मेरे चित्रकार मित्र आलोक मुझे सल्वाडोर डाली के बारे में बता रहे थे। डाली बड़े ही चर्चित चित्रकार रहे हैं, अपने चित्रों से भी अधिक अपने व्यक्तित्व के कारण। जिस विधा में वह चित्रकारी करते थे, उसे अंग्रेजी में सर्रियलिज्म कहते हैं, हिन्दी में कहें तो अतियथार्थवाद। १९२० के आसपास प्रारम्भ हुयी इस विधा का उद्देश्य उस सत्य को बाहर लाना था जो हमारे मन की गहरी पर्तों के अन्दर छिपा रहता है। यह स्वप्न और जागृत अवस्था के बीच के अन्तर को पाटने की दिशा में बढ़ता रहा और इसमें ऐसे चित्रों की बहुलता रही जिसमें मन के बद्ध विचारों को दर्शाया गया, जाग्रत विश्व के प्रतीकों द्वारा, बहुधा ऐसे चित्र, जिन्हें देख आप चौंक उठेंगे, संभव है कि नाक भौं भी सिकोड़ने लगें।
अब मन में क्या चलता है और कैसे चलता है, उसे चित्रित करने के लिये मन में जाना और मन को जानना भी आवश्यक है। मन कैसे व्यवहार करता है, स्वप्न के समय मन की स्थिति क्या रहती है, हमारे अवचेतन में क्या होता है? चित्रों की भाषा, शब्दों की भाषा से उन्नत पर थोड़ी धँुधली सी होती है। जागृत मन की भाषा और भी उन्नत और धुँधली होती है। अब उससे भी अस्पष्ट सुप्त मन की भाषा समझना और उसे चित्रों में व्यक्त करना निश्चय ही कठिनतम कार्य रहा होगा। मन के कुछ स्वप्न तो याद रहते हैं, विशेषकर वे, जिनमें कोई परिचित घटनाक्रम दिखायी देता है, पर उसके अतिरिक्त भी ऐसे सैकड़ों स्वप्न रहते हैं, जो हमें याद नहीं रहते हैं। ऐसे सारे स्वप्नों को पहले समझना और तब चित्रों में उतारना सच में साहसिक चुनौती रही होगी।
कुछ लोगों ने एकान्त की, ध्यान की राह अपनायी, कुछ लोग नशे में गहरे उतरने लगे, यह सोच कर कि उससे चेतना का पहरा नहीं रहेगा और अवचेतन बाहर आ जायेगा। चित्रकारों ने बहुत कुछ देखा और उसे अपने चित्रों में उतारा भी। डाली ने एक विशेष विधि अपनायी, वह मन की उस स्थिति को अपने चित्रों में लाना चाहता था जो जागृत और स्वप्न के बीच की स्थिति होती है। इसके लिये वह अपनी उँगली में एक चम्मच रख कर सोता था, जैसे ही वह निद्रा के क्षेत्र में प्रवेश करता, चम्मच गिर जाती और उसकी नींद टूट जाती। उस समय उसके मन को जो स्थिति रहती, वह उसे चित्रों में उभारता। यह बात अलग है कि वह बाधित अवस्था अवचेतन का सही निरूपण हो सकता है या नहीं, पर निश्चय ही वह जागृत अवस्था से बहुत अलग अनुभव रहता होगा।
कला में ही नहीं, संगीत और साहित्य में भी इसका प्रभाव रहा है। जिन लोगों ने द डोर ग्रुप और जिम मॉरिसन का नाम सुना है, उन्हें उनके संगीत में उसकी झलक मिलेगी क्योंकि उनके संगीत और गीतों की रचना ड्रग्स के गहन प्रभाव में ही की गयी है। अत्यन्त प्रतिभावान जिम मॉरिसन की मृत्यु भी बहुत ही कम आयु में अधिक ड्रग्स लेने के कारण हो गयी। हिन्दी साहित्य में तम्बाखू, पान या हल्की मदिरा पीकर लेखन करने वालों के बारे में तो सुना है, पर अतियथार्थवादी कोई लेखक या कवि अभी तक संज्ञान में नहीं आया है।
यहाँ पर एक बात पूर्णतया स्पष्ट कर दूँ कि मैं किसी वाद को और उसमें प्रयुक्त विधियों को महिमामंडित नहीं कर रहा हूँ। यह बताने के पीछे मेरा उद्देश्य साहित्य, संगीत और कला के नाम पर किसी भी प्रकार की ऐसी लत को बढ़ावा देने का नहीं है, जो नशे आदि की ओर प्रेरित करे। इसके माध्यम से मेरा उद्देश्य बस यह तथ्य स्पष्ट करने का है कि मन की भाषा जानने का प्रयास हम सदियों से करते आये हैं, और जैसे भी संभव हो, मानव इस रहस्य को जानने के लिये कुछ भी कर सकता है, बस यह जानने के लिये कि उसके मन में क्या चल रहा है, क्यों चल रहा है और कैसे चल रहा है?
