31.8.13

पर्यटन - एक शैली

जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में अपना प्रयोग सफल करने के बाद भारत आये, उनके राजनैतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले ने उन्हें पूरे देश का भ्रमण करने की सलाह दी। गाँधीजी ने सारे देश में भ्रमण किया, भारतीय जनमानस को समझा और उनका नेतृत्व किया। यद्यपि इस भ्रमण को विशुद्ध पर्यटन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, फिर भी अनुभव के आधार पर गाँधीजी का भ्रमण पर्यटन की तुलना में कहीं गाढ़ा रहा होगा। आधिकारिक आँकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं पर अधिकाधिक यात्रा रेलवे के तृतीय श्रेणी के डब्बे में की होगी गांधीजी ने। ठहरने की व्यवस्था और स्थानीय यातायात के साधन क्या रहे होंगे, ठीक ठीक ज्ञात नहीं, पर अंग्रेज़ों का भव्य आतिथ्य तो निश्चय ही उन्हें नहीं मिला होगा।

अब हम तनिक अपना पिछला पर्यटन अनुभव याद करें, ठहरने के लिये एक अच्छा होटल, घूमने के लिये कोई कार, मोबाइल पर उतारे गये ढेरों चित्र, बताये हुये हर स्थान को छू आने की व्यग्रता और अन्त में अपने परिवार को घुमा लाने की उपलब्धि का बोध। प्रारम्भ में तो सबकी अवस्था यही रहती है, पर जब पर्यटन का अनुभव सतही होने लगता है तब लगता है कि पर्यटक स्थल में थोड़ा और गहरे उतरा जाये। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, स्थानीय सामाजिक तन्त्र, लोक संस्कृति, परिपाटियाँ, खेती, पशुधन आदि विशिष्ट पक्ष भी जानने का मन करने लगता है। पर्यटन की यही विमा गाँधीजी के भारत भ्रमण का प्रमुख पक्ष रही होगी। पर्यटन स्थल के दृश्यों के सौन्दर्य से तो प्रकृति का श्रृंगार पक्ष ही व्यक्त होता है, प्रकृति का व्यवहार पक्ष जानने के लिये अधिक अन्दर तक जाना होता है।

निश्चय ही युवाओं को अपना देश देखने का पूरा अवसर मिलना चाहिये। जिस देश में कार्य करना है, जिस देश के लिये कार्य करना है, उसके जनमानस और संवेदना को समझना भी आवश्यक है। गाँधीजी की तरह भले ही तत्कालीन राजनैतिक ध्येय न हों, पर सामाजिक और मानसिक संवेदनाओं का माध्यम तो बन ही सकता है, पर्यटन प्रेरित भारत भ्रमण।

बहुतों को यह भ्रम हो सकता है कि देश में घूमने के लिये है ही क्या, यदि पर्यटन का आनन्द उठाना हो तो विदेश घूम कर आना चाहिये। निश्चय ही विदेशों में पर्यटन को प्रोत्साहन मिलता है, आधारभूत व्यवस्थायें अच्छी हैं, दृश्य भारत से भिन्न हैं और मनोहारी लगते हैं, पर भौगोलिक विविधता, ऐतिहासिक उत्कर्ष और प्राकृतिक सौन्दर्य के जो रत्न भारत में छिपे हैं, उनका समुचित मूल्यांकन अभी तक हुआ ही नहीं। यदि उसकी एक झलक पानी हो तो नीरज के ब्लॉग पर जाकर उनकी यात्राओं में उतारे गये चित्रों को देखिये, मेरा विश्वास है कि विदेश में घूमने जाने के पहले आप अपने देश के उन सारे स्थानों को देखना चाहेंगे जो समुचित प्रचार प्रसार से वंचित हैं अब तक।

ज्ञानार्जन और भावार्जन के अतिरिक्त पर्यटन मनोरंजन का सशक्त माध्यम है। मन नयापन चाहता है, एक ही दिनचर्या, एक ही जीवनचर्या, वही घर, वही भोजन, कालान्तर में मन इन सबसे ऊबने लगता है। लगता है कुछ दिन बाहर घूम आने से एकरसता बाधित होगी और मन को आनन्द आयेगा। नौकरी और व्यवसाय में रहने वालों को तो कार्य में व्यस्त रहने के तब भी कई साधन मिल जाते हैं, उन गृहणियों की कल्पना कीजिये जो बिना स्थान बदले चक्रवत कार्यनिरत रहती हैं। मुझे पहले बड़ा आश्चर्य होता था कि एक स्थान घूम कर आते ही श्रीमतीजी दूसरे स्थान की योजना बनाने लगती हैं, उन्हें बच्चों की छुट्टियाँ और सारे वे सोमवार या शुक्रवार की जानकारी रहती है जो सप्ताहान्त को ३-४ दिन का बनाने में समर्थ हैं। इसके अतिरिक्त जो भी स्थान एक दिन में निपटाये जा सकते हैं, उसकी सूची अलग से तैयार है उनके पास। अब भले ही मैं उनको उनकी आशानुरूप न घुमा पाऊँ, पर निश्चय ही वह पर्यटनीय सलाहकार के रूप में अपना भविष्य बना सकती हैं, औरों के यात्रा कार्यक्रम बना सकती हैं।

इसी तरह की एकत्र ढेरों सूचनायें नीरज के प्रति मेरी उत्सुकता का तीसरा कारण है। न केवल यात्रा वरन उसके सभी पक्षों का विस्तृत विवरण अनुभव से प्राप्त जानकारी का उपयोगी स्रोत हो सकता है। यह घुमक्कड़ी के आगामी उत्सुकजनों के लिये अत्यन्त लाभ का पक्ष हो सकता है। जब से ब्लॉग में घुमक्कड़ी संबंधित विषय बढ़े हैं, पर्यटन स्थलों के बारे में पर्याप्त सूचनायें मिल रही हैं। यद्यपि पर्यटन पर लिखी गयी पुस्तकें बहुत समय से एक स्रोत रही हैं, पर उनमें प्राप्त एक अनुभव विशेष सबके लिये सहायक नहीं हो सकता है। कई स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर पर्यटन के पहले ही एक ढाँचा तैयार किया दा सकता है। पिछले ४-५ पर्यटन स्थानों पर जाने के पहले, उससे संबंधित ब्लॉगों ने निर्णय लेने में बहुत सहायता की है।

नीरज जाट के अनुभव और उनका वृत्तान्त घुमक्कड़ी से जुड़े हुये ब्लॉगों में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। पहला तो उनके लिखने की शैली भी ठीक वैसी ही है, जैसी उनके घूमने की शैली, सरल, सहज, न्यूनतम और पूर्ण। सरल इसलिये कि कार्यक्रमों में जटिलता नहीं रहती और वे बड़ी सरलता से परिवर्धित किये जा सकते हैं। सहज इसलिये कि उनमें तड़क भड़क नहीं रहती और पर्यटन के परिवेश में घुल जाने की प्रक्रिया में कोई रुकावट नहीं आती है। न्यूनतम इसलिये क्योंकि उनकी घुमक्कड़ी शैली साधनों पर कम वरन अनुभवों पर अधिक आश्रित है। पूर्ण इसलिये क्योंकि इसी शैली में घूमकर पर्यटन के मर्म को छुआ जा सकता है।

पूछने पर कि कितना सामान लेकर चलते हैं, एक छोटा सा बैगपैक जो पीछे टँगा था। पहने हुये के अतिरिक्त दो जोड़ी कपड़े। यदि नित्य नहाने की बाध्यता न रखी जाये तो ट्रेन में ही तैयार हुआ जा सकता है। दो या तीन दिन में जब भी रात्रि विश्राम के लिये रिटायरिंग रूम का अवसर मिले, तो नहाकर और अपने कपड़े धोकर आगे बढ़ा जा सकता है। वैसे देखा जाये तो, ट्रेनयात्रा में यदि सोने को मिल जाये तो विश्राम वैसे ही पूरा हो जाता है। रेलवे की सुविधा का उपयोग कर घुमक्कड़ी को यथासम्भव सरल और प्रभावशाली बनाया जा सकता है। नीरज के यात्रा वृत्तान्तों में इस क्रियाविधि की प्रचुरता में उपस्थिति दिखायी पड़ती है।

अब बात रह जाती है, उन स्थानों को देखने की, जिनके लिये यातायात के स्थानीय साधनों का उपयोग करना होता है। निकट के दर्शनीय स्थल स्थानीय साधनों से देखे जा सकते हैं, पर रेलवे स्टेशन से अधिक दूरी पर स्थित पर्यटन स्थलों के लिये बस आदि का उपयोग आवश्यक हो जाता है। मुझे एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया था कि प्रशिक्षण के समय वह अपनी मोटरसाइकिल सदा ही साथ लेकर चलते थे। जिस स्टेशन से ट्रेन में चढ़े वहाँ चढ़ा ली और गञ्तव्य में उतार ली। इस प्रकार प्रशिक्षण के समय उनका सारा पर्यटन अपनी मोटरसाइकिल में हुआ, स्थानीय साधनों पर आश्रित हुये बिना। यहाँ तक कि उन्हें ५०-६० किमी की परिधि में स्थित पर्यटन स्थलों को घूमने के लिये भी किसी का मुँह नहीं ताकना पड़ा। उनके अनुसार, पर्यटन का यह अनुभव अविस्मरणीय था और इस प्रकार उन्होंने बिना किसी विवशता में बँधे पर्यटन का आनन्द उठाया।

हमारे वरिष्ठ अधिकारी रेलवे से ही थे अतः मोटरसाइकिल लादने और उतारने में उन्हें कभी कोई कठिनाई या देरी नहीं हुयी। साधारण पर्यटक के लिये यह संभव नहीं है। यदि किसी तरह एक साइकिल को इस तरह खोलकर बाँधा जा सके जिससे वह सीट के नीचे आ जाये और प्लेटफॉर्म पर रोलर की तरह खींची जा सके तो स्थानीय साधनों की आश्रयता कम की जी सकती है। बाहर के देशों में कई बार लोगों को अपनी साइकिल मोड़कर ट्रेनों में ले जाते हुये देखा है, पर अपने देश में उस तरह की शैली विकसित नहीं हुयी है। नीरज ने लेह यात्रा के समय एक साइकिल उपयोग की है। अब यह देखना है कि अन्य स्थानों पर भी स्थानीय साधनों पर परवशता कम करने के लिये, वह साइकिल का उपयोग कैसे करेंगे?

