एक बहुत पुराना व्यसन है, हम मानवों का। हम हर क्रिया, हर रहस्य, हर गतिविधि को किसी सिद्धान्त से व्यक्त करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार हम उसे सुलझाने का प्रयत्न करते हैं। इन्हें हम उस तन्त्र के, उस समाज के, उस प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्तों का नाम दे देते हैं।
कितना आवश्यक है, अन्तर्निहित सिद्धान्त ढूढ़ने का प्रयास करना। घटनाओं को होने दिया जाये, हम अपना जीवन जीते रहें, जो भी मार्ग निकलें, जो भी मार्ग हमें सुरक्षित रखे। पशु ऐसा ही करते हैं, किस क्रिया की प्रतिक्रिया में क्या करना, यह उनके मस्तिष्क और इन्द्रियों में पहले से संचित होता है। इस प्रकार वे आगत समस्याओं से निपट कर अपना जीवन जीने में व्यस्त हो जाते हैं, उससे अधिक वे कुछ करते भी नहीं हैं।
मनुष्य पर वहाँ नहीं रुकता है, वह अपने मन में एक जाँच समिति बिठा देता है, संभावित कारणों और संभावित समाधानों की छानबीन के लिये। बहुत सोच विचार होता है और तब निष्कर्ष स्वरूप एक सिद्धान्त निकलता है, जो न केवल घटित की व्याख्या करता है वरन उस पर किस प्रकार नियन्त्रण गाँठा जा सके, इसके भी उपाय निकालता है।
नियन्त्रण का कीडा हमारे गुणसूत्रों में स्थायी रूप से विद्यमान है। भौतिक रूप से न ही सही, पर बौद्धिक रूप से हम सब क्रियाओं पर नियन्त्रण करने के रूप में जुट जाते हैं, सिद्धान्त की खोज में लग जाते हैं, क्रियाओं की उथल पुथल में एक क्रम देखने लगते हैं।
उथल पुथल में क्रम देखने का यही गुण हमें न केवल पशुओं से भिन्न करता है वरन अपने वर्ग, समाज, देश आदि में सुस्थापित करता है। जिनके अन्दर यह गुण अधिक होता है, उनकी दृष्टि और दिशा अधिक स्पष्ट होती है और उनके अन्दर ही मानवता के नेतृत्व करने और उसकी समस्यायें सुलझाने की संभावनायें होती हैं।
इस प्रक्रिया को बुद्धिमान होने, शक्तिवान होने या सामर्थ्यवान होने से न संबद्ध किया जाये, यह एक विशेष गुण होता है जिसके आधार पर कोई बुद्धिमान, शक्तिवान या सामर्थ्यवान स्वयं को विशिष्ट स्थापित करता है। कुछ उदाहरणों से इसे और समझा जा सकता है।
आप कोई पुस्तक या लेख पढ़ रहे हैं और यदि आप केवल शब्दों की उथल पुथल या वाक्यों के अर्थ में सिमटकर रह जायेंगे, तो आप कब खो जायेंगे, पता ही नहीं चलेगा। शब्दों की उथल पुथल में वाक्य का अर्थ, वाक्यों की उथल पुथल में अनुच्छेद का अर्थ, अनुच्छेदों की उथलपुथल में अध्याय का अर्थ, अध्यायों की उथलपुथल में पुस्तक का अर्थ। पुस्तक को अन्ततः उसके अर्थ में जानने के लिये उसमें अन्तर्निहित क्रम समझना होता है हमें, उथल पुथल में अन्तर्निहित क्रम।
फ़ुटबॉल के पीछे भाग रहे बीसियों खिलाड़ियों का श्रम आपको अव्यवस्थित सा लग सकता है, पर खेल का ज्ञान रखने वालों को उसमें भी एक क्रम दिखता है। कोच को दिखता है कि किस प्रकार और कितनी गति से फुटबॉल और खिलाड़ी एक पूर्वनिश्चित क्रम में गुँथे हुये हैं।
