जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में अपना प्रयोग सफल करने के बाद भारत आये, उनके राजनैतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले ने उन्हें पूरे देश का भ्रमण करने की सलाह दी। गाँधीजी ने सारे देश में भ्रमण किया, भारतीय जनमानस को समझा और उनका नेतृत्व किया। यद्यपि इस भ्रमण को विशुद्ध पर्यटन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, फिर भी अनुभव के आधार पर गाँधीजी का भ्रमण पर्यटन की तुलना में कहीं गाढ़ा रहा होगा। आधिकारिक आँकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं पर अधिकाधिक यात्रा रेलवे के तृतीय श्रेणी के डब्बे में की होगी गांधीजी ने। ठहरने की व्यवस्था और स्थानीय यातायात के साधन क्या रहे होंगे, ठीक ठीक ज्ञात नहीं, पर अंग्रेज़ों का भव्य आतिथ्य तो निश्चय ही उन्हें नहीं मिला होगा।
अब हम तनिक अपना पिछला पर्यटन अनुभव याद करें, ठहरने के लिये एक अच्छा होटल, घूमने के लिये कोई कार, मोबाइल पर उतारे गये ढेरों चित्र, बताये हुये हर स्थान को छू आने की व्यग्रता और अन्त में अपने परिवार को घुमा लाने की उपलब्धि का बोध। प्रारम्भ में तो सबकी अवस्था यही रहती है, पर जब पर्यटन का अनुभव सतही होने लगता है तब लगता है कि पर्यटक स्थल में थोड़ा और गहरे उतरा जाये। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, स्थानीय सामाजिक तन्त्र, लोक संस्कृति, परिपाटियाँ, खेती, पशुधन आदि विशिष्ट पक्ष भी जानने का मन करने लगता है। पर्यटन की यही विमा गाँधीजी के भारत भ्रमण का प्रमुख पक्ष रही होगी। पर्यटन स्थल के दृश्यों के सौन्दर्य से तो प्रकृति का श्रृंगार पक्ष ही व्यक्त होता है, प्रकृति का व्यवहार पक्ष जानने के लिये अधिक अन्दर तक जाना होता है।
निश्चय ही युवाओं को अपना देश देखने का पूरा अवसर मिलना चाहिये। जिस देश में कार्य करना है, जिस देश के लिये कार्य करना है, उसके जनमानस और संवेदना को समझना भी आवश्यक है। गाँधीजी की तरह भले ही तत्कालीन राजनैतिक ध्येय न हों, पर सामाजिक और मानसिक संवेदनाओं का माध्यम तो बन ही सकता है, पर्यटन प्रेरित भारत भ्रमण।
बहुतों को यह भ्रम हो सकता है कि देश में घूमने के लिये है ही क्या, यदि पर्यटन का आनन्द उठाना हो तो विदेश घूम कर आना चाहिये। निश्चय ही विदेशों में पर्यटन को प्रोत्साहन मिलता है, आधारभूत व्यवस्थायें अच्छी हैं, दृश्य भारत से भिन्न हैं और मनोहारी लगते हैं, पर भौगोलिक विविधता, ऐतिहासिक उत्कर्ष और प्राकृतिक सौन्दर्य के जो रत्न भारत में छिपे हैं, उनका समुचित मूल्यांकन अभी तक हुआ ही नहीं। यदि उसकी एक झलक पानी हो तो नीरज के ब्लॉग पर जाकर उनकी यात्राओं में उतारे गये चित्रों को देखिये, मेरा विश्वास है कि विदेश में घूमने जाने के पहले आप अपने देश के उन सारे स्थानों को देखना चाहेंगे जो समुचित प्रचार प्रसार से वंचित हैं अब तक।
ज्ञानार्जन और भावार्जन के अतिरिक्त पर्यटन मनोरंजन का सशक्त माध्यम है। मन नयापन चाहता है, एक ही दिनचर्या, एक ही जीवनचर्या, वही घर, वही भोजन, कालान्तर में मन इन सबसे ऊबने लगता है। लगता है कुछ दिन बाहर घूम आने से एकरसता बाधित होगी और मन को आनन्द आयेगा। नौकरी और व्यवसाय में रहने वालों को तो कार्य में व्यस्त रहने के तब भी कई साधन मिल जाते हैं, उन गृहणियों की कल्पना कीजिये जो बिना स्थान बदले चक्रवत कार्यनिरत रहती हैं। मुझे पहले बड़ा आश्चर्य होता था कि एक स्थान घूम कर आते ही श्रीमतीजी दूसरे स्थान की योजना बनाने लगती हैं, उन्हें बच्चों की छुट्टियाँ और सारे वे सोमवार या शुक्रवार की जानकारी रहती है जो सप्ताहान्त को ३-४ दिन का बनाने में समर्थ हैं। इसके अतिरिक्त जो भी स्थान एक दिन में निपटाये जा सकते हैं, उसकी सूची अलग से तैयार है उनके पास। अब भले ही मैं उनको उनकी आशानुरूप न घुमा पाऊँ, पर निश्चय ही वह पर्यटनीय सलाहकार के रूप में अपना भविष्य बना सकती हैं, औरों के यात्रा कार्यक्रम बना सकती हैं।
