जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में अपना प्रयोग सफल करने के बाद भारत आये, उनके राजनैतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले ने उन्हें पूरे देश का भ्रमण करने की सलाह दी। गाँधीजी ने सारे देश में भ्रमण किया, भारतीय जनमानस को समझा और उनका नेतृत्व किया। यद्यपि इस भ्रमण को विशुद्ध पर्यटन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, फिर भी अनुभव के आधार पर गाँधीजी का भ्रमण पर्यटन की तुलना में कहीं गाढ़ा रहा होगा। आधिकारिक आँकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं पर अधिकाधिक यात्रा रेलवे के तृतीय श्रेणी के डब्बे में की होगी गांधीजी ने। ठहरने की व्यवस्था और स्थानीय यातायात के साधन क्या रहे होंगे, ठीक ठीक ज्ञात नहीं, पर अंग्रेज़ों का भव्य आतिथ्य तो निश्चय ही उन्हें नहीं मिला होगा।
अब हम तनिक अपना पिछला पर्यटन अनुभव याद करें, ठहरने के लिये एक अच्छा होटल, घूमने के लिये कोई कार, मोबाइल पर उतारे गये ढेरों चित्र, बताये हुये हर स्थान को छू आने की व्यग्रता और अन्त में अपने परिवार को घुमा लाने की उपलब्धि का बोध। प्रारम्भ में तो सबकी अवस्था यही रहती है, पर जब पर्यटन का अनुभव सतही होने लगता है तब लगता है कि पर्यटक स्थल में थोड़ा और गहरे उतरा जाये। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, स्थानीय सामाजिक तन्त्र, लोक संस्कृति, परिपाटियाँ, खेती, पशुधन आदि विशिष्ट पक्ष भी जानने का मन करने लगता है। पर्यटन की यही विमा गाँधीजी के भारत भ्रमण का प्रमुख पक्ष रही होगी। पर्यटन स्थल के दृश्यों के सौन्दर्य से तो प्रकृति का श्रृंगार पक्ष ही व्यक्त होता है, प्रकृति का व्यवहार पक्ष जानने के लिये अधिक अन्दर तक जाना होता है।
निश्चय ही युवाओं को अपना देश देखने का पूरा अवसर मिलना चाहिये। जिस देश में कार्य करना है, जिस देश के लिये कार्य करना है, उसके जनमानस और संवेदना को समझना भी आवश्यक है। गाँधीजी की तरह भले ही तत्कालीन राजनैतिक ध्येय न हों, पर सामाजिक और मानसिक संवेदनाओं का माध्यम तो बन ही सकता है, पर्यटन प्रेरित भारत भ्रमण।
बहुतों को यह भ्रम हो सकता है कि देश में घूमने के लिये है ही क्या, यदि पर्यटन का आनन्द उठाना हो तो विदेश घूम कर आना चाहिये। निश्चय ही विदेशों में पर्यटन को प्रोत्साहन मिलता है, आधारभूत व्यवस्थायें अच्छी हैं, दृश्य भारत से भिन्न हैं और मनोहारी लगते हैं, पर भौगोलिक विविधता, ऐतिहासिक उत्कर्ष और प्राकृतिक सौन्दर्य के जो रत्न भारत में छिपे हैं, उनका समुचित मूल्यांकन अभी तक हुआ ही नहीं। यदि उसकी एक झलक पानी हो तो नीरज के ब्लॉग पर जाकर उनकी यात्राओं में उतारे गये चित्रों को देखिये, मेरा विश्वास है कि विदेश में घूमने जाने के पहले आप अपने देश के उन सारे स्थानों को देखना चाहेंगे जो समुचित प्रचार प्रसार से वंचित हैं अब तक।