प्रश्न पुनः घूम फिर के वहीं आ जाता है कि मन की भाषा क्या है और यह मानव की भाषा से किस तरह अपना संबंध और सामञ्जस्य स्थापित करती है?
मन की भाषा जानने के लिये मन को समझना आवश्यक है। यदि हम यह न भी समझें कि मन अत्यधिक चंचल है और इस चंचलता पर विजय पा हम स्थितिप्रज्ञ हो सकते हैं, यदि यह भी न समझें कि मन की गति को समझना और समेटना सर्वाधिक कठिन कार्य है, तब भी हम इतना समझने का प्रयास तो अवश्य ही कर सकते हैं कि मन में शब्द किस रूप में रखे जाते हैं और समय आने पर किस रूप में उपयोग में लाये जाते हैं। यह प्रयास विशुद्ध बौद्धिक और अतियथार्थवादी दृष्टिकोण लिये होगा। अध्यात्म में लोगों को असुविधा हो तो विज्ञान की राह चलते हैं। वैसे बताते चलें कि इस विषय में विज्ञान और भारतीय अध्यात्म की समझ में कोई विशेष अन्तर नहीं है और विश्व भर के वैज्ञानिक भारतीय अध्यात्म की गहराई से न केवल प्रभावित हुये हैं, वरन अधिकता से अधिक अभिभूत भी हैं।
मानव मस्तिष्क में २ अरब से भी अधिक तन्त्रिकातन्तु हैं, ये तन्त्रिकातन्तु मस्तिष्क को सारे शरीर से जोड़े रहते हैं। आँख, कान, नाक आदि हिस्से जो गर्दन के ऊपर हैं, वह वहीं पर और शेष हिस्सों के लिये रीढ़ की हड्डी के बीच से ये तन्तु जाते हैं। यह एक आश्चर्य ही है कि इतनी घनी और महीन वायरिंग हमारे शरीर में स्वतः ही विकसित हो जाती है। उससे भी अधिक आश्चर्य उन मूढ़ों पर होता है जिनके प्रायिकतावादी सिद्धान्त के अनुसार अणुओं के करोड़ों वर्षों तक आपस में टकराते रहने से इस तरह के जटिल तन्त्र स्वतः ही बन गये। हजारों वर्षों तक तो हम देखते आये हैं, हवा के चलने से आज तक एक घर क्या, अपने आप एक सीधी दीवार नहीं बनी है।
जब भी ये तन्त्रिकातन्तु सक्रिय होते हैं, इनमें बहुत अल्पमात्रा में विद्युत बहती है। जब कई सारे तन्तु एक साथ किसी कार्य में लगे होते हैं, तो उत्पन्न विद्युत को मापा जा सकता है। इनका एक आयाम और एक आवृत्ति होती है। तथ्यों की माने तो एक पूरी तरह से सक्रिय मस्तिष्क १० वॉट तक की विद्युत उत्पन्न कर सकता है। जब मस्तिष्क गति से कार्य करता है तब आवृत्ति अधिक होती है, जब विश्राम की स्थिति में होता है तो आवृति कम होती है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगों में इस आवृत्ति को मापा और उसे क्रियागत वर्गों में सजाया। विभिन्न प्रकार के कार्यों में मस्तिष्क को कौन सा भाग प्रयोग में आता है, इसका भी पूर्ण अध्ययन हो चुका है।
इससे यह तो निश्चित होता है कि हम जो भी देखते, सुनते, छूते, चखते, सूँघते हैं, वह विद्युत लहरों के रूप में प्रवाहित होकर हमारे मस्तिष्क में संचित हो जाता है। वहाँ पर संचित कैसे होता होगा, कैसे स्मृति के रूप में बना रहता होगा, कैसे विचार बन कर सक्रिय होता होगा, और कैसे निर्णय होने के पश्चात कर्मेन्द्रियों तक पहुँचता होगा, यह एक बड़ा रहस्य है। विद्युत लहरों का आयाम और आवृत्ति मापने के अतिरिक्त वैज्ञानिक मस्तिष्क के और अन्दर तक नहीं अतर पाये हैं अब तक।
चलिये हम मान कर चलें कि जो संचित होता है, वह मानव की भाषा में ही संचित होता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कम्प्यूटर हमारे लेखन को यथावत रखता है, भले ही प्रक्रिया में ० और १ का उपयोग करता हो। यदि ऐसा है तो स्वप्न की स्थिति में, जब वाह्य जगत से संपर्क टूटा होता है, जब मस्तिष्क में स्मृतियों का हिस्सा सक्रिय रहता है, उस स्थिति में स्वप्न के सारे कार्यक्रम मानव की भाषा में होने चाहिये। यही नहीं, यथार्थ जगत के रंग, स्वाद आदि भी यथावत स्वप्न में आने चाहिये। कहने का आशय यह कि जो स्वप्न हों, वह भी यथार्थ जगत के जैसे लगने चाहिये। यदि ऐसा है तो अतियथार्थवादी चित्रों में जागृत जगत के ही लक्षण यथावत दिखने चाहिये। ऐसा पर है नहीं, बहुधा अवचेतन की स्थिति में प्राप्त संप्रेषण संचित ज्ञान से कहीं अधिक उन्नत और सर्वथा भिन्न होता है। मानव के वैज्ञानिक इतिहास को गढ़ने वाले न जाने कितने ज्ञानसूत्र आश्चर्यजनक रूप से अवचेतन से ही प्रकट हुये हैं।
