बचपन में किसी पाठ्यपुस्तक में पढ़ा था कि इंग्लैण्ड बड़ा ही विकसित देश है, और वह इसलिये भी क्योंकि वहाँ के टैक्सीवाले भी बड़े पढ़े लिखे होते हैं, अपना समय व्यर्थ नहीं करते और खाली समय से अखबार निकाल कर पढ़ा करते हैं। पता नहीं इंग्लैण्ड ने अखबार पढ़ पढ़कर अपने ज्ञान के कारण सारे विश्व पर राज्य किया, या अपनी सैन्यशक्ति के कारण, या अपनी धूर्तता के कारण। सही कारण तो इतिहासविदों की कृपा से अभी तक ज्ञात नहीं हुआ है, पर देश में वे अपने सफेद मानव का उत्तरदायित्व निभाकर अवश्य जा चुके हैं, भारत का विश्व बाजार में प्रतिशत २५ से १ प्रतिशत पर लाकर और भारत के सभी वर्गों और धर्मों को सुसंगठित करके। उक्त पाठ्यपुस्तक में यह पढ़ने के बाद एक बात मन में गहरे अवश्य पैठ गयी कि किसी भी ड्राइवर को खाली समय में अखबार या कोई पुस्तक पढ़नी चाहिये।
अब रेलवे का कार्य २४ घंटे का है, हमारे वाहन में ड्राइवर भी २४ घंटे रहते हैं, कभी रात में तो कभी दिन में सुदूर निकल जाने की आवश्यकता को ध्यान में रखकर यह व्यवस्था की गयी होगी। हमारे एक ड्राइवर युवा है, पर जब भी उन्हें कहीं प्रतीक्षा करने के लिये छोड़ जाते हैं, तो लौटकर वे सदा ही वाहन में सोते हुये मिलते हैं। हमें लगा कि यदि ऐसे ही हमारे ड्राइवर आदि सोते रहेंगे और अखबार आदि नहीं पढ़ेंगे तो देश कैसे इंग्लैण्ड की तरह विकसित हो पायेगा? यद्यपि उनकी सेवा की शर्तों में खाली समय में अखबार पढ़ना नहीं था, पर मन में बात बनी रही।
एक दिन हमसे न रहा गया और हमने भी तनिक विनोद में पूछ ही लिया कि खाली समय में थोड़ा पढ़ लिख लिया करो, केवल सोते रहते हो। वे अभी सो के ही उठे थे, उतनी ही ताजगी से उन्होंने उत्तर भी दिया कि सरजी जितना पढ़ना था हम पढ़ चुके हैं, स्नातक हैं, पढ़ाई के अनुरूप नौकरी नहीं मिली अतः ड्राइवरी कर रहे हैं। अब खाली समय में पढ़कर क्या करेंगे, हमारा तो सब पहले का ही पढ़ा हुआ है। सुबह घर से ही अखबार पढ़कर आते हैं और वैसे भी अब अखबारों में ऐसा कुछ तो निकलता नहीं है जिससे पढ़कर ज्ञान बढ़े। उससे अधिक तो हम नये नये स्थानों पर जाकर और उन्हें देखकर सीख जाते हैं।
सन्नाट सा उत्तर था, पर तथ्य भरा और अक्षरशः सत्य था। हमारा बचपन का पाठ्यपुस्तकीय ज्ञान और विकसित देशों की अवधारणा एक मिनट के उत्तर में ध्वस्त हो चुकी थी। वर्तमान भारतीय परिस्थितियों में ऐतिहासिक अंग्रेजियत के मानकों का कोई स्थान नहीं है। अब किसको खाली समय में क्या करना चाहिये, यह ज्ञान सारे विश्व को भारत से सीखना चाहिये।