ज्ञानार्जन और भावार्जन के अतिरिक्त पर्यटन मनोरंजन का सशक्त माध्यम है। मन नयापन चाहता है, एक ही दिनचर्या, एक ही जीवनचर्या, वही घर, वही भोजन, कालान्तर में मन इन सबसे ऊबने लगता है। लगता है कुछ दिन बाहर घूम आने से एकरसता बाधित होगी और मन को आनन्द आयेगा। नौकरी और व्यवसाय में रहने वालों को तो कार्य में व्यस्त रहने के तब भी कई साधन मिल जाते हैं, उन गृहणियों की कल्पना कीजिये जो बिना स्थान बदले चक्रवत कार्यनिरत रहती हैं। मुझे पहले बड़ा आश्चर्य होता था कि एक स्थान घूम कर आते ही श्रीमतीजी दूसरे स्थान की योजना बनाने लगती हैं, उन्हें बच्चों की छुट्टियाँ और सारे वे सोमवार या शुक्रवार की जानकारी रहती है जो सप्ताहान्त को ३-४ दिन का बनाने में समर्थ हैं। इसके अतिरिक्त जो भी स्थान एक दिन में निपटाये जा सकते हैं, उसकी सूची अलग से तैयार है उनके पास। अब भले ही मैं उनको उनकी आशानुरूप न घुमा पाऊँ, पर निश्चय ही वह पर्यटनीय सलाहकार के रूप में अपना भविष्य बना सकती हैं, औरों के यात्रा कार्यक्रम बना सकती हैं।
इसी तरह की एकत्र ढेरों सूचनायें नीरज के प्रति मेरी उत्सुकता का तीसरा कारण है। न केवल यात्रा वरन उसके सभी पक्षों का विस्तृत विवरण अनुभव से प्राप्त जानकारी का उपयोगी स्रोत हो सकता है। यह घुमक्कड़ी के आगामी उत्सुकजनों के लिये अत्यन्त लाभ का पक्ष हो सकता है। जब से ब्लॉग में घुमक्कड़ी संबंधित विषय बढ़े हैं, पर्यटन स्थलों के बारे में पर्याप्त सूचनायें मिल रही हैं। यद्यपि पर्यटन पर लिखी गयी पुस्तकें बहुत समय से एक स्रोत रही हैं, पर उनमें प्राप्त एक अनुभव विशेष सबके लिये सहायक नहीं हो सकता है। कई स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर पर्यटन के पहले ही एक ढाँचा तैयार किया दा सकता है। पिछले ४-५ पर्यटन स्थानों पर जाने के पहले, उससे संबंधित ब्लॉगों ने निर्णय लेने में बहुत सहायता की है।
नीरज जाट के अनुभव और उनका वृत्तान्त घुमक्कड़ी से जुड़े हुये ब्लॉगों में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। पहला तो उनके लिखने की शैली भी ठीक वैसी ही है, जैसी उनके घूमने की शैली, सरल, सहज, न्यूनतम और पूर्ण। सरल इसलिये कि कार्यक्रमों में जटिलता नहीं रहती और वे बड़ी सरलता से परिवर्धित किये जा सकते हैं। सहज इसलिये कि उनमें तड़क भड़क नहीं रहती और पर्यटन के परिवेश में घुल जाने की प्रक्रिया में कोई रुकावट नहीं आती है। न्यूनतम इसलिये क्योंकि उनकी घुमक्कड़ी शैली साधनों पर कम वरन अनुभवों पर अधिक आश्रित है। पूर्ण इसलिये क्योंकि इसी शैली में घूमकर पर्यटन के मर्म को छुआ जा सकता है।
पूछने पर कि कितना सामान लेकर चलते हैं, एक छोटा सा बैगपैक जो पीछे टँगा था। पहने हुये के अतिरिक्त दो जोड़ी कपड़े। यदि नित्य नहाने की बाध्यता न रखी जाये तो ट्रेन में ही तैयार हुआ जा सकता है। दो या तीन दिन में जब भी रात्रि विश्राम के लिये रिटायरिंग रूम का अवसर मिले, तो नहाकर और अपने कपड़े धोकर आगे बढ़ा जा सकता है। वैसे देखा जाये तो, ट्रेनयात्रा में यदि सोने को मिल जाये तो विश्राम वैसे ही पूरा हो जाता है। रेलवे की सुविधा का उपयोग कर घुमक्कड़ी को यथासम्भव सरल और प्रभावशाली बनाया जा सकता है। नीरज के यात्रा वृत्तान्तों में इस क्रियाविधि की प्रचुरता में उपस्थिति दिखायी पड़ती है।
