पृथु दोपहर में सो चुके थे, उन्हें रात में नींद नहीं आ रही थी। मैं पुस्तक पढ़ रहा था पर शब्द धीरे धीरे बढ़ रहे थे, उसी गति से जितनी गति से पलकों पर नींद का बोझ बढ़ रहा था। श्रीमानजी आकर लेट गये, पुस्तक को देखने लगे, कौन सी है, किसने लिखी है, कब लिखी है, क्या लिखा है, क्यों लिखा है? अब वे स्वयं भी इतनी पुस्तकें डकार जाते हैं कि फ्लिपकार्ट वालों को हमारे घर का पता याद हो गया होगा। मैंने पुस्तक किनारे रख दी, उसके बाद जितना कुछ पढ़ा था, यथासंभव याद करके बतलाने लगा, नींद भी आ रही थी और मस्तिष्क पर जोर भी पड़ रहा था। पुरातन ग्रन्थ लिखने वाले आज की तुलना में बहुत सुलझे हुये थे। जितने भी प्राचीन ग्रन्थ होते थे, उनकी प्रस्तावना में ही, क्या लिखा, क्यों लिखा, किसके लिये लिखा, अन्य से वह किस तरह भिन्न है, क्या आधार ग्रन्थ थे और पढ़ने के पश्चात उसका क्या प्रभाव पड़ेगा, सब कुछ पहले विधिवत लिखते थे, तब कहीं विषयवस्तु पर जाते थे। आजकल तो लोग लिख पहले देते हैं, आप पूरा हल जोत डालिये, जब फल निकल आता है, तब कहीं जाकर पता चलता है कि बीज किसके बोये थे?
शरीर और मन की रही सही ऊर्जा तो प्रश्नों के उत्तर में चली गयी।। अब डर यह था कि कहीं सो गये तो श्रीमानजी टीवी जाकर खोल लेंगे और पता नहीं कब तक देखते रहें? वैसे देर रात टीवी देखने का साहस वह तभी करते हैं, जब मैं घर से बाहर होता हूँ, और इसमें भी उनकी माताजी की मिलीभगत और सहमति रहती है। मेरे घर में रहते उनकी रात में टीवी देखने की संभावना कम ही थी।
एक पैतृक गुण है जिसका पालन हम करते तो हैं, पर आधा ही करते हैं। बचपन में पिताजी सबको सुलाकर ही सोने जाते थे और सबसे पहले उठकर सबको उठाते भी थे। अब अवस्था अधिक होने के कारण और टीवी के रोचक धारावाहिकों के कारण उतना जग नहीं पाते हैं और शीघ्र ही सो जाते हैं, पर अभी भी सुबह सबसे पहले उठने का क्रम बना हुआ है। रात का छोर जो उन्होंने अभी छोड़ दिया है, उसे सम्हाल कर हम पैतृक गुण का निर्वाह कर रहे हैं। हर रात सबको सुलाकर ही सोते हैं, पर बहुधा रात में अधिक पढ़ने या लिखने के कारण सुबह उठने में पीछे रह जाते हैं।
आज लग रहा था कि पृथु मेरे पैतृक गुण को ललकारने बैठे हैं, लग रहा था कि वे मुझे सुलाकर ही सोयंेंगे। सोचा कि क्या किया जाये? यदि प्रश्नों के उत्तर इसी प्रकार देते रहे तो थकान और शीघ्र हो जायेगी, मुझे नींद के झोंके आयेंगे और उन्हें आनन्द और रोचकता के। सोचा कि कुछ सुनाते हैं, संभव है कि सुनते सुनते उन्हें ही नींद आ जाये।
बताना प्रारम्भ किया कि हम बचपन में क्या करते थे। आज के समय से कैसी परिस्थितियाँ भिन्न थीं, कुछ ३० वर्ष पहले तक। बताया कि कैसे हमारे घरों में हमारे अध्यापक मिलने आते थे और हमारी शैक्षणिक प्रगति के बारे में विस्तृत चर्चा करते थे। यहाँ तक तो सब ठीक ही चल रहा था, मन में स्पष्ट था कि क्या बता रहे हैं? इसके बाद से कुछ अर्धचेतन सी स्थिति हो गयी। पता नहीं कब और कैसे बात छात्रावास तक पहुँच गयी, पता नहीं कैसे बात वहाँ के भोजन आदि के बारे में होने लगी।
