एक बहुत रोचक कहावत है, प्रबन्धन में। कहते हैं कि सबसे अच्छा प्रबन्धक वह है जो तन्त्र को इस प्रकार से व्यवस्थित करता है जिससे वह स्वयं अनावश्यक हो जाये। बड़ा सरल सा प्रश्न तब उठ खड़ा होगा कि जब अनावश्यक हो गये तब तन्त्र से बाहर क्यों नहीं आ जाते, क्यों व्यर्थ ही तन्त्र का बोझ बढ़ाना? तर्क में तनिक और दूर जायें तो प्रबन्धक का पद स्वक्षरणशील हो जायेगा, जो भी सर्वोच्च पद पर रहेगा, अनावश्यक हो जायेगा? कहावत को और संबंधित प्रश्न को समझने के लिये थोड़ा गहराई में उतरना होगा।
एक अच्छे प्रबन्धक को भौतिक दिखना आवश्यक नहीं है, पर तन्त्र की गतिशीलता में उसकी उपस्थिति परोक्ष है। वह प्रक्रियाओं को इस प्रकार व्यवस्थित करता है कि वे स्वतःस्फूर्त हो जाती हैं, घर्षणमुक्त रहती हैं, अपने आप गतिमय बनी रहती हैं।
तो देखा जाये तो उपरोक्त कहावत सामान्य स्थितियों के समतल के लिये है, न कि तन्त्रगत आरोह व अवरोह के लिये। जब भी तन्त्र को आरोह पर चलना होता है, अधिक उत्पादक होना पड़ता है, अधिक गुणवत्ता लानी होती है, तो प्रबन्धन की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार जब समस्या आती है, जब परिस्थितियाँ विरुद्ध होती हैं, तो उन्हें साधने के लिये प्रबन्धन की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार देखें तो प्रबन्धक की उपस्थिति तो अनिवार्य है, पर सामान्य कार्यशैली में उसका रहना अनावश्यक है।
अब प्रश्न उठ खड़ा होता है कि कब प्रबन्धन अपने आप को आवश्यक समझे, या कब प्रक्रिया में हस्तक्षेप करे? अच्छा तो यही हो कि छोटी मोटी प्रगति और छोटी मोटी समस्याओं का अवसर प्रबन्धन के क्षेत्र के बाहर ही हो। अपने अन्तर्गत कार्य करने वालों को उनके कार्यक्षेत्र में जितना अधिक आयाम दिया जा सके, प्रबन्धन को उतना ही कम हस्तक्षेप करना होगा। प्रबन्धन को कार्यक्षेत्र के जिन मानकों और तथ्यों पर दृष्टि रखनी हो, वे दैनिक कार्य के मानकों से कहीं ऊपर और सर्वथा भिन्न हो, तभी कहीं जाकर प्रबन्धक अपनी सार्थकता और उपयोगिता सिद्ध कर सकता है। सामान्य कार्यशैली के कहीं ऊपर और कहीं नीचे ही प्रबन्धक का कार्य प्रारम्भ होता है।
ऐसा बहुधा होता है कि तन्त्र ठीक प्रकार से चल रहा हो और प्रबन्धक को लगने लगे कि उसकी उपस्थिति तन्त्र में दिख नहीं रही है। यही वह समय होता है जब प्रबन्धक अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिये आतुर हो जाता है और तन्त्र में अनावश्यक हस्तक्षेप करने लगता है। अनावश्यक हस्तक्षेप न तन्त्र के लिये अच्छा होता है और न ही कार्य में लगे हुये लोगों के लिये। प्रबन्धक को अपनी व्यग्रता और ऊर्जा सम्हाल कर रखनी चाहिये, उस समय के लिये, जब वह सच में आवश्यक हो, जब तन्त्र को बहुत ऊपर ले जाना हो या नीचे जाने से बचाना हो।
