मन की भाषा के प्रश्न का प्रारम्भ तो ज्ञानदत्तजी के सरल से अवलोकन से हुआ था, पर वह छोटी सी प्रतीत होने वाली लहर अपने अन्दर इतनी उत्सुकता लेकर आयेगी, इसका तनिक भी आभास नहीं था। पिछले कुछ दिन बस भाषा पर लिखे गये शोधपत्रों को पढ़ने में बीते हैं। यह प्रश्न अविश्वसनीय ढंग से न जाने कितनी विधाओं में फैला है, मनोविज्ञान, दर्शन, शैक्षणिक क्षेत्र, भाषाविज्ञान, ध्वनिशास्त्र, उपनिषद, अध्यात्म आदि से होता हुआ पुनः मन पर आकर टिक जाता है। लगा था कि पिछली पोस्ट पर आनी वाली टिप्पणियाँ रही सही उलझन सुलझा देंगी, सीधे ही निष्कर्ष पर पहुँचा देंगी, पर जितना अधिक छोर को समेटना चाहा, जितना अधिक चिन्तन का धागा लपेटता गया, उतना अधिक उलझता गया। प्रश्न अधिक हो गये, विमायें अधिक हो गयीं, जिस मन की मौलिक भाषा ढूँढ़ने निकला था, वही मन अत्यधिक रहस्यमयी हो गया।
बड़ा ही रोचक लगता है न, कि चिन्तन अपने बारे में ही चिन्तन कर रहा है, अपनी भाषा के बारे में अपनी भाषा में ही चिन्तन कर रहा है। ठीक उसी तरह कि भोजन स्वयं को खा रहा है, स्वयं का ही पोषण कर रहा है। वैसे भी सारा चिन्तन स्वयं नहीं किया, इस चिन्तन पर ढेरों चिन्तन हो चुका है, आज से नहीं, सृष्टि के आदि बिन्दु से चल रहा है। यदि अस्तित्व के मूल प्रश्न को अब भी उठाना पड़ रहा है, तब तो यह प्रश्न अस्तित्व से भी बड़ा हो गया। जब सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी स्वयं को अकेले पा पूरी तरह संभ्रमित हो गये थे, उन्हें कुछ भी नहीं सूझ रहा था, तब उन्होंने ईश्वर को पुकारा और ईश्वर ने उनके अन्तःकरण में सारा ज्ञान प्रस्फुटित किया। ज्ञान के आनन्द से विह्वल ब्रह्मा स्तुति गाने लगे, ब्रह्मसंहिता के रूप में, गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि। कभी सोचा है, वह प्रथम पुकार और वह प्रथम ज्ञान किस भाषा में रहा होगा?
ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न उमड़ पड़ते हैं जब मन को कुरेदा जाता है, स्वयं की पहचान का कोई भी बिन्दु झंकृत किया जाता है, अनुनाद होने लगता है, बहुत देर तक, मानो अन्तःकरण को अपने बारे में कुछ पता होने देना अच्छा ही नहीं लगता है। पर जो भी हो, प्रश्न तो तब तक उठाये जायेंगे जब तक अस्तित्व है, सब जान जाने तक प्रश्न करना ही तो हमारी मूल प्रवृत्ति है, संभव है वेदांत सी जिज्ञासा ही हमारे निर्वाण का मार्ग हो।