एक सुलझा प्रबन्धक कार्यों की बहुलता में, उनकी अस्तव्यस्तता में एक क्रम ढूँढ कर आगे बढ़ता रहता है। यदि वह समस्याओं में खो जायेगा तो कभी नेतृत्व नहीं दे पायेगा। किसी नगर की भीड़भरी गलियों को समझने के लिये उसका मानचित्र एक क्रम प्रदान करता है। हाथ में या स्मृति में मानचित्र हो तो न ही दिशा खोती है और न ही दृष्टि।
कुरुक्षेत्र में अर्जुन के भावों की उथल पुथल में कृष्ण को एक क्रम दिखा और उन्होंने बड़े व्यवस्थित और तार्किक दृष्टिकोण से उसका समाधान किया, अर्जुन की आशंकाओं से प्रभावित हुये बिना।
देखा जाये तो हमारी यह प्रवृत्ति हमें मानसिक विस्फोट से बचाती है। यदि यह न हो तो हम बहुत शीघ्र ही अपना संतुलन खो बैठेंगे। इतनी सारी सूचना, इतना सारा ज्ञान, इतनी सारी घटनायें, इतनी सारी स्मृतियाँ, यदि हम इन्हें सिद्धान्त या सूत्र के रूप में संचित नहीं करेंगे, तो कहीं खो जायेंगे, इनकी बहुलता में।
पुरातन मनीषियों ने समझ लिया था कि ज्ञान को यदि सदियों के कालखण्ड पार करने हैं तो उन्हें सूत्रों के रूप में रखना होगा। ब्रह्म सूत्र, गीता, उपनिषद, सुभाषित आदि की रचना उन्हीं ज्ञान की हलचल को संजोकर आगे ले जाने का कर्म है।
धीर व्यक्ति कभी भी इस उथल पुथल से भयभीत या आशंकित नहीं होता है, वह सदा ही उसमें क्रम ढूंढ़ता रहता है, घटनाओं का मर्म समझता चलता है। विवरणों और विस्तारों का अधिक ध्यान रखने वाले या तो उसमें भ्रमित हो जाते हैं या उलझ जाते हैं। वर्तमान की उथल पुथल में एक निश्चित क्रम पढ़ लेने वाले भविष्य के दुलारे होंगे, क्योंकि दिशा भूल चुके हम सब उन्हीं के नेतृत्व के सहारे होंगे।
कितना आवश्यक है, अन्तर्निहित सिद्धान्त ढूढ़ने का प्रयास करना। घटनाओं को होने दिया जाये, हम अपना जीवन जीते रहें, जो भी मार्ग निकलें, जो भी मार्ग हमें सुरक्षित रखे। पशु ऐसा ही करते हैं, किस क्रिया की प्रतिक्रिया में क्या करना, यह उनके मस्तिष्क और इन्द्रियों में पहले से संचित होता है। इस प्रकार वे आगत समस्याओं से निपट कर अपना जीवन जीने में व्यस्त हो जाते हैं, उससे अधिक वे कुछ करते भी नहीं हैं।
मनुष्य पर वहाँ नहीं रुकता है, वह अपने मन में एक जाँच समिति बिठा देता है, संभावित कारणों और संभावित समाधानों की छानबीन के लिये। बहुत सोच विचार होता है और तब निष्कर्ष स्वरूप एक सिद्धान्त निकलता है, जो न केवल घटित की व्याख्या करता है वरन उस पर किस प्रकार नियन्त्रण गाँठा जा सके, इसके भी उपाय निकालता है।
नियन्त्रण का कीडा हमारे गुणसूत्रों में स्थायी रूप से विद्यमान है। भौतिक रूप से न ही सही, पर बौद्धिक रूप से हम सब क्रियाओं पर नियन्त्रण करने के रूप में जुट जाते हैं, सिद्धान्त की खोज में लग जाते हैं, क्रियाओं की उथल पुथल में एक क्रम देखने लगते हैं।
उथल पुथल में क्रम देखने का यही गुण हमें न केवल पशुओं से भिन्न करता है वरन अपने वर्ग, समाज, देश आदि में सुस्थापित करता है। जिनके अन्दर यह गुण अधिक होता है, उनकी दृष्टि और दिशा अधिक स्पष्ट होती है और उनके अन्दर ही मानवता के नेतृत्व करने और उसकी समस्यायें सुलझाने की संभावनायें होती हैं।
इस प्रक्रिया को बुद्धिमान होने, शक्तिवान होने या सामर्थ्यवान होने से न संबद्ध किया जाये, यह एक विशेष गुण होता है जिसके आधार पर कोई बुद्धिमान, शक्तिवान या सामर्थ्यवान स्वयं को विशिष्ट स्थापित करता है। कुछ उदाहरणों से इसे और समझा जा सकता है।