तन्त्र कितना स्वस्थ और सुदृढ़ है, उसका सही आकलन आपात परिस्थितियों में होता है। समस्यायें आती हैं, गहरी आती हैं और सबके पास आती हैं। कितना शीघ्र आप संचित ऊर्जा को क्रियाशील करते हैं और कितना शीघ्र सामान्य स्थितियों में वापस लौट आते है, यह तन्त्र और प्रबन्धक की सुदृढ़ता के मानक हैं। यही वह समय होता है जब प्रबन्धक का ज्ञान, अनुभव और ऊर्जा काम में आती है।
प्रबन्धक बनना अपनी चिन्हित राहों से कहीं आगे बढ़ने का कर्म है। हमारा रुझान उसी पथ की ओर होता है जिन्हें हम पहले से जानते हैं। प्रबन्धक बन कर भी हम वही करते रहना चाहते हैं जो हम पहले करते आये हैं, संभवतः वही करने में हम मानसिक रूप से तृप्त अनुभव भी करते हैं। पर वह मानसिकता उचित नहीं, उसे विस्तार ग्रहण करना होता है, तनिक और ऊपर उठ कर अन्य पक्षों पर ध्यान केन्द्रित करना होता है। इस प्रकार हम ऊपर बढ़ते बढ़ते, तन्त्र की सीढ़ी में अपना स्थान रिक्त करते हुये बढ़ते हैं और आने वालों को वह स्थान लेने देते हैं।
जो हमें आता है और जो हमें करना चाहिये, इन दो तथ्यों में बहुत अधिक अन्तर है। हम यदि वही करते रहेंगे जो हमें आता है तो कभी भी विकास नहीं हो पायेगा। हमें तो वह करना और समझना चाहिये जो आवश्यक हो, न केवल आवश्यक हो वरन करने के योग्य भी हो।
इस विधि से तन्त्र विकसित करने के बड़े लाभ हैं, आप निर्णय प्रक्रिया को अपने कनिष्ठों को सौपना प्रारम्भ करते हैं, आप अपनी दृष्टि का विस्तार करते हैं, आप तन्त्र की गति और गुणवत्ता को बल देते हैं। आप अपने जैसे न जाने कितने और कुशल प्रबन्धक तैयार करने की प्रक्रिया में बढ़ जाते हैं।
अब हम कितना भी तन्त्र विकसित कर लें, परम प्रबन्धक जी की तरह क्षीरसागर में विश्राम करने की स्थिति फिर भी नहीं आ सकती। पर जब भी उस तरह जैसा कुछ अनुभव होता है, जब कभी भी अपने कार्यालय में बिना किसी काम के आधा दिन निकल जाता है तो दो संशय होने लगते हैं। पहला, कि कहीं भूलवश हमारे द्वारपाल ने बाहर की लाल बत्ती तो नहीं जला दी है। दूसरा, कि कहीं तन्त्र इतना विकसित तो नहीं हो गया है कि उसे हमारी आवश्यकता ही नहीं पड़ रही है, प्रबन्धन की रोचक कहावत कहीं सच तो नहीं हुयी जा रही है?
श्रीराम की खडाऊं को सिंहासनस्थ करके भरत ने चौदह साल राज्य चलाया। कहते हैं कि मेवाड़ के राणा खुद को ’एकलिंग महादेव’ के दीवान\प्रतिनिधि मानकर ही राज्य संचालन करते रहे। स्वयं को परम प्रबंधक का प्रतिनिध या अनुचर मानकर कर्तव्य करना ताकि स्वयं में लालच\ लिप्सा\आसक्ति न आ सके, यह भी प्रबंधन का एक स्टाईल ही है।
ReplyDeleteआजकल आपकी पोस्ट में दर्शन और हास्य का अद्भुत मिश्रण दिखता है।
आपके टीम प्लेयर्स हमेशा खुश रहते होंगे ..और कम समस्याएं आती होंगी !
ReplyDeleteबधाई उन्हें !
आपके लेख वाकई काफी रोचक एव आकर्षक साथ ही साथ ज्ञानवर्धक है। हम भी न कुछ न कुछ लावान्भित अवश्य होंगे.