मन की अपनी ही भाषा होती है, यह तो निश्चित है, पर उस भाषा का स्वरूप क्या होता है, उसका हमारे अस्तित्व और वाह्य विश्व से क्या संबंध है, इन प्रश्नों के उत्तर अपने आप में गहरे प्रश्न छोड़ जाते हैं। ऐसे प्रश्न, जो लोगों ने अनुभव तो किये हैं पर उसे व्यक्त नहीं कर पाये। व्यक्त कर पायें तो कैसे, क्योंकि व्यक्त करने के लिये जिस भाषा का हम उपयोग करते हैं, वह भाषा यह कार्य करने में सक्षम ही नहीं। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार आप रोमन अंकों में दो बड़ी संख्याओं का गुणा करने या पृथ्वी से चाँद की दूरी मापने का प्रयास करें, क्योंकि बिना दशमलव और शून्य के सिद्धान्त के यह संभव ही नहीं। उसे गणित की रोमन भाषा में नहीं वरन दशमलवीय भाषा में ही व्यक्त किया जा सकता है।
मन की भाषा की गहनता को समझने के लिये एक तुलना करना उचित रहेगा। मन की भाषा की, मानव की भाषा की और कम्प्यूटर की भाषा की। संभवतः यह तुलना मन की भाषा के बारे में कुछ कल्पना सूत्र दे जाये।
यदि हमें आपको कोई शब्द कम्प्यूटर के माध्यम से ईमेल करके भेजना है तो कम्प्यूटर उस टाइप शब्द को ० या १ में परिवर्तित कर एक श्रंखला बना लेगा। जो ईमेल होगी वह इन्हीं ० और १ की श्रंखलाओं के पैकेट होंगॆ। वह पैकेट जब दूसरे कम्प्यूटर पर पहुँचेंगे तो वह उन्हें वापस संकलित कर स्क्रीन पर वही शब्द दिखायेगा। कम्प्यूटर को ० और १ के अतिरिक्त कुछ आता ही नहीं है, किसी भी शब्द को वह ० और १ में तोड़ता है और तभी प्रेषित कर पाता है। हमें यह देख कर और समझ कर बहुत अटपटा लग सकता है, पर यही कम्प्यूटर की विधि है, यही उसकी विवशता है। वहीं दूसरी ओर हम वह शब्द मानव की भाषा में एक दूसरे से सहज ही कह देते हैं, न केवल शब्द, वरन सम्बन्धित रंग, रूप, आकार आदि सभी संप्रेषित कर देते हैं, एक ही शब्द में।
इसी प्रकार हमारे मन की भाषा के भाव हैं, उन्हें किसी दूसरे व्यक्ति को समझाने के लिये हमें एक मानवीय भाषा की आवश्यकता होती है। शब्द, वाक्य और व्याकरण उस संप्रेषण की आवश्यक सामग्री हैं, बिना उनके हम संवाद कर ही नहीं सकते। किसी के प्रति संवेदना व्यक्त करने के शाब्दिक प्रयास बड़े भारी भरकम होते हैं और उन प्रयास का भावनात्मक सहजता से अन्तर मानवीय भाषा की सीमित सीमाओं को स्पष्ट रूप से बता देता हैं। यह सब जानते हुये भी हम मानवीय भाषा से बद्ध हैं, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कम्प्यूटर अपनी भाषा से बद्ध है। किसी की एक मुस्कान पर लोग अध्याय लिख देते हैं, काश वह मुस्कान लिखी व समझायी जा सकती, मन की भाषा में, एक ही शब्द में।
मन में आये एक विचार को व्यक्त करने में कितने शब्द सजाने पड़ते हैं और मन है कि ऐसे सहस्र विचारों की श्रंखलायें लिये बैठा है, एक के बाद एक सहज ही प्रस्तुत। मन का एक झोंका मानवीय भाषा के सैकड़ों अध्यायों से नहीं व्यक्त हो पाता है, कुछ न कुछ छूट ही जाता है, कुछ न कुछ संप्रेषण दोष रह ही जाता है। मात्र कहने में ही नहीं, वरन उसे समझने में भी कितना कुछ छूट जाता है। उसके मन में क्या विचार जगा, उसने उसे कैसे व्यक्त किया, हमने उसे कैसे समझा, यदि तुलना कर सकते तो लगता कि जिस प्रकार कम्प्यूटर महोदय इतने श्रम के बाद केवल शब्द ही संप्रेषित कर पाये थे, रूप, रंग, आकार के बिना, हम भी न जाने भाव की कितनी विमायें छोड़ देते हैं, जब मन की भाषा के भावों को मानव की भाषा में व्यक्त करते हैं। संगीत और चित्रों की भाषा में मन की भाषा के कुछ अंश देखे जा सकते हैं।