इसी तरह की एकत्र ढेरों सूचनायें नीरज के प्रति मेरी उत्सुकता का तीसरा कारण है। न केवल यात्रा वरन उसके सभी पक्षों का विस्तृत विवरण अनुभव से प्राप्त जानकारी का उपयोगी स्रोत हो सकता है। यह घुमक्कड़ी के आगामी उत्सुकजनों के लिये अत्यन्त लाभ का पक्ष हो सकता है। जब से ब्लॉग में घुमक्कड़ी संबंधित विषय बढ़े हैं, पर्यटन स्थलों के बारे में पर्याप्त सूचनायें मिल रही हैं। यद्यपि पर्यटन पर लिखी गयी पुस्तकें बहुत समय से एक स्रोत रही हैं, पर उनमें प्राप्त एक अनुभव विशेष सबके लिये सहायक नहीं हो सकता है। कई स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर पर्यटन के पहले ही एक ढाँचा तैयार किया दा सकता है। पिछले ४-५ पर्यटन स्थानों पर जाने के पहले, उससे संबंधित ब्लॉगों ने निर्णय लेने में बहुत सहायता की है।
नीरज जाट के अनुभव और उनका वृत्तान्त घुमक्कड़ी से जुड़े हुये ब्लॉगों में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। पहला तो उनके लिखने की शैली भी ठीक वैसी ही है, जैसी उनके घूमने की शैली, सरल, सहज, न्यूनतम और पूर्ण। सरल इसलिये कि कार्यक्रमों में जटिलता नहीं रहती और वे बड़ी सरलता से परिवर्धित किये जा सकते हैं। सहज इसलिये कि उनमें तड़क भड़क नहीं रहती और पर्यटन के परिवेश में घुल जाने की प्रक्रिया में कोई रुकावट नहीं आती है। न्यूनतम इसलिये क्योंकि उनकी घुमक्कड़ी शैली साधनों पर कम वरन अनुभवों पर अधिक आश्रित है। पूर्ण इसलिये क्योंकि इसी शैली में घूमकर पर्यटन के मर्म को छुआ जा सकता है।
पूछने पर कि कितना सामान लेकर चलते हैं, एक छोटा सा बैगपैक जो पीछे टँगा था। पहने हुये के अतिरिक्त दो जोड़ी कपड़े। यदि नित्य नहाने की बाध्यता न रखी जाये तो ट्रेन में ही तैयार हुआ जा सकता है। दो या तीन दिन में जब भी रात्रि विश्राम के लिये रिटायरिंग रूम का अवसर मिले, तो नहाकर और अपने कपड़े धोकर आगे बढ़ा जा सकता है। वैसे देखा जाये तो, ट्रेनयात्रा में यदि सोने को मिल जाये तो विश्राम वैसे ही पूरा हो जाता है। रेलवे की सुविधा का उपयोग कर घुमक्कड़ी को यथासम्भव सरल और प्रभावशाली बनाया जा सकता है। नीरज के यात्रा वृत्तान्तों में इस क्रियाविधि की प्रचुरता में उपस्थिति दिखायी पड़ती है।
अब बात रह जाती है, उन स्थानों को देखने की, जिनके लिये यातायात के स्थानीय साधनों का उपयोग करना होता है। निकट के दर्शनीय स्थल स्थानीय साधनों से देखे जा सकते हैं, पर रेलवे स्टेशन से अधिक दूरी पर स्थित पर्यटन स्थलों के लिये बस आदि का उपयोग आवश्यक हो जाता है। मुझे एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया था कि प्रशिक्षण के समय वह अपनी मोटरसाइकिल सदा ही साथ लेकर चलते थे। जिस स्टेशन से ट्रेन में चढ़े वहाँ चढ़ा ली और गञ्तव्य में उतार ली। इस प्रकार प्रशिक्षण के समय उनका सारा पर्यटन अपनी मोटरसाइकिल में हुआ, स्थानीय साधनों पर आश्रित हुये बिना। यहाँ तक कि उन्हें ५०-६० किमी की परिधि में स्थित पर्यटन स्थलों को घूमने के लिये भी किसी का मुँह नहीं ताकना पड़ा। उनके अनुसार, पर्यटन का यह अनुभव अविस्मरणीय था और इस प्रकार उन्होंने बिना किसी विवशता में बँधे पर्यटन का आनन्द उठाया।
हमारे वरिष्ठ अधिकारी रेलवे से ही थे अतः मोटरसाइकिल लादने और उतारने में उन्हें कभी कोई कठिनाई या देरी नहीं हुयी। साधारण पर्यटक के लिये यह संभव नहीं है। यदि किसी तरह एक साइकिल को इस तरह खोलकर बाँधा जा सके जिससे वह सीट के नीचे आ जाये और प्लेटफॉर्म पर रोलर की तरह खींची जा सके तो स्थानीय साधनों की आश्रयता कम की जी सकती है। बाहर के देशों में कई बार लोगों को अपनी साइकिल मोड़कर ट्रेनों में ले जाते हुये देखा है, पर अपने देश में उस तरह की शैली विकसित नहीं हुयी है। नीरज ने लेह यात्रा के समय एक साइकिल उपयोग की है। अब यह देखना है कि अन्य स्थानों पर भी स्थानीय साधनों पर परवशता कम करने के लिये, वह साइकिल का उपयोग कैसे करेंगे?