उस समय पृथु के कान निश्चय ही खड़े होंगे, क्योंकि जिस तरह से अर्धचेतन मानसिक अवस्था में मैं छात्रावास के उत्पात और उद्दण्डता की घटनायें बताता जा रहा था, उन्हें इतना मसाला मिला जा रहा था कि उसे छोड़ देना किसी खजाने को छोड़ देने जैसा था। उस समझ तो समझ नहीं आया कि कितना कुछ बता गया। अगले दिन ही पता चल पाया कि लगभग पाँच घटनायें बता गया था, उद्दण्डता और अनुशासनहीनता की, कुछ एकल और कुछ समूह में की गयीं।
मुझे तो ज्ञात नहीं था कि मैं क्या कह गया, पर उसे एक एक शब्द और हर घटना का विस्तृत विवरण और चित्रण याद रहा। अगले दिन जब श्रीमतीजी ने कहा कि १५ वर्ष के विवाह के कालखण्ड में भी ये घटनायें आपने नहीं बतायीं। अब उन्हें क्या बतायें कि सब कुछ उद्घाटित करने भी बाद भी जो घटनायें मन में दबी रहीं, कल की अर्धचेतन अवस्था में कैसे बह निकलीं। उन्हें लगा कि अभी भी कुछ रहस्य शेष हैं, मेरे व्यक्तित्व में। उन्हें समझाया, कि कुछ भी शेष नहीं है अब, आप हमें मानसिक रूप से पूरी तरह से निचोड़ चुकी हैं। वह समझदार हैं, वह शीघ्र ही समझ गयीं।
जब तक पूरा हानिचक्र समझ में आता, देवला को भी सारी घटनायें ज्ञात हो चली थीं, वह ऐसे देख रही थी कि अनुशासन की जकड़न में इतनी अनुशासनहीनता छिपी होगी। हे भगवान, इससे अच्छा था कि रात में पहले ही सो जाता। पर उससे भी बड़ा आघात सहना विधि ने भाग्य में लिख दिया था।
दो माह पहले पिताजी ने, मेरे बचपन की चार-पाँच घटनायें पृथु को बतायी थीं। वह अब तक पृथु के ऊपर ऋण के रूप में चढ़ी थीं। आज पृथु के पास मेरी चार-पाँच घटनायें भी थीं और ऋण चुकाने का पूरा अवसर भी था। वह उस समय अपने दादाजी से ही बतिया रहे थे और जब तक उन्हें रोक पाता, वह अपना कार्य कर चुके थे। आज हम पूरे पारदर्शी थे, एक पीढ़ी ऊपर से एक पीढ़ी नीचे तक। ऐसा लग रहा था कि कल रात को हमारा ही नार्को टेस्ट हो गया था। बस इतनी ही प्रार्थना कर पाये कि, भैया कॉलोनी के अपने मित्रों को मत बताना, नहीं तो बहुत धुल जायेगी।
अब आगे से सावधानी रखनी है कि यदि नींद आ रही हो और पृथु या देवला कुछ कहानी आदि सुनने आ जायें तो उठकर मुँह पर पानी के छींटे मार आयेंगे, उससे भी काम नहीं चलेगा तो कॉफी पी आयेंगे और भूलकर भी वार्ता को छात्रावास नहीं ले जायेंगे। सोते सोते कहानी सुनाने में इस बार तो हमारी कहानी बन गयी है।
शरीर और मन की रही सही ऊर्जा तो प्रश्नों के उत्तर में चली गयी।। अब डर यह था कि कहीं सो गये तो श्रीमानजी टीवी जाकर खोल लेंगे और पता नहीं कब तक देखते रहें? वैसे देर रात टीवी देखने का साहस वह तभी करते हैं, जब मैं घर से बाहर होता हूँ, और इसमें भी उनकी माताजी की मिलीभगत और सहमति रहती है। मेरे घर में रहते उनकी रात में टीवी देखने की संभावना कम ही थी।
एक पैतृक गुण है जिसका पालन हम करते तो हैं, पर आधा ही करते हैं। बचपन में पिताजी सबको सुलाकर ही सोने जाते थे और सबसे पहले उठकर सबको उठाते भी थे। अब अवस्था अधिक होने के कारण और टीवी के रोचक धारावाहिकों के कारण उतना जग नहीं पाते हैं और शीघ्र ही सो जाते हैं, पर अभी भी सुबह सबसे पहले उठने का क्रम बना हुआ है। रात का छोर जो उन्होंने अभी छोड़ दिया है, उसे सम्हाल कर हम पैतृक गुण का निर्वाह कर रहे हैं। हर रात सबको सुलाकर ही सोते हैं, पर बहुधा रात में अधिक पढ़ने या लिखने के कारण सुबह उठने में पीछे रह जाते हैं।
