सायं का समय था, वाहन की अगली सीट से सामने का दृश्य स्पष्ट दिख रहा था। आस पास कई और वाहन थे, लम्बे और मँहगे भी, सामने सिग्नल लाल था। निरीक्षण हेतु घर से बाहर निकले पर्याप्त समय हो गया था, कार्य होने के बाद वापसी की ओर दिशा थी, सारे मैसेज, मेल आदि मोबाइल पर देख चुका था, निरीक्षण रपट के बिन्दु लिख चुका था, ड्राइवरजी को कोई एफएम चैनल लगाने की अनुमति दे दी, संभवतः उन्हें अच्छे से ज्ञात रहता है कि किस समय किस चैनल पर कर्णप्रिय गीत आते हैं। एक नया गाना चल रहा है, तुम ही हो, आशिकी २ फिल्म का, अरिजीत सिंह के मधुर कण्ठ में, हर साँस में नाम तेरा। किसी का गाना इतना प्रभाव उत्पन्न कर रहा है, निश्चय ही मन से गाया होगा।
थोड़ी देर पहले बारिश हुयी थी, पूरा वातावरण नम था, फुटपाथ का रंग पानी में धुलकर और भी गाढ़ा हो चला था। दृश्य अन्य दिनों की तुलना में अधिक स्पष्ट थे। बंगलोर में आसमान कम ही दिखता है, जब सामने भवन घेरे खड़े हों, तो उनसे बचकर दृष्टि भला ऊपर कहाँ जा सकती है? आसमान तो वैसे भी नहीं दिख रहा है, स्याह दिख रहा है फुटपाथ की तरह ही गीला होकर गाढ़ा हो गया है उसका रंग, या कहें कि पानी से बचने के लिये बादलों को ही ओढ़ लिया है उसने, कि कहीं गीले न हो जायें। जब भी इधर पानी फिर बरसेगा, आसमान सूखकर फिर से नीला हो जायेगा, खुला खुला, सूखा सूखा।
सामने एक कार खड़ी है, यह तो कर्नाटक एक्सप्रेस है, नहीं उसकी नम्बर प्लेट पर जो अंक है, वह कर्नाटक एक्सप्रेस का ट्रेन नम्बर है, २६२७। नहीं, नहीं अब तो ट्रेनों के नम्बर पाँच अंकों के हो गये हैं, इसके आगे भी १ लग कर १२६२७ हो गया है। एक साथी के पास वाहन है, उसका नम्बर मुजफ्फरपुर इण्टरसिटी का है, उसके वाहन को देखकर अभी भी हाजीपुर के दिन याद आ जाते हैं। पता नहीं, पर परिचालन के पदों में रहते हुये और ट्रेनों का पीछा करते करते, अब ट्रेनों के नम्बर हमारा पीछा करने लगे हैं। जो भी वाहन दिखता उसकी नम्बर प्लेट में कोई न कोई ट्रेन नम्बर दिख जाता है। पता नहीं कब छूटेगा यह खेल मन से।
पानी बरसने से सारा धुआँ पानी में घुलकर बह गया, वातावरण स्वच्छ सा दिखने लगा, वाहन की खिड़की खोली, थोड़ी शीतल हवा अन्दर आयी, सर्र से, चेहरे पर सलोना सा झोंका पडा, मन आनन्द से भर गया। पानी वायु प्रदूषण तो बहा कर ले गया पर इस ध्वनि प्रदूषण का क्या करें, क्या करें वाहनों के उस कोलाहल का जो गीत सुनने में व्यवधान डाल रहा है। शीतल बयार के साथ कर्कश कोलाहल निशुल्क ले जाइये। खिड़की बन्द करते ही शान्ति सी घिर आयी। अब लगता है कि कार के अन्दर वातानुकूलता के तीन प्रमुख लाभ हैं, तापमान स्थिर रहता है, धूल और धुआँ नहीं आता है और सड़क का कोलाहल कानों को नहीं भेदता है। पता नहीं एसी बनाने वाली कम्पनियाँ कब इन तीनों लाभों को अपने प्रचार मे समाहित कर पायेंगी।
सामने के ट्रैफिक सिग्नल पर उल्टी गिनती चल रही है, १२० से शून्य तक, यहाँ पर दो मिनट का टाइमर नियत है। आप कहीं प्रतीक्षा करते करते ऊब न जायें अतः ट्रैफिक सिग्नलों पर उल्टी गिनती का प्रावधान कर रखा है। कहते हैं किसी भी चीजों को अंकों में बदल लेने से उस पर नियन्त्रण सरल लगता है, समय बिना गिनती के सम्हलता ही नहीं है, कभी सिकुड़ जाता है, कभी फैल जाता है। यहाँ पर १२० तक की गिनती में लगता है कि समय अपनी गति से ही चल रहा है।