स्वप्न की अपनी अलग ही भाषा है, यदि ऐसा नहीं होता तो न केवल सर्रियलिज्म या अतियथार्थवादी धारा के चित्र भी जागृत जगत जैसे होते, वरन स्वप्नों में भी रंग होते, स्वप्न वर्तमान घटनाओं से भरे होते, स्वप्न बड़े ही नियमित प्रकार के होते। यहाँ तक कि स्वप्न की भाषा को भी मन की भाषा कहना उचित न होगा, क्यों स्वप्न अनियन्त्रित होते हैं, जब कि किसी भी भाषा का एक निश्चित स्वरूप होता है।
यह जानकर कि मन की भाषा, मानव की भाषा से सर्वथा भिन्न है, अगली पोस्ट में हम मन को और उसकी भाषा को समझने के लिये एक नये परिप्रेक्ष्य का आधार लेंगे। कई बार एक ही वस्तु को कई दृष्टिकोण से देखने से उसके बारे में सम्यक ज्ञान मिलता है, बहुधा पूरा ज्ञान मिलता है। मन की भाषा किन किन अवस्थाओं से होकर जाती है और वहाँ पर कैसे परिवर्धित होती है, यह समझने के लिये ध्यानस्थ मनीषियों के अद्भुत विश्व को बाहर से निहारेंगे।
अब मन में क्या चलता है और कैसे चलता है, उसे चित्रित करने के लिये मन में जाना और मन को जानना भी आवश्यक है। मन कैसे व्यवहार करता है, स्वप्न के समय मन की स्थिति क्या रहती है, हमारे अवचेतन में क्या होता है? चित्रों की भाषा, शब्दों की भाषा से उन्नत पर थोड़ी धँुधली सी होती है। जागृत मन की भाषा और भी उन्नत और धुँधली होती है। अब उससे भी अस्पष्ट सुप्त मन की भाषा समझना और उसे चित्रों में व्यक्त करना निश्चय ही कठिनतम कार्य रहा होगा। मन के कुछ स्वप्न तो याद रहते हैं, विशेषकर वे, जिनमें कोई परिचित घटनाक्रम दिखायी देता है, पर उसके अतिरिक्त भी ऐसे सैकड़ों स्वप्न रहते हैं, जो हमें याद नहीं रहते हैं। ऐसे सारे स्वप्नों को पहले समझना और तब चित्रों में उतारना सच में साहसिक चुनौती रही होगी।
कुछ लोगों ने एकान्त की, ध्यान की राह अपनायी, कुछ लोग नशे में गहरे उतरने लगे, यह सोच कर कि उससे चेतना का पहरा नहीं रहेगा और अवचेतन बाहर आ जायेगा। चित्रकारों ने बहुत कुछ देखा और उसे अपने चित्रों में उतारा भी। डाली ने एक विशेष विधि अपनायी, वह मन की उस स्थिति को अपने चित्रों में लाना चाहता था जो जागृत और स्वप्न के बीच की स्थिति होती है। इसके लिये वह अपनी उँगली में एक चम्मच रख कर सोता था, जैसे ही वह निद्रा के क्षेत्र में प्रवेश करता, चम्मच गिर जाती और उसकी नींद टूट जाती। उस समय उसके मन को जो स्थिति रहती, वह उसे चित्रों में उभारता। यह बात अलग है कि वह बाधित अवस्था अवचेतन का सही निरूपण हो सकता है या नहीं, पर निश्चय ही वह जागृत अवस्था से बहुत अलग अनुभव रहता होगा।
कला में ही नहीं, संगीत और साहित्य में भी इसका प्रभाव रहा है। जिन लोगों ने द डोर ग्रुप और जिम मॉरिसन का नाम सुना है, उन्हें उनके संगीत में उसकी झलक मिलेगी क्योंकि उनके संगीत और गीतों की रचना ड्रग्स के गहन प्रभाव में ही की गयी है। अत्यन्त प्रतिभावान जिम मॉरिसन की मृत्यु भी बहुत ही कम आयु में अधिक ड्रग्स लेने के कारण हो गयी। हिन्दी साहित्य में तम्बाखू, पान या हल्की मदिरा पीकर लेखन करने वालों के बारे में तो सुना है, पर अतियथार्थवादी कोई लेखक या कवि अभी तक संज्ञान में नहीं आया है।
यहाँ पर एक बात पूर्णतया स्पष्ट कर दूँ कि मैं किसी वाद को और उसमें प्रयुक्त विधियों को महिमामंडित नहीं कर रहा हूँ। यह बताने के पीछे मेरा उद्देश्य साहित्य, संगीत और कला के नाम पर किसी भी प्रकार की ऐसी लत को बढ़ावा देने का नहीं है, जो नशे आदि की ओर प्रेरित करे। इसके माध्यम से मेरा उद्देश्य बस यह तथ्य स्पष्ट करने का है कि मन की भाषा जानने का प्रयास हम सदियों से करते आये हैं, और जैसे भी संभव हो, मानव इस रहस्य को जानने के लिये कुछ भी कर सकता है, बस यह जानने के लिये कि उसके मन में क्या चल रहा है, क्यों चल रहा है और कैसे चल रहा है?