आज लग रहा था कि पृथु मेरे पैतृक गुण को ललकारने बैठे हैं, लग रहा था कि वे मुझे सुलाकर ही सोयंेंगे। सोचा कि क्या किया जाये? यदि प्रश्नों के उत्तर इसी प्रकार देते रहे तो थकान और शीघ्र हो जायेगी, मुझे नींद के झोंके आयेंगे और उन्हें आनन्द और रोचकता के। सोचा कि कुछ सुनाते हैं, संभव है कि सुनते सुनते उन्हें ही नींद आ जाये।
बताना प्रारम्भ किया कि हम बचपन में क्या करते थे। आज के समय से कैसी परिस्थितियाँ भिन्न थीं, कुछ ३० वर्ष पहले तक। बताया कि कैसे हमारे घरों में हमारे अध्यापक मिलने आते थे और हमारी शैक्षणिक प्रगति के बारे में विस्तृत चर्चा करते थे। यहाँ तक तो सब ठीक ही चल रहा था, मन में स्पष्ट था कि क्या बता रहे हैं? इसके बाद से कुछ अर्धचेतन सी स्थिति हो गयी। पता नहीं कब और कैसे बात छात्रावास तक पहुँच गयी, पता नहीं कैसे बात वहाँ के भोजन आदि के बारे में होने लगी।
उस समय पृथु के कान निश्चय ही खड़े होंगे, क्योंकि जिस तरह से अर्धचेतन मानसिक अवस्था में मैं छात्रावास के उत्पात और उद्दण्डता की घटनायें बताता जा रहा था, उन्हें इतना मसाला मिला जा रहा था कि उसे छोड़ देना किसी खजाने को छोड़ देने जैसा था। उस समझ तो समझ नहीं आया कि कितना कुछ बता गया। अगले दिन ही पता चल पाया कि लगभग पाँच घटनायें बता गया था, उद्दण्डता और अनुशासनहीनता की, कुछ एकल और कुछ समूह में की गयीं।
मुझे तो ज्ञात नहीं था कि मैं क्या कह गया, पर उसे एक एक शब्द और हर घटना का विस्तृत विवरण और चित्रण याद रहा। अगले दिन जब श्रीमतीजी ने कहा कि १५ वर्ष के विवाह के कालखण्ड में भी ये घटनायें आपने नहीं बतायीं। अब उन्हें क्या बतायें कि सब कुछ उद्घाटित करने भी बाद भी जो घटनायें मन में दबी रहीं, कल की अर्धचेतन अवस्था में कैसे बह निकलीं। उन्हें लगा कि अभी भी कुछ रहस्य शेष हैं, मेरे व्यक्तित्व में। उन्हें समझाया, कि कुछ भी शेष नहीं है अब, आप हमें मानसिक रूप से पूरी तरह से निचोड़ चुकी हैं। वह समझदार हैं, वह शीघ्र ही समझ गयीं।
जब तक पूरा हानिचक्र समझ में आता, देवला को भी सारी घटनायें ज्ञात हो चली थीं, वह ऐसे देख रही थी कि अनुशासन की जकड़न में इतनी अनुशासनहीनता छिपी होगी। हे भगवान, इससे अच्छा था कि रात में पहले ही सो जाता। पर उससे भी बड़ा आघात सहना विधि ने भाग्य में लिख दिया था।
दो माह पहले पिताजी ने, मेरे बचपन की चार-पाँच घटनायें पृथु को बतायी थीं। वह अब तक पृथु के ऊपर ऋण के रूप में चढ़ी थीं। आज पृथु के पास मेरी चार-पाँच घटनायें भी थीं और ऋण चुकाने का पूरा अवसर भी था। वह उस समय अपने दादाजी से ही बतिया रहे थे और जब तक उन्हें रोक पाता, वह अपना कार्य कर चुके थे। आज हम पूरे पारदर्शी थे, एक पीढ़ी ऊपर से एक पीढ़ी नीचे तक। ऐसा लग रहा था कि कल रात को हमारा ही नार्को टेस्ट हो गया था। बस इतनी ही प्रार्थना कर पाये कि, भैया कॉलोनी के अपने मित्रों को मत बताना, नहीं तो बहुत धुल जायेगी।
अब आगे से सावधानी रखनी है कि यदि नींद आ रही हो और पृथु या देवला कुछ कहानी आदि सुनने आ जायें तो उठकर मुँह पर पानी के छींटे मार आयेंगे, उससे भी काम नहीं चलेगा तो कॉफी पी आयेंगे और भूलकर भी वार्ता को छात्रावास नहीं ले जायेंगे। सोते सोते कहानी सुनाने में इस बार तो हमारी कहानी बन गयी है।
'आज हम पूरे पारदर्शी थे, एक पीढ़ी ऊपर से एक पीढ़ी नीचे तक।'
ReplyDelete:)
पापा से उनके बचपन और विद्यार्थी जीवन की बातें सुनना हमें भी बहुत अच्छा लगता है...!
