बचपन में किसी पाठ्यपुस्तक में पढ़ा था कि इंग्लैण्ड बड़ा ही विकसित देश है, और वह इसलिये भी क्योंकि वहाँ के टैक्सीवाले भी बड़े पढ़े लिखे होते हैं, अपना समय व्यर्थ नहीं करते और खाली समय से अखबार निकाल कर पढ़ा करते हैं। पता नहीं इंग्लैण्ड ने अखबार पढ़ पढ़कर अपने ज्ञान के कारण सारे विश्व पर राज्य किया, या अपनी सैन्यशक्ति के कारण, या अपनी धूर्तता के कारण। सही कारण तो इतिहासविदों की कृपा से अभी तक ज्ञात नहीं हुआ है, पर देश में वे अपने सफेद मानव का उत्तरदायित्व निभाकर अवश्य जा चुके हैं, भारत का विश्व बाजार में प्रतिशत २५ से १ प्रतिशत पर लाकर और भारत के सभी वर्गों और धर्मों को सुसंगठित करके। उक्त पाठ्यपुस्तक में यह पढ़ने के बाद एक बात मन में गहरे अवश्य पैठ गयी कि किसी भी ड्राइवर को खाली समय में अखबार या कोई पुस्तक पढ़नी चाहिये।
अब रेलवे का कार्य २४ घंटे का है, हमारे वाहन में ड्राइवर भी २४ घंटे रहते हैं, कभी रात में तो कभी दिन में सुदूर निकल जाने की आवश्यकता को ध्यान में रखकर यह व्यवस्था की गयी होगी। हमारे एक ड्राइवर युवा है, पर जब भी उन्हें कहीं प्रतीक्षा करने के लिये छोड़ जाते हैं, तो लौटकर वे सदा ही वाहन में सोते हुये मिलते हैं। हमें लगा कि यदि ऐसे ही हमारे ड्राइवर आदि सोते रहेंगे और अखबार आदि नहीं पढ़ेंगे तो देश कैसे इंग्लैण्ड की तरह विकसित हो पायेगा? यद्यपि उनकी सेवा की शर्तों में खाली समय में अखबार पढ़ना नहीं था, पर मन में बात बनी रही।
एक दिन हमसे न रहा गया और हमने भी तनिक विनोद में पूछ ही लिया कि खाली समय में थोड़ा पढ़ लिख लिया करो, केवल सोते रहते हो। वे अभी सो के ही उठे थे, उतनी ही ताजगी से उन्होंने उत्तर भी दिया कि सरजी जितना पढ़ना था हम पढ़ चुके हैं, स्नातक हैं, पढ़ाई के अनुरूप नौकरी नहीं मिली अतः ड्राइवरी कर रहे हैं। अब खाली समय में पढ़कर क्या करेंगे, हमारा तो सब पहले का ही पढ़ा हुआ है। सुबह घर से ही अखबार पढ़कर आते हैं और वैसे भी अब अखबारों में ऐसा कुछ तो निकलता नहीं है जिससे पढ़कर ज्ञान बढ़े। उससे अधिक तो हम नये नये स्थानों पर जाकर और उन्हें देखकर सीख जाते हैं।
सन्नाट सा उत्तर था, पर तथ्य भरा और अक्षरशः सत्य था। हमारा बचपन का पाठ्यपुस्तकीय ज्ञान और विकसित देशों की अवधारणा एक मिनट के उत्तर में ध्वस्त हो चुकी थी। वर्तमान भारतीय परिस्थितियों में ऐतिहासिक अंग्रेजियत के मानकों का कोई स्थान नहीं है। अब किसको खाली समय में क्या करना चाहिये, यह ज्ञान सारे विश्व को भारत से सीखना चाहिये।
ठीक है, सब कुछ पहले से ही पढ़ा है, मान लिया, पर हर समय सोते हुये क्यों मिलते हो? रात्रि में नींद पूरी नहीं करते हो या आलस्य है। हमें देखो, दिन भर जीभर के कार्य करते हैं और रात में निश्चिन्त हो सो जाते हैं। ड्राइवर महोदय ने एक मिनट के लिये चुप्पी साध ली, हमें लगा कि ड्राइविंग का बहाना बनाकर वे इस उत्तर को टाल गये। एक मिनट के बाद उन्होने फिर बोलना प्रारम्भ किया। सरजी, सो लेते हैं तो यह सुनिश्चित हो जाता है कि अभी कितनी भी दूर जाना हो, कितने ही घंटे कार्य करना हो, ऊर्जा बची रहेगी। यह कथन भी अक्षरशः सत्य था। कुछ दिन पहले ही सायं किसी दुर्घटना के स्थल पर पहुँचना था, हम तो थके होने के कारण पीछे की सीट पर फैल कर सो गये थे, ड्रइवर महोदय ने कई घंटे वाहन चला कर हमें शीघ्र ही पहुँचा दिया था। वहाँ हम अपने कार्य में लग गये थे और ड्राइवर महोदय पुनः वाहन में ही सो गये थे।