रेलवे में होने के कारण पर्यटन के विभिन्न पक्षों को और पर्यटकों को निकट से देखा है। देश के पूर्व, उत्तर और दक्षिण में १७ वर्षों तक पदस्थ रहने के कारण देश की पर्यटन सम्पदा का अनुमान भी है। नीरज जाट के पर्यटनीय अनुभव ने पुनः एक बार विचार करने को बाध्य किया कि किस प्रकार रेलवे, पर्यटन और ब्लॉग का पारस्परिक परिवर्धन में समुचित उपयोग किया जा सकता है। रेलवे की अधिकाधिक आय, पर्यटन के मितव्ययी अनुभवों और साहित्य सृजन को किस प्रकार समन्वयित किया जा सकता है, यह एक विचारणीय और करणीय विषय बन सकता है।
आशा है पर्यटन की नयी और उन्मुक्त शैली विकसित करने नीरज जाट के अनुभव अत्यन्त सहायक होंगे। इस शैली की अन्य शैलियों से तुलना और अन्य संबद्ध पक्षों की चर्चा आगामी पोस्टों में।
अब हम तनिक अपना पिछला पर्यटन अनुभव याद करें, ठहरने के लिये एक अच्छा होटल, घूमने के लिये कोई कार, मोबाइल पर उतारे गये ढेरों चित्र, बताये हुये हर स्थान को छू आने की व्यग्रता और अन्त में अपने परिवार को घुमा लाने की उपलब्धि का बोध। प्रारम्भ में तो सबकी अवस्था यही रहती है, पर जब पर्यटन का अनुभव सतही होने लगता है तब लगता है कि पर्यटक स्थल में थोड़ा और गहरे उतरा जाये। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, स्थानीय सामाजिक तन्त्र, लोक संस्कृति, परिपाटियाँ, खेती, पशुधन आदि विशिष्ट पक्ष भी जानने का मन करने लगता है। पर्यटन की यही विमा गाँधीजी के भारत भ्रमण का प्रमुख पक्ष रही होगी। पर्यटन स्थल के दृश्यों के सौन्दर्य से तो प्रकृति का श्रृंगार पक्ष ही व्यक्त होता है, प्रकृति का व्यवहार पक्ष जानने के लिये अधिक अन्दर तक जाना होता है।
निश्चय ही युवाओं को अपना देश देखने का पूरा अवसर मिलना चाहिये। जिस देश में कार्य करना है, जिस देश के लिये कार्य करना है, उसके जनमानस और संवेदना को समझना भी आवश्यक है। गाँधीजी की तरह भले ही तत्कालीन राजनैतिक ध्येय न हों, पर सामाजिक और मानसिक संवेदनाओं का माध्यम तो बन ही सकता है, पर्यटन प्रेरित भारत भ्रमण।
बहुतों को यह भ्रम हो सकता है कि देश में घूमने के लिये है ही क्या, यदि पर्यटन का आनन्द उठाना हो तो विदेश घूम कर आना चाहिये। निश्चय ही विदेशों में पर्यटन को प्रोत्साहन मिलता है, आधारभूत व्यवस्थायें अच्छी हैं, दृश्य भारत से भिन्न हैं और मनोहारी लगते हैं, पर भौगोलिक विविधता, ऐतिहासिक उत्कर्ष और प्राकृतिक सौन्दर्य के जो रत्न भारत में छिपे हैं, उनका समुचित मूल्यांकन अभी तक हुआ ही नहीं। यदि उसकी एक झलक पानी हो तो नीरज के ब्लॉग पर जाकर उनकी यात्राओं में उतारे गये चित्रों को देखिये, मेरा विश्वास है कि विदेश में घूमने जाने के पहले आप अपने देश के उन सारे स्थानों को देखना चाहेंगे जो समुचित प्रचार प्रसार से वंचित हैं अब तक।