आप कोई पुस्तक या लेख पढ़ रहे हैं और यदि आप केवल शब्दों की उथल पुथल या वाक्यों के अर्थ में सिमटकर रह जायेंगे, तो आप कब खो जायेंगे, पता ही नहीं चलेगा। शब्दों की उथल पुथल में वाक्य का अर्थ, वाक्यों की उथल पुथल में अनुच्छेद का अर्थ, अनुच्छेदों की उथलपुथल में अध्याय का अर्थ, अध्यायों की उथलपुथल में पुस्तक का अर्थ। पुस्तक को अन्ततः उसके अर्थ में जानने के लिये उसमें अन्तर्निहित क्रम समझना होता है हमें, उथल पुथल में अन्तर्निहित क्रम।
फ़ुटबॉल के पीछे भाग रहे बीसियों खिलाड़ियों का श्रम आपको अव्यवस्थित सा लग सकता है, पर खेल का ज्ञान रखने वालों को उसमें भी एक क्रम दिखता है। कोच को दिखता है कि किस प्रकार और कितनी गति से फुटबॉल और खिलाड़ी एक पूर्वनिश्चित क्रम में गुँथे हुये हैं।
एक सुलझा प्रबन्धक कार्यों की बहुलता में, उनकी अस्तव्यस्तता में एक क्रम ढूँढ कर आगे बढ़ता रहता है। यदि वह समस्याओं में खो जायेगा तो कभी नेतृत्व नहीं दे पायेगा। किसी नगर की भीड़भरी गलियों को समझने के लिये उसका मानचित्र एक क्रम प्रदान करता है। हाथ में या स्मृति में मानचित्र हो तो न ही दिशा खोती है और न ही दृष्टि।
कुरुक्षेत्र में अर्जुन के भावों की उथल पुथल में कृष्ण को एक क्रम दिखा और उन्होंने बड़े व्यवस्थित और तार्किक दृष्टिकोण से उसका समाधान किया, अर्जुन की आशंकाओं से प्रभावित हुये बिना।
देखा जाये तो हमारी यह प्रवृत्ति हमें मानसिक विस्फोट से बचाती है। यदि यह न हो तो हम बहुत शीघ्र ही अपना संतुलन खो बैठेंगे। इतनी सारी सूचना, इतना सारा ज्ञान, इतनी सारी घटनायें, इतनी सारी स्मृतियाँ, यदि हम इन्हें सिद्धान्त या सूत्र के रूप में संचित नहीं करेंगे, तो कहीं खो जायेंगे, इनकी बहुलता में।
पुरातन मनीषियों ने समझ लिया था कि ज्ञान को यदि सदियों के कालखण्ड पार करने हैं तो उन्हें सूत्रों के रूप में रखना होगा। ब्रह्म सूत्र, गीता, उपनिषद, सुभाषित आदि की रचना उन्हीं ज्ञान की हलचल को संजोकर आगे ले जाने का कर्म है।
धीर व्यक्ति कभी भी इस उथल पुथल से भयभीत या आशंकित नहीं होता है, वह सदा ही उसमें क्रम ढूंढ़ता रहता है, घटनाओं का मर्म समझता चलता है। विवरणों और विस्तारों का अधिक ध्यान रखने वाले या तो उसमें भ्रमित हो जाते हैं या उलझ जाते हैं। वर्तमान की उथल पुथल में एक निश्चित क्रम पढ़ लेने वाले भविष्य के दुलारे होंगे, क्योंकि दिशा भूल चुके हम सब उन्हीं के नेतृत्व के सहारे होंगे।
अभी तो राष्ट्र को क्रम में पिरोने वाला एक अग्रणी व्यक्ति चाहिये जो भविष्य का ध्यान रखे नहीं तो जैसा पिछले ६० वर्षों से चल रहा है वैसा ही चलता रहेगा.. सही नेतृत्व क्षमता के अभाव में कई राष्ट्र कई संस्थाएँ अपना अस्तित्व खो चुकी हैं ।
ReplyDeleteलगता है मनुष्य का मस्तिष्क एंट्रापी के विपरीत चलता है
ReplyDeleteइस मानसिक एंट्रॉपी के कारण ही हम ध्वस्त नहीं होते हैं, आप ऊष्मागतिकी का चौथा नियम प्रतिपादित क्यों नहीं करते हैं?