अब बात रह जाती है, उन स्थानों को देखने की, जिनके लिये यातायात के स्थानीय साधनों का उपयोग करना होता है। निकट के दर्शनीय स्थल स्थानीय साधनों से देखे जा सकते हैं, पर रेलवे स्टेशन से अधिक दूरी पर स्थित पर्यटन स्थलों के लिये बस आदि का उपयोग आवश्यक हो जाता है। मुझे एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया था कि प्रशिक्षण के समय वह अपनी मोटरसाइकिल सदा ही साथ लेकर चलते थे। जिस स्टेशन से ट्रेन में चढ़े वहाँ चढ़ा ली और गञ्तव्य में उतार ली। इस प्रकार प्रशिक्षण के समय उनका सारा पर्यटन अपनी मोटरसाइकिल में हुआ, स्थानीय साधनों पर आश्रित हुये बिना। यहाँ तक कि उन्हें ५०-६० किमी की परिधि में स्थित पर्यटन स्थलों को घूमने के लिये भी किसी का मुँह नहीं ताकना पड़ा। उनके अनुसार, पर्यटन का यह अनुभव अविस्मरणीय था और इस प्रकार उन्होंने बिना किसी विवशता में बँधे पर्यटन का आनन्द उठाया।
हमारे वरिष्ठ अधिकारी रेलवे से ही थे अतः मोटरसाइकिल लादने और उतारने में उन्हें कभी कोई कठिनाई या देरी नहीं हुयी। साधारण पर्यटक के लिये यह संभव नहीं है। यदि किसी तरह एक साइकिल को इस तरह खोलकर बाँधा जा सके जिससे वह सीट के नीचे आ जाये और प्लेटफॉर्म पर रोलर की तरह खींची जा सके तो स्थानीय साधनों की आश्रयता कम की जी सकती है। बाहर के देशों में कई बार लोगों को अपनी साइकिल मोड़कर ट्रेनों में ले जाते हुये देखा है, पर अपने देश में उस तरह की शैली विकसित नहीं हुयी है। नीरज ने लेह यात्रा के समय एक साइकिल उपयोग की है। अब यह देखना है कि अन्य स्थानों पर भी स्थानीय साधनों पर परवशता कम करने के लिये, वह साइकिल का उपयोग कैसे करेंगे?
रेलवे में होने के कारण पर्यटन के विभिन्न पक्षों को और पर्यटकों को निकट से देखा है। देश के पूर्व, उत्तर और दक्षिण में १७ वर्षों तक पदस्थ रहने के कारण देश की पर्यटन सम्पदा का अनुमान भी है। नीरज जाट के पर्यटनीय अनुभव ने पुनः एक बार विचार करने को बाध्य किया कि किस प्रकार रेलवे, पर्यटन और ब्लॉग का पारस्परिक परिवर्धन में समुचित उपयोग किया जा सकता है। रेलवे की अधिकाधिक आय, पर्यटन के मितव्ययी अनुभवों और साहित्य सृजन को किस प्रकार समन्वयित किया जा सकता है, यह एक विचारणीय और करणीय विषय बन सकता है।
आशा है पर्यटन की नयी और उन्मुक्त शैली विकसित करने नीरज जाट के अनुभव अत्यन्त सहायक होंगे। इस शैली की अन्य शैलियों से तुलना और अन्य संबद्ध पक्षों की चर्चा आगामी पोस्टों में।
अब हम तनिक अपना पिछला पर्यटन अनुभव याद करें, ठहरने के लिये एक अच्छा होटल, घूमने के लिये कोई कार, मोबाइल पर उतारे गये ढेरों चित्र, बताये हुये हर स्थान को छू आने की व्यग्रता और अन्त में अपने परिवार को घुमा लाने की उपलब्धि का बोध। प्रारम्भ में तो सबकी अवस्था यही रहती है, पर जब पर्यटन का अनुभव सतही होने लगता है तब लगता है कि पर्यटक स्थल में थोड़ा और गहरे उतरा जाये। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, स्थानीय सामाजिक तन्त्र, लोक संस्कृति, परिपाटियाँ, खेती, पशुधन आदि विशिष्ट पक्ष भी जानने का मन करने लगता है। पर्यटन की यही विमा गाँधीजी के भारत भ्रमण का प्रमुख पक्ष रही होगी। पर्यटन स्थल के दृश्यों के सौन्दर्य से तो प्रकृति का श्रृंगार पक्ष ही व्यक्त होता है, प्रकृति का व्यवहार पक्ष जानने के लिये अधिक अन्दर तक जाना होता है।
निश्चय ही युवाओं को अपना देश देखने का पूरा अवसर मिलना चाहिये। जिस देश में कार्य करना है, जिस देश के लिये कार्य करना है, उसके जनमानस और संवेदना को समझना भी आवश्यक है। गाँधीजी की तरह भले ही तत्कालीन राजनैतिक ध्येय न हों, पर सामाजिक और मानसिक संवेदनाओं का माध्यम तो बन ही सकता है, पर्यटन प्रेरित भारत भ्रमण।