प्रश्न पुनः घूम फिर के वहीं आ जाता है कि मन की भाषा क्या है और यह मानव की भाषा से किस तरह अपना संबंध और सामञ्जस्य स्थापित करती है?
मन की भाषा जानने के लिये मन को समझना आवश्यक है। यदि हम यह न भी समझें कि मन अत्यधिक चंचल है और इस चंचलता पर विजय पा हम स्थितिप्रज्ञ हो सकते हैं, यदि यह भी न समझें कि मन की गति को समझना और समेटना सर्वाधिक कठिन कार्य है, तब भी हम इतना समझने का प्रयास तो अवश्य ही कर सकते हैं कि मन में शब्द किस रूप में रखे जाते हैं और समय आने पर किस रूप में उपयोग में लाये जाते हैं। यह प्रयास विशुद्ध बौद्धिक और अतियथार्थवादी दृष्टिकोण लिये होगा। अध्यात्म में लोगों को असुविधा हो तो विज्ञान की राह चलते हैं। वैसे बताते चलें कि इस विषय में विज्ञान और भारतीय अध्यात्म की समझ में कोई विशेष अन्तर नहीं है और विश्व भर के वैज्ञानिक भारतीय अध्यात्म की गहराई से न केवल प्रभावित हुये हैं, वरन अधिकता से अधिक अभिभूत भी हैं।
मानव मस्तिष्क में २ अरब से भी अधिक तन्त्रिकातन्तु हैं, ये तन्त्रिकातन्तु मस्तिष्क को सारे शरीर से जोड़े रहते हैं। आँख, कान, नाक आदि हिस्से जो गर्दन के ऊपर हैं, वह वहीं पर और शेष हिस्सों के लिये रीढ़ की हड्डी के बीच से ये तन्तु जाते हैं। यह एक आश्चर्य ही है कि इतनी घनी और महीन वायरिंग हमारे शरीर में स्वतः ही विकसित हो जाती है। उससे भी अधिक आश्चर्य उन मूढ़ों पर होता है जिनके प्रायिकतावादी सिद्धान्त के अनुसार अणुओं के करोड़ों वर्षों तक आपस में टकराते रहने से इस तरह के जटिल तन्त्र स्वतः ही बन गये। हजारों वर्षों तक तो हम देखते आये हैं, हवा के चलने से आज तक एक घर क्या, अपने आप एक सीधी दीवार नहीं बनी है।
जब भी ये तन्त्रिकातन्तु सक्रिय होते हैं, इनमें बहुत अल्पमात्रा में विद्युत बहती है। जब कई सारे तन्तु एक साथ किसी कार्य में लगे होते हैं, तो उत्पन्न विद्युत को मापा जा सकता है। इनका एक आयाम और एक आवृत्ति होती है। तथ्यों की माने तो एक पूरी तरह से सक्रिय मस्तिष्क १० वॉट तक की विद्युत उत्पन्न कर सकता है। जब मस्तिष्क गति से कार्य करता है तब आवृत्ति अधिक होती है, जब विश्राम की स्थिति में होता है तो आवृति कम होती है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगों में इस आवृत्ति को मापा और उसे क्रियागत वर्गों में सजाया। विभिन्न प्रकार के कार्यों में मस्तिष्क को कौन सा भाग प्रयोग में आता है, इसका भी पूर्ण अध्ययन हो चुका है।
इससे यह तो निश्चित होता है कि हम जो भी देखते, सुनते, छूते, चखते, सूँघते हैं, वह विद्युत लहरों के रूप में प्रवाहित होकर हमारे मस्तिष्क में संचित हो जाता है। वहाँ पर संचित कैसे होता होगा, कैसे स्मृति के रूप में बना रहता होगा, कैसे विचार बन कर सक्रिय होता होगा, और कैसे निर्णय होने के पश्चात कर्मेन्द्रियों तक पहुँचता होगा, यह एक बड़ा रहस्य है। विद्युत लहरों का आयाम और आवृत्ति मापने के अतिरिक्त वैज्ञानिक मस्तिष्क के और अन्दर तक नहीं अतर पाये हैं अब तक।