Deleteआशंकाओ अकंच्छाओ का उतल-पुथल और उसमे क्रम तलाशना ही तो जीवन है
ReplyDeleteRandom number book के बारे में पहली बार सुनना-जानना रोचक था.
ReplyDeleteहम तो इस लेख में ही इधर-उधर खो गये। :)
ReplyDeleteयही तो मानव मस्तिष्क की प्राकृतिक श्रेष्ठता है कि वह प्रकृति के विस्तार व प्रचुरता के बीच भी इसके संयोजन को सही तरीके से समझ वर्ष इसका सदुपयोग कर सकने की नैसर्गिक क्षमता रखता है ।सुंदर लेख ।
ReplyDeleteहाथ में या स्मृति में मानचित्र हो तो न ही दिशा खोती है और न ही दृष्टि।
ReplyDeleteक्रमबद्धता अनुकरणीय सूत्र!!!!
जीवन की उथल पुथल काफी
ReplyDeleteशब्दों को राह बताने को !
ReplyDeleteधीर व्यक्ति कभी भी इस उथल पुथल से भयभीत या आशंकित नहीं होता है, वह सदा ही उसमें क्रम ढूंढ़ता रहता है, घटनाओं का मर्म समझता चलता है। विवरणों और विस्तारों का अधिक ध्यान रखने वाले या तो उसमें भ्रमित हो जाते हैं या उलझ जाते हैं। वर्तमान की उथल पुथल में एक निश्चित क्रम पढ़ लेने वाले भविष्य के दुलारे होंगे, क्योंकि दिशा भूल चुके हम सब उन्हीं के नेतृत्व के सहारे होंगे।
सुन्दरम मनोहरम .ॐ शान्ति
उसे पता है सब ड्रामा है कर्म फल की छाया है .प्रालब्ध है .
जो रह पाए इस उथलपुथल से अविचलित वही धीरज धर सकता है !
ReplyDeleteहाँ,इस महानाटक के अध्यायों में निहित क्रम को समझने की कोशिश तो की ही जा सकती है !
ReplyDeleteवर्तमान की उथल पुथल में एक निश्चित क्रम पढ़ लेने वाले भविष्य के दुलारे होंगे, क्योंकि दिशा भूल चुके हम सब उन्हीं के नेतृत्व के सहारे होंगे।
ReplyDeleteकड़ियों में बंधा जीवन .....वर्तमान से ही भविष्य है ...हमारी प्रवृति हमे मानसिक विस्फोट से बचाती है और भविष्य के लिए सुचारु दिशा और दृष्टि प्रदान करती है ....सफल भविष्य के लिए ,सतत स्वयं को समझना और समझाना बहुत ज़रूरी है ...
सार्थक सुंदर आलेख ...!!