ठीक है, सब कुछ पहले से ही पढ़ा है, मान लिया, पर हर समय सोते हुये क्यों मिलते हो? रात्रि में नींद पूरी नहीं करते हो या आलस्य है। हमें देखो, दिन भर जीभर के कार्य करते हैं और रात में निश्चिन्त हो सो जाते हैं। ड्राइवर महोदय ने एक मिनट के लिये चुप्पी साध ली, हमें लगा कि ड्राइविंग का बहाना बनाकर वे इस उत्तर को टाल गये। एक मिनट के बाद उन्होने फिर बोलना प्रारम्भ किया। सरजी, सो लेते हैं तो यह सुनिश्चित हो जाता है कि अभी कितनी भी दूर जाना हो, कितने ही घंटे कार्य करना हो, ऊर्जा बची रहेगी। यह कथन भी अक्षरशः सत्य था। कुछ दिन पहले ही सायं किसी दुर्घटना के स्थल पर पहुँचना था, हम तो थके होने के कारण पीछे की सीट पर फैल कर सो गये थे, ड्रइवर महोदय ने कई घंटे वाहन चला कर हमें शीघ्र ही पहुँचा दिया था। वहाँ हम अपने कार्य में लग गये थे और ड्राइवर महोदय पुनः वाहन में ही सो गये थे।
मुझे दोनों ही उत्तर समुचित मिल गये थे, अब तीसरे प्रश्न का कोई औचित्य नहीं बचा था। दो मिनट में वे सिद्ध कर चुके थे कि अपना कार्य वे पूरे मनोयोग और पूरी लगन से कर रहे हैं, जितना हम समझ रहे थे, उससे भी कहीं अधिक।
हम दोनों ही मौन बैठे थे, मुझे लग रहा था कि मैंने ऐसे संशयात्मक प्रश्न पूछ कर उनकी कर्तव्यशीलता को आहत किया है और ड्राइवर महोदय को लग रहा था कि सरजी तो शुभेच्छा के कारण पूछ रहे थे, इतने सपाट उत्तर देकर उनकी सद्भावना को मान नहीं दिया है।
थोड़ी देर में ड्राइवर महोदय स्वयं ही खुल गये और मुस्कराकर बताने लगे। सरजी, छोटे से ही मोटरसाइकिल अच्छी लगती हैं और मोटरसाइकिल रेसिंग की आसपास के राज्यों में जितनी भी प्रतियोगितायें होती हैं, वह उन सबमें भाग लेता है। कई ट्रॉफियाँ भी जीती हैं। उसके पास अपनी एक अच्छी मोटरसाइकिल है और कच्ची मिट्टी पर होने वाली प्रतियोगितायें उसकी सर्वाधिक प्रिय हैं।
यह अभिरुचि तो मँहगी होगी? मौन टूट चुका था और उत्सुकता चरम पर थी। जी, सरजी, अब जितना भी थोड़ा बहुत इस नौकरी से मिलता है, उससे घर चलता है। एक जान पहचान के हैं, उनका अपना गैराज है, उन्हें अंकल बोलते हैं, उनकी भी रेसिंग में बहुत रुचि रही है और अभी भी है। वहीं पर ही मोटरसाइकिल को दुरुस्त रखा जाता है, सारी प्रतियोगिताओं का खर्च वही उठाते हैं, केवल ड्रेस तक ही खर्च ३५ हजार के आसपास बैठता है। बस, हम सारी जीती हुयी ट्राफियाँ उनके गैराज में सजा देते हैं, यही हमारा स्नेहिल संबंध है।
अब तक मैं अभिभूत हो चला था, इतने में एक ढाबा दिखा, उतरकर हमने साथ में चाय पी, रेसिंग मोटरसाइकिलों के बारे में चर्चा की, बहुत अच्छा लगा इस प्रकार सहज होकर। चलती मशीनों के अन्दर बैठ कर हम भी अपना मस्तिष्क और हृदय मशीनवत चलता कर बैठते हैं। किसी पुरानी पाठ्यपुस्तक में पढ़ी दूर देश की आदर्शवादी गप्प से हम अपने देश के यथार्थवादी वर्तमान को कम समझ बैठते हैं। ऐसी ही कई घटनायें आपके आसपास भी मिल जायेंगी, पाठ्यपुस्तकों से अधिक ज्ञानभरी, जीवन से भरी, थोपे ज्ञान से अधिक प्रभावी, रोचक, सच।