चलिये हम मान कर चलें कि जो संचित होता है, वह मानव की भाषा में ही संचित होता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कम्प्यूटर हमारे लेखन को यथावत रखता है, भले ही प्रक्रिया में ० और १ का उपयोग करता हो। यदि ऐसा है तो स्वप्न की स्थिति में, जब वाह्य जगत से संपर्क टूटा होता है, जब मस्तिष्क में स्मृतियों का हिस्सा सक्रिय रहता है, उस स्थिति में स्वप्न के सारे कार्यक्रम मानव की भाषा में होने चाहिये। यही नहीं, यथार्थ जगत के रंग, स्वाद आदि भी यथावत स्वप्न में आने चाहिये। कहने का आशय यह कि जो स्वप्न हों, वह भी यथार्थ जगत के जैसे लगने चाहिये। यदि ऐसा है तो अतियथार्थवादी चित्रों में जागृत जगत के ही लक्षण यथावत दिखने चाहिये। ऐसा पर है नहीं, बहुधा अवचेतन की स्थिति में प्राप्त संप्रेषण संचित ज्ञान से कहीं अधिक उन्नत और सर्वथा भिन्न होता है। मानव के वैज्ञानिक इतिहास को गढ़ने वाले न जाने कितने ज्ञानसूत्र आश्चर्यजनक रूप से अवचेतन से ही प्रकट हुये हैं।
स्वप्न की अपनी अलग ही भाषा है, यदि ऐसा नहीं होता तो न केवल सर्रियलिज्म या अतियथार्थवादी धारा के चित्र भी जागृत जगत जैसे होते, वरन स्वप्नों में भी रंग होते, स्वप्न वर्तमान घटनाओं से भरे होते, स्वप्न बड़े ही नियमित प्रकार के होते। यहाँ तक कि स्वप्न की भाषा को भी मन की भाषा कहना उचित न होगा, क्यों स्वप्न अनियन्त्रित होते हैं, जब कि किसी भी भाषा का एक निश्चित स्वरूप होता है।
यह जानकर कि मन की भाषा, मानव की भाषा से सर्वथा भिन्न है, अगली पोस्ट में हम मन को और उसकी भाषा को समझने के लिये एक नये परिप्रेक्ष्य का आधार लेंगे। कई बार एक ही वस्तु को कई दृष्टिकोण से देखने से उसके बारे में सम्यक ज्ञान मिलता है, बहुधा पूरा ज्ञान मिलता है। मन की भाषा किन किन अवस्थाओं से होकर जाती है और वहाँ पर कैसे परिवर्धित होती है, यह समझने के लिये ध्यानस्थ मनीषियों के अद्भुत विश्व को बाहर से निहारेंगे।
मन की गति निराली है, उसे और उसकी भाषा समझने को नए परिपेक्ष्य का आधार लिए अगली कड़ी प्रतिक्षा रहेगी!
ReplyDeleteआपने लिखा....
ReplyDeleteहमने पढ़ा....
और लोग भी पढ़ें;
इसलिए आज बुधवार 14/08/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in ....पर लिंक की जाएगी.
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है .
धन्यवाद!
बहुत ही ज्ञान वर्धक आलेख |
ReplyDeleteसागर के लहरों को बांधने का प्रयास साथ ही साथ सागर में विलीन होता हुआ। अगली डुबकी का इंतजार
ReplyDeleteरोचक और ज्ञान वर्धक आलेख
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें
स्वप्न की अवस्था अर्ध जागृत होने की अवस्था है -जिसमें नेत्र गोलार्ध तेजी से नाचते रहते हैं -सल्वाडोर डोर डाली के कई चित्र हमने देखे हैं -जैसे एक तो वो सूखे पेड़ का चित्रांकन है जो बहुत फेमस हुआ है -मुझे तो यह पूरी विधा ही एक फितूरबाजी लगती है सचमुच सडियल(surreal ) .... और अतियथार्थ का मतलब है जो यथार्थ का अतिक्रमण करता हो प्रकारांतर से यथार्थ न हो ! यह शब्द सुपर और रियलिज्म से मिलकर बना है -सुपर रियलिज्म यानी सर्रियलिज्म ! यथार्थ का ऐसा अतिशय अतिरंजनात्मक विरूपण हो कि वह यथार्थ से ही भटक जाय! भारतीय साहित्यकारों ने गरीबी ,भुखमरी और शोषण के ऐसे अतिरन्ज्नात्मक विवरण तो प्रस्तुत किये ही है -मार्क्सवादियों और प्रगतिवादियों ने ऐसा बहुत किया है!