अच्छा दर्शन।
ReplyDelete
ReplyDeleteउथलपुथल होना स्वाभविक प्रक्रिया है ,इस तूफान को जो रोक पाता है ,वही स्थिर वुद्धि वाला धीर व्यक्ति है
latest post सुख -दुःख
जीवन दर्शन का अनुकरणीय सूत्र.......
ReplyDeleteक्रम तलाशता जीवन... क्रम तराशता जीवन!
ReplyDeleteआपके अन्य आलेख भी क्रमशः पढ़ते जाना है अब:)
बहुत सुन्दर जीवन दर्शन...आभार
ReplyDeleteउथल पुथल से भरी रचना. कर्म की गति को उचित क्रम में रखने पर ही आत्मिक शान्ति है.
ReplyDeleteक्रमबद्धता महत्वपूर्ण है.
ReplyDeleteरामराम.
नियन्त्रण का कीडा हमारे गुणसूत्रों में स्थायी रूप से विद्यमान है। भौतिक रूप से न ही सही, पर बौद्धिक रूप से हम सब क्रियाओं पर नियन्त्रण करने के रूप में जुट जाते हैं,
ReplyDeleteबहुत सही लिखा है आपने.....
सारगर्भित लेख ....
अत्यन्त विचारणीय पुख्ता आलेख।..........इतनी सारी सूचना, इतना सारा ज्ञान, इतनी सारी घटनायें, इतनी सारी स्मृतियाँ, यदि हम इन्हें सिद्धान्त या सूत्र के रूप में संचित नहीं करेंगे, तो कहीं खो जायेंगे, इनकी बहुलता में।
ReplyDeleteवर्तमान की उथल पुथल में एक निश्चित क्रम पढ़ लेने वाले भविष्य के दुलारे होंगे, क्योंकि दिशा भूल चुके हम सब उन्हीं के नेतृत्व के सहारे होंगे।
ReplyDeleteक्रम तो ढूँढना ही होगा ... सहज जीवन तभी जिया जा सकेगा ।
जीवन दर्शन अहसास कराती सुंदर पोस्ट,,,,
ReplyDeleteRECENT POST : अभी भी आशा है,
उथल पुथल मचा गया आपका यह दर्शन:)
ReplyDeleteरोचक ... सूत्र में भी या सब ज्ञान स्वतः ही पिरो जाता है ...
ReplyDeleteजीवन दर्शन या रहस्य ...
जीवन दर्शन...संभाल कर रखने वाली पोस्ट
ReplyDeleteक्योंकि ये सोचने की खासियत सिर्फ इंसानों को ही प्राप्त है !
ReplyDeleteसोचते तो पशु भी हैं किन्तु व्यक्त नही कर पाते।
Deleteक्रमबद्धता ही सबसे पहली सीढी है व्यवस्थित व सफल जीवन की । हमेशा की तरह विचारणीय ।
ReplyDeleteक्रमबद्धता ही सबसे पहली सीढी है व्यवस्थित व सफल जीवन की । हमेशा की तरह विचारणीय ।
ReplyDeleteपैटर्न समझ आ जाये तो विचार सुलझ जाते हैं।
ReplyDeleteअस्त-व्यस्तता में कर्म ढूंढ कर आगे बढ़ते रहना हर किसी के लिए संभव नहीं हो पाता इसीलिये हर कोई कुशल प्रबन्धक नहीं हो सकता.
ReplyDeleteएक अच्छा लेख.
उपर्युक्त वाक्य में 'कर्म' नहीं क्रम* पढ़ें
Deleteशुक्रिया आपकी निरंतर टिप्पणियों का .ॐ शान्ति
ReplyDeleteशुक्रिया आपकी निरंतर टिप्पणियों का .ॐ शान्ति विस्तार व्यर्थ पैदा कर सकता है .बहुत सुन्दर .लक्ष्य केन्द्रित और संपृक्त रहो निरंतर .
ReplyDeleteआदरणीय श्री प्रवीण पांडे जी ,
ReplyDeleteसादर प्रणाम ...