अब रेलवे का कार्य २४ घंटे का है, हमारे वाहन में ड्राइवर भी २४ घंटे रहते हैं, कभी रात में तो कभी दिन में सुदूर निकल जाने की आवश्यकता को ध्यान में रखकर यह व्यवस्था की गयी होगी। हमारे एक ड्राइवर युवा है, पर जब भी उन्हें कहीं प्रतीक्षा करने के लिये छोड़ जाते हैं, तो लौटकर वे सदा ही वाहन में सोते हुये मिलते हैं। हमें लगा कि यदि ऐसे ही हमारे ड्राइवर आदि सोते रहेंगे और अखबार आदि नहीं पढ़ेंगे तो देश कैसे इंग्लैण्ड की तरह विकसित हो पायेगा? यद्यपि उनकी सेवा की शर्तों में खाली समय में अखबार पढ़ना नहीं था, पर मन में बात बनी रही।
एक दिन हमसे न रहा गया और हमने भी तनिक विनोद में पूछ ही लिया कि खाली समय में थोड़ा पढ़ लिख लिया करो, केवल सोते रहते हो। वे अभी सो के ही उठे थे, उतनी ही ताजगी से उन्होंने उत्तर भी दिया कि सरजी जितना पढ़ना था हम पढ़ चुके हैं, स्नातक हैं, पढ़ाई के अनुरूप नौकरी नहीं मिली अतः ड्राइवरी कर रहे हैं। अब खाली समय में पढ़कर क्या करेंगे, हमारा तो सब पहले का ही पढ़ा हुआ है। सुबह घर से ही अखबार पढ़कर आते हैं और वैसे भी अब अखबारों में ऐसा कुछ तो निकलता नहीं है जिससे पढ़कर ज्ञान बढ़े। उससे अधिक तो हम नये नये स्थानों पर जाकर और उन्हें देखकर सीख जाते हैं।
सन्नाट सा उत्तर था, पर तथ्य भरा और अक्षरशः सत्य था। हमारा बचपन का पाठ्यपुस्तकीय ज्ञान और विकसित देशों की अवधारणा एक मिनट के उत्तर में ध्वस्त हो चुकी थी। वर्तमान भारतीय परिस्थितियों में ऐतिहासिक अंग्रेजियत के मानकों का कोई स्थान नहीं है। अब किसको खाली समय में क्या करना चाहिये, यह ज्ञान सारे विश्व को भारत से सीखना चाहिये।
ठीक है, सब कुछ पहले से ही पढ़ा है, मान लिया, पर हर समय सोते हुये क्यों मिलते हो? रात्रि में नींद पूरी नहीं करते हो या आलस्य है। हमें देखो, दिन भर जीभर के कार्य करते हैं और रात में निश्चिन्त हो सो जाते हैं। ड्राइवर महोदय ने एक मिनट के लिये चुप्पी साध ली, हमें लगा कि ड्राइविंग का बहाना बनाकर वे इस उत्तर को टाल गये। एक मिनट के बाद उन्होने फिर बोलना प्रारम्भ किया। सरजी, सो लेते हैं तो यह सुनिश्चित हो जाता है कि अभी कितनी भी दूर जाना हो, कितने ही घंटे कार्य करना हो, ऊर्जा बची रहेगी। यह कथन भी अक्षरशः सत्य था। कुछ दिन पहले ही सायं किसी दुर्घटना के स्थल पर पहुँचना था, हम तो थके होने के कारण पीछे की सीट पर फैल कर सो गये थे, ड्रइवर महोदय ने कई घंटे वाहन चला कर हमें शीघ्र ही पहुँचा दिया था। वहाँ हम अपने कार्य में लग गये थे और ड्राइवर महोदय पुनः वाहन में ही सो गये थे।
मुझे दोनों ही उत्तर समुचित मिल गये थे, अब तीसरे प्रश्न का कोई औचित्य नहीं बचा था। दो मिनट में वे सिद्ध कर चुके थे कि अपना कार्य वे पूरे मनोयोग और पूरी लगन से कर रहे हैं, जितना हम समझ रहे थे, उससे भी कहीं अधिक।
हम दोनों ही मौन बैठे थे, मुझे लग रहा था कि मैंने ऐसे संशयात्मक प्रश्न पूछ कर उनकी कर्तव्यशीलता को आहत किया है और ड्राइवर महोदय को लग रहा था कि सरजी तो शुभेच्छा के कारण पूछ रहे थे, इतने सपाट उत्तर देकर उनकी सद्भावना को मान नहीं दिया है।