रेलवे में होने के कारण पर्यटन के विभिन्न पक्षों को और पर्यटकों को निकट से देखा है। देश के पूर्व, उत्तर और दक्षिण में १७ वर्षों तक पदस्थ रहने के कारण देश की पर्यटन सम्पदा का अनुमान भी है। नीरज जाट के पर्यटनीय अनुभव ने पुनः एक बार विचार करने को बाध्य किया कि किस प्रकार रेलवे, पर्यटन और ब्लॉग का पारस्परिक परिवर्धन में समुचित उपयोग किया जा सकता है। रेलवे की अधिकाधिक आय, पर्यटन के मितव्ययी अनुभवों और साहित्य सृजन को किस प्रकार समन्वयित किया जा सकता है, यह एक विचारणीय और करणीय विषय बन सकता है।

आशा है पर्यटन की नयी और उन्मुक्त शैली विकसित करने नीरज जाट के अनुभव अत्यन्त सहायक होंगे। इस शैली की अन्य शैलियों से तुलना और अन्य संबद्ध पक्षों की चर्चा आगामी पोस्टों में।

28.8.13

पर्यटन, रेल और नीरज जाट

नीरज जाट का नाम लेते ही, उनके द्वारा लिखे गये न जाने कितने यात्रा वृत्तान्त मन में कौंध जाते हैं। एक छवि जो किसी साइकिल में लेह की ऊँचाइयों में सड़कों की लम्बाई नाप रहा है। एक छवि जो ग्लेशियरों को उस समय देखने में अधिक उत्सुक है, जब वे जम कर कड़क हो चुके हैं। एक छवि जो रेलवे स्टेशनों और ट्रेनों में अपने घर से अधिक समय बिताता है। एक छवि जो छुट्टी मिलते ही घूमने की योजना में जुट जाता है। एक छवि जो जीवट है, जो जीवन्त है, जो जीना जानती है।

मेरे मन में नीरज के प्रति उत्सुकता चार स्तरों पर है। रेलवे, पर्यटन, ब्लॉगिंग और जीवन शैली। यदि इन चारों स्तरों को संक्षिप्त में कहूँ तो वह इस प्रकार होगा। देश के अन्दर पर्यटन के लिये रेलवे से अधिक मितव्ययी और द्रुतगामी साधन नहीं है। किन्तु रेलवे में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाना ही पर्यटन नहीं है। वहाँ पर रहने की व्यवस्था, पर्यटन स्थलों पर पहुँचने के स्थानीय साधन, भोजन आदि की व्यवस्था, दर्शन योग्य बातें, प्राथमिकतायें और एक पूर्ण पर्यटन अनुभव, इन समस्त बातों को मिला कर एक पर्यटक और एक पर्यटन स्थल का निर्माण होता है।

बहुधा ये सारे सूत्र पूर्व निर्धारित नहीं हो पाते हैं, अनिश्चिततायें अधिक रहती हैं, अधिकाधिक सुनिश्चित करने में अधिक धन व्यय होने संभावना रहती है, बहुधा तथ्यों का अभाव रहता है। पर्यटन एक व्यवसाय है, संभव है कि सामने वाला आपसे ही सारा लाभ लेने की मानसिकता में हो। रेलवे में, होटल में स्थान की उपलब्धता, स्थानीय साधनों की जानकारी, अधिक स्थानों को देखने का क्रम, ऐसी न जाने कितनी अनिश्चितताओं से भरा होता है हमारा पर्यटन।

एक पर्यटक के रूप में किस तरह नीरज उन अनिश्चितताओं को जीते हैं और किस तरह एक ब्लॉगर के रूप में उन्हें व्यक्त करते हैं, यह एक रोचक विषय है। साथ ही, अपनी व्यस्त घुमक्कड़ी का अपनी जीवन शैली से कैसे सामञ्जस्य बिठा पाते हैं, यह भी उतना ही रोचक विषय है।

आखिर मिल ही गये
उत्सुकता यद्यपि पिछले २ वर्षों से थी और पिछले वर्ष मिलने का निश्चय भी किया था, सेलम में, पर मेरी व्यस्तता उस भेंट को निगल गयी। इस वर्ष नीरज के कर्नाटक भ्रमण में निकटतम बिन्दु और अवकाश आदि की स्थिति देखने के बाद शिमोगा स्थित जोग फॉल में मिलने का योग बन गया। हम सुबह १० बजे ही सपरिवार जोग फ़ॉल में पहुँच गये, सोचा था बैठ कर बातें करेंगे, भोजन करेंगे। फ़ोन करने पर पता चला कि नीरजजी की एक ट्रेन छूट गयी है अतः दोपहर बाद ही आना होगा। हम लोग अपने कार्यक्रम में बढ़ गये और सायं ५ मिनट के लिये ही शिमोगा में मिल पाये।

हम लोग जब भी किसी यात्रा के लिये निकलते हैं तो उसी समय निकलते हैं जब घर में सबकी छुट्टियाँ चल रही हों। यही कारण रहता है कि जब लोग घूमने जाते हैं तो उस समय हर स्थान पर भीड़ बहुत रहती है, हर किसी साधन और संसाधन के लिये। ऐसे समय में व्यवस्थायें जुटा पाना किसी प्रतियोगी परीक्षा में विजयी होने जैसा होता है। एक एक व्यवस्था के लिये अत्यधिक श्रम करना पड़ता है और बहुधा बहुत धन व्यय हो जाता है। इतने बँधे हुये कार्यक्रम में घूमना कम, स्थानों को छूकर और उपस्थिति लगा आने जैसी स्थिति हो जाती है।

अतिव्यवस्था में पर्यटन का स्वभाव घुटने लगता है, पर्यटन एक उत्पाद सा हो जाता है और स्थान देख आना उस उत्पाद का मूल्य। इसमें पर्यटन का आनन्द कहीं खिसक लेता है। यही नहीं हम जो सोच कर जाते हैं़ पर्यटन स्थल उससे कहीं भिन्न मिलता है। तब हम धन द्वारा साधे अपने सधे कार्यक्रम में बँधे अधिक हिल डुल नहीं पाते है और औसत से नीचे का अनुभव लेकर चले आते हैं। मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह कहता है कि जब भी पर्यटन को बाँधने का प्रयास किया है, स्वतन्त्र हो पर्यटन का आनन्द नहीं उठा पाये।

नीरज की पर्यटन तकनीक इन सब बन्धनों को तोड़ती सी दिखती है। उनकी घुमक्कड़ी में एक सहजता है, एक जीवटता है, एक खुलापन है, एक आनन्द है। अभी कुछ दिन पहले ही वह एक लाख किलोमीटर की यात्रा पूरी कर चुके हैं। वर्तमान की कुछ यात्रा योजनाओं को देख रहा था, साधारण श्रेणी में यात्रा की बहुलता थी। उसके अतिरिक्त स्लीपर क्लास की यात्रायें भी थीं। मैं गणना कर रहा था कि यदि एक लाख किलोमीटर तीन चौथाई साधारण श्रेणी व एक चौथाई स्लीपर क्लास में की जाये तो लगभग १२ हज़ार रुपये लगेंगे। एसी ३ में वही व्यय ६० हजार रुपये हो जायेगा। यदि यही दूरी अपने वाहन से तय की जाये तो ५ लाख रुपये लगेंगे। इस प्रकार देखा जाये तो यदि रेलवे में प्रमुखता से चला जाये, साधारण श्रेणी में देश देखने का उत्साह हो, तनिक सहनशीलता और तनिक जीवटता विकसित कर ली जाये और नीरज की विधि अपनायी जाये तो पर्यटन में होने वाला व्यय न्यूनतम हो सकता है।

नीरज से यह पूछने पर कि दिन में तो साधारण श्रेणी में काम चल जाता है पर रात्रि में यदि साधारण श्रेणी में चले और नींद नहीं हो पायी तो पर्यटन का आनन्द धुल जायेगा? नीरज ने बताया कि दिन के समय ही साधारण श्रेणी में चलते हैं। रात्रि के समय यदि आरक्षित स्थान मिल जाये तो नींद पूरी कर लेते हैं, नहीं तो किसी रिटायरिंग रूम में रुक कर नींद पूरी कर लेते हैं। नींद पूरी करना सर्वाधिक महत्व का कार्य है, अच्छे मन के लिये, ऊर्जा पूर्ण तन के लिये। यही नहीं, यदि एक रात्रि यात्रा में बीते तो एक दिन का होटल का खर्च भी बच जाता है। एक लाख किलोमीटर की यात्रा में लगभग ७० यात्रायें रात्रि में की होंगी, लगभग ३५ हज़ार रुपये होटल का व्यय बचाया होगा। यद्यपि नीरज अपने खर्चे की एक एक पाई का हिसाब रखते हैं, पर मेरे अनुमान यथार्थ के निकट ही होंगे।

विशुद्ध आर्थिक दृष्टिकोण से देखें तो रेल़वे के माध्यम से पर्यटन को कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है। जितनी बार भी नीरज का ब्लॉग पढ़ता हूँ, उनके अनुभव जानता हूँ, उतनी बार मेरा यह विश्वास और भी दृढ़ होता जाता है। पर्यटन के और भी कई पक्ष हैं और उनके बारे में मेरी कई अवधारणायें भी हैं। रेलवे, पर्यटन और स्वयं के अनुभवों के आधार पर नीरज की घुमक्कड़ी तकनीक पर विमर्श चलता रहेगा, अगली पोस्ट में भी।

24.8.13

नाम, शब्द, रूप

भाषा से उत्पन्न तरंग मन के मार्ग से होते हुये तुरीय अवस्था तक पहुँच गयी। तरंग यदि सीमित होती तो चर्चा संभवतः दो या तीन पोस्ट में समाप्त हो गयी होती। यह ऐसा विषय है, जिसका बाहरी छोर तो दिखता है, पर दूसरा छोर जो मन के भी परे छिपा है, उसकी थाह नहीं मिलती है। विचारों की तरंग को न जाने कहाँ से ऊर्जा मिलती जा रही है, स्वतःस्फूर्त ऊर्जा, आरम्भिक उत्सुकता अभी तक बनी हुयी है। मन को जितना शब्दों में समेटने का प्रयास कर रहा हूँ, मन उतना ही फैलता जा रहा है। यदि सोचता हूँ कि इस विषय को विश्राम मिले तो अन्दर से एक अट्टाहस सा उठता है, मानो कह रहा हो कि यह विषय प्रारम्भ करने के पहले ही सोचना था। अब, जब इस अंधकूप में छलांग मार दी है तो बिना तलहटी छुये वापस आने का क्या अर्थ?

जिज्ञासा हो गयी है तो वह तब तक बनी रहेगी जब तक शमित नहीं हो जाती है। व्यक्तिगत अनुभव व ज्ञान का लम्बा मार्ग है यह, पर अब तक के अध्ययन में कुछ अद्भुत सिद्धांत मिले हैं, जिनकी चर्चा विषय को सम्यक रूप से प्रतिष्ठित करने के लिये आवश्यक है। योगियों और आत्मदृष्टाओं ने जो भी अनुभव किया और शब्दों की सीमित शक्ति उस अव्यक्त को जितना और जिस रूप में व्यक्त कर पायी, उसे अपनी सीमित समझ के अनुसार यथावत रख रहा हूँ, केवल एक सिद्धान्त ही बता रहा हूँ। यह सिद्धान्त नाम रूप भेद का है। इसे समझ सकेंगे तो कल्पवृक्ष, शब्दब्रह्म, इन्द्र की सहस्र आँखें, मंत्रशक्ति, नाम लेते ही ईश्वर के उपस्थित हो जाने जैसे कई रहस्य समझा सकेंगे।

इस जागृत विश्व में जितनी भी वस्तुयें या व्यक्ति हैं, सबका एक नाम होता है, उस नाम का उच्चारण होता है जिसे शब्द कहते हैं। साथ ही साथ उस वस्तु या व्यक्ति का एक आकार होता है, जिसे रूप कहते हैं। जो चीजें स्थूल नहीं होती हैं, जैसे भाव, उनका भी एक आकार होता है जिन्हें चेहरे की भंगिमाओं से संबद्ध किया जा सकता है। इस प्रकार हर मूर्त या अमूर्त वस्तु का रूप होता है। नाम, शब्द और रूप तीनों ही भिन्न तत्व हैं, तीनों ही अनुभव के भिन्न स्तरों पर हैं। एक भाषा के स्तर पर, एक शाब्दिक उच्चारण के स्तर पर और एक स्थूल स्तर पर। यदि इन तीनों में कोई संबंध है तो वह मनोवैज्ञानिक है जो कि हम सबके मन में बना रहता है। किसी एक के उपस्थित होते ही, मन में शेष दो भी आ जाते हैं। नाम पढ़ने से मन समझ लेता है कि इसका उच्चारण क्या होगा, इसका रूप क्या होगा? जो भी संबंध मन स्थापित कर ले, पर नाम और रूप भिन्न है, उनमें भेद है।