Prithu will always cherish the reminiscences he got to hear, and hope that he gets to hear more..., ofcourse, with all the precautions that you plan to take in future as mentioned in the end of the article:)
जिस बचपन को हमनें जिया है आज इन बच्चों के लिए कल्पनातीत हो चुका है इसलिए कहानी बनने से बचने के लिए किसी एक पक्ष को उभारना सही नहीं है. पारदर्शिता आत्म संतुष्टि देती है कि हम भी कभी इन बच्चो की तरह ही थे ... शरारती..
ReplyDeleteबच्चों के मन में पिता की इमेज निष्चय ही आदर्श और श्रेष्ठ आचरणशील व्यक्ति की होती है, पर जैसे जैसे वे बड़े व दुनिया के बारे में ज्यादा समझदार व जागरूक होते जाते हैं, लगता है उनके यह जान लेने में कोई हर्ज नहीं कि उनके माता पिता भी साधारण मनुष्य हैं,वे भी कभी स्वयं बच्चे थे, बाकी ही बच्चों की तरह शैतान और नटखट थे ।और एक तरह से अपने माता पिता के बारे में यह साधारण जानकारी, एक तरह से बच्चों को स्वयं के जीवन को सहेजने,अपनी छोटी मोटी गलतियों व शरारतों को भूल व माफ कर आगे बढ़ने व अपने माता पिता की ही तरह जीवन में सफल होने की प्रेरणा व आत्मविश्वास देती हैं ।बढ़िया लेख, अति आनंदम
ReplyDeleteशरारती कहानी,बहुत अच्छा.....
ReplyDeleteऐसे नार्को टेस्ट मे बच्चे बहुत आनंदित होते हैं :)
ReplyDeleteअजी नार्को क्या यह तो खुद के अतीत का शव विच्छेदन ही हो गया . लेकिन अब क्या हो सकता है जब चिड़िया चुग गई खेत . ॐ शान्ति
ReplyDeleteपांच में से कम से कम दो तो हमें भी बताने थे ना।
ReplyDeleteविचारपरक ....बहुत रोचक आलेख .......!!
ReplyDeleteसहजता बच्चों के साथ ज़रूरी है ,जैसे जैसे वे बड़े होते जाते हैं अपनी नज़रों से देखते हैं ,परखते हैं .....निर्णय लेते हैं ....!!उन्हें एक अच्छा इंसान बनाने के लिए ..और उन्हें ये विश्वास दिलाने के लिए की अगर वे गलती करें तो सबसे पहले आकर आप को ही बताएं ......जितना आप सहज रहेंगे उतना ही बच्चे भी !!अच्छा बुरा दोनों पक्ष बच्चों के समक्ष होना चाहिए क्योंकि पारदर्शिता बहुत ज़रूरी है आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ...!!अच्छा है ये नार्को टेस्ट आपको बच्चों के करीब ले आया ....!!
बच्चों को ऐसा मौका और मिले ....:))
बच्चों को भरोसा दिलाना आसान नहीं होता कि हम भी कभी बच्चे थे, और वे भी उम्रदराज होंगे एक दिन.
ReplyDelete:) ऐसे नार्को टैस्ट में बच्चों को बहुत आनंद आता है .... आश्चर्य भी प्रगट करते हैं कि अच्छा आप भी शैतानी किया करते थे ... कुछ किस्से यहाँ भी प्रेषित किए जाते ...
ReplyDeleteसच है हम अपने बच्चो के लिए एक कहानी तो हैं..
ReplyDeleteआप जिस छात्रावास में रहे है उसके हिसाब से पांच कहानिया कम ही पता चली है । उस जीवन के बारे में बाते शुरु करो तो पूरा दिन बीत जाता है घटनाये याद करते हुए
ReplyDeleteबहुत रोचक पर सोचने को मजबूर भी करता आलेख.
ReplyDeleteरामराम.
"....ऐसा लग रहा था कि कल रात को हमारा ही नार्को टेस्ट हो गया था।..."
ReplyDelete:)
ऐसे नार्को टेस्ट ब्लॉग पोस्टों में भी आने चाहिएं!
