिष्क (मैटर ) के कोने कोने का सर्वेक्षण और अध्ययन किया है . यह मन(माईन्ड ? ) निश्चय ही मस्तिष्क की क्रियाविधि का ही प्रतिफलन है- व्हाट इस माईंड नो मैटर ,व्हाट इज मैटर नेवर माइंड :-)
ReplyDeleteउपयोगी लेखमाला। आगामी पोस्ट का इन्तजार !
ReplyDeleteबेहद उपयोगी जानकारी भरा आलेख !
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की है !!
ReplyDeleteसंग्रहणीय आलेख |
ReplyDeleteसार्थक लेख ....सीखने और समझने कों बहुत कुछ मिला ...!
मानव मस्तिष्क हर सुचना कों इलेक्ट्रिकल इम्प्ल्सेज के रूप में एक्सोन से ग्रहण करता हैं,रिसेप्टर संवेदनाओं कों ग्रहण करते हैं ,उनसे संवेंदी तंत्रिकाएं केन्द्रीय तंत्रिका तन्त्र {ब्रेन/स्पाईनल कार्ड}तक ले जाती हैं..फिर ब्रेन की प्रतिक्रियानुसार वहाँ से चालक तंत्रिकाएं उस अंग पर कार्य करती हैं |
पश्चिम के लोग पतंजलि की शिक्षाओं कों आत्मसात कर रहें हैं डॉ दीपक चोपड़ा ,डा वेंन डायर,श्री रोबिन शर्मा जैसे अनेक लोग बात बात में भारतीय योगशास्त्र और पतंजलि के सूत्रों कों बोलते {या यूँ कहिये तोड़-मरोड़ कर }पेश करते हैं |
नई पोस्ट्स-
“तेरा एहसान हैं बाबा !{Attitude of Gratitude}"
“प्रेम ...प्रेम ...प्रेम बस प्रेम रह जाता हैं "
आत्मा, जिसके तीन मुख्य घटक होते है मन, बुद्धि और संस्कार, उसमे मन का रोल सर्वोपरी है !
ReplyDeleteAbhar http://hinditechtrick.blogspot.com
ReplyDeleteमन अपदार्थ है आत्मा (चैतन्य ऊर्जा ,एक्शन ओरियेन्-टिड एनर्जी )की सोचने विचारने ,मनन करने की शक्ति को मन कहा जाता है। मन बाहर से आता है। पदार्थ से इसकी सृष्टि होती है। हम संसार को ही अपने अन्दर ले लेते हैं यह नहीं सोचते हम संसार में हैं। संसार हमारे अन्दर नहीं है। बाहर तो माया की लीला है मन तो अन्दर है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पोस्ट लिखी है प्रवीण जी ने मनभावन। यानी मन को बहाने वाली। अब ये पोस्ट तो बहार ही थी शब्द रूप में लेकिन इसके अर्थ हमारे अन्दर थे और हैं। बाहर तो केवल शब्द हैं। अन्तश्चेतना अन्दर है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पोस्ट लिखी है प्रवीण जी ने मनभावन। यानी मन को भाने वाली। अब ये पोस्ट तो बाहर ही थी शब्द रूप में लेकिन इसके अर्थ हमारे अन्दर थे और हैं। बाहर तो केवल शब्द हैं। अन्तश्चेतना अन्दर है।
ReplyDeleteमन की विज्ञान को रोचक बनाता आलेख ! उत्तम .
ReplyDeleteअवचेतन मन में एकत्रित होता जाता है वो सब जो हम जागृत अवस्था में लेते चले जाते हैं ....अपने चुनाव से ...हम जो देखना चाहते हैं ....मन वही दिखाता है .....!!अवचेतन मन का गहन अध्ययन ,बहुत उपयोगी आलेख |आगामी आलेख की प्रतीक्षा ....!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रोचक आलेख ...आभार!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत ही सरल विवेचन!! मनोगम्य आलेख!! अगली कडी का इन्तजार!!
ReplyDeleteगहन अध्ययन के साथ बहुत ही रोचक आलेख ..अगली कडी का इन्तजार!!