यदि मन की भाषा श्रेष्ठ है तो क्या मानव की भाषा से हमारा कोई विकास नहीं होता है? मानव की भाषा के बिना तो समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। सारे ज्ञान को प्रचारित और प्रसारित करने का कार्य तो भाषा ही करती है। नये सिद्धान्त, नयी प्रमेय, नये आविष्कार, नये विचार कैसे समस्त मानवता को प्राप्त हो पायेंगे। पर यह सारा ज्ञान स्रोत मन की भाषा से ही निकला है, मन की भाषा में समझा गया है, मानव की भाषा बस वह सीमित प्रयास कर पाती है, बार बार कई प्रयासों में उसे संप्रेषित करने का।
किसी भी भाषा का ज्ञानकोष, उस भाषा बोलने वाले समाज के लोगों की सम्मिलित मन की भाषा में उत्पन्न ज्ञान का संग्रहण होता है। कोई नयी मानवीय भाषा जानकर हम उन सारे ज्ञानकोष को अपना सकते हैं, अपना ज्ञानकोष समृद्ध कर सकते हैं। भिन्न भाषाओं मे फैली इस निधि को समेटना और सहेजना निश्चय ही मानवता का प्रमुख कार्य है, पर जिस मन की भाषा से यह सकल ज्ञान उत्प्रेरित रहा है, संवर्धित हुआ है, नयी विमाओं को छूकर आया है, उसे जानने और अनुभव करने का प्रयास भी हो, उस भाषा को जानने का प्रयास, जिस भाषा में हम मूलतः चिन्तन करते हैं।
अगली पोस्ट में मन की भाषा में और गहरे उतरेंगे और वह शब्द को किस तरह प्रभावित करती है या प्रभावित होती है, इन तथ्यों को भी समझेंगे। और आप निश्चय मानिये कि जो मन आपको सदा रोचकता बनाये रखने के लिये कचोटता रहता हो, उसके बारे में जानना कितना रोचक होगा?
बड़ा ही रोचक लगता है न, कि चिन्तन अपने बारे में ही चिन्तन कर रहा है, अपनी भाषा के बारे में अपनी भाषा में ही चिन्तन कर रहा है। ठीक उसी तरह कि भोजन स्वयं को खा रहा है, स्वयं का ही पोषण कर रहा है। वैसे भी सारा चिन्तन स्वयं नहीं किया, इस चिन्तन पर ढेरों चिन्तन हो चुका है, आज से नहीं, सृष्टि के आदि बिन्दु से चल रहा है। यदि अस्तित्व के मूल प्रश्न को अब भी उठाना पड़ रहा है, तब तो यह प्रश्न अस्तित्व से भी बड़ा हो गया। जब सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी स्वयं को अकेले पा पूरी तरह संभ्रमित हो गये थे, उन्हें कुछ भी नहीं सूझ रहा था, तब उन्होंने ईश्वर को पुकारा और ईश्वर ने उनके अन्तःकरण में सारा ज्ञान प्रस्फुटित किया। ज्ञान के आनन्द से विह्वल ब्रह्मा स्तुति गाने लगे, ब्रह्मसंहिता के रूप में, गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि। कभी सोचा है, वह प्रथम पुकार और वह प्रथम ज्ञान किस भाषा में रहा होगा?
ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न उमड़ पड़ते हैं जब मन को कुरेदा जाता है, स्वयं की पहचान का कोई भी बिन्दु झंकृत किया जाता है, अनुनाद होने लगता है, बहुत देर तक, मानो अन्तःकरण को अपने बारे में कुछ पता होने देना अच्छा ही नहीं लगता है। पर जो भी हो, प्रश्न तो तब तक उठाये जायेंगे जब तक अस्तित्व है, सब जान जाने तक प्रश्न करना ही तो हमारी मूल प्रवृत्ति है, संभव है वेदांत सी जिज्ञासा ही हमारे निर्वाण का मार्ग हो।
मन की अपनी ही भाषा होती है, यह तो निश्चित है, पर उस भाषा का स्वरूप क्या होता है, उसका हमारे अस्तित्व और वाह्य विश्व से क्या संबंध है, इन प्रश्नों के उत्तर अपने आप में गहरे प्रश्न छोड़ जाते हैं। ऐसे प्रश्न, जो लोगों ने अनुभव तो किये हैं पर उसे व्यक्त नहीं कर पाये। व्यक्त कर पायें तो कैसे, क्योंकि व्यक्त करने के लिये जिस भाषा का हम उपयोग करते हैं, वह भाषा यह कार्य करने में सक्षम ही नहीं। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार आप रोमन अंकों में दो बड़ी संख्याओं का गुणा करने या पृथ्वी से चाँद की दूरी मापने का प्रयास करें, क्योंकि बिना दशमलव और शून्य के सिद्धान्त के यह संभव ही नहीं। उसे गणित की रोमन भाषा में नहीं वरन दशमलवीय भाषा में ही व्यक्त किया जा सकता है।
मन की भाषा की गहनता को समझने के लिये एक तुलना करना उचित रहेगा। मन की भाषा की, मानव की भाषा की और कम्प्यूटर की भाषा की। संभवतः यह तुलना मन की भाषा के बारे में कुछ कल्पना सूत्र दे जाये।
यदि हमें आपको कोई शब्द कम्प्यूटर के माध्यम से ईमेल करके भेजना है तो कम्प्यूटर उस टाइप शब्द को ० या १ में परिवर्तित कर एक श्रंखला बना लेगा। जो ईमेल होगी वह इन्हीं ० और १ की श्रंखलाओं के पैकेट होंगॆ। वह पैकेट जब दूसरे कम्प्यूटर पर पहुँचेंगे तो वह उन्हें वापस संकलित कर स्क्रीन पर वही शब्द दिखायेगा। कम्प्यूटर को ० और १ के अतिरिक्त कुछ आता ही नहीं है, किसी भी शब्द को वह ० और १ में तोड़ता है और तभी प्रेषित कर पाता है। हमें यह देख कर और समझ कर बहुत अटपटा लग सकता है, पर यही कम्प्यूटर की विधि है, यही उसकी विवशता है। वहीं दूसरी ओर हम वह शब्द मानव की भाषा में एक दूसरे से सहज ही कह देते हैं, न केवल शब्द, वरन सम्बन्धित रंग, रूप, आकार आदि सभी संप्रेषित कर देते हैं, एक ही शब्द में।
इसी प्रकार हमारे मन की भाषा के भाव हैं, उन्हें किसी दूसरे व्यक्ति को समझाने के लिये हमें एक मानवीय भाषा की आवश्यकता होती है। शब्द, वाक्य और व्याकरण उस संप्रेषण की आवश्यक सामग्री हैं, बिना उनके हम संवाद कर ही नहीं सकते। किसी के प्रति संवेदना व्यक्त करने के शाब्दिक प्रयास बड़े भारी भरकम होते हैं और उन प्रयास का भावनात्मक सहजता से अन्तर मानवीय भाषा की सीमित सीमाओं को स्पष्ट रूप से बता देता हैं। यह सब जानते हुये भी हम मानवीय भाषा से बद्ध हैं, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कम्प्यूटर अपनी भाषा से बद्ध है। किसी की एक मुस्कान पर लोग अध्याय लिख देते हैं, काश वह मुस्कान लिखी व समझायी जा सकती, मन की भाषा में, एक ही शब्द में।