थोड़ी देर में ड्राइवर महोदय स्वयं ही खुल गये और मुस्कराकर बताने लगे। सरजी, छोटे से ही मोटरसाइकिल अच्छी लगती हैं और मोटरसाइकिल रेसिंग की आसपास के राज्यों में जितनी भी प्रतियोगितायें होती हैं, वह उन सबमें भाग लेता है। कई ट्रॉफियाँ भी जीती हैं। उसके पास अपनी एक अच्छी मोटरसाइकिल है और कच्ची मिट्टी पर होने वाली प्रतियोगितायें उसकी सर्वाधिक प्रिय हैं।
यह अभिरुचि तो मँहगी होगी? मौन टूट चुका था और उत्सुकता चरम पर थी। जी, सरजी, अब जितना भी थोड़ा बहुत इस नौकरी से मिलता है, उससे घर चलता है। एक जान पहचान के हैं, उनका अपना गैराज है, उन्हें अंकल बोलते हैं, उनकी भी रेसिंग में बहुत रुचि रही है और अभी भी है। वहीं पर ही मोटरसाइकिल को दुरुस्त रखा जाता है, सारी प्रतियोगिताओं का खर्च वही उठाते हैं, केवल ड्रेस तक ही खर्च ३५ हजार के आसपास बैठता है। बस, हम सारी जीती हुयी ट्राफियाँ उनके गैराज में सजा देते हैं, यही हमारा स्नेहिल संबंध है।
अब तक मैं अभिभूत हो चला था, इतने में एक ढाबा दिखा, उतरकर हमने साथ में चाय पी, रेसिंग मोटरसाइकिलों के बारे में चर्चा की, बहुत अच्छा लगा इस प्रकार सहज होकर। चलती मशीनों के अन्दर बैठ कर हम भी अपना मस्तिष्क और हृदय मशीनवत चलता कर बैठते हैं। किसी पुरानी पाठ्यपुस्तक में पढ़ी दूर देश की आदर्शवादी गप्प से हम अपने देश के यथार्थवादी वर्तमान को कम समझ बैठते हैं। ऐसी ही कई घटनायें आपके आसपास भी मिल जायेंगी, पाठ्यपुस्तकों से अधिक ज्ञानभरी, जीवन से भरी, थोपे ज्ञान से अधिक प्रभावी, रोचक, सच।
सच्ची बात है, किसी और का सच हमारा सच कैसे हो सकता है...?
ReplyDeleteसमय,स्थान और व्यक्तिविशेष की परिस्थितियां ही तो निर्धारित करती है उसका आदर्श एवं उसके कर्म.
अभिभूत करता प्रसंग!
यह सच है कि अगर हम अपने पूर्वाग्रहों को त्याग कर अपने परिवेश को देखें तो यहाँ एक से एक उदाहरण मिलेगें
ReplyDeleteहर मनुष्य एक किताब है ,जिसे पढ़कर हम बहुत-कुछ समझ सकते हैं!
ReplyDelete१
तथ्यात्मक सच और रोचक प्रस्तुति। आभार।।
ReplyDeleteनये लेख : ब्लॉग से कमाई का एक बढ़िया साधन : AdsOpedia
ग्राहम बेल की आवाज़ और कुदरत के कानून से इंसाफ।
मेरे भाई ने भी जो भोपाल मंत्रालय में है,एक दिन यही सवाल पूछा । दुनियादारी में असफल ,हद दर्जे का ईमानदार और जाने कितनी पुस्तकें पढकर अन्दर हुए विस्तार को समेटने मजबूर वह एक दिन बोला दीदी हम इतना कुछ क्यों पढते हैं जबकि वह व्यवहार में तो काम आता ही नही । उसकी बात से मैं पूरी तरह सहमत तो नही हूँ लेकिन इतना अवश्य है कि व्यावहारिक ज्ञान और अपने परिवेश से जुडाव व्यक्ति के लिये किताबों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है । जिन्दगी भी तो एक किताब ही है ।
ReplyDeleteअध्ययन ज्ञान से अनुभूत ज्ञान की पकड विशेष ही होती है.