ReplyDeleteऔर जिन्हें आप मूढ़ कह रहे हैं आज उनके ही बिना और बूते यह सब वर्णन भी कर पा रहे हैं अन्यथा आध्यात्म की उन्ही अंधेरी गलियों में हम घूमते होते जहाँ प्रकाश की किरण मिले या न मिले गहरा अंधकूप ही बहुतों को मिला है!
Evolution की Probability theory को वैज्ञानिकों ने ही ध्वस्त किया है। Information Theory के अनुसार किसी भी तन्त्र का अपना information content होता है उसे स्वतः विकसित होने में कितना समय लगेगा या नियत समय में उसके विकसित होने की क्या प्रायिकता है, इस विषय पर उसमें अध्ययन होता है। उनके अनुसार Probability theory of Evolution पक्की मूढ़ता ही है।
Deleteआश्चर्य की बात तो यह है कि वैज्ञानिकों का एक वर्ग, जो औरों की मान्य ग्रन्थों को बिना असिद्ध किये कपोल कल्पना बताता है, स्वयं भी संभावनाओं की इतनी गप्प छोड़ता है, बे सिर पैर की। समस्या बस उन्हीं से है, विज्ञान से भला क्यों हो?
अरविन्द जी ====
Delete-----प्रथम तो यह शब्द आध्यात्म नहीं है अपितु 'अध्यात्म' है ठीक करलें |
----अध्यात्म आत्मा के बारे में . सेल्फ के बारे में, मन की दृड़ता, मन अर्थार मनुष्य की स्वयं की शक्ति के बारे में बताता है ..उसका भौतिक प्रगति हो या न हो..कितनी हो..कहाँ तक हो इससे कोइ लेना देना नहीं है किसी अध्यात्म -ज्ञान में यह नहीं लिखा कि आप भौतिक प्रगति न करिए ..अध्यात्म उचित जीवन जीने की प्रक्रिया बताता है जिसके बाद ही भौतिक प्रगति के द्वार खुलते हैं .. अध्यात्म ज्ञान होने पर ही स्वयं का ज्ञान होता है एवं मानव अपने आत्मविश्वास से आगे सांसारिक-भौतिक-वैज्ञानिक प्रगति करता है ...
---आज तक किस को अध्यात्म से गहरा अंधकूप मिला है कोइ उदाहरण दें ...एक उदाहरण तो मुझे याद है ..वैज्ञानिक विवेकानंद अध्यात्म से विवेकानंद होगये और आज जाने कितनों के पथप्रदर्शक हैं ...
---एसा कौन सा वैज्ञानिक है जो अंततः अध्यात्म को नत-शीश न हुआ हो..
भारतीय साहित्यकारों ने गरीबी, भुखमरी और शोषण का जो आरुप प्रस्तुत किया है उसे अतिरन्जनात्मक कहना ठीक नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि यह विरुपण है और यह यथार्थ नहीं है। गरीबी,भुखमरी,शोषण यदि देखें तो प्रकृतिवत्त अवस्था में बेमानी शब्द हैं। परन्तु दुष्टों ने सदा से शीर्ष पद कब्जाए हैं, दुनिया में शासन किया है। उनके शासन में जो सामाजिक असन्तुलन,विसंगतियां जन्मीं वे हीं साहित्यकारों की साहित्य-सामग्री हुईं। और ऐसा होना कालखण्ड विशेष के नैतिक-मौलिक प्रतिमानों के अनुरुप था। ...............बात प्रवीण जी के स्वप्न-जीवन और भौतिक-दुनिया के व्यवहार के अनेकों पहलुओं से उत्पन्न व्यक्तिगत अवचेतन प्रभाववाले आलेख से उठी है। मैं कहना चाहूंगा कि इसमें प्रवीण जी ने सही प्रश्न उठाए हैं.....यथा......(हम जो भी देखते, सुनते, छूते, चखते, सूँघते हैं, वह विद्युत लहरों के रूप में प्रवाहित होकर हमारे मस्तिष्क में संचित हो जाता है। वहाँ पर संचित कैसे होता होगा, कैसे स्मृति के रूप में बना रहता होगा, कैसे विचार बन कर सक्रिय होता होगा, और कैसे निर्णय होने के पश्चात कर्मेन्द्रियों तक पहुँचता होगा, यह एक बड़ा रहस्य है।)............ निश्चित ही धरती और इसके विद्यमान और अविद्यमान जीव-जन्तुओं, उनके व्यवहारों-अनुभवों का संसार स्वयं में एक आश्चर्य है। इसके साथ विज्ञान, अध्यात्म के जुड़ जाने से इसके कहीं और निकलने के स्वयंमेव सूत्र भी स्थापित हो जाते हैं। ऐसे में विद्वता के अवचेतित हो जाने को नकारा नहीं जा सकता और ना ही इससे उत्पन्न साहित्य-दर्शन को अतिरन्जना की श्रेणी में ही रखा जा सकता है। क्या जीवन-सिद्धान्त अपने आप में अवचेतन नहीं है?