ज्ञानार्जन और भावार्जन के अतिरिक्त पर्यटन मनोरंजन का सशक्त माध्यम है। मन नयापन चाहता है, एक ही दिनचर्या, एक ही जीवनचर्या, वही घर, वही भोजन, कालान्तर में मन इन सबसे ऊबने लगता है। लगता है कुछ दिन बाहर घूम आने से एकरसता बाधित होगी और मन को आनन्द आयेगा। नौकरी और व्यवसाय में रहने वालों को तो कार्य में व्यस्त रहने के तब भी कई साधन मिल जाते हैं, उन गृहणियों की कल्पना कीजिये जो बिना स्थान बदले चक्रवत कार्यनिरत रहती हैं। मुझे पहले बड़ा आश्चर्य होता था कि एक स्थान घूम कर आते ही श्रीमतीजी दूसरे स्थान की योजना बनाने लगती हैं, उन्हें बच्चों की छुट्टियाँ और सारे वे सोमवार या शुक्रवार की जानकारी रहती है जो सप्ताहान्त को ३-४ दिन का बनाने में समर्थ हैं। इसके अतिरिक्त जो भी स्थान एक दिन में निपटाये जा सकते हैं, उसकी सूची अलग से तैयार है उनके पास। अब भले ही मैं उनको उनकी आशानुरूप न घुमा पाऊँ, पर निश्चय ही वह पर्यटनीय सलाहकार के रूप में अपना भविष्य बना सकती हैं, औरों के यात्रा कार्यक्रम बना सकती हैं।
इसी तरह की एकत्र ढेरों सूचनायें नीरज के प्रति मेरी उत्सुकता का तीसरा कारण है। न केवल यात्रा वरन उसके सभी पक्षों का विस्तृत विवरण अनुभव से प्राप्त जानकारी का उपयोगी स्रोत हो सकता है। यह घुमक्कड़ी के आगामी उत्सुकजनों के लिये अत्यन्त लाभ का पक्ष हो सकता है। जब से ब्लॉग में घुमक्कड़ी संबंधित विषय बढ़े हैं, पर्यटन स्थलों के बारे में पर्याप्त सूचनायें मिल रही हैं। यद्यपि पर्यटन पर लिखी गयी पुस्तकें बहुत समय से एक स्रोत रही हैं, पर उनमें प्राप्त एक अनुभव विशेष सबके लिये सहायक नहीं हो सकता है। कई स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर पर्यटन के पहले ही एक ढाँचा तैयार किया दा सकता है। पिछले ४-५ पर्यटन स्थानों पर जाने के पहले, उससे संबंधित ब्लॉगों ने निर्णय लेने में बहुत सहायता की है।
नीरज जाट के अनुभव और उनका वृत्तान्त घुमक्कड़ी से जुड़े हुये ब्लॉगों में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। पहला तो उनके लिखने की शैली भी ठीक वैसी ही है, जैसी उनके घूमने की शैली, सरल, सहज, न्यूनतम और पूर्ण। सरल इसलिये कि कार्यक्रमों में जटिलता नहीं रहती और वे बड़ी सरलता से परिवर्धित किये जा सकते हैं। सहज इसलिये कि उनमें तड़क भड़क नहीं रहती और पर्यटन के परिवेश में घुल जाने की प्रक्रिया में कोई रुकावट नहीं आती है। न्यूनतम इसलिये क्योंकि उनकी घुमक्कड़ी शैली साधनों पर कम वरन अनुभवों पर अधिक आश्रित है। पूर्ण इसलिये क्योंकि इसी शैली में घूमकर पर्यटन के मर्म को छुआ जा सकता है।
पूछने पर कि कितना सामान लेकर चलते हैं, एक छोटा सा बैगपैक जो पीछे टँगा था। पहने हुये के अतिरिक्त दो जोड़ी कपड़े। यदि नित्य नहाने की बाध्यता न रखी जाये तो ट्रेन में ही तैयार हुआ जा सकता है। दो या तीन दिन में जब भी रात्रि विश्राम के लिये रिटायरिंग रूम का अवसर मिले, तो नहाकर और अपने कपड़े धोकर आगे बढ़ा जा सकता है। वैसे देखा जाये तो, ट्रेनयात्रा में यदि सोने को मिल जाये तो विश्राम वैसे ही पूरा हो जाता है। रेलवे की सुविधा का उपयोग कर घुमक्कड़ी को यथासम्भव सरल और प्रभावशाली बनाया जा सकता है। नीरज के यात्रा वृत्तान्तों में इस क्रियाविधि की प्रचुरता में उपस्थिति दिखायी पड़ती है।