ReplyDeleteसहज पर प्रभावशाली व्याख्या .... मन की सरलता ही उसकी जटिलता है शायद..... जितना समझते हैं उतना ही और समझना चाहते हैं
ReplyDeleteनिरन्तर बनी रहनेवाली अवचेतनावस्था ही वह रोग भी है, जो मनुष्य को मानसिक रोगी बनाती है। यदि नींद में सदैव स्वप्न घुलमिल रहे हों तो जागृतावस्था भी स्वप्न सरीखी हो जाती है। इस विषय पर अध्ययन करना ही ठीक रहेगा। इस से पीड़ित होने पर जीवन असहज हो उठता है। अध्ययन-मनन से लिखा गया विचारणीय आलेख।
ReplyDeleteपतंजलि योगसूत्र और मंडूकोपनिषद को आपकी दृष्टि से जानने की उत्कंठा बढ गई है. मन के विस्तार और समझ के लिये ये दोनों ही अनुपम ग्रंथ हैं.
ReplyDeleteरामराम.
----मन चेतन तत्व है परन्तु आत्मा की भाँति अविनाशी नहीं है, वह आत्मा की भाँति सार्वदेशीय(व्यापक) भी नहीं अपितु एक देशीय है अर्थात एक समय में सिर्फ एक ही ज्ञान प्राप्त व उसपर विचार कर सकता है | अतः मन, आत्मा का वाह्य जगत से सम्बन्ध ( ज्ञान ) कराने का साधन है |( परन्तु स्वयं ज्ञाता नहीं ...ज्ञाता आत्मा ही है |)मन ..ज्ञान, अनुभव, भावना( उपलब्धि व पर्याय के संतुलन ) एवं आत्मा के संचित संस्कार से उपलब्ध संकल्प द्वारा विचार व कर्म में प्रेरित होता है|
ReplyDelete--- समस्त विचार व कार्य आत्मा या चेतना के अंतःकरण चतुष्टय ... मन, चित्त ,बुद्धि, अहं इन चारों को सम्मिलित रूप.. मानव शरीर में चेतना की क्रिया पद्धति है। किसी कार्य को किया जाय या नहीं ,यह निर्धारण प्रक्रिया चेतना की क्रमशः मन, बुद्धि, चित, अहं की क्रिया विधियों से गुजरकर ही परिपाक होती है। मन के द्वारा ही आत्मा वाह्य जगत ..शरीर आदि से.. युक्त व सम्बंधित रहती है... इसीलिये मन..चेतन, अवचेतन,अचेतन ...अवस्थाओं में स्थित रहता है |
पिछली और यह दौनों ही पोस्ट दमदार हैं। अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है। गुणवत्ता की निरन्तरता आप के ब्लॉग पर खींच लाती है।
ReplyDeleteएक संग्रहणीय श्रृंखला बन रही है, पातंजलि योगसूत्र और माण्डूक्य उपनिषद को आपकी दृष्टि से जानना भी निश्चित ही सुखद रहेगा।
ReplyDeleteमन के विषय में जानने-समझने की बातें बहुत मनोयोग से पढ़ रही हूँ !
ReplyDeleteचेतन और अवचेतन .. एतिहासिक और अनुभव की सारगर्भित यात्रा करती ये पोस्ट ... गहरा दर्शन लिए है ...
ReplyDeleteबहुत गहन और सारगर्भित चिंतन...अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी..
ReplyDeleteदार्शनिक दृष्टिकोण। अगले लेख की प्रतीक्षा में।
ReplyDeleteमन को कौन समझ पाया है..सभी ने अपनी अपनी थ्योरी दी हैं.
ReplyDeleteथोडा सा जटिल विषय है लेकिन अच्छी रहेगी यह शृंखला.
समझने की कोशिश करेंगे ..