बहुतों को यह भ्रम हो सकता है कि देश में घूमने के लिये है ही क्या, यदि पर्यटन का आनन्द उठाना हो तो विदेश घूम कर आना चाहिये। निश्चय ही विदेशों में पर्यटन को प्रोत्साहन मिलता है, आधारभूत व्यवस्थायें अच्छी हैं, दृश्य भारत से भिन्न हैं और मनोहारी लगते हैं, पर भौगोलिक विविधता, ऐतिहासिक उत्कर्ष और प्राकृतिक सौन्दर्य के जो रत्न भारत में छिपे हैं, उनका समुचित मूल्यांकन अभी तक हुआ ही नहीं। यदि उसकी एक झलक पानी हो तो नीरज के ब्लॉग पर जाकर उनकी यात्राओं में उतारे गये चित्रों को देखिये, मेरा विश्वास है कि विदेश में घूमने जाने के पहले आप अपने देश के उन सारे स्थानों को देखना चाहेंगे जो समुचित प्रचार प्रसार से वंचित हैं अब तक।
ज्ञानार्जन और भावार्जन के अतिरिक्त पर्यटन मनोरंजन का सशक्त माध्यम है। मन नयापन चाहता है, एक ही दिनचर्या, एक ही जीवनचर्या, वही घर, वही भोजन, कालान्तर में मन इन सबसे ऊबने लगता है। लगता है कुछ दिन बाहर घूम आने से एकरसता बाधित होगी और मन को आनन्द आयेगा। नौकरी और व्यवसाय में रहने वालों को तो कार्य में व्यस्त रहने के तब भी कई साधन मिल जाते हैं, उन गृहणियों की कल्पना कीजिये जो बिना स्थान बदले चक्रवत कार्यनिरत रहती हैं। मुझे पहले बड़ा आश्चर्य होता था कि एक स्थान घूम कर आते ही श्रीमतीजी दूसरे स्थान की योजना बनाने लगती हैं, उन्हें बच्चों की छुट्टियाँ और सारे वे सोमवार या शुक्रवार की जानकारी रहती है जो सप्ताहान्त को ३-४ दिन का बनाने में समर्थ हैं। इसके अतिरिक्त जो भी स्थान एक दिन में निपटाये जा सकते हैं, उसकी सूची अलग से तैयार है उनके पास। अब भले ही मैं उनको उनकी आशानुरूप न घुमा पाऊँ, पर निश्चय ही वह पर्यटनीय सलाहकार के रूप में अपना भविष्य बना सकती हैं, औरों के यात्रा कार्यक्रम बना सकती हैं।
इसी तरह की एकत्र ढेरों सूचनायें नीरज के प्रति मेरी उत्सुकता का तीसरा कारण है। न केवल यात्रा वरन उसके सभी पक्षों का विस्तृत विवरण अनुभव से प्राप्त जानकारी का उपयोगी स्रोत हो सकता है। यह घुमक्कड़ी के आगामी उत्सुकजनों के लिये अत्यन्त लाभ का पक्ष हो सकता है। जब से ब्लॉग में घुमक्कड़ी संबंधित विषय बढ़े हैं, पर्यटन स्थलों के बारे में पर्याप्त सूचनायें मिल रही हैं। यद्यपि पर्यटन पर लिखी गयी पुस्तकें बहुत समय से एक स्रोत रही हैं, पर उनमें प्राप्त एक अनुभव विशेष सबके लिये सहायक नहीं हो सकता है। कई स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर पर्यटन के पहले ही एक ढाँचा तैयार किया दा सकता है। पिछले ४-५ पर्यटन स्थानों पर जाने के पहले, उससे संबंधित ब्लॉगों ने निर्णय लेने में बहुत सहायता की है।
नीरज जाट के अनुभव और उनका वृत्तान्त घुमक्कड़ी से जुड़े हुये ब्लॉगों में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। पहला तो उनके लिखने की शैली भी ठीक वैसी ही है, जैसी उनके घूमने की शैली, सरल, सहज, न्यूनतम और पूर्ण। सरल इसलिये कि कार्यक्रमों में जटिलता नहीं रहती और वे बड़ी सरलता से परिवर्धित किये जा सकते हैं। सहज इसलिये कि उनमें तड़क भड़क नहीं रहती और पर्यटन के परिवेश में घुल जाने की प्रक्रिया में कोई रुकावट नहीं आती है। न्यूनतम इसलिये क्योंकि उनकी घुमक्कड़ी शैली साधनों पर कम वरन अनुभवों पर अधिक आश्रित है। पूर्ण इसलिये क्योंकि इसी शैली में घूमकर पर्यटन के मर्म को छुआ जा सकता है।