अब बात रह जाती है, उन स्थानों को देखने की, जिनके लिये यातायात के स्थानीय साधनों का उपयोग करना होता है। निकट के दर्शनीय स्थल स्थानीय साधनों से देखे जा सकते हैं, पर रेलवे स्टेशन से अधिक दूरी पर स्थित पर्यटन स्थलों के लिये बस आदि का उपयोग आवश्यक हो जाता है। मुझे एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया था कि प्रशिक्षण के समय वह अपनी मोटरसाइकिल सदा ही साथ लेकर चलते थे। जिस स्टेशन से ट्रेन में चढ़े वहाँ चढ़ा ली और गञ्तव्य में उतार ली। इस प्रकार प्रशिक्षण के समय उनका सारा पर्यटन अपनी मोटरसाइकिल में हुआ, स्थानीय साधनों पर आश्रित हुये बिना। यहाँ तक कि उन्हें ५०-६० किमी की परिधि में स्थित पर्यटन स्थलों को घूमने के लिये भी किसी का मुँह नहीं ताकना पड़ा। उनके अनुसार, पर्यटन का यह अनुभव अविस्मरणीय था और इस प्रकार उन्होंने बिना किसी विवशता में बँधे पर्यटन का आनन्द उठाया।
हमारे वरिष्ठ अधिकारी रेलवे से ही थे अतः मोटरसाइकिल लादने और उतारने में उन्हें कभी कोई कठिनाई या देरी नहीं हुयी। साधारण पर्यटक के लिये यह संभव नहीं है। यदि किसी तरह एक साइकिल को इस तरह खोलकर बाँधा जा सके जिससे वह सीट के नीचे आ जाये और प्लेटफॉर्म पर रोलर की तरह खींची जा सके तो स्थानीय साधनों की आश्रयता कम की जी सकती है। बाहर के देशों में कई बार लोगों को अपनी साइकिल मोड़कर ट्रेनों में ले जाते हुये देखा है, पर अपने देश में उस तरह की शैली विकसित नहीं हुयी है। नीरज ने लेह यात्रा के समय एक साइकिल उपयोग की है। अब यह देखना है कि अन्य स्थानों पर भी स्थानीय साधनों पर परवशता कम करने के लिये, वह साइकिल का उपयोग कैसे करेंगे?
रेलवे में होने के कारण पर्यटन के विभिन्न पक्षों को और पर्यटकों को निकट से देखा है। देश के पूर्व, उत्तर और दक्षिण में १७ वर्षों तक पदस्थ रहने के कारण देश की पर्यटन सम्पदा का अनुमान भी है। नीरज जाट के पर्यटनीय अनुभव ने पुनः एक बार विचार करने को बाध्य किया कि किस प्रकार रेलवे, पर्यटन और ब्लॉग का पारस्परिक परिवर्धन में समुचित उपयोग किया जा सकता है। रेलवे की अधिकाधिक आय, पर्यटन के मितव्ययी अनुभवों और साहित्य सृजन को किस प्रकार समन्वयित किया जा सकता है, यह एक विचारणीय और करणीय विषय बन सकता है।
आशा है पर्यटन की नयी और उन्मुक्त शैली विकसित करने नीरज जाट के अनुभव अत्यन्त सहायक होंगे। इस शैली की अन्य शैलियों से तुलना और अन्य संबद्ध पक्षों की चर्चा आगामी पोस्टों में।
निश्चय ही ये ब्लौगीय पर्यटन कई आयाम को खोल रहा है...
ReplyDeleteजनमानस की भावनाओं को समझने के लिए और स्वयम् को समझने के लिए भी भ्रमण आवश्यक है । सुन्दर आलेख । सम्यक एवम् सटीक शब्द - चयन ।
ReplyDeleteयदि अवसर और सुविधा मिले तो पर्यटन से अच्छा समय का सदुपयोग कुछ भी नहीं। बहुत अच्छी और उपयोगी बातें बतायी आपने।
ReplyDeleteअपने पाठकों की सुविधा के लिए नीरज जी के ब्लॉग का लिंक भी दे दीजिए।
जी, लिंक दे दिया है।
Deleteनीरज की शैली कमाल की है जो लोग इस आशंका से घुमने नहीं जाते कि बहुत महंगा पड़ेगा वे नीरज के अनुभव से अपना शौक सस्ते में पूरा कर सकते है|
ReplyDeleteफिर नीरज के ब्लॉग पर देश के लगभग स्थानों की व स्थानीय सस्ती सुविधाओं की जानकारी पढ़ फायदा उठाया जा सकता है !