ReplyDelete" चञ्चलं हि मनः कृष्ण " जो चञ्चल है वही तो मन है । वस्तुतः मन ही प्रजातंत्र का प्रधानमंत्री है [पर अभी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सूत्र गडबडा गया है ] जिसके पास सम्पूर्ण अधिकार है बुध्दि बेचारी तो राष्ट्रपति है, मन से सदा हारती आई है ।
ReplyDeleteआपकी ये मनसूत्र संग्रहणीय है इसे बार बार पढना होगा ।
ReplyDeleteभाषा से मन की ओर चलते-चलते
ReplyDeleteकितना कुछ सहेजता जा रहा है यह आलेख ....
हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} के शुभारंभ पर आप को आमंत्रित किया जाता है। कृपया पधारें आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा |
ReplyDeleteसपनो में भी अगर ईश्वर ने बुकमार्क लगाने का प्राविधान किया होता तब शायद अधूरे सपनो को आगे फिर देखते और उचित अध्ययन कर पाते ।
ReplyDeleteशुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया .
ReplyDeleteमन और बुध्दि आत्मा की शक्तियॉ हैं । मन भावना-प्रधान है जबकि बुध्दि विचार करती है और निर्णय सुनाती है । मेरी तरह बहुत लोग हैं जो बुध्दि को ताक पर रखकर मन की बात सुनते हैं । बुध्दि जज की तरह निर्णय ज़रूर सुनाती है पर वह हमें अपनी बात मनवाने के लिए विवश नहीं कर सकती । बुध्दि चालाकी करती रहती है और चालाक आदमी कभी सुखी नहीं रह सकता । मन अबोध बच्चे की तरह होता है जो खुश होने पर हँसता है दु:खी होने पर रोता है और गुस्सा होने पर चिल्लाता है । आत्मज्ञान का रास्ता मन से होकर गुज़रता है इसीलिए तो कबीर ने कहा है- " मन के हारे हार है मन के जीते जीत पारब्रह्म को पाइये मन की ही परतीत ।"
ReplyDeleteअव्याख्य मन की सुन्दर व्याख्या..
ReplyDeleteसंसार तो हमारे अन्दर हमारी कामनाओं में रह रहा है। बाहर से वस्तुओं को छोड़ने का कोई मतलब नहीं है उसकी पकड़ की डोरी तो अन्दर मन के हाथों में रहती है। मन में ही कामनाएं रहतीं हैं इन्द्रियाँ तो मात्र निमित्त बनती हैं। स्रोत समस्त इच्छाओं का हमारा मन ही है। जब अपने आप से ही व्यक्ति ख़ुशी प्राप्त करता है बाहर की किसी भी चीज़ पर जब मन निर्भर नहीं करता तब मन कबीर हो जाता है। ज्ञान प्राप्त करने पर व्यक्ति चीज़ों को स्वत :ही छोड़ देता है वह आपसे आप छूट जातीं हैं जब तक छोड़ना पड़ता है मन आज़ाद नहीं है। मन सूखी हुई लकड़ी की तरह हो जाए बिना धुंआ छोड़े जले तो समझो व्यक्ति स्थित प्रज्ञ हो गया।
ReplyDeleteसुन्दर पोस्ट पाश्चात्य और ओरिएण्टल साइंस को आलोकित करती। आभार आपकी टिप्पणियों के लिए।
मन व योग की श्रमसाध्य व्याख्या।
ReplyDeleteमन की गहराइयों में उतरें कल्पना या बौद्धिक जगत में नहीं, अनुभूति के सूक्ष्म धरातल पर।
चर्चा जीवंत हो उठेगी।
मन का सम्यक् व्याख्य कर पाना एक नितांत मुश्किल कार्य है..पर आपने अपने उपलब्ध ज्ञान से ये बखूब किया है।।।
ReplyDeleteसुन्दर भावाभि -व्यक्ति। सुन्दर विचार मंथन चल रहा है मन -मत का। मन का।
ReplyDeleteज्ञान और बोध दोनों में पैठती बढ़िया पोस्ट। शुक्रिया आपकी निरंतर ज्ञान वर्धक टिप्पणियों का।
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है। शुक्रिया आपकी टिपपणी का।
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