एक निश्चित पैटर्न जरुरी हैं ,बेहतर परिणाम के लिए |
अक्सर लोग कहते हैं ...अमुक क्षेत्र में मेहनत करियो ...मेहनत लगा कर करियो...पर अगर किसी क्षेत्र में कोई ज्यादा ही मेहनत करे तो असफलता की ओर बढ़ रहा हैं क्यूंकि शायद वह इस कार्य के लिए नही बना हैं |जो कार्य आप बिना मेहनत के करते हैं ,जो आपका शौक हैं {अगर व्ही प्रोफेसन ,बन जाए तो क्या बात हों }
डॉ अजय
http://drakyadav.wordpress.com/
डॉ अजयजी, आपका अवलोकन अक्षरशः सत्य है। यदि दिशा ही न ज्ञात हो तो दौड़ते रहने का क्या लाभ? जीवन के मूल प्रश्न पहले उत्तरित हो, शेष सब निष्कर्ष स्वतः निकल आते हैं।
Deleteउथल पुथल को भी सूत्रबद्ध करता सुन्दर आलेख..
ReplyDeleteक्रमबध्ता ही सबसे महत्वपूर्ण है किसी भी काम को सही तरह से अंजाम देने के लिए।
ReplyDeleteअपनी निजी जीवन के उथल पुथल में क्रम हम ढूढ ही लेंगे या फिर भुगतेंगे पर आवश्यकता है कि कोई देश की उथलपुथल में क्रम ढूढे और उसे व्यवस्थित करे ।
ReplyDeleteविचार प्रवर्तक लेख ।
क्रमिक तरतीबवार अध्ययन ही किसी भी चीज़ का विज्ञान है विष ज्ञान .,बे -तरतीबी में तरतीबी
ReplyDeleteउथल पुथल के बिना जीवन अधूरा है।
ReplyDeletechaos is a necessary evil :)
ReplyDeleteSometimes lil derailment from the regular things is not only good but vital
नियंत्रण के कीड़ों के भी भिन्न स्तर होंने चाहिये.....पशु....बनस्पति.....मनुष्य और प्राकृतिक संघटकों के अस्तित्व के स्तरों और वैभिन्न को देखते हुऎ, ऎसा प्रतीत होता है? क्या यह बुद्धि करती है? क्योंकि सचराचर जीव जगत में ही नहीं मनुष्यों में भी बुद्धि का विकास समान नहीं होता। क्या यह विकास जीव की जीवन-यात्रा के नैरंतर्य मे हर पड़ाव पर एक नऎ स्तर की पर्त जमनें से हो सकता है, जिसे हम शास्त्रीय भाषा में संस्कार कहते हैं? यदि ऎसा नहीं है तो इस गुण-सूत्र को बुद्धि से किस प्रकार पृथक कर देखा/समझा जा सकता है?
ReplyDeleteनियंत्रण के कीड़ों के भी भिन्न स्तर होंने चाहिये.....पशु....बनस्पति.....मनुष्य और प्राकृतिक संघटकों के अस्तित्व के स्तरों और वैभिन्न को देखते हुऎ, ऎसा प्रतीत होता है? क्या यह बुद्धि करती है? क्योंकि सचराचर जीव जगत में ही नहीं मनुष्यों में भी बुद्धि का विकास समान नहीं होता। क्या यह विकास जीव की जीवन-यात्रा के नैरंतर्य मे हर पड़ाव पर एक नऎ स्तर की पर्त जमनें से हो सकता है, जिसे हम शास्त्रीय भाषा में संस्कार कहते हैं? यदि ऎसा नहीं है तो इस गुण-सूत्र को बुद्धि से किस प्रकार पृथक कर देखा/समझा जा सकता है?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर जीवन दर्शन
ReplyDeleteक्या बात कही है. वास्तव में एक स्थिर धुरी पर ही चाक घूमता है.
ReplyDeleteगति के केंद्र में स्थिरता आवश्यक है।
सुव्यवस्था में जो आनंद है वो और कहीं नहीं ।
ReplyDelete