योगी कहते हैं कि चेतना के विश्व में नाम और रूप में भेद नहीं है या कहें कि अनुभव के ये दोनों स्तर एकरूप हैं। किसी भी व्यक्ति या वस्तु के नाम में ही वह व्यक्ति या वस्तु विद्यमान है। यदि उदाहरण से समझें तो यदि हम जलेबी कहते हैं तो सामने जलेबी उपस्थित हो जायेगी। यदि हम भय के बारे में सोचेंगे तो भयकारक प्रेत उपस्थित हो जायेंगे। हम किसी व्यक्ति को याद करेंगे और वह व्यक्ति सम्मुख होगा। उस व्यक्ति के बारे में प्रेम का चिन्तन करेंगे और वह हमारा प्रेम अनुभव कर लेगा। यह कल्पना करना थोड़ा कठिन लग रहा है। हमारी बुद्धि जागृत विश्व की नाम और रूप की अवधारणा से उतनी ग्रसित है कि यह सिद्धान्त समझने में कठिनता स्वाभाविक है। जब से मैंने यह सिद्धान्त पढ़ा है, चेतना के विश्व की धुँधली छवि क्षणिक बनती है और शीघ्र ही लुप्त हो जाती है।

अनुभवजन्य यह निष्कर्ष काल्पनिक लग सकता है, पर यह अतार्किक नहीं है। वैज्ञानिक प्रयोगों में यह देखा गया है कि जो भी संकेत हम ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण करते हैं, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध के द्वारा, सब के सब विद्युत तरंगों के रूप में हमारे चित्त में जाता है। देखा जाये तो इसी स्तर पर ही सब प्रकार के संकेतों का एकाकार हो जाता है। आध्यात्मिक विश्व में वह संचयन कैसे प्रक्षेपित होता होगा और वहाँ व्यवहार किस प्रकार होता होगा, यह अब भी अचिन्त्य है।

जागृत विश्व से हमारी चेतना का संवाद १९ माध्यमों से होता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण के चार भाग और पाँच प्रकार की वायु जिससे सारा शरीर संचालित होता है। स्वप्न में भी ये १९ माध्यम उपस्थित रहते हैं, पर संवाद अन्तर्मुखी हो जाता है। सुसुप्ति अवस्था में कोई माध्यम नहीं रहता है, अन्तःकरण के सारे भाग एकरूप हो जाते हैं और केवल चेतना रहती है। वही आनन्द होती है, वही आनन्दकारक होती है और वही आनन्द भोगती भी है। इस प्रकार देखा जाये तो माध्यमों की अनुपस्थिति में नाम रूप का भेद न रहना तार्किक तो है, पर मात्र चेतना का वह विश्व कितना रहस्यमयी होगा, यह कल्पना करना बड़ा ही कठिन है।

जिस विश्व में नाम रूप का भेद नहीं वहाँ पर आप जो भी इच्छा करेंगे, जो भी कहेंगे, वह अपने रूप में आ जायेगा। वहाँ पर शब्द सशक्त और असीम ऊर्जायुक्त हैं और अपने अर्थ में आकार ग्रहण गढ़ लेते हैं। यही कल्पवृक्ष का सिद्धान्त है कि आप जो भी माँगे, वह आपको मिल जाता है। माण्डूक्य उपनिषद के अनुसार प्रणव ऊँ आदि ध्वनि हैं, वही ब्रह्म है और उसी से सारी सृष्टि निर्मित हुयी है। नाम रूप का भेद न होने से शब्द के द्वारा वस्तु की उत्पत्ति संभव है। इसी प्रकार चेतना के विश्व के बारे में वर्णित अन्य कल्पना सी लगने वाली बातें इस सिद्धान्त से सुलझती सी लगती हैं।

अब हम किस विश्व को यथार्थ माने? जागृत विश्व को, जहाँ पर हम सब एक दूसरे को समझते हैं और व्यवहार करते हैं? या स्वप्न अवस्था को जिसे चित्रकार और संगीतकार अतियथार्थ मान समझने का प्रयास करते रहते हैं? या सुसुप्ति अवस्था को, जहाँ कोई माध्यम नहीं है, जहाँ कारण-प्रभाव का भेद नहीं है, जहाँ नाम रूप का भेद नहीं है? या फिर तुरीय स्थिति को, जहाँ पर हम विश्व चेतना से एकाकार हो अपना स्वरूप खो देते हैं।

जो अनुभव शब्दों के द्वारा व्यक्त न किया जा सके, उसे शब्दों की सीमितता से व्यक्त करना बड़ा कठिन कार्य है। विशेषकर वहाँ, जहाँ पर ज्ञान के सारे संकेत एक चेतना में मिलकर एकाकार हो जाते हों, जहाँ नाम और रूप में भेद न रहता हो। चेतना जगत के लोग भी सोचते होंगे कि जो संवाद वे चेतना के एक माध्यम से करते हैं, उसके लिये स्थूल विश्व में प्रकृति ने १९ माध्यम दे रखे हैं, हमारे ज्ञान को सीमित रखने के लिये या आनन्द को श्रमसाध्य बनाने के लिये? हमारे विश्व का जो संप्रेषण अत्यधिक कोलाहल से भरा है, चेतना जगत में स्पष्टतम होता होगा। जिन सिद्धान्तों को समझने में हम मूढ़़ से जूझते रहते हैं, जिस शान्ति को पाने के लिये हम सम्मेलन पर सम्मेलन करते रहते हैं, चेतना जगत में वह सहज ही होता होगा।

काश नाम रूप में यहाँ पर भी भेद न होता, तब मैं यहाँ पर विचार करता और आपके बताने के बारे में जैसे ही सोचता, विचार आपके मन में स्पष्ट हो जाता।

21.8.13

मन - स्वरूप, कार्य, अवस्थायें

इस बात में तो कोई संशय रहा नहीं कि मानव की भाषा मन की भाषा नहीं है। वाह्य ज्ञान के संकेतों को हम जिस रूप में ग्रहण करते हैं, उन्हें हम कहीं भिन्न रूप में संग्रहित करते हैं। संग्रहण की गुणवत्ता इस बात पर भी निर्भर करती है कि ज्ञान की विचार श्रंखला का पुनरुत्पादन मौलिक का कितना प्रतिशत है। बहुधा ऐसा होता है कि स्मृतियाँ अपने मूल स्वरूप में नहीं रह पाती है, अन्य स्मृतियों के रंग में रंग जाती हैं, अपनी तीव्रता अक्षुण्ण नहीं रख पाती हैं, क्षीण हो जाती हैं।

सारा पढ़ा हुआ याद नहीं रहता, सारा सुना हुआ याद नहीं रहता है। मानव की भाषा एक व्यवस्थित आधार बनाती है जिससे ज्ञान की अस्पष्टता न्यूनतम रहे। इसके अतिरिक्त संवादों में उपस्थित कोलाहल भी मन स्वीकार नहीं करता, केवल सूत्र ही स्मृति में रह जाते हैं, पुनरुत्पादन की प्रक्रिया उन्हीं संचित सूत्रों से प्रारम्भ होती है। इसके अतिरिक्त रूप, रंग, स्पर्श, गंध आदि ज्ञान के अभाषायी अंग ९० प्रतिशत से अधिक है, उनका संग्रहण मन किन आकारों के रूप में करता है, यह भाषा विज्ञान की परिधि से बहुत दूर है।

कौन सी मानवीय भाषा मन के सर्वाधिक निकट है, यह तभी स्थापित हो पायेगा जब मन की कार्यप्रणाली समझ में आ सकेगी, पर कोलाहल का न्यूनतम होना, शब्दों के पदार्थ व भाव से सम्यक व विशिष्ट संबंध, उच्चारण-वर्तनी समरूपता आदि कुछ गुण हैं, जो मन की भाषा के अधिक निकट हैं।

यदि पतंजलि योग सूत्र में वर्णित मन के स्वरूप व कार्यशैली को देखा जाये और उसके आन्तरिक भागों के परस्पर संबंधों पर विचार किया जाये तो विचारों की अनियन्त्रित और अव्यवस्थित सी प्रतीत होने वाली कार्यप्रणाली में एक लय दिखने लगेगी।

अन्तःकरण के चार भाग हैं। मनस, चित्त, बुद्धि और अहं। मनस ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से संकेत एकत्र कर चित्त तक पहुँचाता है और अहं द्वारा कोई निर्णय लिये जाने पर कर्मेन्द्रियों को उसका आदेश देता है। संकेतो और आदेशों का संचरण तन्त्रिकातन्त्र का प्रमुखतम कार्य है। चित्त स्मृतियों का संग्रहण करता है और कोई नया संकेत आने पर उससे संबद्ध तथ्य विचार के रूप में प्रस्तुत करता है। विचारों का अनवरत प्रवाह चित्त का ही कार्य है, सामान्यतः अनियन्त्रित। विचारों को अहं हाँ या ना में स्वीकार व अस्वीकार करता है। तब स्वीकार विचारों से संबद्ध कई और विचार चित्त प्रस्तुत कर देता है। यह अनवरत प्रक्रिया है और नींद में भी स्वप्न के रूप में चलती रहती है।

अहं बस हाँ या ना करता है और शेष कार्य होता रहता है। चित्त अहं की सहायता करता रहता है, अपने संचित स्मृति तरंगों के माध्यम से। जब विचार भँवर की तरह उठते हैं तो उसे चित्त की वृत्ति कहा जाता है। यदि जीवन चित्तवृत्ति के अनुसार बीत रहा है बुद्धि बहुधा कार्यप्रवृत्त नहीं होती है। बुद्धि की आवश्यकता तभी पड़ती है जब अहं प्रश्न पूछता है, या तो कहीं विरोधाभास होता है या अन्दर से कुछ जिज्ञासा होती है। तब कहीं जाकर बुद्धि के द्वारा अपनी भिन्न भिन्न स्मृतियों का विश्लेषण कर, नये सत्य गढ़े जाते हैं और वे चित्त के आवश्यक अंग बन जाते हैं। यही प्रक्रिया चलती रहती है, नयी स्मृतियाँ आती है, पुरानी व हल्की स्मृतियाँ चित्त के सुप्त कक्षों में छिप जाती हैं। जो वस्तु या व्यक्ति हमें भाता है, उसकी स्मृतियाँ अधिक होती है और गाढ़ी भी होती हैं। जो कार्य करना हमें अच्छा लगने लगता है, चित्तवृत्ति का वह पक्ष हमारी प्रवृत्ति बन जाता है।

पतंजलि योग सूत्र के अनुसार, चित्तवृत्ति ही हमारे लिये सुख या दुख का निर्धारण करती है। यदि कोई घटनाक्रम चित्तवृत्ति के अनुकूल हुआ तो सुख और यदि प्रतिकूल हुआ तो दुख होता है। हम पूर्णतया अपनी स्मृतियों के ही उत्पाद बन जाते हैं। प्रसिद्ध पाश्चात्य वाक्य, मैं हूँ क्योंकि मैं सोचता हूँ, यह इसी मानसिक स्थिति का परिणाम है। योग इस स्थिति को चित्त की परवशता मानता है और इसके परे भी हमारा कोई अस्तित्व है, उसे बताने में आगे बढ़ जाता है। चित्तवृत्ति से बाधित हमारी वास्तविक स्थिति तभी पता चल पायेगी, जब चित्तवृत्ति का निरोध किया जायेगा और तब कहीं जाकर हमें दृष्टा का अनुभव होगा। ४ अध्यायों के १९६ सूत्रों में रत्न सा जड़ित यह ज्ञान अद्भुत है, मन को इतनी गहराई से बताने वाला, अपने आप में एकमात्र।