घुमक्कड़ी एक वृत्ति है, प्रवृत्ति है. इसके लिए फाकामस्ती और आर्थिक स्वच्छन्दता होनी चाहिए .
ReplyDeleteभारत में पर्यटन के आर्य -पुरुष राहुल सांकृत्यायन थे -उनका प्रसिद्ध उद्धरण था -
सैर कर दुनिया की गाफिल ये जिंदगानी फिर कहाँ
जिंदगानी गर है भी तो ये नौजवानी फिर कहाँ
अभी अल्लाह के फजल से साहब जी जवान हैं ,समय मत गवायिये -निकल पड़िए .
हम तो चुक लिए !
कमाल है अभी से कंधे डाल दिए आचार्य :(
Deleteअभी तो शुरुआत है !
अपने देश को जानने समझने और उसके साथ हदय से जुडने के लिये भ्रमण बहुत जरूरी है । नीरज जी की यात्रओं के कुछ भाग पढे । अभिभूत कर देने वाले उनके यात्रा-वृतान्त न केवल हिन्दी साहित्य का एक बेहद महत्त्वपूर्ण अध्याय है बल्कि यात्राओं के यथार्थ को महसूस कराते हुए भ्रमण की आकांक्षा व उपयोगिता के संवर्धक भी हैं ।
ReplyDeleteनीरज का ब्लॉग घुमक्कड़ी के क्षैत्र में एक मार्का है, वे अपनी हर छुट्टी को उपयोगी बना लेते हैं, और मुझे तो आश्चर्य होता है कि उनको इतनी छुट्टियाँ मिल कैसे जाती हैं, हम तो आसपास ही नहीं जा पाते और छुट्टियों का मुँह ताकते रहते हैं.. आराम तलबी छोड़ शायद यह घुमक्कड़ी अपनाना ही बेहतरीन पर्यटन होगा ।
ReplyDeleteरेलवे की अधिकाधिक आय, पर्यटन के मितव्ययी अनुभवों और साहित्य सृजन को किस प्रकार समन्वयित किया जा सकता है, यह एक विचारणीय और करणीय विषय बन सकता है।
ReplyDelete***
निश्चित ही!
यह आलेख श्रृंखला भी अन्य आलेखों की तरह संग्रहणीय होने वाली है!
आभार!
पर्यटन कई आयाम को खोल रहा है..सुन्दर आलेख ।
ReplyDeleteनीरज जी की घुमक्कड़ी से ईर्ष्या भी बराबर होती है.
ReplyDeleteWakai blogiya paryatan kamaal hai
ReplyDeleteपर्यटन के अध्याय में नीरज जी का नाम और उनके काम उदाहरणीय हैं .
ReplyDeleteहमने विद्यार्थी जीवन में साइकिल से इलाहाबाद से लेकर कन्याकुमारी की यात्रा की थी सन 1983 में। करीब तीन महीने रहे सड़क पर। उस समय हमारी साइकिल के कैरियर पर जित्ता सामान रहता था उससे ज्यादा अब रहत है जब हम दो दिन के लिये जबलपुर से कानपुर आते हैं।
ReplyDeleteनीरज जाट के कई यात्रा संस्मरण मैंने इसलिये नहीं पढ़े कि उनको पढ़ते ही मन करता है निकल चलो। :)
बढ़िया सीखने लायक पोस्ट है !!
ReplyDelete@उनका अवमूल्यन अभी तक हुआ ही नहीं
मेरा विचार है कि अवमूल्यन की जगह मूल्यांकन होना चाहिए
जी, बहुत आभार, ठीक कर लिया है।
DeleteJitna ghamkkadi se wyakti seekhta hai utna aur kisee cheezse nahi!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete@ आधिकारिक आँकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं पर अधिकाधिक यात्रा रेलवे के तृतीय श्रेणी के डब्बे में की होगी गांधीजी ने।
ReplyDeleteहां, गांधी जी तृतीय श्रेणी में ही यात्रा किया करते थे।
नीरज की घुमक्कड़ी हर जगह मशहूर है मगर नीरज का व्यक्तित्व भी लाजवाब और बेहतरीन है, यह उनके संकोची स्वाभाव के कारण, शायद कम लोगों को मालूम है !
ReplyDeleteयह बहादुर लड़का अपने बड़ों से स्नेहिल आशीर्वाद एवं छोटों से आदर लेने की योग्यता रखता है !
मंगलकामनाएं नीरज को !
@ पर्यटन की यही विमा गाँधीजी के भारत भ्रमण का प्रमुख पक्ष रही होगी।
ReplyDeleteसही कहा, गांधी जी भारत के जनमानस को निकट से समझना चाह रहे थे।
सहमत हूँ...... हमरे यहाँ ऐसे अनगिनत स्थान हैं जिनकी जानकारी तक लोगों के पास नहीं है , नीरज के यात्रा संस्मरण ऐसी ही जानकारियां समेटे रहते हैं .....