पर पता नहीं क्यों, ये लोग उल्टी गिनती गिनते हैं, सीधी भी गिन सकते थे। पर उसमें एक समस्या है, पता नहीं चलता कि कहाँ रुकना है, क्योंकि कई स्थानों पर ६० सेकण्ड की प्रतीक्षा है तो कई स्थानों पर १८० सेकेण्ड की। यदि ऐसा होता और सीधी गिनती गिनते, तो पता चलता कि सहसा सिग्नल हरा हो गया, सब गाड़ी एक साथ चल पड़ीं, एक अनोखा खेल बन जाता, मनोरंजक सा। तब संभवतः प्रतीक्षा रोचक हो जाती, कि पता नहीं कब रास्ता मिल जायेगा। होना तो यह चाहिये कि इस पर शर्त लगाने के लिये इसे अनिश्चित कर देना चाहिये, लोग प्रतीक्षा के समय शर्त लगाया करेंगे, उनका समय भी कट जायेगा और मनोरंजन भी पूर्ण होगा। अभी तो हमें उल्टी गिनती पूरी याद हो गयी है, बचपन में मास्टर साहब ने बहुत पूछा था, उल्टी गिनती, अब पूछते तो सुनाकर प्रथम आ जाते। मैं ही क्यों, पूरा बंगलोर ही प्रथम आ जाता, पूरा समय उल्टी गिनती ही तो गिनने में बीतता है, यहाँ के लोगों का।
सिग्नल महोदय सहसा हरे हो जाते हैं, उनके हरे होने से जितनी प्रसन्नता बरसती है, उतनी संभवतः पेड़ों के हरे होने पर भी नहीं बरसती होगी। हमारा वाहन भी इठलाता हुआ चल देता है, अगले सिग्नल तक तो निश्चिन्त।
जून का माह समाप्त होने को आया है, अब तक तो सबकी ग्रीष्मकालीन छुट्टियाँ समाप्त हो गयी होंगी। यहाँ पर फिर भी कुछ पर्यटक दिख रहे हैं, संभवतः आज या कल तक वापस चले भी जायें। बाजार के आसपास निश्चिन्त टहलते हुआ कोई यहाँ रहने वाला गृहस्थ तो नहीं हो सकता। यहाँ के युवा भी नहीं होंगे, क्योंकि वे बहुधा इतने खुले स्थानों पर नहीं पाये जाते हैं। बाहर से आने वाले ही होंगे, क्योंकि इतने आत्मविश्वास और मंथर गति से चलने वाले, छुट्टियाँ का आनन्द उठाने वालों के अतिरिक्त कोई और हो भी नहीं सकते हैं। बंगलोर आज अपने पूरे सौन्दर्य में हैं, पर्यटकों का पैसा वसूल है आज तो।
घर आ जाता है, अब दृष्टि में परिवार है। आज आने में देर हो गयी। नहीं, थोड़ा ट्रैफिक जाम था, धीरे स्वर में ऐसे बोले कि जैसे दृष्टि भी जाम थी। अब जिनको ट्रैफिक जाम में कष्ट हो, तो हो, हमें तो जीभर कर देखने को मिलता है, जीभर कर समझने को मिलता है। अगली बार कुछ और देखा जायेगा, जितनी अधिक प्रतीक्षा, उतना बड़ा दृष्टिक्षेत्र।
शुभ प्रभात
ReplyDeleteप्रथम भ्रमण
आपके ब्लाग पर...
यात्रा वृतान्त..
ज्ञान वर्धन
और नई सोच
पैदा हुई
आभार
जून का माह समाप्त होने को आया है----कब तक समाप्त हो जायेगा?
ReplyDelete:)
Deleteअनूठा जय हो, निराला हरे हरे.
ReplyDeleteप्रतीक्षा के समय का सदुपयोग !
ReplyDeleteशानदार वृतांत
ReplyDeleteलाइट पर टाइमर anxiety ख़त्म करता है
ReplyDeleteप्रतिक्छा के आनंद ,सुन्दर
ReplyDeleteहरे हरे अच्छे लगते हैं ..
ReplyDeleteसमय के सदुपयोग का सजीव वर्णन ....अत्यंत रोचक आलेख .....!!
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है ....!!
मौसम तो बड़ा आनंद मयी वह कविता मयी है, और मौसम के अनुकूल ही आपका लेख भी ।इस ट्रैफिक सिग्नल का यही इतर पक्ष अखरता है कि शहर में इंसान की आधी जिंदगी तो सिग्नल हरे होने के इंतज़ार में ही कट जाती है ।
ReplyDeleteआज बहुत सहजता से पोस्ट लिखी गयी है, इसलिए दिल ने ही स्वीकार कर लिया दिमाग को मेहनत करने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
ReplyDeleteऐसे ही लोगों की क्रियाएँ और प्रतिक्रियाएँ और रोचकता उत्पन्न करती हैं.. खासकर सिग्नल पर.. उनकी दृष्टियों का पीछा करते हुए कई बार अच्छे दॄश्य भी मिलते हैं.. आखिर सबका दृष्टिक्षैत्र सीमित होता है..