ReplyDeleteअति सुन्दर .विश्लेषण निबंधात्मक शैली में .शीर्ष पर पहुंचना आसान वहां बने रहना मुश्किल .प्लेटू ,फ्लेट मेक्सिमा से बचने के लिए ऊपर से नीचे तक के कामकाजी तक पहुंचना भी उतना ही ज़रूरी है .ॐ शान्ति .
ReplyDeleteॐ शान्ति .कल पीस मार्च के लिए न्युयोर्क के लिए प्रस्थान है ४ - ७ जुलाई पीस विलेज में कटेगी .ॐ शान्ति .शुक्रिया आपकी टिपण्णी के लिए .
परम प्रबन्धक जी की जय हो
ReplyDeleteईश्वर भी आराम इसलिए करते हैं ताकि इतर भक्त जन आराम कर सकें! :-)
ReplyDeleteउनका आराम भी वस्तुतः काम ही है !गीता अध्याय तीन देखिये !
सबसे अच्छा प्रबन्धक वह है जो तन्त्र को इस प्रकार से व्यवस्थित करता है जिससे वह स्वयं अनावश्यक हो जाये।
ReplyDelete...वह अनावश्यक-सा हो जाय होता तो आप इतना नहीं लिख पाते। :)
..कहीं भूलवश हमारे द्वारपाल ने बाहर की लाल बत्ती तो नहीं जला दी है। दूसरा, कि कहीं तन्त्र इतना विकसित तो नहीं हो गया है कि उसे हमारी आवश्यकता ही नहीं पड़ रही है..
..यही संशय की सजग दृष्टि ही कुशल प्रबंधक की पहचान है।
अच्छा लगा आपका आलेख।
काश इस देश के प्रबंधक इन लेख को पढ़ सकें !
ReplyDeleteयह तो कुशल प्रबंधन की पहचान है.
ReplyDeleteरामराम.
प्रबन्धक के रूप में आपकी कार्य कुशलता सराहनीय है ...
ReplyDelete...प्रबंधन के बढ़िया गुर !
ReplyDeleteप्रबंधन के अदृश्य आन्तरिक गुणों खंगालता आलेख!! वाकई धीर-गम्भीर चिंतन है। प्रबंधन के छात्रों के लिए विचारणीय है।
ReplyDeleteबात तो सही है, संग्रहणीय आलेख.
ReplyDeleteTV स्टेशन ब्लाग पर देखें .. जलसमाधि दे दो ऐसे मुख्यमंत्री को
http://tvstationlive.blogspot.in/
आज तो व्यक्ति सबकुछ स्वयं ही करना चाहता है।
ReplyDeleteसभी प्रबन्धक को इस लेख को ्पढ़ना चाहिए..संग्रहणीय आलेख.
ReplyDeleteबढ़िया प्रबंधन टिप्स.
ReplyDeleteरोचक और बहुत कुछ कहता हुआ ... प्रबंशन की महत्ता भी निकल के आती है ...
ReplyDeleteबढ़िया विश्लेषण।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन दिल और दिमाग लगाओ भले बन जाओ - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 04/07/2013 के चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteकृपया पधारें
धन्यवाद
aap ko apni is tarah ki posts ko collect kar ke ek book nikjalne ke bare mein sochana chahiye bhai
ReplyDeleteThought provoking but wonder that happens in reality, someone makes the system so efficient that it works without good leadership.
ReplyDeleteप्रबंधन एक कला है और इस कला में निपुण होना सबके बस की बात नही,,,रोचक प्रस्तुति ,,,
ReplyDeleteRECENT POST: जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें.
हैं अदृश्य पर सर्वव्यापी भी ....
ReplyDeleteसुंदर शीर्षक के अंतर्गत सार्थक आलेख ....!!
अच्छा लिखा है ...!!
सबसे अच्छा प्रबन्धक वह है जो तन्त्र को इस प्रकार से व्यवस्थित करता है जिससे वह स्वयं अनावश्यक हो जाये
ReplyDelete@ सत्य वचन ! यही है कुशल प्रबंधक की पहचान !!
