मैं किनारा रात का,
उस पार मेरे सुबह बैठी,
बीच बहते स्वप्न सारे, हैं अनूठे।
मैं उजाला प्रात का,
कल छोड़ कितने स्वप्न आया,
क्या बताऊँ, रात के हर अंश रूठे।
मैं उमड़ना वात का,
चल पड़ा था रिक्त भरने,
मैं बहा कुछ देर, पथ में पत्र टूटे।
लक्ष्य मैं आघात का,
जो उठे हर दृष्टि से नित,
ले हमारा नाम, घातक तीक्ष्ण छूटे।
मैं धुरा अनुपात का,
जो न पाता एक भी तृण,
न्याय करता, पा सके सम्मान झूठे।
मैं बिछड़ना साथ का,
जो रहे बनकर अतिथिवत,
भाव के उद्योग में निर्जीव ठूठे।
तत्व मैं हर बात का,
जो न बहरी किन्तु गहरी,
और जीवन का सुखद आधार लूटे।
लक्ष्य मैं आघात का,
ReplyDeleteजो उठे हर दृष्टि से नित,
ले हमारा नाम, घातक तीक्ष्ण छूटे।
भई वाह ..आनंद आ गया !!
मैं किनारा प्रात का उस पार सुबह बैठी ...
ReplyDeleteकिनारे से उस सुबह के बीच की यात्रा ही तो जीवन है !
तत्व मैं हर बात का,
ReplyDeleteजो न बहरी किन्तु गहरी,
और जीवन का सुखद आधार लूटे।
आपके कविता के मर्म की गहरइयो तक न पहुचने के वावजूद,पढने में आनंद ही आनंद ..............सुन्दर।
बहुत खूब।
ReplyDeleteमैं बिछड़ना साथ का,
ReplyDeleteजो रहे बनकर अतिथिवत,
भाव के उद्योग में निर्जीव ठूठे।
तटस्थ भव!
बहुत सुन्दर अर्थपूर्ण ..हिंदी के गूढ़ शब्दों से सजी रचना ..कुछ शब्दों के अर्थ समझने में दिक्कत आई ...आपकी कविता की शुरुआत मुझे बहुत अच्छी लगी !!! बधाई
ReplyDeleteमेरी नयी रचना Os ki boond: इश्क....
जीवन की पूरी दार्शनिकता समाई है इस रचना में, बहुत ही सुंदर.
ReplyDeleteरामराम.
जीवन से जुड़े भावों का प्रभावी चित्रण......
ReplyDeleteकिनारे से उस पार तक जाने की यात्रा .... बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteमैं किनारा प्रात का उस पार सुबह बैठी ...बहुत सुन्दर शब्दों से जीवन यात्रा को दर्शाया..सुंदर रचना..आभार
ReplyDelete'''मैं बिछड़ना साथ का,
ReplyDeleteजो रहे बनकर अतिथिवत,...''
वाह! आप जितना गद्य अच्छा लिखते हैं उतनी ही कविता भी.
ReplyDeleteमैं किनारा रात का,
उस पार मेरे सुबह बैठी,
बीच बहते स्वप्न सारे, हैं अनूठे।
सुन्दर भाव ...
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteप्रवीण जी बुरा न मानें यह कविता शायद आपने शीघ्रता में लिखी और पोस्ट कर दी है। मन्तव्य अधूरे हैं। पता नहीं लोग बहुत सुन्दर, खूब कैसे कह देते हैं। क्या अब टिप्पणी करना औपचारिक हो गया है, आपको प्राप्त टिप्पणियां तो यही दर्शा रही हैं।
ReplyDeleteआप तक मन्तव्य नहीं पहुँच पाया, निश्चय ही कविता में कुछ कमी रह गयी होगी। भाव इसमें कुछ पूरा करने का है भी नहीं, बस उन तथ्यों को बताने का है, जो आधे अधूरे पड़े हैं और अपनी उस स्थिति के कारण व्यग्रोन्मुख हैं। पाठकों को दोष न दें, उन्हें कुछ न कुछ अपना सा लगा होगा। अगली बार निश्चय ही पूर्णता पाने के लिये प्रयत्नशील रहूँगा।
Deleteमुझे जैसा लगा ईमानदारी से कह दिया। सच्चाई में अगर किसी को मानहानि हुई हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ।
Deleteजी, ऐसा कुछ भी नहीं है, आपका कुछ भी कहना हमें सोचने को बाध्य करता है।
Deleteपूर्ण भाव लिए अच्छी कविता..