मन में आये एक विचार को व्यक्त करने में कितने शब्द सजाने पड़ते हैं और मन है कि ऐसे सहस्र विचारों की श्रंखलायें लिये बैठा है, एक के बाद एक सहज ही प्रस्तुत। मन का एक झोंका मानवीय भाषा के सैकड़ों अध्यायों से नहीं व्यक्त हो पाता है, कुछ न कुछ छूट ही जाता है, कुछ न कुछ संप्रेषण दोष रह ही जाता है। मात्र कहने में ही नहीं, वरन उसे समझने में भी कितना कुछ छूट जाता है। उसके मन में क्या विचार जगा, उसने उसे कैसे व्यक्त किया, हमने उसे कैसे समझा, यदि तुलना कर सकते तो लगता कि जिस प्रकार कम्प्यूटर महोदय इतने श्रम के बाद केवल शब्द ही संप्रेषित कर पाये थे, रूप, रंग, आकार के बिना, हम भी न जाने भाव की कितनी विमायें छोड़ देते हैं, जब मन की भाषा के भावों को मानव की भाषा में व्यक्त करते हैं। संगीत और चित्रों की भाषा में मन की भाषा के कुछ अंश देखे जा सकते हैं।
यदि मन की भाषा श्रेष्ठ है तो क्या मानव की भाषा से हमारा कोई विकास नहीं होता है? मानव की भाषा के बिना तो समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। सारे ज्ञान को प्रचारित और प्रसारित करने का कार्य तो भाषा ही करती है। नये सिद्धान्त, नयी प्रमेय, नये आविष्कार, नये विचार कैसे समस्त मानवता को प्राप्त हो पायेंगे। पर यह सारा ज्ञान स्रोत मन की भाषा से ही निकला है, मन की भाषा में समझा गया है, मानव की भाषा बस वह सीमित प्रयास कर पाती है, बार बार कई प्रयासों में उसे संप्रेषित करने का।
किसी भी भाषा का ज्ञानकोष, उस भाषा बोलने वाले समाज के लोगों की सम्मिलित मन की भाषा में उत्पन्न ज्ञान का संग्रहण होता है। कोई नयी मानवीय भाषा जानकर हम उन सारे ज्ञानकोष को अपना सकते हैं, अपना ज्ञानकोष समृद्ध कर सकते हैं। भिन्न भाषाओं मे फैली इस निधि को समेटना और सहेजना निश्चय ही मानवता का प्रमुख कार्य है, पर जिस मन की भाषा से यह सकल ज्ञान उत्प्रेरित रहा है, संवर्धित हुआ है, नयी विमाओं को छूकर आया है, उसे जानने और अनुभव करने का प्रयास भी हो, उस भाषा को जानने का प्रयास, जिस भाषा में हम मूलतः चिन्तन करते हैं।
अगली पोस्ट में मन की भाषा में और गहरे उतरेंगे और वह शब्द को किस तरह प्रभावित करती है या प्रभावित होती है, इन तथ्यों को भी समझेंगे। और आप निश्चय मानिये कि जो मन आपको सदा रोचकता बनाये रखने के लिये कचोटता रहता हो, उसके बारे में जानना कितना रोचक होगा?
कभी सुबह ४ बजे उठ कर ब्लोगिंग करने के लाभ पर भी विचार करें !
ReplyDeleteजारी रखिये ...
जानामि धर्मं, न च मे प्रवृत्ति। उठना चाहता हूँ, उठ नहीं पाता हूँ।
Deleteनिश्चित ही रोचक होगा!
ReplyDelete***
Will wait for the next post!
शुभप्रभात
ReplyDeleteसार्थक एक विचारणीय आलेख .....
सच
बहुत सुंदर पोस्ट
शुभप्रभात ,
ReplyDeleteइस शोध को पड़ने के बाद रोचकता और भी बढ गई है.अगले लेख का इंतजार है। ज्ञानवर्धक प्रस्तुति आभार ..
इसके बाद भी सबसे रोचक तथ्य तो यह है कि मानवी संवाद का लगभग पंचानवे फीसदी गैर वाचिक है !
ReplyDeleteयही हमारी दुर्गति है कि जो ५ प्रतिशत भी नहीं, उसे सब कुछ मान धरती में रेखायें खींच देते हैं, भाषा के नाम पर।
Deleteबहुत प्यारा लेख , अगले का अन्तजार रहेगा ! आभार आपका !