रामायण खत्म हो गई ।पर न जा न पाये सीता ( शरारतें) कोन थी। सूंदर।
ReplyDeleteशुक्र है कुछ और नहीं बता दिया ...
ReplyDeleteथोडा बहुत हमें भी बता देते
ReplyDeleteप्रणाम
कि अनुशासन की जकड़न में इतनी अनुशासनहीनता छिपी होगी.....................रोचक एवं सुन्दर संस्मरण।
ReplyDeleteपोल खुल गई :)
ReplyDeleteबच्चों के साथ कभी कभी बच्चा बन जाना ... पीर उनके साथ जीना उस जीवन को दुबारा .. कहानी या किसी भी माध्यम से ...
ReplyDeleteसबको सुलाकर सोने में ही समझदारी है :)
ReplyDeleteहर अभिभावक के लिए विचारणीय लेख ..... बचपन का रंग ढंग अब बहुत बदल गया है | हमें भी उनके साथ और समझ से कदम मिलाना होगा ....आभार
ReplyDeleteवैसे भी बच्चे अपने पापा-मम्मा के बचपन के किस्से बड़े चाव से सुनते हैं फिर मौके हाथ आते ही कोट कर देते हैं...
ReplyDeleteबच्चे सोते समय कहानी सुनना बेहद पसंद करते हैं।
ReplyDeleteBahut he pyaari sooch h aapki...
ReplyDeleteBaccho ko kahini sunakar he sone ks accha decision liya aapne.
Aur pehle paragraph main jo aapne palko pe nindh ke bharipan ka vivran kiya h...vo ekdum mast laga.... Humare saath bhi hota h aisa
baDhiya narko test raha :)
ReplyDelete'अर्धचेतन मानसिक अवस्था में...'
ReplyDeleteयह तो बहुत अच्छा हुआ जो मन में समाया था अपने आप शब्दों में बहता चला गया, जो कहा
सच कहा ,बिना लाग-लपेट .
बढ़िया स्वाकारोक्ति.ज़रा, हम भी तो सुने जितनी हो सके... !
केवल शरारते ही बताई, कहीं कुछ और किस्से तो नही सुना दिये?
ReplyDelete
ReplyDeleteये अर्वाचीन नानी की नहीं अधुनातन प्रोद्योगिकी के साथ चलने वाले पापा की छात्रावास प्रवास की झलकियाँ हैं। तुम अपना अलग इतिहास लिखोगे पापा से आगे निकलके। ॐ शान्ति बिटुआ।
ReplyDeleteहर पीढ़ी की अपनी कहानी होगी सुनाना ज़रूरी है कहानी को रोचक बनाये रखने के लिए यह रोजनामचा छात्र जीवन का बतलाना भी ज़रूरी है।
अपना समय याद आता ही है , कितनी परतों में हो :)
ReplyDeleteपिता -पुत्र की यह पारदर्शिता बनी रहे !
बहुत ही सुन्दरता लिखा है , शुरू से अंत तक पाठक बंधा रहता है ।
ReplyDeleteकभी कभी ही ऐसी कहानी पढ़ने को मिलती है
ReplyDeleteबढिया
haha..
ReplyDeleteI was smiling throughout :)
Good times.. !!
अच्छा, तो मैडम एक बार फिर आपके बहकावे में आ गई, और उन्होंने आपका यकीन कर लिया। इस विजय पर बधाई हो. लेकिन आप उनको सारी बातें कभी मत बताना, कम से कम वो तो मत ही बताना जो मुझे बताया था।
ReplyDeleteकाबिल पिता के काबिल पुत्र! सन्तति संवहन का यह सिलसिला चलता रहे
ReplyDeleteरोचक कथानांक ,
ReplyDeleteवैसे तब से छात्रावास ,अब थोड़े एडवांस तो हुए हैं ,
पर पढाई की संस्कृति भी ऊपर से नीचे गयी हैं |
एक शाम संगम पर {नीति कथा -डॉ अजय }
सरल मन के सरल उद्गार
ReplyDeleteरोचक प्रसंग । पिताजी के जीवन में भी ऐसे प्रसंग रहे होंगे और बेटे के जीवन में आयेंगे तब वह भी समझ जायेगा .
ReplyDeleteआपका लेखन ... सहजता से पूरे दृष्यों को जीवंत कर देता है ...
ReplyDeleteअच्छा लगा पढ़कर ...
नार्कों टेस्ट हो गया । मजेदार लेख
ReplyDeleteकिस्से नाम बदल कर इधर भी लिखिये. :)
ReplyDeleteकिस्से नाम बदल कर इधर भी लिखिये. :)
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