ReplyDeleteशानदार भाव
ReplyDeleteमैं किनारा रात का,
ReplyDeleteउस पार मेरे सुबह बैठी,
बीच बहते स्वप्न सारे, हैं अनूठे
।सुन्दरम मनोहरं !
तत्व मैं हर बात का,
जो न बहरी किन्तु गहरी,
और जीवन का सुखद आधार लूटे।
सुन्दर है यह भी -तत्व मैं हर बात का ....बात गहरी .....
लक्ष्य मैं आघात का,
ReplyDeleteजो उठे हर दृष्टि से नित,
ले हमारा नाम, घातक तीक्ष्ण छूटे।
वाह वाह वाह प्रवीण जी इस रचना ने तो मन मोह लिया कितनी सुन्दरता से सम्पूर्ण जीवन की आख्याति समेट ली है शब्दों में बहुत बहुत बधाई
क्या बात प्रवीण जी, आपका ये रंग तो पहली बार देखा मैने।
ReplyDeleteबहुत सुंदर, बहुत सुंदर
कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री असली चेहरा : पढिए रोजनामचा
http://dailyreportsonline.blogspot.in/2013/07/like.html#comment-form
और जीवन-धार
ReplyDeleteआकुल-तरल लहरों में सिमट,
दो तटों के बीच में
अविराम बहने को विवश !
मैं धुरा अनुपात का,
ReplyDeleteजो न पाता एक भी तृण,
न्याय करता, पा सके सम्मान झूठे।
वाह !!! लाजबाब प्रस्तुति,,,
गीत की प्रारम्भिक पंक्तियाँ बहुत खूबसूरत हैं । आपके गीतों में भी गहन दर्शन होता है और वे कभी-कभी काफी गूढ और गम्भीर प्रतीत होते हैं--लक्ष्य मैं आघात का....सम्मान झूठे ।
ReplyDeleteअद्भुत ।शब्द और अर्थ के बीच व्याप्त रिक्त आकाश को पूर्ण करती सुंदर भावाभिव्यक्ति ।बहुत बधाई ।
ReplyDeleteअद्भुत .... सुंदर काब्य .. प्रवीण भाई
ReplyDeleteसन्नाट!! वाह!
ReplyDelete-- बहुत सार्थक है बडोला जी आपकी टिप्पणी....वास्तव में टिप्पणियों में यही होरहा है....
ReplyDelete--- कविता कलात्मक दृष्टि से सुन्दर है.. पहले दो बंद स्पष्ट हैं ...परन्तु तत्पश्चात अस्पष्टता ...स्पष्ट है ,शब्द व अर्थार्थ संयोजित एवं संप्रेष्य नहीं हैं....यथा..
मैं उमड़ना वात का---- वात उमड़ने की बजाय घुमड़ती है ..वात के बहने पर पत्र तो टूटते ही हैं...
चल पड़ा था रिक्त भरने,
मैं बहा कुछ देर, पथ में पत्र टूटे।
लक्ष्य मैं आघात का, ---- अस्पष्ट है
जो उठे हर दृष्टि से नित,
ले हमारा नाम, घातक तीक्ष्ण छूटे।--- अस्पष्ट है ..क्या घातक व तीक्ष्ण क्या ...यदि घातक तीर है तो स्पष्ट भी होता है..