ReplyDeleteयह लेख नहीं शोध हो गया । जिज्ञासा कायम है ।
ReplyDeleteवेदान्त का प्रारम्भ भी जिज्ञासा से ही हुआ था, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा।
Deleteमन की भाषा पर गहरे से विचार। अगली पोस्ट का इंतजार।
ReplyDeleteमन की भाषा लिखनी मुश्किल !
ReplyDeleteमन की भाषा ...मानव की भाषा .....मानवता की भाषा ...शोधपूर्ण रुचिकर आलेख ...!!अगली पोस्ट की प्रतीक्षा ....!!
ReplyDeleteये आलेख संग्रहणीय है ....!!
अब आपने अपने प्रश्न को विस्तृत आकाश मे खुला छोड़ दिया है। इसके हर हरकत पे नजर रहेगी ।
ReplyDeleteसूरदास जी ने मन की आँखों से देख-देखकर वह सब व्यक्त कर दिया जो 6/6 दृष्टि वाले भी न कर सके। मन की बात कहने का शऊर जो था उनके पास। उन्होंने ने भी एक जगह अपने मन के भाव को व्यक्त करने के लिए कहा- “ज्यों गूंगे मीठे फल को रस अंतर्गत ही भावत”।
ReplyDeleteयह तो पक्की बात है कि मन को पूरा का पूरा अभिव्यक्त कर पाना किसी के लिए संभव नहीं है। साथ ही प्रकृति ने यह व्यवस्था भी दी है कि कभी-कभी एक मन की बात दूसरे मन तक बिना कुछ अभिव्यक्त किए भी पहुँच जाती है। बस दोनो फ्रिक्वेन्सी की ट्यूनिंग माकूल होनी चाहिए। बड़ा तिलस्म है जी...।
यह और रोचक इसलिये भी हो जाता है कि चित्त में जाकर पाँच ज्ञानेन्द्रियों के सिग्नल एक हो जाते हैं।
Deleteआपकी यह रचना आज शनिवार (10-08-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteबहुत आभार आपका।
Deleteमन अद्वैत है - जिसे समझाया नहीं जा सकता
ReplyDeleteआदरणीय पांडे जी,
ReplyDeleteसादर प्रणाम |
ज्ञान कभी बाहर से नही आता हैं ,यह हमारे भीतर ही होता हैं ,बस जब हम बाह्य माध्यमों से {गुरु/पुस्तके/ठोकर खाके }उसकी पहचान करते हैं ,तो ऐसा लगता हैं की हमने सीख लिया सीख लिया ...हमारा मन ,वैज्ञानिको के अनुसार चेतन व अचेतन २ प्रकार का हैं |अवचेतन मन के संदर्भ में जानकारी यहाँ देखे -“आपके अवचेतन मन की शक्तियाँ"
मैंने बहुत संक्षेप में लिखने की कोशिश की हैं |
आपने अपने पिछली पोस्ट में भि यह बताया हैं ,की हर विषय{रसायन/जीव विज्ञानं /कला...आदि},परिस्थिति ,समुदाय ,भौगोलिक स्थिति की अलग अलग भाषा हैं |जिससे मैं विल्कुल सहमत हूँ |भाषा इक्सप्रेसन का माध्यम हैं |
वैसे मुझे लगातार उत्सुकता बनी रहेंगी की आपका शोध कहा तक जाता हैं ,
बढ़िया पाठ्य सामग्री .........
आपका-डॉ अजय !
पढ़ा, अच्छा और रोचक लगा, बहुत आभार। मन बड़ा ही गहरा है, समझना भी कठिन, पर प्रयास अवश्य करना चाहिये।
Deleteबहुत गहन शोध, अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है।
ReplyDeleteItna gahan vichar to karne se ghabrahat hoti hai....aap kitna adhik gahrayi me ja rahe hain!