वहीं दूसरी ओर माण्डूक्य उपनिषद में केवल १२ श्लोक हैं और वह अपने विषय में पूर्ण है। यह हमारे अस्तित्व की उन अवस्थाओं को बताता है जो सृजन की अवस्थाओं की प्रतिलिपि हैं, दिन-रात, जीवन-मरण आदि चक्रों में भी व्याप्त हैं। हमारी उन अवस्थाओं को ऊँ की चार ध्वनियों में कौन सी ध्वनि प्रभावित करती है, इस बारे में बताता है।

माण्डूक्य उपनिषद के अनुसार हमारे अस्तित्व की चार अवस्थायें होती हैं। जागृत, स्वप्न, सुसुप्त व तुरीय। जागृत अवस्था में हम वाह्य विश्व से क्रियाशील रहते हैं। स्वप्न अवस्था में हम अपने अन्तःकरण के चार भागों तक ही सीमित रहते हैं, इस अवस्था में हमारे मस्तिष्क में क्रियाशीलता पायी जाती है और वही स्वप्नरूप में दिखती है। उस स्थिति के कुछ स्वप्न हमें याद रहते हैं, शेष को याद करने के लिये अतियथार्थवादी अन्य विधियों का सहारा लेते हैं। प्रयोगों के आधार पर कुछ आधुनिक विचारकों का मत है कि स्वप्न की इस स्थिति में समय अपना स्वरूप खो देता है, संभव है कि २ घंटे की घटना का स्वप्न हम २ सेकण्ड में ही देख लें।

तीसरी अवस्था होती है, सुसुप्त। इस अवस्था में हमारे साथ क्या होता है, हमें कुछ भी पता नहीं रहता। प्रयोगों में इस अवस्था को गाढ़ी निद्रा कहा गया है। माण्डूक्य उपनिषद के अनुसार इस स्थिति में अन्तःकरण के चारों भाग एक हो जाते हैं, उस रूप में, जो हम हैं, विशुद्ध चेतना स्वरूप। इस अवस्था का क्या स्वरूप है, क्या कार्य है, कुछ भी नहीं ज्ञात। संभव है, यह वह स्थिति होती होगी जहाँ पर हम ऐसे दैवीय संकेत पा जाते हों जो चित्तवृत्ति और गहन चिन्तन के माध्यम से आना असंभव हों।

चौथी अवस्था है, तुरीय। निद्रा पर किये गये प्रयोग इस स्थिति से भी अनभिज्ञ हैं, क्योंकि मन वाह्य जगत में क्रियाशील ही नहीं रहता है और अन्तःकरण के संकेत मशीनें ग्रहण नहीं कर पाती हैं। इसे समाधि की स्थिति कहते हैं। माण्डूक्य उपनिषद के अनुसार इस स्थिति में हमारी चेतना एक समग्र चेतना में पहुँच जाती है और सकल सृष्टि से अपने संबंधों को अनुभव कर पाती है, वह स्थिति जहाँ आप एकाकार हो जाते हैं, उस स्थान पर, जहाँ से हम सब व्यक्त हैं, समय से शून्य, न भूत में, न भविष्य में।

कहते हैं कि तुरीय अवस्था सर्वव्याप्त है, क्योंकि वही एकल सत्य है। हमारे लिये शेष तीन अवस्थाओं के बीच की संधि अवस्था तुरीय के माध्यम से ही होती है। यह कैसे होता है, उसके लिये अध्ययन और अनुभव आवश्यक है। साथ ही साथ आश्चर्य सा प्रतीत होने वाला ज्ञान, जो प्रत्यक्ष या अनुमान से होना असंभव था, किस अवस्था में और किस रूप में हमारे चित्त में प्रकट हो जाता है, इसे भी समझना रोचक है। ज्ञान के अनसुलझे स्रोत की गुत्थी सुलझाना वैज्ञानिकता के लिये बड़ी चुनौती है। यह ज्ञान या ब्रह्मा का ज्ञान कैसे, किस रूप में और किस भाषा में प्रकट हुआ होगा, बड़ा रहस्य है। पर इन दो ग्रन्थों द्वारा प्रदत्त ज्ञान अनुभव किया जा सकता है, यह हमारे मनीषियों का मानवता के लिये आश्वासन है।

हम एक स्थूल भाषा रच कर उसमें अपने अस्तित्व की सूक्ष्मता ठूँसने के प्रयास को बौद्धिक उपलब्धि का उन्नतशिखर माने बैठे हैं और हमारे पूर्वज न केवल तुरीय आदि अवस्थाओं को अनुभव कर सके, वरन उसे सूत्रों के रूप में हमे व्यवस्थित रूप से समझा भी गये। मानवता के लिये इससे अमूल्य उपहार और क्या हो सकता है भला?

17.8.13

मन की सम्यक व्याख्या

पाश्चात्य दर्शन मन की सतही व्याख्या करता है। उसके अनुसार मन की दो ही अवस्थायें हैं, चेतन और अवचेतन। चेतन मन समझता है, सोचता है, याद रखता है और किसी भी भौतिक कार्य में प्रमुख भूमिका निभाता है। मन को ही अस्तित्व माना गया है और मन के सोचने को अस्तित्व सिद्ध करने का एकमेव माध्यम। एक अवचेतन मन भी होता है, जो स्वप्न के माध्यम से व्यक्त होता है। अवचेतन मन हमारी दबी हुयी इच्छाओं का प्रक्षेपण है और जब चेतना का पहरा नहीं होता है, अवचेतन मन व्यक्त हो जाता है। फ्रॉयड ने तो स्वप्नों की विस्तृत व्याख्या करके अवचेतन मन को रहस्यमयी और रोचक आधार दिया। मन की व्याख्या में ही पाश्चात्य जीवन दर्शन भी छिपा है, मन की सारी अतृप्त इच्छाओं को जी लेना।

वहीं दूसरी ओर येरुशलम में उत्पन्न तीनों धर्मों में मन की अवधारणा तो है, पर उनमें मन को पापमार्गी बताया गया है। उनके अनुसार धर्म के ऐतिहासिक पक्ष के प्रति पूर्ण श्रद्धा से ही स्वर्ग संभव है। यहाँ पर मानसिक प्रवृत्तियाँ का विश्लेषण तो है, पर मन की कार्यशैली की व्याख्या का अभाव है। संभवत: पूर्व के धर्मों और पश्चिम के धर्मों में यही प्रमुख अन्तर है। जहाँ पश्चिम के धर्मों में ऐतिहासिकता प्रमुख है, पूर्व के धर्मों में अनुभव प्रमुख है। जहाँ एक ओर समर्पण मात्र से स्वर्गपद को प्राप्य बताया गया है, वहीं दूसरी ओर अनुभव के आधार पर स्वर्ग की अनुभूति की जा सकती है। एक ओर पथ पर सामाजिकता का आधार आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत स्तर पर साधना प्रेरित अथक प्रयास।

यही एक विशेष अन्तर रहा होगा, जिस कारण पूर्व के धर्मों में मन को इतनी प्रमुखता से विश्लेषित किया गया है। सनातन, बौद्ध, जैन, सिख, सभी मन की महत्ता समझते हैं और जितना मन के बारे में जानते हैं, वह एक सतत जिज्ञासा बनाये रखने के लिये पर्याप्त है। मन के बारे में जितनी गहराई से वैदिक ग्रंथों में वर्णन है, उतनी गहराई और सूक्ष्मता कहीं और देखने को नहीं मिलती। योग का समस्त आधार मन को समझने और उसे आत्मोन्नति में उद्धत करने के लिये है। योग का प्रायोजन व्यक्ति को दृष्टा का अनुभव प्रदान करने का है। दृष्टा की दृष्टि पाने के पहले जो मन द्वारा आरोपित बाधायें हैं, उन्हें पार करने के लिये मन की कार्यशैली और मन की भाषा समझना आवश्यक है। यह कार्य पतंजलि योग सूत्र और माण्डूक्य उपनिषद में भलीभाँति किया गया है। वर्तमान लेखकीय संदर्भ में, मन की प्राच्य धारणा का आधार यही दो मूल ग्रन्थ रहेंगे।

पतंजलि ने योग पर एक अमूल्य ग्रन्थ लिखा है, पाश्चात्य जगत उनकी ऐतिहासिकता में रुचि ले सकता है, उनसे संबद्ध तथ्य जोड़ तोड़ कर उनकी इस जगत में उपस्थिति सत्य या काल्पनिक बता सकता है। पर इस ग्रन्थ में क्या लिखा है, क्या नहीं, उसके ऊपर प्रयोग कर उसकी प्रामाणिकता को अनुभव से सत्य या असत्य सिद्ध करने की कभी उनकी मानसिकता रही ही नहीं। वहीं दूसरी ओर भारतीय जनमानस की पंतजलि के ऐतिहासिक पक्ष में उतनी रुचि नहीं जितनी कि उनके द्वारा वर्णित योग सूत्र के अनुभव पक्ष में है। पाश्चात्य ज्ञान के इस दृष्टिकोणिक अभाव के कारण मन की सम्यक व्याख्या वैदिक ग्रन्थों में ही प्रमुखता से मिलती है।

योग के बारे में जनसाधारण की धारणा शरीर के कठिन आसन या एक रहस्यमयी आध्यात्मिक स्थिति के जैसी हो सकती है, पर जो लिखा है उसके अनुसार वस्तुस्थिति बड़ी ही वैज्ञानिक और हर स्तर पर सिद्ध करने योग्य है। योगसूत्र के बारे में भ्रामक अवधारणा से जनसामान्य ही क्या, हमारा बौद्धिक समाज भी ग्रसित है। एक बार पढ़ना प्रारम्भ किया तभी समझ में आया कि यह कितना सिद्धान्तपरक और व्यवस्थित है। यही नहीं, हर स्तर पर पाये गये अनुभव, इसमें लिखे प्रत्येक वाक्य को मस्तिष्क में सदा के लिये गढ़ देते हैं।

इस ग्रन्थ में यदि मन की भाषा का विवरण ढूँढ़ें तो किसी मानवीय भाषा विशेष का संदर्भ नहीं मिलता है। मन जिसके बारे में सोचता है, अपने मस्तिष्क में उसका आकार गढ़ लेता है। यदि किसी भौतिक वस्तु के बारे में सोचता है तो स्मृति के आधार पर उसका आकार मन में बन जाता है। यदि किसी व्यक्ति के बारे में सोचता है, तो स्मृति में पड़ी उसकी सर्वाधिक पहचानी प्रतिलिपि उसे दिखती है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो किसी भी व्यक्ति के बारे में हमारी अवधारणा उस व्यक्ति के बारे में हर ओर से प्राप्त अनगिनत संकेतों से बनती है। कोई एक विशेष गुण मन में बनने वाले उस आकार में क्या प्रभाव डालेगा, क्या सच बोलने वाले की मानसिक छवि अधिक उजली बनेगी, क्या कटु बोलने वाले की छवि में कुछ धुँधलापन रहेगा? उसका रंग, रूप, गुण, वाणी, चाल आदि टैग के रूप में उस छवि में संबद्ध हो जाते होंगे और तब कहीं जाकर मन में उसका चित्र बनता होगा।