मैं धुरा अनुपात का,---- धुरा अनुपात का...क्या? कौन न्याय करता...
जो न पाता एक भी तृण,
न्याय करता, पा सके सम्मान झूठे।
तत्व मैं हर बात का,
जो न बहरी किन्तु गहरी,---- अब बात बहरी आ क्या अर्थ...
और जीवन का सुखद आधार लूटे। ---तत्व.. जीवन का सुखद आधार कैसे लूटे ??
---और फिर ये मैं कौन है स्पष्ट नहीं है ....शायद प्रत्येक तत्व का आत्म |
वाह, आपकी व्याख्या से एक दृष्टिकोण तो मिल गया कि कविता से आपकी अपेक्षा क्या है? जो स्पष्ट था, उसके अतिरिक्त शेष अस्पष्ट की भी व्याख्या कर दी आपने। कितना कठिन हो जाता है सबके लिये लिख पाना। लगता है अभी तक अपने को ही व्यक्त कर सका हूँ, जब भाव आपकी तरह स्पष्ट हो जायेंगे, तब संभव कविता को आपकी दृष्टिकोण के अनुरुप लिखा जा सकेगा।
Deleteमैं उजाला प्रात का,
ReplyDeleteकल छोड़ कितने स्वप्न आया,
क्या बताऊँ, रात के हर अंश रूठे ..
बहुत सुन्दर छंद ... कुछ पाने को विशेष कर रौशनी पाने के लिए स्वप्न का मोह तो त्यागना ही होता है ...
कुछ पंक्तियां क्लिष्ट प्रतीत हुई..तथा कुछ का शायद वो अर्थ मैं नहीं समझ पाया हूं जो आपने कहना चाहा है..फिर भी ओवरऑल प्रस्तुति अच्छी लगी....
ReplyDeleteभाव अर्थ और शब्द सौन्दर्य इस रचना में एक समस्वरता लिए है .
ReplyDeleteॐ शान्ति .
उस पार मेरे सुबह बैठी,
ReplyDeleteबीच बहते स्वप्न सारे, हैं अनूठे।
सुन्दर भाव ...प्रवीण जी
तत्व मैं हर बात का,
ReplyDeleteजो न बहरी किन्तु गहरी,
और जीवन का सुखद आधार लूटे।
........बहुत ख़ूबसूरत...ख़ासतौर पर आख़िरी की पंक्तियाँ...!!
ReplyDeleteमैं धुरा अनुपात का,
जो न पाता एक भी तृण,
न्याय करता, पा सके सम्मान झूठे।
वाह ! न्याय करता पा सके सम्मान झूठे ......
अपने में बहुत सारी गूढता समेटे शानदार रचना !
ReplyDeleteतौबा तौबा खूब लिखते हैं आप ....
ReplyDeleteDestinations many.. in life
ReplyDeleteit's the journey that really counts :)
Just loved it... these lines reminded me a poem from Javed Akhtar
Dilon mein tum apni
Betaabiyan leke chal rahe ho
Toh zinda ho tum
मैं उजाला प्रात का,
ReplyDeleteकल छोड़ कितने स्वप्न आया,
क्या बताऊँ, रात के हर अंश रूठे।
....बहुत खूब!
ReplyDeleteसुन्दर शब प्रयोग भावानुरूप .शुक्रिया आपकी टिप्पणियों का .
मैं बिछड़ना साथ का,
जो रहे बनकर अतिथिवत,
भाव के उद्योग में निर्जीव ठूठे।
Tatva hi jivan ka aadhar hai .........sundar rachna........
ReplyDeleteजीवन के गहरे रंगों को व्यक्त करती कविता।
ReplyDeleteकुछ पंक्तियाँ बेहद गूढ़ हैं .
मेरी दृष्टि में यह आपकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में शुमार नहीं की जा सकती।
I loved the poem esp the first line of each para :)
ReplyDelete'बीच बहते स्वप्न सारे, हैं अनूठे।'
ReplyDeletebeautiful!