ReplyDeleteअपने को ही नहीं समझ पाये तो विश्व को जान लेने से क्या लाभ। कुछ भी घबराहट नहीं है, आत्म ही सहायक है और सहयोगी है।
Deleteबहुत ही सटीक और वैज्ञानिक गुत्थियों को सुलझाने की कोशीश की है आपने, अगले भाग का इंतजार रहेगा.
ReplyDeleteरामराम.
जिज्ञासु मन और ब्यग्र हो उठा...अगले शोध को पढने हेतु...
ReplyDeleteयही है, किसी भी बात अथवा चीज की गहराई में उतरो तो बहुतेरे रोचक तथ्य छुपे हैं और सिर्फ सरसरी तौर पर देखो तो कुछ भी ख़ास नहीं है !
ReplyDeleteअगले शोध की प्रतीक्षा इस शोध की सफ़लता है । बधाई
ReplyDeleteआप का शोध कार्य बहुत ही रोचक बनता जारहा है..अगले शोध की प्रतीक्षा
ReplyDeleteजब मन की भाषा समझ में आ जायेगी, तो समष्टि ही समझ में आ जाता है ।मन की भाषा तो मन ही समझता है, शब्दों में उसकी अभिव्यक्ति सीमित ही है । मूक होइ वाचाल से शायद यही तात्पर्य है ।
ReplyDeleteमन की भाषा समझने से शब्दों का भार लेकर चलने की आवश्यकता कम हो जायेगी।
Deleteओह, बहुत सुंदर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (11-08-2013) के चर्चा मंच 1334 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteबहुत आभार आपका।
Deleteसार्थक एक विचारणीय आलेख .....
ReplyDeleteबहुत सुंदर उम्दा शोधपूर्ण रुचिकर आलेख ...!!अगली पोस्ट की प्रतीक्षा में,,,
ReplyDeleteRECENT POST : जिन्दगी.
ReplyDeleteसच कहा है ...विचार मन में कम्प्युटर की ही भांति मन की भाषा -जो इलेक्त्रोंस की विविध श्रृंखलाओं में संग्रहीत व उत्पन्न/निष्पन्न होती है एवं समस्त प्राणी-जगत के लिए समान भाषा है, में संग्रहीत व उत्पन्न होते हैं ....स्थान परिष्थिति के अनुसार ये श्रंखलायें अपनी मातृभाषा या सीखी हुई भाषा के अनुसार विशिष्ट श्रृंखलाओं में गठित होती हैं एवं उसी के अनुसार विभिन्न व्यक्त भाषाओं में निष्पादित होती हैं| इसीलिये किसी भाषा को न जानने वाला व्यक्ति उसे नहीं समझ-बोल व व्यक्त कर पाता...समान भाषा-भाषी तुरंत समझ लेते हैं....
---संगीत , चित्र या हर्ष-विषाद आदि भाव ..प्राणी-मन के सहज प्राकृतिक भाषा की अभिव्यक्ति है जो बोली व लिखाई के विकास से पहले की भाषा है ..वह भी अनुभव के आधार पर ही मानव मन में विक्सित होती हैं....यदि किसी ने शेर न देखा हो तो वह शेर का चित्र देखकर कोइ प्रतिक्रिया नहीं करेगा न भय न हर्ष...
---लिपि( अक्षर) --स्वयं एक चित्र ही तो है एक विशिष्ट भाव अर्थ लिए हुए ( जो सीखा जाता है) ...जो मन के स्तर( मानव मष्तिष्क के उच्चतम चेतना क्षेत्र में विद्युत्-रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा) पर व्याख्यायित होकर क्रिया-प्रतिक्रया निष्पन्न करता है...
---मन के रंग हज़ार.....
आश्चर्य है, मन की कार्य शैली। गूगल महाराज मन का ही मॉडल अपना रहे हैं अपने प्रचारतंत्रों में।
Deleteइंतज़ार रहेगा क्योंकि मन भी बाहर से दृश्य और श्रव्य जगत ध्वनी और रूप से आता है भाषा भी बाहर से लोक भाषा तो सहज स्फूर्त होती है गढ़ी नहीं जाती है। शाश्त्र मुक्त रहती है।
ReplyDeleteगाह्य संकेतों की विविधता और उनका विश्लेषण ही मन को अत्यन्त रोचक बना देता है।
Deleteमन की भाषा को बस महसूस किया जा सकता है ... उसको हूबहू उतारना दुर्गम कार्य है ...