जोधपुर में मेरे एक पहचान वालों की हैंडीक्राफ्ट एक्सपोर्ट फैक्ट्री है जो लगभग 20 करोड़ का सालाना टर्नऑवर करती है, ऐसी फैक्ट्री के मालिकों को देखा जाय तो फैक्ट्री में 12 घंटे से ज्यादा वक्त काम करते है पर मेरी पहचान वाले जनाब अपनी फैक्ट्री में अपनी प्रबंधन कुशलता के बलबूते सिर्फ दो घंटे प्रतिदिन देते है, दो घंटों में सिर्फ वे अपनी प्रबंध टीम से पुराने काम की रिपोर्ट लेते है और नया काम बता देते है| सबको जिम्मेदारियां सौंपी गयी है और कभी किसी की जिम्मेदारी में टांग नहीं लगाते| उनकी प्रबंधन टीम का हर सदस्य अपनी अपनी जिम्मेदारी निभाता है और उनकी फैक्ट्री बढ़िया चलती है साथ ही वे एकदम फ्री रहते है|
कर्ता और प्रबंधक का फर्क.
ReplyDeleteसराहनीय आलेख !!
ReplyDeleteजो हमें आता है और जो हमें करना चाहिये, इन दो तथ्यों में बहुत अधिक अन्तर है। हम यदि वही करते रहेंगे जो हमें आता है तो कभी भी विकास नहीं हो पायेगा। हमें तो वह करना और समझना चाहिये जो आवश्यक हो, न केवल आवश्यक हो वरन करने के योग्य भी हो।
ReplyDeleteबिल्कुल सच ... सार्थक आलेख ....!!
क्या बात है जी....सुन्दर ...
ReplyDeleteपरम प्रबन्धक, सब निपटा कर विश्रामरत हैं.....हाँ वह बीच बीच में आँख खोलकर अपना दफ्तर देखते हैं, विश्राम /ध्यानस्थ मुद्रा उनकी विचार व अपनी फेक्ट्री में विचरण मुद्रा है...यही है 'अदृश्य पर सर्वव्याप्त भी' ...
ReplyDeleteदेश के आपदा प्रबंधकों ने यह लेख पहले पढ़ तो नहीं लिया ? वे भी सब निपटा कर लम्बी निद्रा में सोये हुए हैं.
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आपके लेख काफी रोचक एव ज्ञानवर्धक होते है...परवीन जी
ReplyDeleteसंग्रहणीय आलेख....परवीन जी
ReplyDeletehttp://rajkumarchuhan.blogspot.in/
अनुभवों से प्राप्त आपके कथन बहुत तथ्यपूर्ण और उपयोगी होते हैं!
ReplyDeleteएक उपयोगी एवं वैचारिक पोस्ट..... जब ऐसे विषयों पर सोचा जाता है तभी भी कुछ किया भी जाता है
ReplyDeleteसतत् प्रयास प्रबन्धन को सफल बनाता है।
ReplyDeleteवाह बहुत खूब..
ReplyDeleteBadhiyaa Pravandhan Gur Kintu lagtaa hai Chief Manager kuch jyada hee aalsee ho gaye hai :)
ReplyDeleteयही संशय तो पुन: तांत्रिक बनाता है..
ReplyDeleteहमारे देश में और वह भी सरकारी कार्यालयों में ऐसा प्रबन्धन !
ReplyDeleteदिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है.
ReplyDeleteजो हमें आता है और जो हमें करना चाहिये, इन दो तथ्यों में बहुत अधिक अन्तर है। हम यदि वही करते रहेंगे जो हमें आता है तो कभी भी विकास नहीं हो पायेगा। हमें तो वह करना और समझना चाहिये जो आवश्यक हो, न केवल आवश्यक हो वरन करने के योग्य भी हो।
आगे बढ़ने के लिए शिखर पर टिके रहने के लिए कुछ नया और नया करते ही रहना होगा .
Very interesting management funda...thanks.
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