ReplyDeleteबहुत अच्छा दृष्टांत साझा किया प्रवीण भाई आपने आज
ReplyDeleteकुछ विशेष पाया आज मैंने
आभार...
अज्ञानी बने रहने में कितना ज्ञान है , ऐसे लोगों के साथ सहज होने पर पता चलता है !
ReplyDeleteसच है हमारे आसपास बहुत ही प्रतिभाशाली लोग हैं, बस हम उन्हें पहचानते नहीं हैं।
ReplyDeleteबिल्कुल सबका सच अलग ही होता है .... प्रतिभा का होना यूँ भी केवल पाठ्यपुस्तकों से मिले ज्ञान तक सीमित नहीं होता |
ReplyDeleteकिताबी ज्ञान के अलावा बाकि सब दुनिया सिखा देती है.
ReplyDeletekabhi kabhi lagta tha ki shayad main ghalat sochta raha hun, par aap ne jis logic ke sath baton ko rakha us se lagta ai ki main sahi disha mein soch raha tha............ thx
ReplyDeleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल गुरुवार (01-08-2013) को "ब्लॉग प्रसारण- 72" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.
ReplyDeleteमोटरसाइकिल दोबारा चलाने की सोंचता हूँ तो बच्चे लड़ते हैं :),
ReplyDeleteकहीं पापा..
कब तक बचा पायेंगे मुझे ? :)
vartmaan me jeena hi shayad sabse bada gyan ka saadhan hai........hai na ??
ReplyDeleteसबके अपने अनुभव बहुत सारे ज्ञान को समेटते हैं .... थोपा हुआ ज्ञान जीवन में कम ही काम आता है । रोचक प्रस्तुतीकरण
ReplyDeleteTheek hi to hai vyavhari gyan kahin zyada sikhata hai
ReplyDeleteमतलब ये कि इस देश की ड्राईवर कम्युनिटी, आइआइटियन कम्युनिटी से ज्यादा अक्लमंद है ? हा-हा-हा-हा....
ReplyDeleteWell, as far as news is concerned. Its utter waste of time and corruption of mind to read newspaper ( except THE HINDU) or watch any other TV news channel.
ReplyDeleteEverybody is selling news.
In fact I have urged my parents not to watch TV and sell them or donate them as they like. Still waiting for them to listen. :)
किताबी ग्यान से बढ़कर होता है अनुभव..रोचक दृष्टांत को सांझा करने के लिए आप का आभार प्रवीण जी..
ReplyDeleteबहुत रोचक और ताजगी भरी पोस्ट !
ReplyDeleteसहज और सरल होना कितना सुखद है ना? छोते बडे सब एकाकार हो जाते हैं, सुंदर प्रसंग.
ReplyDeleteरामारम.
ऐसे अन्क उदाहरण आए दिन हमारे आस-पास मिलते रहते हैं।
ReplyDeleteसच ही तो है केवल किताबी ज्ञान से कोई भी देश तरक्की नहीं कर सकता है जी और रही बात इंग्लैंड के ड्राईवर कि तो आपको बता दें यहाँ के ड्राईवर किसी ज़माने में शायद बहुत पढे लिखे होते होंगे और खाली समय में अख़बार भी पढ़ते होंगे। मगर वर्तमान स्थिति इसके ठीक विपरीत है। इन गोरो ने केवल अपनी धुरर्ता के बल पर ही राज किया है, ज्ञान के बल पर नहीं। भई हमें तो यही लगता है बाकी तो राम जाने :)
ReplyDeleteपाठ्यपुस्तकों में ऐसे कई थोपे हुए सच भरे पड़े हैं...सुंदर प्रस्तुति।।।
ReplyDeleteइसके अलावा कुछ नहीं कहूंगा कि यह पोस्ट मेरे मन की बात कहती है। मेरी पोस्ट (जो मैं न बन सका,जुलाई २०१३) में मैंने एक तरह से यही विश्लेषण किया है।
ReplyDeleteज्ञान बिखरा हुआ है आस पास ... खुली नज़रें जरूरी हैं ...