ReplyDeleteसच है, व्यक्त करने की अपनी सीमायें हैं।
Deleteमन भी कम्पाइलर की तरह अंदर ही अन्दर काम करता है...सामने कुछ और दिखता है...
ReplyDeleteकिसी भी कमप्यूटर से कहीं तेज और व्यवस्थित।
Deleteस्पर्श ै और आँखों की भाषा मन की भाषा के सब से पास होती है ।
ReplyDeleteयोगसूत्र भी कुछ ऐसा ही कहते हैं, मन में आकार बनते हैं।
Deleteकिसी भी भाषा का ज्ञानकोष, उस भाषा बोलने वाले समाज के लोगों की सम्मिलित मन की भाषा में उत्पन्न ज्ञान का संग्रहण होता है।.........गहनतम विचार। लेबल में (भाषा-दर्शन) भी हो तो......
ReplyDeleteमन की भाषा ज्ञान के अधिकांश अंगों से जुड़ी हुयी है।
Deleteबहुत बहुत बढ़िया ..... ऐसे विचारों में जितना दर्शन होता है उतना ही इन्हें जानना व्यावहारिक भी है.....
ReplyDeleteभाषा पर सुन्दर अभिव्यक्ति पूर्ण आलेख…. आभार
ReplyDeleteचिंतन पर इतना गंभीर चिंतन.
ReplyDeleteमुझे लगता है चिन्तन करनेवाला मस्तिष्क है जिसकी सोचने-समझने की आदत है -विश्लेषण आदि करने की भी,जानने-खोजने की भी.हृदय जो अनुभव(भाव ) करता है वह शारीरिक प्रतिक्रियाओं में व्यक्त हो जाता है -सुखदुख ,स्नेह-क्रोध आदि मुद्राओं से पता चल जाते हैं,और मन भागता रहता है इधर-उधर.
ReplyDeleteतो भाषा मस्तिष्क को चाहिये.
पाश्चात्य अवधारणा में, मन को ही सब कुछ माना गया है। वैदिक अवधारणा में ४ भाग हैं, मनस, चित्त, बुद्धि व अहं। चित्त में सारी स्मृतियाँ एकत्र रहती हैं और संदर्भानुसार उभरती रहती हैं, बहुधा अनियन्त्रित। इसे ही चित्तवृत्ति कहते हैं।
Deleteवियोगी होगा ,पहला कवि ,आह से निकला होगा गान ,
ReplyDeleteनिकल कर अधरों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।
स्वत :स्फूर्त होता है साहित्य और उसकी तमाम अभिव्यक्तियाँ। मन की थाह नहीं।
मेरे ख्याल से मन की अपनी कोई भाषा नहीं होती। मन तो कोरा, दर्पण की तरह होता है।
ReplyDeleteतोरा मन दर्पण कहलाए।
या फिर हो सकता है मैं आपके लेख की विषय वस्तु को ठीक से समझ नहीं पाया।
सारे ज्ञान को प्रचारित और प्रसारित करने का कार्य तो भाषा ही करती है। नये सिद्धान्त, नयी प्रमेय, नये आविष्कार, नये विचार कैसे समस्त मानवता को प्राप्त हो पायेंगे। पर यह सारा ज्ञान स्रोत मन की भाषा से ही निकला है ... सच
ReplyDeleteगहनता लिये बेहतरीन प्रस्तुति
आपकी इस ब्लॉग-प्रस्तुति को हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ ( 6 अगस्त से 10 अगस्त, 2013 तक) में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।
ReplyDeleteकृपया "ब्लॉग - चिठ्ठा" के फेसबुक पेज को भी लाइक करें :- ब्लॉग - चिठ्ठा