कम्प्यूटर की भाषा हर वस्तु को ० या १ में गढ़ती है, मानव की भाषा हर वस्तु को नाम और उच्चारण देती है। इसी प्रकार किसी भी वस्तु के बारे में पाँच स्रोतों से एकत्र ज्ञान विद्युततरंगों के रूप में हमारे मस्तिष्क में संचित हो जाता है। जब मन में किसी के बारे में छवि बनती होगी तो उस व्यक्ति के बारे में संबद्ध विद्युत तरंगें कैसे एक साथ आती होगीं और उस छवि को बनाने में अपना योगदान देती होंगी? दृश्य, ध्वनि, स्वाद, स्पर्श, गंध किस प्रकार से उस छवि में आरोपित होती होंगी।

किसी वस्तु या व्यक्ति के बारे में तो फिर भी मस्तिष्क में कोई छवि आकार ले सकती है, भाव, कल्पना, तर्क आदि अभौतिक तत्व मन में कौन सी छवि बनाते होंगे। एक बात तो स्पष्ट है कि जिस रूप में भाव आदि संचित होते होंगे, उसी रूप में उनकी छवि बनती होगी या किसी व्यक्ति की छवि के साथ संबद्ध होती होगी। कौन भाव कितना गाढ़ा है और किस रूप में ग्रहण किया गया है, यह दोनों ही निर्मित छवि के प्रमुख पक्ष निर्धारित करते होंगे।

मस्तिष्क सारी इन्द्रियों का अनुभव कर सकता है, आँख बन्द हो फिर भी किसी व्यक्ति की छवि बना सकता है, कान बन्द हों फिर भी संचित अनुनाद सुन सकता है, इसी प्रकार स्पर्श कर सकता है, चख सकता है, सूँघ सकता है। आश्चर्य ही है कि इन पाँच भिन्न सी लगने वाले माध्यमों के लिये मन स्मृति में समान प्रकार की ही प्रक्रिया अपनाता है। क्या मस्तिष्क या मन के स्तर पर इन पाँचों में भेद नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह पाँचों अनुभव मन के स्तर पर जाकर एक हो जाते हों। संभव है, तभी यो एक से संचित होते हैं, तभी ये एक से व्यक्त हैं, चिन्तन में, स्वप्न में।

एक और प्रश्न जो मन की भाषा को रोचक बना देता है। जो अनुभव हम जागृत अवस्था में करते हैं, वही अनुभव जब चिन्तन में या स्वप्न में होता है तो उन दोनों में क्या अन्तर आ जाता है? यदि मन के स्तर पर रूप, रस ,रंग आदि घुल कर एक से हो जाते हैं तो क्या स्वप्न में भी आनन्द या दुख की अनुभूति हमें उसी तीव्रता और उसी विविधता में होती होगी जिस तीव्रता में जागृत अवस्था में होती है।

ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न लिये आयेगी मन की सम्यक व्याख्या जो पतंजलि योगसूत्र और माण्डूक्य उपनिषद पर आधारित होगी। समझते हैं, अगली पोस्ट में।

14.8.13

मन की थाह

मेरे चित्रकार मित्र आलोक मुझे सल्वाडोर डाली के बारे में बता रहे थे। डाली बड़े ही चर्चित चित्रकार रहे हैं, अपने चित्रों से भी अधिक अपने व्यक्तित्व के कारण। जिस विधा में वह चित्रकारी करते थे, उसे अंग्रेजी में सर्रियलिज्म कहते हैं, हिन्दी में कहें तो अतियथार्थवाद। १९२० के आसपास प्रारम्भ हुयी इस विधा का उद्देश्य उस सत्य को बाहर लाना था जो हमारे मन की गहरी पर्तों के अन्दर छिपा रहता है। यह स्वप्न और जागृत अवस्था के बीच के अन्तर को पाटने की दिशा में बढ़ता रहा और इसमें ऐसे चित्रों की बहुलता रही जिसमें मन के बद्ध विचारों को दर्शाया गया, जाग्रत विश्व के प्रतीकों द्वारा, बहुधा ऐसे चित्र, जिन्हें देख आप चौंक उठेंगे, संभव है कि नाक भौं भी सिकोड़ने लगें।

अब मन में क्या चलता है और कैसे चलता है, उसे चित्रित करने के लिये मन में जाना और मन को जानना भी आवश्यक है। मन कैसे व्यवहार करता है, स्वप्न के समय मन की स्थिति क्या रहती है, हमारे अवचेतन में क्या होता है? चित्रों की भाषा, शब्दों की भाषा से उन्नत पर थोड़ी धँुधली सी होती है। जागृत मन की भाषा और भी उन्नत और धुँधली होती है। अब उससे भी अस्पष्ट सुप्त मन की भाषा समझना और उसे चित्रों में व्यक्त करना निश्चय ही कठिनतम कार्य रहा होगा। मन के कुछ स्वप्न तो याद रहते हैं, विशेषकर वे, जिनमें कोई परिचित घटनाक्रम दिखायी देता है, पर उसके अतिरिक्त भी ऐसे सैकड़ों स्वप्न रहते हैं, जो हमें याद नहीं रहते हैं। ऐसे सारे स्वप्नों को पहले समझना और तब चित्रों में उतारना सच में साहसिक चुनौती रही होगी।

कुछ लोगों ने एकान्त की, ध्यान की राह अपनायी, कुछ लोग नशे में गहरे उतरने लगे, यह सोच कर कि उससे चेतना का पहरा नहीं रहेगा और अवचेतन बाहर आ जायेगा। चित्रकारों ने बहुत कुछ देखा और उसे अपने चित्रों में उतारा भी। डाली ने एक विशेष विधि अपनायी, वह मन की उस स्थिति को अपने चित्रों में लाना चाहता था जो जागृत और स्वप्न के बीच की स्थिति होती है। इसके लिये वह अपनी उँगली में एक चम्मच रख कर सोता था, जैसे ही वह निद्रा के क्षेत्र में प्रवेश करता, चम्मच गिर जाती और उसकी नींद टूट जाती। उस समय उसके मन को जो स्थिति रहती, वह उसे चित्रों में उभारता। यह बात अलग है कि वह बाधित अवस्था अवचेतन का सही निरूपण हो सकता है या नहीं, पर निश्चय ही वह जागृत अवस्था से बहुत अलग अनुभव रहता होगा।

कला में ही नहीं, संगीत और साहित्य में भी इसका प्रभाव रहा है। जिन लोगों ने द डोर ग्रुप और जिम मॉरिसन का नाम सुना है, उन्हें उनके संगीत में उसकी झलक मिलेगी क्योंकि उनके संगीत और गीतों की रचना ड्रग्स के गहन प्रभाव में ही की गयी है। अत्यन्त प्रतिभावान जिम मॉरिसन की मृत्यु भी बहुत ही कम आयु में अधिक ड्रग्स लेने के कारण हो गयी। हिन्दी साहित्य में तम्बाखू, पान या हल्की मदिरा पीकर लेखन करने वालों के बारे में तो सुना है, पर अतियथार्थवादी कोई लेखक या कवि अभी तक संज्ञान में नहीं आया है।

यहाँ पर एक बात पूर्णतया स्पष्ट कर दूँ कि मैं किसी वाद को और उसमें प्रयुक्त विधियों को महिमामंडित नहीं कर रहा हूँ। यह बताने के पीछे मेरा उद्देश्य साहित्य, संगीत और कला के नाम पर किसी भी प्रकार की ऐसी लत को बढ़ावा देने का नहीं है, जो नशे आदि की ओर प्रेरित करे। इसके माध्यम से मेरा उद्देश्य बस यह तथ्य स्पष्ट करने का है कि मन की भाषा जानने का प्रयास हम सदियों से करते आये हैं, और जैसे भी संभव हो, मानव इस रहस्य को जानने के लिये कुछ भी कर सकता है, बस यह जानने के लिये कि उसके मन में क्या चल रहा है, क्यों चल रहा है और कैसे चल रहा है?

प्रश्न पुनः घूम फिर के वहीं आ जाता है कि मन की भाषा क्या है और यह मानव की भाषा से किस तरह अपना संबंध और सामञ्जस्य स्थापित करती है?

मन की भाषा जानने के लिये मन को समझना आवश्यक है। यदि हम यह न भी समझें कि मन अत्यधिक चंचल है और इस चंचलता पर विजय पा हम स्थितिप्रज्ञ हो सकते हैं, यदि यह भी न समझें कि मन की गति को समझना और समेटना सर्वाधिक कठिन कार्य है, तब भी हम इतना समझने का प्रयास तो अवश्य ही कर सकते हैं कि मन में शब्द किस रूप में रखे जाते हैं और समय आने पर किस रूप में उपयोग में लाये जाते हैं। यह प्रयास विशुद्ध बौद्धिक और अतियथार्थवादी दृष्टिकोण लिये होगा। अध्यात्म में लोगों को असुविधा हो तो विज्ञान की राह चलते हैं। वैसे बताते चलें कि इस विषय में विज्ञान और भारतीय अध्यात्म की समझ में कोई विशेष अन्तर नहीं है और विश्व भर के वैज्ञानिक भारतीय अध्यात्म की गहराई से न केवल प्रभावित हुये हैं, वरन अधिकता से अधिक अभिभूत भी हैं।

मानव मस्तिष्क में २ अरब से भी अधिक तन्त्रिकातन्तु हैं, ये तन्त्रिकातन्तु मस्तिष्क को सारे शरीर से जोड़े रहते हैं। आँख, कान, नाक आदि हिस्से जो गर्दन के ऊपर हैं, वह वहीं पर और शेष हिस्सों के लिये रीढ़ की हड्डी के बीच से ये तन्तु जाते हैं। यह एक आश्चर्य ही है कि इतनी घनी और महीन वायरिंग हमारे शरीर में स्वतः ही विकसित हो जाती है। उससे भी अधिक आश्चर्य उन मूढ़ों पर होता है जिनके प्रायिकतावादी सिद्धान्त के अनुसार अणुओं के करोड़ों वर्षों तक आपस में टकराते रहने से इस तरह के जटिल तन्त्र स्वतः ही बन गये। हजारों वर्षों तक तो हम देखते आये हैं, हवा के चलने से आज तक एक घर क्या, अपने आप एक सीधी दीवार नहीं बनी है।

जब भी ये तन्त्रिकातन्तु सक्रिय होते हैं, इनमें बहुत अल्पमात्रा में विद्युत बहती है। जब कई सारे तन्तु एक साथ किसी कार्य में लगे होते हैं, तो उत्पन्न विद्युत को मापा जा सकता है। इनका एक आयाम और एक आवृत्ति होती है। तथ्यों की माने तो एक पूरी तरह से सक्रिय मस्तिष्क १० वॉट तक की विद्युत उत्पन्न कर सकता है। जब मस्तिष्क गति से कार्य करता है तब आवृत्ति अधिक होती है, जब विश्राम की स्थिति में होता है तो आवृति कम होती है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगों में इस आवृत्ति को मापा और उसे क्रियागत वर्गों में सजाया। विभिन्न प्रकार के कार्यों में मस्तिष्क को कौन सा भाग प्रयोग में आता है, इसका भी पूर्ण अध्ययन हो चुका है।