ReplyDeleteरोचक पोस्ट ....
ReplyDeleteरेलवे में होने के कारण पर्यटन के विभिन्न पक्षों को और पर्यटकों को निकट से देखा है। देश के पूर्व, उत्तर और दक्षिण में १७ वर्षों तक पदस्थ रहने के कारण देश की पर्यटन सम्पदा का अनुमान भी है। नीरज जाट के पर्यटनीय अनुभव ने पुनः एक बार विचार करने को बाध्य किया कि किस प्रकार रेलवे, पर्यटन और ब्लॉग का पारस्परिक परिवर्धन में समुचित उपयोग किया जा सकता है। रेलवे की अधिकाधिक आय, पर्यटन के मितव्ययी अनुभवों और साहित्य सृजन को किस प्रकार समन्वयित किया जा सकता है, यह एक विचारणीय और करणीय विषय बन सकता है।
ReplyDeleteआप नीरज की अगली यात्रा रेल्वे से प्रायोजित कर सकते हैं, उनकी टिकटें रेलवे से निःशुल्क दिलवा सकते हैं, उन्हें रेलवे का पर्यटक-ब्रांड-एम्बेसेडर बनवा सकते हैं - और यह मैं पूरी गंभीरता से कह रहा हूँ!
नीरज वाकई तारीफ के काबिल, प्रतिबद्ध पर्यटक हैं, और आपने उनकी पर्यटन शैली को बहुत बारीकी और विस्तार से पकड़ा है. खासकर उनका बेलाग, सीधा सपाट लिखने का अंदाज बहुत ही जुदा है. अन्यथा तो यात्रा संस्मरण में यात्राएं कम होती हैं, संस्मरण वह भी शब्दों की चाशनी में लपेटी हुई ज्यादा होती है.
achchhi post, wo sher yaad aata hai aajkal ke parytan par
ReplyDeleteaankh se dekha dil main nahi utra, dariya ke musafir ne samandar nahi dekha.
dariya nahi kashti
ReplyDeleteघुमक्कड़ी का अपना ही महत्व है. लेकिन भारत में यह बहुत मुश्किल है. नीरज जी के प्रयास सराहनीय हैं.
ReplyDeleteक्या बात वाह!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर आलेख , नीरज जाट की घुमक्कड़ी तो प्रसिद्ध है ही , हम ब्लॉग के घुमक्कड़ तो उनकी यात्रा वृतांत का आनंद लेते ही रहते हैं , भारत में घुमक्कड़ी आसान नहीं है, फिर भी घुमक्कड़ी तो एक नशा है .
ReplyDeleteजाब और काश्मीर छोड़ कर सभी राज्य और नेपाल का काठमांडू पोखरा वीरगंज को देख चुकी हूँ उसमें लगभग 30-32 साल लगे फिर भी सब राज्य अधूरा देखा सा लगता है
ReplyDeleteआपके आलेख बहुत कुछ सीखाते है
हार्दिक शुभकामनायें ....
पंजाब और काश्मीर छोड़ कर सभी राज्य और नेपाल का काठमांडू पोखरा वीरगंज को देख चुकी हूँ उसमें लगभग 30-32 साल लगे फिर भी सब राज्य अधूरा देखा सा लगता है
ReplyDeleteआपके आलेख बहुत कुछ सीखाते है
हार्दिक शुभकामनायें ....
ज्ञानार्जन और भावार्जन के अतिरिक्त पर्यटन मनोरंजन का सशक्त माध्यम है। मन नयापन चाहता है, एक ही दिनचर्या, एक ही जीवनचर्या, वही घर, वही भोजन, कालान्तर में मन इन सबसे ऊबने लगता है। लगता है कुछ दिन बाहर घूम आने से एकरसता बाधित होगी और मन को आनन्द आयेगा।
ReplyDeleteयह आपने बहुत अच्छी बात कही है .अपने यहाँ की परिवहन व्यवस्था ,टूर व्यवस्थापकों की मनमानी ,एवं चारों ओर से लूटने को आतुर लोग पर्यटन का मजा किरकिरा कर देते हैं .
सराहनीय आलेख .
Nice bhai www.hinditechtrick. blogspot.com
ReplyDeleteनीरजजाटजी के लेख सबसे जुदा, रोचक, हल्की-फुल्की और देसी अन्दाज में आमने-सामने बैठ कर बातें करते हुये से लगते हैं।
ReplyDeleteयही चीज उन्हें हिन्दी ब्लॉगिंग में पर्यटन विषय पर सबसे आगे खडा करती है।
प्रणाम
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (01-09-2013) के चर्चा मंच 1355 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteभ्रमण करने से ज्यादा स्ट्रेस बस्टिंग तरीका कोई और नहीं। सही कहा कि विदेश से पहले अपने देश में ही बहुत कुछ है देखने , महसूस करने के लिए. बस या ट्रेन में बैठकर यात्रा करने का आनंद ही कुछ और है.