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी पोस्ट ..... साझा करने का आभार
ReplyDeleteकिताबी ज्ञान से व्यावहारिक ज्ञान सदैव सर्वोतम होता है !!
ReplyDeleteसबके अपने आकाश, सबकी अपनी धरती, सबका अपना सच।
ReplyDeleteइसी को यथार्थ कहते हैं।
ReplyDeletebahut achchi post. lekin kya aisa kam hame tees nahi deta jisme hame urja bachaye rakhne ke liye kitabon ko chhodna pade
ReplyDeleteहर आम आदमी में कुछ न कुछ खास होता ही है ....!!खुशी हमारे भीतर या आस पास ही है उसको तलाशना है बस ...!!
ReplyDeleteबहुत सार्थक रोचक पोस्ट ।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन होरी को हीरो बनाने वाले रचनाकार को ब्लॉग बुलेटिन का नमन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01/08/2013 को चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteकृपया पधारें
धन्यवाद
ReplyDeleteकिताबी ज्ञान लिखित परीक्षा तक ही साथ निभाता है ,व्यावहारिक ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है ,-बहुत सुन्दर लेख
latest post,नेताजी कहीन है।
latest postअनुभूति : वर्षा ऋतु
---सुन्दर पोस्ट...
ReplyDeleteज्ञान, जानकारी, विवेक ....अलग अलग तथ्य हैं..... किताबी ज्ञान के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते ... व्यवहारिक व अनुभव की जानकारी को ज्ञान से परिपुष्ट करके उनके विवेकपूर्ण समन्वय से प्रयोग करना चाहिए ...तो थोपा हुआ ज्ञान हानिकारक व भ्रमित कारक नहीं होता....
---सबका अपना अपना आकाश होता है ..
ज्ञान प्राप्त करने के लिए सारी उम्र भी कम पड़ती है ,
ReplyDeleteRECENT POST: तेरी याद आ गई ...
ReplyDeleteॐ शान्ति यही तो कर्म योग है आत्माभिमान की स्थिति है स्थित प्रज्ञ, अपने निज स्वरूप होना है जो प्रेम स्वरूप है पीड़ा का क्या काम यहाँ।इसीलिए कबीर ने कहा-तू कहता मसि कागद लेखी ,मैं कहता आंखन देखि। हमारे मनमोहन तो फिर भी गोरों के घर्जाके हाथ जोड़ आये उपकार में माई बाप जो कुछ है सब आपका दिया हुआ है यह ज्ञान भी विज्ञान भी ये डिग्री भी। ॐ शान्ति। जय हो।
ज्यादा पढ़ने से इन्सान गधा जाता है, पढ़ी पढ़ाई बातें गाने लगता है, अपनी सोच पर ढक्कन ओढ़ा देता है...
ReplyDelete( गुजारे लायक पढ़ना ठीक है)
:)!!!
Deleteसच्चाई व ईमानदारी की बात तो यही है जो आपके ड्राइवर ने कही, अपना ड्राइवर का काम वह पूरी लगन व तत्परता से करता है यह ज्यादा महत्वपूर्ण है बनिस्बत कि वह खाली समय में सोता है या अखबार पढ़ता है ।मेरे भी ड्राइवर कार महोदय हैं जो आप जब भी गाड़ी पर पहुँचें तो कोई तमिल अखबार पढ़ते मिलेंगे, किंतु उनके शारीरिक भाषा, चेहरे के हावभाव व ड्राइविंग के लहजे से आपको तुरंत अनुभव हो जायेगा कि यह व्यक्ति अपने काम व ड्यूटी से कितना उदासीन है व कितनी घृणा करता है ।आपके कर्तव्य निष्ठ ड्राइवर का हार्दिक अभिनंदन, व इतने सुंदर लेख हेतु आपका हार्दिक आभार ।
ReplyDeleteबहुत ही सही बात कही है आपके ड्राईवर ने । वास्तव में हमें अपने आसपास ही इतने उदहारण मिल जाते है कि कहीं दूर जाने की जरूरत ही नहीं ।
ReplyDeleteसच! व्यावहारिक सच...