इससे यह तो निश्चित होता है कि हम जो भी देखते, सुनते, छूते, चखते, सूँघते हैं, वह विद्युत लहरों के रूप में प्रवाहित होकर हमारे मस्तिष्क में संचित हो जाता है। वहाँ पर संचित कैसे होता होगा, कैसे स्मृति के रूप में बना रहता होगा, कैसे विचार बन कर सक्रिय होता होगा, और कैसे निर्णय होने के पश्चात कर्मेन्द्रियों तक पहुँचता होगा, यह एक बड़ा रहस्य है। विद्युत लहरों का आयाम और आवृत्ति मापने के अतिरिक्त वैज्ञानिक मस्तिष्क के और अन्दर तक नहीं अतर पाये हैं अब तक।

चलिये हम मान कर चलें कि जो संचित होता है, वह मानव की भाषा में ही संचित होता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कम्प्यूटर हमारे लेखन को यथावत रखता है, भले ही प्रक्रिया में ० और १ का उपयोग करता हो। यदि ऐसा है तो स्वप्न की स्थिति में, जब वाह्य जगत से संपर्क टूटा होता है, जब मस्तिष्क में स्मृतियों का हिस्सा सक्रिय रहता है, उस स्थिति में स्वप्न के सारे कार्यक्रम मानव की भाषा में होने चाहिये। यही नहीं, यथार्थ जगत के रंग, स्वाद आदि भी यथावत स्वप्न में आने चाहिये। कहने का आशय यह कि जो स्वप्न हों, वह भी यथार्थ जगत के जैसे लगने चाहिये। यदि ऐसा है तो अतियथार्थवादी चित्रों में जागृत जगत के ही लक्षण यथावत दिखने चाहिये। ऐसा पर है नहीं, बहुधा अवचेतन की स्थिति में प्राप्त संप्रेषण संचित ज्ञान से कहीं अधिक उन्नत और सर्वथा भिन्न होता है। मानव के वैज्ञानिक इतिहास को गढ़ने वाले न जाने कितने ज्ञानसूत्र आश्चर्यजनक रूप से अवचेतन से ही प्रकट हुये हैं।

स्वप्न की अपनी अलग ही भाषा है, यदि ऐसा नहीं होता तो न केवल सर्रियलिज्म या अतियथार्थवादी धारा के चित्र भी जागृत जगत जैसे होते, वरन स्वप्नों में भी रंग होते, स्वप्न वर्तमान घटनाओं से भरे होते, स्वप्न बड़े ही नियमित प्रकार के होते। यहाँ तक कि स्वप्न की भाषा को भी मन की भाषा कहना उचित न होगा, क्यों स्वप्न अनियन्त्रित होते हैं, जब कि किसी भी भाषा का एक निश्चित स्वरूप होता है।

यह जानकर कि मन की भाषा, मानव की भाषा से सर्वथा भिन्न है, अगली पोस्ट में हम मन को और उसकी भाषा को समझने के लिये एक नये परिप्रेक्ष्य का आधार लेंगे। कई बार एक ही वस्तु को कई दृष्टिकोण से देखने से उसके बारे में सम्यक ज्ञान मिलता है, बहुधा पूरा ज्ञान मिलता है। मन की भाषा किन किन अवस्थाओं से होकर जाती है और वहाँ पर कैसे परिवर्धित होती है, यह समझने के लिये ध्यानस्थ मनीषियों के अद्भुत विश्व को बाहर से निहारेंगे।

10.8.13

मन की भाषायी चेतना

मन की भाषा के प्रश्न का प्रारम्भ तो ज्ञानदत्तजी के सरल से अवलोकन से हुआ था, पर वह छोटी सी प्रतीत होने वाली लहर अपने अन्दर इतनी उत्सुकता लेकर आयेगी, इसका तनिक भी आभास नहीं था। पिछले कुछ दिन बस भाषा पर लिखे गये शोधपत्रों को पढ़ने में बीते हैं। यह प्रश्न अविश्वसनीय ढंग से न जाने कितनी विधाओं में फैला है, मनोविज्ञान, दर्शन, शैक्षणिक क्षेत्र, भाषाविज्ञान, ध्वनिशास्त्र, उपनिषद, अध्यात्म आदि से होता हुआ पुनः मन पर आकर टिक जाता है। लगा था कि पिछली पोस्ट पर आनी वाली टिप्पणियाँ रही सही उलझन सुलझा देंगी, सीधे ही निष्कर्ष पर पहुँचा देंगी, पर जितना अधिक छोर को समेटना चाहा, जितना अधिक चिन्तन का धागा लपेटता गया, उतना अधिक उलझता गया। प्रश्न अधिक हो गये, विमायें अधिक हो गयीं, जिस मन की मौलिक भाषा ढूँढ़ने निकला था, वही मन अत्यधिक रहस्यमयी हो गया।

बड़ा ही रोचक लगता है न, कि चिन्तन अपने बारे में ही चिन्तन कर रहा है, अपनी भाषा के बारे में अपनी भाषा में ही चिन्तन कर रहा है। ठीक उसी तरह कि भोजन स्वयं को खा रहा है, स्वयं का ही पोषण कर रहा है। वैसे भी सारा चिन्तन स्वयं नहीं किया, इस चिन्तन पर ढेरों चिन्तन हो चुका है, आज से नहीं, सृष्टि के आदि बिन्दु से चल रहा है। यदि अस्तित्व के मूल प्रश्न को अब भी उठाना पड़ रहा है, तब तो यह प्रश्न अस्तित्व से भी बड़ा हो गया। जब सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी स्वयं को अकेले पा पूरी तरह संभ्रमित हो गये थे, उन्हें कुछ भी नहीं सूझ रहा था, तब उन्होंने ईश्वर को पुकारा और ईश्वर ने उनके अन्तःकरण में सारा ज्ञान प्रस्फुटित किया। ज्ञान के आनन्द से विह्वल ब्रह्मा स्तुति गाने लगे, ब्रह्मसंहिता के रूप में, गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि। कभी सोचा है, वह प्रथम पुकार और वह प्रथम ज्ञान किस भाषा में रहा होगा?

ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न उमड़ पड़ते हैं जब मन को कुरेदा जाता है, स्वयं की पहचान का कोई भी बिन्दु झंकृत किया जाता है, अनुनाद होने लगता है, बहुत देर तक, मानो अन्तःकरण को अपने बारे में कुछ पता होने देना अच्छा ही नहीं लगता है। पर जो भी हो, प्रश्न तो तब तक उठाये जायेंगे जब तक अस्तित्व है, सब जान जाने तक प्रश्न करना ही तो हमारी मूल प्रवृत्ति है, संभव है वेदांत सी जिज्ञासा ही हमारे निर्वाण का मार्ग हो।

मन की अपनी ही भाषा होती है, यह तो निश्चित है, पर उस भाषा का स्वरूप क्या होता है, उसका हमारे अस्तित्व और वाह्य विश्व से क्या संबंध है, इन प्रश्नों के उत्तर अपने आप में गहरे प्रश्न छोड़ जाते हैं। ऐसे प्रश्न, जो लोगों ने अनुभव तो किये हैं पर उसे व्यक्त नहीं कर पाये। व्यक्त कर पायें तो कैसे, क्योंकि व्यक्त करने के लिये जिस भाषा का हम उपयोग करते हैं, वह भाषा यह कार्य करने में सक्षम ही नहीं। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार आप रोमन अंकों में दो बड़ी संख्याओं का गुणा करने या पृथ्वी से चाँद की दूरी मापने का प्रयास करें, क्योंकि बिना दशमलव और शून्य के सिद्धान्त के यह संभव ही नहीं। उसे गणित की रोमन भाषा में नहीं वरन दशमलवीय भाषा में ही व्यक्त किया जा सकता है।

मन की भाषा की गहनता को समझने के लिये एक तुलना करना उचित रहेगा। मन की भाषा की, मानव की भाषा की और कम्प्यूटर की भाषा की। संभवतः यह तुलना मन की भाषा के बारे में कुछ कल्पना सूत्र दे जाये।

यदि हमें आपको कोई शब्द कम्प्यूटर के माध्यम से ईमेल करके भेजना है तो कम्प्यूटर उस टाइप शब्द को ० या १ में परिवर्तित कर एक श्रंखला बना लेगा। जो ईमेल होगी वह इन्हीं ० और १ की श्रंखलाओं के पैकेट होंगॆ। वह पैकेट जब दूसरे कम्प्यूटर पर पहुँचेंगे तो वह उन्हें वापस संकलित कर स्क्रीन पर वही शब्द दिखायेगा। कम्प्यूटर को ० और १ के अतिरिक्त कुछ आता ही नहीं है, किसी भी शब्द को वह ० और १ में तोड़ता है और तभी प्रेषित कर पाता है। हमें यह देख कर और समझ कर बहुत अटपटा लग सकता है, पर यही कम्प्यूटर की विधि है, यही उसकी विवशता है। वहीं दूसरी ओर हम वह शब्द मानव की भाषा में एक दूसरे से सहज ही कह देते हैं, न केवल शब्द, वरन सम्बन्धित रंग, रूप, आकार आदि सभी संप्रेषित कर देते हैं, एक ही शब्द में।

इसी प्रकार हमारे मन की भाषा के भाव हैं, उन्हें किसी दूसरे व्यक्ति को समझाने के लिये हमें एक मानवीय भाषा की आवश्यकता होती है। शब्द, वाक्य और व्याकरण उस संप्रेषण की आवश्यक सामग्री हैं, बिना उनके हम संवाद कर ही नहीं सकते। किसी के प्रति संवेदना व्यक्त करने के शाब्दिक प्रयास बड़े भारी भरकम होते हैं और उन प्रयास का भावनात्मक सहजता से अन्तर मानवीय भाषा की सीमित सीमाओं को स्पष्ट रूप से बता देता हैं। यह सब जानते हुये भी हम मानवीय भाषा से बद्ध हैं, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कम्प्यूटर अपनी भाषा से बद्ध है। किसी की एक मुस्कान पर लोग अध्याय लिख देते हैं, काश वह मुस्कान लिखी व समझायी जा सकती, मन की भाषा में, एक ही शब्द में।

मन में आये एक विचार को व्यक्त करने में कितने शब्द सजाने पड़ते हैं और मन है कि ऐसे सहस्र विचारों की श्रंखलायें लिये बैठा है, एक के बाद एक सहज ही प्रस्तुत। मन का एक झोंका मानवीय भाषा के सैकड़ों अध्यायों से नहीं व्यक्त हो पाता है, कुछ न कुछ छूट ही जाता है, कुछ न कुछ संप्रेषण दोष रह ही जाता है। मात्र कहने में ही नहीं, वरन उसे समझने में भी कितना कुछ छूट जाता है। उसके मन में क्या विचार जगा, उसने उसे कैसे व्यक्त किया, हमने उसे कैसे समझा, यदि तुलना कर सकते तो लगता कि जिस प्रकार कम्प्यूटर महोदय इतने श्रम के बाद केवल शब्द ही संप्रेषित कर पाये थे, रूप, रंग, आकार के बिना, हम भी न जाने भाव की कितनी विमायें छोड़ देते हैं, जब मन की भाषा के भावों को मानव की भाषा में व्यक्त करते हैं। संगीत और चित्रों की भाषा में मन की भाषा के कुछ अंश देखे जा सकते हैं।

यदि मन की भाषा श्रेष्ठ है तो क्या मानव की भाषा से हमारा कोई विकास नहीं होता है? मानव की भाषा के बिना तो समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। सारे ज्ञान को प्रचारित और प्रसारित करने का कार्य तो भाषा ही करती है। नये सिद्धान्त, नयी प्रमेय, नये आविष्कार, नये विचार कैसे समस्त मानवता को प्राप्त हो पायेंगे। पर यह सारा ज्ञान स्रोत मन की भाषा से ही निकला है, मन की भाषा में समझा गया है, मानव की भाषा बस वह सीमित प्रयास कर पाती है, बार बार कई प्रयासों में उसे संप्रेषित करने का।

किसी भी भाषा का ज्ञानकोष, उस भाषा बोलने वाले समाज के लोगों की सम्मिलित मन की भाषा में उत्पन्न ज्ञान का संग्रहण होता है। कोई नयी मानवीय भाषा जानकर हम उन सारे ज्ञानकोष को अपना सकते हैं, अपना ज्ञानकोष समृद्ध कर सकते हैं। भिन्न भाषाओं मे फैली इस निधि को समेटना और सहेजना निश्चय ही मानवता का प्रमुख कार्य है, पर जिस मन की भाषा से यह सकल ज्ञान उत्प्रेरित रहा है, संवर्धित हुआ है, नयी विमाओं को छूकर आया है, उसे जानने और अनुभव करने का प्रयास भी हो, उस भाषा को जानने का प्रयास, जिस भाषा में हम मूलतः चिन्तन करते हैं।

अगली पोस्ट में मन की भाषा में और गहरे उतरेंगे और वह शब्द को किस तरह प्रभावित करती है या प्रभावित होती है, इन तथ्यों को भी समझेंगे। और आप निश्चय मानिये कि जो मन आपको सदा रोचकता बनाये रखने के लिये कचोटता रहता हो, उसके बारे में जानना कितना रोचक होगा?