ReplyDeleteलेकिन घुमक्कड़ी भी ब्लॉगिंग / फेसबुक की तरह एक रोग न बन जाये ! हालाँकि अक्सर यह संभव हो ही नहीं सकता !
अति सुन्दर और ज्ञानवर्धक ,जैम कर तारीफ़ की जा सकती है.यह बात सही है कि देशाटन ही लोक जीवन के व्यवहारिक पक्ष को जान्ने और समझने का सशक्त माध्यम है।
ReplyDeleteकृषि संबंधी तकनीकी जानकारी एवं भ्रमण के लिए जिले से मेरा चयन 5 देशो में जाने के लिए हुआ है,पासपोर्ट के कारण टूर जाने की डेट अभी निश्चित नही है,,,
ReplyDeleteRECENT POST : फूल बिछा न सको
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteपर्यटन बहुत सुखद अनुभूति देता है। इससे हम प्रकृति के बिलकुल पास होते हैं।
ReplyDeleteइस क्षेत्र में नीरज और संदीप दोनों का काम सराहनीय है।
पर्यटन बहुत सुखद अनुभूति देता है। इससे हम प्रकृति के बिलकुल पास होते हैं।
ReplyDeleteइस क्षेत्र में नीरज और संदीप दोनों का काम सराहनीय है।
बहु -उपयोगी विश्लेषण प्रधान पोस्ट।
ReplyDeleteबस अब आप रेलवे का पर्यटन विभाग सम्भालिये और नीरज जी को ब्राड अम्बेसडर।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - सोमवार -02/09/2013 को
ReplyDeleteमैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः11 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - सोमवार -02/09/2013 को
ReplyDeleteमैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः11 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
विचारणीय और करणीय।
ReplyDeleteपिछले दिन अपनी १००० किमी लंबी रेल यात्रा से होकर आया हूँ ,हरे हरे एक सामान से लम्बाई के धन के खेतों के बीच दौरती रेल ने ताजगी और उर्जा से भर दिया |
ReplyDeleteभारत में इतनी विविधता और खूबसूरती हैं ,की मन में सुकून और ताजगी अलग से आती हैं |नीरज जाट का ब्लॉग इसका अनुपम उदाहरण हैं |
बेशक भारत में जलवायु विविधता ही नहीं है सांस्कृतिक वैविध्य भी है कुदरती खूब सूरती भी अपार है।
ReplyDeleteएक कार द्वारा चैने -पुदुचेरी यात्रा हो या गोहाटी से शिलांग
या फिर केरल का हरा बिछौना कोलकाता की पूजा या मुंबई का गणपति उत्सव एक मर्तबा शरीक होक देखो आनंद बरसेगो भैया । और ब्रज मंडल के तो कहने ही क्या -कान्हा बरसाने में आ जइयो बुलाय गई राधा प्यारी। ..
सहमत
ReplyDeleteभ्रमण से जिज्ञासा तो शांत होती ही है ,अपार ऊर्जा भी प्राप्त होती है ।
ReplyDeleteIse padhkar to turant ghoomne ka dil karne laga :)
ReplyDeleteजीवन मे नयेपन का संचार करता है पयर्टन । नए अनुभव भी मिलते है पयर्टन से ।
ReplyDeleteपर्यटन से ज्ञान वर्धन तो होता है कई लोगो को रोजीरोटी भी मिलती है
ReplyDeletelatest post नसीहत
नीरज जी का ब्लॉग मैंने भी पढ़ा है ,उनकी पर्यटन शैली एकदम निश्चिन्त या कहूँ बंजारा प्रवृत्ति की है ..... हर लम्हे और हर स्थान को उसकी पूरी जीवन्तता में जीते हुए ....
ReplyDeleteनिश्चय ही नीरज जी से प्रेरित पोस्ट है ... ओर पर्यटन की उत्सुकता जगाती है ...
ReplyDeleteI totally agree with you. I intend to visit whole India first before switching over to international sites..
ReplyDeletea friend of mine keeps quoting- world is a book and those who do not travel read only one page :)
उम्मीद है यह श्रृंखला पर्यटन के विभिन्न पहलुओं को उजागर करेगी।
ReplyDeleteउम्मीद है यह श्रृंखला पर्यटन के विभिन्न पहलुओं को उजागर करेगी।
ReplyDeleteपर्यटन पर इतनी रोचक पोस्ट .... पढ़कर अच्छा लग रहा है
ReplyDeleteआभार