Delete"मेरा उद्देश्य साहित्य, संगीत और कला के नाम पर किसी भी प्रकार की ऐसी लत को बढ़ावा देने का नहीं है, जो नशे आदि की ओर प्रेरित करे।"
ReplyDeleteअच्छा किया आपने यह सन्देश देकर स्थिति स्पष्ट कर दी नहीं तो मै भी आज ऐसा ही कुछ कर कुछ नया लिखने की सोच रहा था । अब यह प्रयोग जाता रहा ।
मन की निराली गति। जित्ता पकड़ में आता है उससे ज्यादा छूट जाता है!
ReplyDeleteमानव के वैज्ञानिक इतिहास को गढ़ने वाले न जाने कितने ज्ञानसूत्र आश्चर्यजनक रूप से अवचेतन से ही प्रकट हुये हैं।
ReplyDeleteगहन अध्ययन से उपजा सार्थक आलेख .....!!
मन तो नारद है इससे पार पाना मुश्किल है अलबत्ता इससे दोस्ती का हाथ बढा देना चाहिये. आपने ज्ञान व विज्ञान के बारीक अंतर के सहारे बहुत ही सुंदर व्याख्या की है. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
पर इसे बिना समझे दोस्ती कर बैठे तो किसी दिन आपको घोड़े से धकिया देगा।
Deleteहां ये तो हम पर निर्भर करता है कि दोस्ती किससे करें और किस हद तक करें? मन से दोस्ती करने का मेरा अभिप्राय यह है कि मन से दुश्मनी या उसका निग्रह करने से दमन होगा और दमन कभी भी सकारात्मक नही होता.
Deleteइसलिये कुछ हम मन की माने, कुछ मन हमारी माने तो सकारात्मक बात बन सकती है. ऐसा भी कुछ अभ्यास पूर्वक हो सकता है.
रामराम.
मन की गति कहाँ समझ आती है ? इस लेख की गहनता को समझने के लिए फिर से पढ़ना पड़ेगा ।
ReplyDeleteऐसे लेख पढ़कर स्वयं को समझने का मार्ग मिलता है..... संभवतः इसी लिए कहते हैं मन की माया न्यारी ही है ....
ReplyDeleteसपनो को समझने के बजाए बिस्तर और नींद के साथ उनका भी त्याग कर दिया जाए तो बेहतर .. यहीं मन पर भी लागू हो तो बहुत बेहतर .. हमारे देखे ज्यादा सोचने के बजाए वर्तमान के साथ कदम मिला कर चला जाए, तो ज्यदा भला हो .. बाकी सबके अपने अपने शगल है ... उसकी पूरी आज़ादी है ..
ReplyDeleteलिखते रहिये ...
मन में बुने जाल को काश त्याग पाना इतना सरल होता। कौन नहीं चाहता वर्तमान में जीना, पर भूत और भविष्य मिलकर वर्तमान को खा जाते हैं, इसी मन के सौजन्य से।
Deletematter अब गहन होता जा रहा है - आभार
ReplyDeleteमन की यात्रायें अनंत होती हैं।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रोचक तरीके से आपने ज्ञानवर्धक आलेख प्रस्तुत किया है ...आपके हर आलेख में बहुत कुछ सीखने-समझने को मिलता है ...धन्यवाद
ReplyDeleteहमारी पहुँच में सिर्फ़ 10% है शेष 90% जो अवचेतन में समाया है ,ज्ञात होने लगे तो संभव है बहुत सी समस्याओं का हल मिल जाए !
ReplyDeleteबहुत सुंदर रोचक ज्ञानवर्धक आलेख ,,
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,
RECENT POST: आज़ादी की वर्षगांठ.
मस्तिष्क तो इनफॉर्मेशन को विद्युत तरंगो के रूप में संग्रहित करता है पर मन ओर मस्तिष्क में क्या फर्क है यह तो सायकिएट्रिस्ट ही बता पायेंगे । बार बार पढना होगा इन लेखों को ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर..रोचक ज्ञानवर्धक आलेख ,,आप को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,
ReplyDeletePraveen, beautiful and insightful post and the line "कई बार एक ही वस्तु को कई दृष्टिकोण से देखने से उसके बारे में सम्यक ज्ञान मिलता है, बहुधा पूरा ज्ञान मिलता है।" sums it all well...its strange that last night I was chatting with a writer friend in Goa and we were discussing about different substances (be alcohol, drugs or music) artist/thinkers/writer indulge into to isolate themselves from the outer influences/conditioning to focus within and look at everything around from a 360 degree perspective...my addiction is 'silence, solitude' to focus within and then transform that into my work...what comes out on the canvas or on images I make is the execution of what's been going on within and that can be read in as many ways as there are number of beings in this universe...There are no rights or wrong...its our conditioning that makes us judge and therefore pain, separation and bitterness....my current work is on 'blurring' these boundaries. Thank you for sharing this post, always inspiring!