पूछने पर कि कितना सामान लेकर चलते हैं, एक छोटा सा बैगपैक जो पीछे टँगा था। पहने हुये के अतिरिक्त दो जोड़ी कपड़े। यदि नित्य नहाने की बाध्यता न रखी जाये तो ट्रेन में ही तैयार हुआ जा सकता है। दो या तीन दिन में जब भी रात्रि विश्राम के लिये रिटायरिंग रूम का अवसर मिले, तो नहाकर और अपने कपड़े धोकर आगे बढ़ा जा सकता है। वैसे देखा जाये तो, ट्रेनयात्रा में यदि सोने को मिल जाये तो विश्राम वैसे ही पूरा हो जाता है। रेलवे की सुविधा का उपयोग कर घुमक्कड़ी को यथासम्भव सरल और प्रभावशाली बनाया जा सकता है। नीरज के यात्रा वृत्तान्तों में इस क्रियाविधि की प्रचुरता में उपस्थिति दिखायी पड़ती है।
अब बात रह जाती है, उन स्थानों को देखने की, जिनके लिये यातायात के स्थानीय साधनों का उपयोग करना होता है। निकट के दर्शनीय स्थल स्थानीय साधनों से देखे जा सकते हैं, पर रेलवे स्टेशन से अधिक दूरी पर स्थित पर्यटन स्थलों के लिये बस आदि का उपयोग आवश्यक हो जाता है। मुझे एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया था कि प्रशिक्षण के समय वह अपनी मोटरसाइकिल सदा ही साथ लेकर चलते थे। जिस स्टेशन से ट्रेन में चढ़े वहाँ चढ़ा ली और गञ्तव्य में उतार ली। इस प्रकार प्रशिक्षण के समय उनका सारा पर्यटन अपनी मोटरसाइकिल में हुआ, स्थानीय साधनों पर आश्रित हुये बिना। यहाँ तक कि उन्हें ५०-६० किमी की परिधि में स्थित पर्यटन स्थलों को घूमने के लिये भी किसी का मुँह नहीं ताकना पड़ा। उनके अनुसार, पर्यटन का यह अनुभव अविस्मरणीय था और इस प्रकार उन्होंने बिना किसी विवशता में बँधे पर्यटन का आनन्द उठाया।
हमारे वरिष्ठ अधिकारी रेलवे से ही थे अतः मोटरसाइकिल लादने और उतारने में उन्हें कभी कोई कठिनाई या देरी नहीं हुयी। साधारण पर्यटक के लिये यह संभव नहीं है। यदि किसी तरह एक साइकिल को इस तरह खोलकर बाँधा जा सके जिससे वह सीट के नीचे आ जाये और प्लेटफॉर्म पर रोलर की तरह खींची जा सके तो स्थानीय साधनों की आश्रयता कम की जी सकती है। बाहर के देशों में कई बार लोगों को अपनी साइकिल मोड़कर ट्रेनों में ले जाते हुये देखा है, पर अपने देश में उस तरह की शैली विकसित नहीं हुयी है। नीरज ने लेह यात्रा के समय एक साइकिल उपयोग की है। अब यह देखना है कि अन्य स्थानों पर भी स्थानीय साधनों पर परवशता कम करने के लिये, वह साइकिल का उपयोग कैसे करेंगे?
रेलवे में होने के कारण पर्यटन के विभिन्न पक्षों को और पर्यटकों को निकट से देखा है। देश के पूर्व, उत्तर और दक्षिण में १७ वर्षों तक पदस्थ रहने के कारण देश की पर्यटन सम्पदा का अनुमान भी है। नीरज जाट के पर्यटनीय अनुभव ने पुनः एक बार विचार करने को बाध्य किया कि किस प्रकार रेलवे, पर्यटन और ब्लॉग का पारस्परिक परिवर्धन में समुचित उपयोग किया जा सकता है। रेलवे की अधिकाधिक आय, पर्यटन के मितव्ययी अनुभवों और साहित्य सृजन को किस प्रकार समन्वयित किया जा सकता है, यह एक विचारणीय और करणीय विषय बन सकता है।
आशा है पर्यटन की नयी और उन्मुक्त शैली विकसित करने नीरज जाट के अनुभव अत्यन्त सहायक होंगे। इस शैली की अन्य शैलियों से तुलना और अन्य संबद्ध पक्षों की चर्चा आगामी पोस्टों में।