ReplyDeleteउम्दा,रोचक आलेख ,,,
ReplyDeleteRECENT POST: गुजारिश,
ये तो देखने वाले का नजरिया है चाहे ट्रेफ़िक में फ़ंसकर देखने का आनंद लेता रहे या झुंझलाहट में खुद का सर खुजाता रहे, आपने अच्छा सदुपयोग कर लिया.
ReplyDeleteरामराम.
jankari se bhara yatra vritant .aur rochak bhi .sahi kaha aapne driavr aadi jo hote hain unhen f.m.kee achchi jankri rahti hai aakhir ise hi to din bhar bitate hain ye .आभार तवज्जह देना ''शालिनी'' की तहकीकात को ,
ReplyDeleteआप भी जानें संपत्ति का अधिकार -5.नारी ब्लोगर्स के लिए एक नयी शुरुआत आप भी जुड़ें WOMAN ABOUT MAN लड़कों को क्या पता -घर कैसे बनता है ...
---समय बिना गिनती के सम्हलता ही नहीं है.....क्या बात है... और इंतज़ार ...पहले लोगों -युवाओं का समय प्रेमी-प्रेमिका के इंतज़ार में अधिक बीतता था आज सिग्नल के ...
ReplyDeleteउल्टी गिनती के साथ दृश्यावलोकन ।
ReplyDeleteवाकई प्रतीक्षा की घड़ियां दृष्टिक्षेत्र का विस्तार ही करती हैं।
ReplyDeleteसुन्दर आलेख .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (08.07.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी. कृपया पधारें .
ReplyDeleteकल 07/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
हमेशा की तरह अत्यंत रोचक आलेख.....
ReplyDeleteआजकल तो सभी पर्सनल कारें ऐ सी ही होती हैं। हम तो सर्दी में भी शीशे खोलकर नहीं चलते। तभी सफ़र का आनंद आता है।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट को आज की बुलेटिन अंतर्राष्ट्रीय जल सहयोग वर्ष .... ब्लॉग बुलेटिनमें शामिल किया गया है। सादर ...आभार।
ReplyDeleteविहंगम दृष्टि
ReplyDeleteaapke sansmaran ka jabab nahi ....
ReplyDelete.blog bulletin ke raste yahan pahuchna sukhad raha :)
दुनिया की खुली किताब ,जितना जो पढ़ पाए!
ReplyDeleteबरसात का मौसम अगर विक्राल रूप धारण ना करे तो आनंद-मय ही होता है । जहां तक दृष्टि जाय हरा ही हरा, पर आपकी ये बात भी ठीक है कि सिग्नल का हरा होना कुछ ज्यादा ही आनंद दे जाता है मन को । प्रतीक्षा का फल
ReplyDeleteसुंदर आलेख ।
जाम में भी आप आम और गुठलियों के दाम तलाश लेते हैं .... वैसे अब तो जुलाई का भी एक सप्ताह समाप्त हो गया है ...लगता है यह जून के अंत में लिखी पोस्ट है :)
ReplyDeleteवाह, उन दो मिनटों का ऐसा चमत्कारी सदुपयोग...!
ReplyDeleteआप अब शब्दों के चितेरे हो गये हैं। हमने यहीं से वहाँ का पर्यटन कर लिया।
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteरोचक पोस्ट .... गिनती उलटी हो या सीधी बहुत कुछ बांध रखती है .... बाकि तो कुछ हर हो या लाल, हम सभी इंसानों वो सुहाता हो जो हमें चैन दे....
ReplyDelete*हरा
ReplyDeleteरोचक वर्णन.
ReplyDeleteसिग्नल हरा ही भाता है..लाल देख कर तो कोफ़्त होती है!
बढ़िया आलेख ....इसी की कृपा से पढ़ने को मिला ...
ReplyDeleteसाभार....
Nice read!
ReplyDeleteरोचक....अब जिनको ट्रैफिक जाम में कष्ट हो, तो हो, हमें तो जीभर कर देखने को मिलता है, जीभर कर समझने को मिलता है। अगली बार कुछ और देखा जायेगा, जितनी अधिक प्रतीक्षा, उतना बड़ा दृष्टिक्षेत्र।
ReplyDeleteसिग्नल के इर्द-गिर्द भी कितना कुछ है ... रोचक पोस्ट बन गई ...
ReplyDeleteअति सुन्दर दृष्टि..
ReplyDeleteइसे ही कहते हैं -जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि.
ReplyDeleteबिलकुल एक कविता सी लगी आपकी ये पोस्ट...
ReplyDeleteUncertainty drives the anxiety, hence I will go with count down, at least you can relax for 120 seconds.
ReplyDeleteyou'll miss the best things if you keep your eyes shut...
ReplyDeletethere's so much to see, always something to explore
मजा आ गया ...
ReplyDeleteअत्यंत रोचक आलेख .....!!
दृष्टिक्षेत्र का यूँ ही विस्तार होता रहे... गूढ़ बातें सामान्य से दृश्य समझाते रहें!
ReplyDeleteअपनी अपनी नजर।
ReplyDeleteअपनी अपनी नजर।
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