ReplyDeleteSachmuch sapno kii duniya badi vichitr hoti hai...aapke lekh se kai achhi jaankariyan mil jaati hain...thanks. and Happy Independence Day
ReplyDeleteबहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक आलेख.जागृत अवस्था और अवचेतन मन में कहीं न कहीं संबंध है.
ReplyDelete......Rajeev Kumar Jha(http://dehatrkj.blogspot.com)
बहुत बढ़िया ज्ञानवर्धक भावाभिव्यक्ति …
ReplyDeleteअनेजदेकं मनसो ज़वीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत |
ReplyDeleteतद्धावतोsन्यानत्येति तिष्ठन्तस्मिन्न्पो मातरिश्वा दधाति |
-- वह एक ब्रह्म स्वयं स्थिर रहते हुए भी मन की गति से भी तीब्र चलकर समस्त मन, इन्द्रिय , जगत के कारण-कार्य को धारण करता है...
बहुत बढ़िया.. स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें...
ReplyDeleteअत्यंत रोचक विषय। अगले लेख की प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteस्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.
अत्यंत रोचक विषय। अगले लेख की प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteस्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.
बड़ा ही गूढ़ मगर रोचक विषय चुना है इस बार .
ReplyDeleteमन को समझना ..अवचेतन मस्तिष्क को जन सकना ..
बड़ा ही कठिन है.
इस लेख की अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी.
स्वप्न की अपनी अलग ही भाषा है, यदि ऐसा नहीं होता तो न केवल सर्रियलिज्म या अतियथार्थवादी धारा के चित्र भी जागृत जगत जैसे होते, वरन स्वप्नों में भी रंग होते, स्वप्न वर्तमान घटनाओं से भरे होते, स्वप्न बड़े ही नियमित प्रकार के होते। यहाँ तक कि स्वप्न की भाषा को भी मन की भाषा कहना उचित न होगा, क्यों स्वप्न अनियन्त्रित होते हैं, जब कि किसी भी भाषा का एक निश्चित स्वरूप होता है।
ReplyDeleteजहां तक सपनों का सवाल है स्वप्न बहरूपिया बनके आते हैं हमारी नींद की हिफाज़त करने। कामयाब स्वप्न व्यक्ति को याद ही नहीं रहते हैं। जो टूट जातें हैं ख़्वाब वे नाकामयाब स्वप्न कहलाते हैं। वही याद रहते हैं। स्वप्न में आप अप्राप्य को पा लेते हैं।
अवचेतन के पास कोई दिमाग नहीं होता। चेतन मन में आई हर बात को वह आदेश मान लेता है। इसीलिए दमित वासनाएं ,कुंठाएं स्वप्न में पूरी होतीं हैं। मौज में ले आते हैं स्वप्न अधूरे जीवन को। मन की मन ही जाने ?आत्मा की मनन शक्ति को मन कहा जाता है। परखने की शक्ति को बुद्धि जो सिर्फ चेतन मन के पास रहती है जो विचार वीथी को तौलती रहती है।
भाषा कैसी मन में तो विचार पैदा होतें हैं नदी है मन तो। भाषा तो अर्जित ज्ञान है।
ReplyDeleteमन तो आसमान है, दिखने में तो नीला लेकिन है क्या वो पता नहीं...
ReplyDeleteमन की भाषा विविध संकल्प-विकल्प पैदा करने वाली है...और धारणा स्थापित करने वाली भी...
ReplyDeleteव्यक्ति की भाषा डिप्लोमेटिक टाइप की होती है..जिससे न तो कोई निर्धार हो पाता है और नाहीं कोई संकल्प।।।
Quite an interesting read, art propels beautiful thought process.
ReplyDeleteमानव मस्तिष्क में २ अरब से भी अधिक तन्त्रिकातन्तु हैं, ये तन्त्रिकातन्तु मस्तिष्क को सारे शरीर से जोड़े रहते हैं। आँख, कान, नाक आदि हिस्से जो गर्दन के ऊपर हैं, वह वहीं पर और शेष हिस्सों के लिये रीढ़ की हड्डी के बीच से ये तन्तु जाते हैं। यह एक आश्चर्य ही है कि इतनी घनी और महीन वायरिंग हमारे शरीर में स्वतः ही विकसित हो जाती है।
ReplyDeleteजानकारी का अनुपम खजाना .....
आग जलाकर उपनिषदों ने इन सत्यों को इतनी शुद्धतम भाषा में कह दिया है कि कोई भी परिष्कार असंभव है .हाँ! वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अब राख की कितनी भी व्याख्या की जा सकती है.
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