7.8.13

सोचने वाली भाषा

फेसबुक पर ज्ञानदत्तजी की एक पोस्ट पर ध्यान गया। उनका कहना था कि जब वह भावुक होते हैं तो हिन्दी में सोचते हैं, जब अच्छे निर्णय लेने होते हैं तो चिन्तन अंग्रेजी में हो जाता है।

यह एक ऐसा विषय है जिस पर बहुत शोध, सुशोध, प्रतिशोध और महाशोध हो चुका है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों में तो नहीं पर कहते हैं कि बाइबिल में एक उद्धरण हैं कि सबसे पहले एक ही भाषा थी, उसका आधार पा सब जन संगठित भी थे। अब सब अपनी संगठित शक्ति में मदांध हो स्वर्ग के लिये एक सीढ़ी बनाने लगे। यह देवों को कहाँ स्वीकार था, उन्होंने मानवता को श्राप दे दिया और श्राप स्वरूप इतनी अधिक भाषायें दे दीं कि मानवता कभी संगठित ही न रह पाये। लगता है कि सीढ़ी बनाने वालों में सर्वाधिक उत्साही जन भारत के ही होंगे, तभी भारत को सर्वाधिक भाषाओं का श्राप मिला।

ज्ञानदत्तजी उन वृहदचेतनमना जनों की श्रेणी में आते हैं जिन्हें दो भाषाओं पर पूर्ण नियन्त्रण है, यहाँ तक, कि भाषा चिन्तन प्रक्रिया में धँस चुकी है। वैसे देखा जाये तो देशवासी बहुधा अपनी मातृभाषा ही जान पाते हैं, दूसरी भाषा तो काम चला लेने के भाव से सीखी जाती हैं। थोड़ी बहुत अंग्रेजी सीख जाने पर भौकाल उत्पन्न करने की पूरी संभावना रहती है, विशेषकर उन पर जो उसे अत्यन्त प्रभावकारी भाषा मानते हैं। उस जनमानस के लिये अंग्रेजी मुख या आँख की सीमाओं के अन्दर नहीं जा पाती है। एक सरल प्रयोग किया जा सकता है कि अंग्रेजी जानने का दंभ भरने वालों को एक अंग्रेजी पुस्तक पढ़ने को दी जाये और देखा जाये कि १५ मिनट तक कितने लोग उसका प्रकोप झेल पाते हैं। जो १५ मिनट से अधिक जगे रह पाये तो समझ लीजिये कि उनके अन्दर अंग्रेजी में चिन्तन करने के लक्षण जाग रहे हैं। सारी संभावनायें जोड़ ली जायें तो भी उनकी संख्या १५ प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।

विश्व में अधिकता एक भाषा बोलने वालों की ही है। जहाँ पर वैश्वीकरण के संपर्कक्षेत्र हैं, बस वहीं पर दो या दो से अधिक भाषा बोलने वालों की संख्या पनप रही है। अब भारत में इतनी भाषायें हैं कि एक भाषा समाप्त होते ही दूसरी प्रारम्भ हो जाती है, यहाँ पर दो भाषायें बोलने वालों की संख्या अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक होगी। यदि भारतीय भाषाओं के शब्दकोश पर दृष्टि डाली जाये और संस्कृत शब्दावली से उसका मिलान किया जाये तो दो पड़ोसी भाषाओं में भिन्नता का प्रतिशत १५ प्रतिशत से अधिक नहीं आयेगा।

विश्व में कितने प्रतिशत लोग दो या अधिक भाषा जानते हैं, इस बारे में कोई आधिकारिक आँकड़े नहीं मिले। अनुमान यही है कि २५-३० प्रतिशत ही ऐसे हैं जो दो या अधिक भाषा बोल पाते हैं। अब उनमें से ऐसे कितने हैं जिनका दो भाषाओं पर इतना सम अधिकार हो कि वे चिन्तन पटल पर अधिकार जमा लें, तो प्रतिशत सिकुड़ कर दशमलव के कुछ स्थान अन्दर चला जायेगा। ऐसे जनों को वृहदचेतनमना ही कहा जा सकता है, ऐसे लोग ही उत्कृष्ट अनुवादक हो सकते हैं, ऐसे लोग ही दो संस्कृतियों के बीच सेतुबन्ध हो सकते हैं, ऐसे लोग ही विश्व एकीकरण के प्रबल कारक हो सकते हैं।

दो या अधिक भाषा जानने वालों की यह संख्या देख सर्वाधिक निराश वे होंगे जिन्हें भाषायी विविधता विघटनकारी लगती है। उन्हें लगता है कि एकीकरण का एकमेव मार्ग भाषायी एकरूपता है, सांस्कृतिक एकरूपता है, धार्मिक एकरूपता है। इस एकरूपता के बिना कोई समरसता, सौहार्द या सहजीवन संभव नहीं है। विविधता में भी जीवन पल्लवित होता है, इस पर ध्यान देने की न ही उनकी मानसिकता है, न ही समय है और न ही मंशा है। शोध भी यही बताते हैं कि हमारा मन, हमारे भाव, हमारा चिन्तन किसी भाषा, संस्कृति, धर्म आदि से प्रभावित तो हो सकते हैं पर उनका अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व है। यही कारण है कि सर्वथा भिन्न जन भी एक दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक रह लेते हैं, समाज में व्याप्त विघटनकारी विष नित फैलने के बाद भी।

क्या हम किसी भाषा में चिन्तन करते हैं या चिन्तन की कोई अपनी ही भाषा होती है जो ईश्वर ने हमारे अस्तित्व में पूर्वबद्ध कर के भेजी है। पशु तो कभी कोई भाषा सीखते नहीं तो क्या वे सोचते भी नहीं हैं? एक बधिर व्यक्ति तो कभी कोई भाषा सीख ही नहीं पाता है तो क्या वह कभी सोचता ही नहीं? एक बच्चा जो अपनी माँ पर आँखें स्थिर कर उसे पहचान लेता है, क्या वह कुछ सोचता ही नहीं? यही प्रश्न चिन्तन की भाषा सम्बन्धी शोध के आधारभूत प्रश्न बने होंगे।

हम सबके अन्दर चिन्तन की एक भाषा पहले से ही विद्यमान है। भले ही उस भाषा को हम न समझ पायें और न ही उसे व्यक्त कर पायें, पर जब भी हम स्वयं से संवाद करते हैं, हम उसी भाषा का सहारा लेते हैं। विचार एक के बाद एक उसी भाषा में आते हैं। शरीर को संकेत भी उसी भाषा में मिलते हैं। प्यास लगती है, भूख लगती है, पीड़ा होती है, आनन्द होता है, संवेदना जागती है, क्रोध भड़कता है, दया उमड़ती है, सब का सब कार्य हमारी मूल भाषा में ही तो होता है। शिशु, बधिर, पशु आदि सभी तो स्वयं से बात करते ही होंगे, कुछ न कुछ तो संवाद अन्तरमन में चलता ही होगा। जिन्होंने कभी कोई भाषा ही नहीं सीखी, यदि उनकी बात भी छोड़ दें तो सिद्ध संगीतज्ञ, चित्रकार आदि किस भाषा में अपना मन रचते हैं, संभवतः वे विचारों की उस भाषा को समझने का प्रयास करते हों जो हमने कभी सुनी ही नहीं, उस समय के बाद, जब से हमने दूसरी भाषा का सहारा ले लिया।

इसका अर्थ यह हुआ कि जो भाषा हम सर्वप्रथम सीखते हैं, वह हमारी द्वितीय भाषा है, पर उस भाषा से हमारी आन्तरिक भाषा का प्राथमिक सम्बन्ध है। उसके माध्यम से हम जगत के साथ संवाद स्थापित करते हैं। सीखी हुयी भाषा सामाजिकता में सहयोगी भी है, उसके माध्यम से हम एक दूसरे को समझ पाते हैं, स्वयं को व्यक्त कर पाते हैं, सहजीवन का और ज्ञानवर्धन का एक माध्यम स्थापित कर पाते हैं। उसके बाद की जितनी भाषायें सीखी जाती हैं, वे एक दूसरे पर आरोपित होती रहती है। ज्ञान की कुछ छिटकन एक भाषा में, दूसरी छिटकन दूसरी भाषा में, एक सुभाषित एक भाषा में, दूसरा उद्धरण दूसरी भाषा में।

ज्ञान तो मस्तिष्क की परतों में अपनी जगह जाकर स्थापित होता रहता है, पर इन सीखी हुयी भाषाओं का क्या संघर्ष चलता होगा? कौन सी भाषा ऐसी होती होगी जो चिन्तन प्रकोष्ठ में जाकर अपना अधिकार जमा लेती होगी? कौन सी भाषा जाकर चिन्तन की मौलिक अदृश्य भाषा को विस्थापित कर चिन्तन की भाषा बन जाती हो? कौन किस भाषा में सोचता है, यदि एक से अधिक भाषा में सोचता हो तो कौन सी भाषा किन परिस्थितियों में प्रधान हो जाती हो? इन प्रश्नों का उत्तर बहुत कठिन है, क्योंकि इन पर कोई विधिवत शोध हुआ ही नहीं। जो भी आँकड़ा उपस्थित है, अनुभवजन्य है।

यह भी हो सकता है कि हम अपनी मौलिक भाषा में ही सोचते हों, पर जो ज्ञान हमने एकत्र कर रखा होता है, वह किसी विशेष भाषा में रहा होगा, अतः हमें उस भाषा विशेष में सोचने की अनुभूति होती होगी। उदाहरणार्थ यदि अध्यात्म के बारे में सोच रहे हों तो विचार संस्कृत में प्रवाहित होते प्रतीत होंगे। भौतिक विज्ञान के बारे में सोचेंगे तो अंग्रेजी में प्रवाह होता हुआ प्रतीत होगा। इन विषयों पर भी शोध होना शेष है कि यदि हम अध्यात्म और विज्ञान के सम्बन्धों के बारे में सोचेंगे तो विचारों का प्रवाह किस भाषा में होता हुआ लगेगा? संस्कृत में, अंग्रेजी में या मन की मौलिक भाषा में। एक बात और स्पष्ट होना आवश्यक है कि रटा रटाया कह देना चिन्तन नहीं है, मौलिक कहना चिन्तन है, तो वह मौलिक किस भाषा में सोचा जायेगा?