ReplyDeleteहमारे यहां एक तो मुश्किल ये है कि हम मान लेते हैं कि अमुक काम करने वाला पढ़ता नहीं होगा..दूसरे ये मान लेते हैं कि अब पढ़कर क्या मिलेगा...ये बातें हमें हमारी समाजिक ताकत को पहचानने का कारण बनती हैं। इसलिए किसी काम के हिसाब से किसी व्यक्तित की मानसिक क्षमता का आकलन करना गलत होता है।
ReplyDeleteसुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें
दुर्भाग्य तो यही है की हम दुसरे के सच को अपना सच मन लेने में झिझकते नहीं। दुनिया में कहीं भी कुछ भी पढ़ा जाये कम ही आता है यदि हममे पढ़ने की ललक नहीं होती और हम हर पढाई को बेकार ही मन लेते तो मैं आपके साथ या अन्य ब्लोगेर मित्रों से कैसे जुड़ पाता
ReplyDeleteदुर्भाग्य तो यही है की हम दुसरे के सच को अपना सच मन लेने में झिझकते नहीं। दुनिया में कहीं भी कुछ भी पढ़ा जाये कम ही आता है यदि हममे पढ़ने की ललक नहीं होती और हम हर पढाई को बेकार ही मन लेते तो मैं आपके साथ या अन्य ब्लोगेर मित्रों से कैसे जुड़ पाता
ReplyDeleteबहुत ही सही बात कही है आपके ड्राईवर ने ...सुंदर लिखा
ReplyDeleteऐसी ही कई घटनायें हमारे आसपास भी मिल जायेंगी, पाठ्यपुस्तकों से अधिक ज्ञानभरी, जीवन से भरी, थोपे ज्ञान से अधिक प्रभावी, रोचक, सच ।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति । कितनी बार हम अगले के बारे में कितना कम जानते हैं ।
आपसी संवाद कितना ज़रूरी है,कई बार हम मन में सोचे रहते हैं लेकिन सामने पूछते नहीं ..यहाँ आप ने बात शुरू की तो उस के व्यक्तित्व के बारे में नयी बातें मालूम हुईं .
ReplyDeleteक्या आप को नहीं लगता कि नयी पीढ़ी अधिक व्यावहारिक है?
अपने मातहतों से जुड़कर भी हम बहुत कुछ सीख सकते हैं अपना श्रेष्ठी भाव तजकर। बढ़िया प्रेरक पोस्ट।
ReplyDeleteआपके ब्लॉग को ब्लॉग एग्रीगेटर "ब्लॉग - चिठ्ठा" में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।
ReplyDeleteso much to learn with people and things around..
ReplyDeletebut, for that we need to open up ourselves.. break free of societal inhibitions.
An awesome read as ever !!
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भयो न कोय। भले कोई तैरने की कला पर दस किताब पढ़ ले एक खुद भी लिख ले लेकिन तैरना सीखा जाता है अनुभव संपन्न होता है। वाही खा है आपने इस सार्थक रचना में।
ReplyDeleteसही है। जिंदगी सबसे बड़ी किताब है.
ReplyDeleteजिन्दगी वो किताब है जिसके जितने पन्ने पढ़ें कुछ अलग ही मिलता है . हर इंसान की अपनी एक अलग कहानी होती है और सिखाने को बहुत कुछ सिखा जाती है . शिक्षा विद्वान ही दे सकते हैं ऐसा नहीं है कभी कभी हमें सब्जी वाले , रिक्शे वाले बहुत कुछ सिखा जाते हैं . बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया इस बात को .
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