यह भी संभव है कि जब भी निर्णय लेने की बात होगी, ज्ञानदत्तजी को अंग्रेजी उद्धरण अधिक याद आते होंगे, प्रबन्धन के सूत्र अधिक याद आते होंगे, इसीलिये उन्हें लगता होगा कि वह अंग्रेजी में सोच रहे हैं। भावनात्मक विषयों पर अंग्रेजी कभी अपना स्थान बना नहीं पायी होगी, अतः उस विषय में हिन्दी में विचारशीलता प्रतीत होती होगी।

कल एक कार्यक्रम देख रहा था, कॉमेडी नाइट्स विद कपिल, उसमें किसी ने कहा था कि जिस भाषा में गाली निकलती है, वही आपकी असली भाषा है, वही आपकी चिन्तन की भाषा है। इसी तर्क को और बढ़ा दिया जाये तो जिस भाषा में आपके भाव बह निकलें वही आपकी चिन्तन की भाषा है।

यक्ष प्रश्न तो फिर भी रहा, कि चिन्तन की भाषा क्या है, मौलिक अदृश्य वाली या सीखी हुयी प्रथम भाषा या विषयगत ज्ञान देने वाली भाषा? आपके क्या विचार हैं, अपनी मौलिक भाषा में ही सोचकर बताइयेगा?

3.8.13

संकटमोचक मंगलवार

यदि आप ईश्वर से पूर्ण मन से अपनी समस्याओं का समाधान चाहेंगे तो वह भेजेगा अवश्य। ऐसा ही कुछ हमारे साथ भी हो गया। कुछ दिन पहले सप्ताहान्त में कार्य की प्राथमिकताओं को लेकर तर्कों के पात्र उबाल पर थे, श्रीमतीजी के लिये गृहकार्य और हमारे लिये लेखकीय सत्कार्य महत्वपूर्ण थे। भौतिक और बौद्धिक कार्यों को एक समय में मेरे द्वारा कर पाना या श्रीमतीजी के द्वारा करवा पाना, दोनों ही संभव नहीं था। भौतिक और बौद्धिक कार्यों के बीच का यह संघर्ष पूर्णतया मानसिक हो चला था। एक महीने का राशन या एक महीने का लेखन, निर्णय असमंजस में था। मन ही मन पुकारा, हे प्रभु, कुछ तो संकेत या संदेश भेजो। लगता है कि सुन लिया गया है और घर का संवैधानिक संकट हल होने की प्रतीक्षा में है। जब पूर्णतया हल हो जायेगा और संभावित लाभ मिलने लगेगा, तब ही पता चलेगा कि किसको माध्यम बना कर कैसे समस्या सुलझायी प्रभुजी ने।

जब सप्ताहान्त के दो दिन, शनिवार और रविवार अत्यधिक दवाब में थे तो सप्ताह के किसी अन्य दिन को बचाव में आना ही था, सो मंगलवार मंगल करने आ पहुँचा। अब मंगलवार ही क्यों, यह समझने के लिये कुछ बाजार की महिमा समझनी होगी और कुछ मंगलवार की। आइये समझते हैं कि किसने किसको कैसे प्रभावित किया। मॉल के उदाहरण से स्थिति स्पष्ट करने में सरलता रहेगी।

सप्ताहान्त में मॉलों में अत्यधिक भीड़ रहती है, स्वाभाविक भी है, सबको वही समय मिलता है अपने कार्य निपटाने का, शेष दिन तो कार्यालय बाहर जाने का अवसर ही नहीं देता है। फिल्म देखना हो, मटरगस्ती करनी हो, मनोरंजन करना हो, कहीं बाहर खाना हो, खरीददारी करनी हो, सब के सब कार्य सप्ताहान्त को ही निकल पड़ते हैं। सड़कों में ट्रैफिक जाम को देखने के बाद बंगलोर की जनसंख्या का जो अनुमान लगता है, वह सप्ताहान्त में मॉलों में एकत्र हुये जनमानस को देखकर तुरन्त ही ढेर हो जाता है। मॉल के सबसे ऊपर वाले तल से नीचे देखने पर इतने नरमुण्ड दिखते हैं, मानो लगता हो कि गूगल मैप से काले वृक्षों के किसी वन को निहार रहे हों।

भीड़ का जहाँ अपना आनन्द है, वहाँ व्यवधान भी है। आनन्द उनको, जिनको अपने वहाँ होने की सामाजिक स्वीकृति चाहिये होती है। अच्छा किया यहाँ घूमने चले आये, देखो तो कितने लोग जुट आये हैं। आनन्द उनको भी, जिन्होने औरों को दिखाने के लिये अच्छे अच्छे कपड़े सिलवाये होते हैं। आनन्द उनको भी, जिन्हें अपने उत्पाद बेचने के लिये प्रचार कार्यक्रम करने होते हैं। आनन्द उनको भी, जिनके लिये अधिक भीड़ का होना उनकी प्रेमवार्ता के लिये किसी एकान्त कवच का कार्य करता है। किसी मेले में होने वाले आनन्दकारी भाव मॉल के सप्ताहन्त में आपको मिल जायेंगे। व्यवधान बस उनको रहता है, जो अपना कार्य कर परमहंसीय भाव से शीघ्र बाहर निकलना चाहते हैं। हम कभी आनन्द में तो कभी व्यवधान में जीते हैं, जिस दिन जैसा मनोभाव और परिवेश रहे।

इसके विपरीत सप्ताह के अन्य दिनों में एक शान्ति व्यापी रहती है, लगता है कोई प्रेमी प्रतीक्षा में है, अपने प्रियतम की, जो पाँच दिन बाद पुनः आने वाला है।

यही वे दिन होते हैं, जब मॉल की दुकानों में होने वाला व्यवसाय न्यून होता है। ऐसा नहीं है कि उन दिनों कोई नहीं आता है। लोग आते हैं, पर सायं और रात में और वह भी मुख्यतः दो कारणों से, फिल्म देखने और भोजन करने। अनुभव यह भी बताता है कि लोग जब भी आते हैं, बहुधा दोनों ही कार्य करते हैं और यदि समय मिल सके तो खरीददारी भी कर लेते हैं। अगले दिन कार्यालय जाने की शीघ्रता में तीनों कार्य सुपरमैन के जैसे लगते हैं। जब बंगलोर में यातायात के प्रकोप को देखते हुये मॉल तक आना जाना भी एक कार्य के जैसा ही है, तो यह मानकर चला जा सकता है कि लोगों को दो कार्यों से अधिक निपटाने का समय नहीं मिल पाता है।

उस पर भी मंगलवार का दिन और विशेष है। इस दिन लोगों की धार्मिकता जागृत अवस्था में रहती है और अधिकांश लोग मांसाहार नहीं करते हैं। दक्षिण में लोक व्यंजन मुख्यतः शाकाहारी होने पर भी सप्ताह मेंं एक दो बार स्वाद के लिये मांसाहार करने की जनसंख्या भी पर्याप्त लगती है। वे लोग भी अपने एक दो दिन के स्वाद के लिये मंगलवार को क्रुद्ध नहीं करना चाहते हैं, उसे पवित्र बनाये रखने के लिये हर संभव प्रयास करते हैं। यह जनसंख्या मंगलवार को मॉल में नहीं दिखायी पड़ती है। इसके अतिरिक्त धार्मिकता के प्रभावक्षेत्र में अग्रणी होने के कारण कई लोग मंगलवार का व्रत रखते हैं, ये लोग भी मंगलवार को मॉल में नहीं दिखायी पड़ते हैं।

सप्ताह के सात दिनों में संभवतः मंगलवार ही ऐसा होगा जब मॉल में आने वालों की संख्या न्यूनतम होती होगी। यह तथ्य मॉल वालों को भली भाँति ज्ञात होगा। किसी दिन विशेष में ही क्यों, किस समय मॉल के अन्दर कितने लोग थे, इसकी भी संख्या आधुनिक तकनीक के माध्यम से मॉल संचालकों को ज्ञात रहती होगी।

अब सप्ताह में एक दिन बिक्री शून्य हो जाये तो १५ प्रतिशत हानि तो पक्की है। यही कारण रहा होगा कि मॉल स्थित एक विशेष मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर ने फिल्म की टिकटें केवल मंगलवार के लिये १०० रु की कर दी हैं। ये टिकटें सप्ताहन्त में ३०० और सप्ताह के अन्य दिनों में २५० रु तक की रहती हैं। हाँ, भीड देखकर ये फिल्म टिकट भी कुप्पा हो जाते हैं। अब जितने धन में सप्ताहन्त में एक व्यक्ति फिल्म देख सकता है, उतने में मंगलवार के दिन तीन लोग देख सकते हैं। यही तथ्य हमारे लिये वरदान बन कर आया।

एक कुशल गृहणी और धन बचाने के हर अवसर को न गँवाने वाली भारतीय नारी के रूप में हमारी श्रीमतीजी ने फिल्म देखने के लिये मंगलवार का दिन नियत कर दिया। हमें कोई आपत्ति नहीं। उस दिन कार्यालय के पश्चात और सोने के पहले चार पाँच घंटे का समय निकल ही आता है, जिसमें फिल्म देखी और बाहर भोजन किया जा सकता है। यही नहीं, भोजन के प्रतीक्षा समय में हम और पृथु जाकर थोड़ी बहुत खरीददारी भी कर आते हैं। यदि खरीददारी तनिक अधिक होती है तो श्रीमतीजी फिल्म प्रारम्भ होने के पहले जाकर खरीददारी कर लेती हैं, जिससे फिल्म और भोजन बिना किसी व्यवधान के बीते।

ऐसा नहीं है कि हर मंगलवार को ही जाना हो, पर अब हमारे सप्ताहान्त विशुद्ध लेखकीय सत्कार्य में लग रहे हैं। यदा कदा बाहर जाना भी होता है पर वह श्रम नहीं लगता, उसे लेखन के बीच में मध्यान्तर के रूप में भी देखा जा सकता है। जहाँ तक मंगलवार का प्रश्न है, वह वैसे भी कार्यालय से आने के बाद टीवी आदि के सामने बीतता था। कार्यालय से आने के बाद भला मन में इतनी शक्ति कहाँ रहती है कि कुछ नया सोचा जा सके। अब बाहर जाकर सारे कार्य निपटा आने से संतुष्टि की अनुभूति अलग होती है।

यह सुखद स्थिति बहुत भा रही है, बहुत काम आ रही है, पर लगता नहीं है कि यह टिकी रह पायेगी। बाजार के संतुलन में उसका भी स्थायित्व टिका हुआ है। यदि ऐसा हुआ कि हम जैसे परिवार पर्याप्त मात्रा में हो गये और मॉल में मंगलवार को भी चहल पहल रहने लगी तो संभवतः मल्टीप्लेक्स वाले अपना निर्णय बदल दें, तब संभवतः टिकट १०० रु का न रह जाये, तनिक मँहगा हो जाये। तब हमारी श्रीमतीजी संभवतः अपनी रणनीति बदल दें।

हम यह सब क्यों सोचें, जो हो गया है और जो होने वाला है, उसके बारे में विद्वान शोक नहीं करते हैं, हम नहीं कहते, गीता के द्वितीय अध्याय में लिखा है। हम वर्तमान से अत्यन्त प्रसन्न हैं, हमारी पारिवारिक उलझन सुलझाने में बाजार का और मंगलवार का बहुत बड़ा योगदान है। जय संकटमोचक मंगलवार।