मुझे दोनों ही उत्तर समुचित मिल गये थे, अब तीसरे प्रश्न का कोई औचित्य नहीं बचा था। दो मिनट में वे सिद्ध कर चुके थे कि अपना कार्य वे पूरे मनोयोग और पूरी लगन से कर रहे हैं, जितना हम समझ रहे थे, उससे भी कहीं अधिक।
हम दोनों ही मौन बैठे थे, मुझे लग रहा था कि मैंने ऐसे संशयात्मक प्रश्न पूछ कर उनकी कर्तव्यशीलता को आहत किया है और ड्राइवर महोदय को लग रहा था कि सरजी तो शुभेच्छा के कारण पूछ रहे थे, इतने सपाट उत्तर देकर उनकी सद्भावना को मान नहीं दिया है।
थोड़ी देर में ड्राइवर महोदय स्वयं ही खुल गये और मुस्कराकर बताने लगे। सरजी, छोटे से ही मोटरसाइकिल अच्छी लगती हैं और मोटरसाइकिल रेसिंग की आसपास के राज्यों में जितनी भी प्रतियोगितायें होती हैं, वह उन सबमें भाग लेता है। कई ट्रॉफियाँ भी जीती हैं। उसके पास अपनी एक अच्छी मोटरसाइकिल है और कच्ची मिट्टी पर होने वाली प्रतियोगितायें उसकी सर्वाधिक प्रिय हैं।
यह अभिरुचि तो मँहगी होगी? मौन टूट चुका था और उत्सुकता चरम पर थी। जी, सरजी, अब जितना भी थोड़ा बहुत इस नौकरी से मिलता है, उससे घर चलता है। एक जान पहचान के हैं, उनका अपना गैराज है, उन्हें अंकल बोलते हैं, उनकी भी रेसिंग में बहुत रुचि रही है और अभी भी है। वहीं पर ही मोटरसाइकिल को दुरुस्त रखा जाता है, सारी प्रतियोगिताओं का खर्च वही उठाते हैं, केवल ड्रेस तक ही खर्च ३५ हजार के आसपास बैठता है। बस, हम सारी जीती हुयी ट्राफियाँ उनके गैराज में सजा देते हैं, यही हमारा स्नेहिल संबंध है।
अब तक मैं अभिभूत हो चला था, इतने में एक ढाबा दिखा, उतरकर हमने साथ में चाय पी, रेसिंग मोटरसाइकिलों के बारे में चर्चा की, बहुत अच्छा लगा इस प्रकार सहज होकर। चलती मशीनों के अन्दर बैठ कर हम भी अपना मस्तिष्क और हृदय मशीनवत चलता कर बैठते हैं। किसी पुरानी पाठ्यपुस्तक में पढ़ी दूर देश की आदर्शवादी गप्प से हम अपने देश के यथार्थवादी वर्तमान को कम समझ बैठते हैं। ऐसी ही कई घटनायें आपके आसपास भी मिल जायेंगी, पाठ्यपुस्तकों से अधिक ज्ञानभरी, जीवन से भरी, थोपे ज्ञान से अधिक प्रभावी, रोचक, सच।
अब रेलवे का कार्य २४ घंटे का है, हमारे वाहन में ड्राइवर भी २४ घंटे रहते हैं, कभी रात में तो कभी दिन में सुदूर निकल जाने की आवश्यकता को ध्यान में रखकर यह व्यवस्था की गयी होगी। हमारे एक ड्राइवर युवा है, पर जब भी उन्हें कहीं प्रतीक्षा करने के लिये छोड़ जाते हैं, तो लौटकर वे सदा ही वाहन में सोते हुये मिलते हैं। हमें लगा कि यदि ऐसे ही हमारे ड्राइवर आदि सोते रहेंगे और अखबार आदि नहीं पढ़ेंगे तो देश कैसे इंग्लैण्ड की तरह विकसित हो पायेगा? यद्यपि उनकी सेवा की शर्तों में खाली समय में अखबार पढ़ना नहीं था, पर मन में बात बनी रही।
एक दिन हमसे न रहा गया और हमने भी तनिक विनोद में पूछ ही लिया कि खाली समय में थोड़ा पढ़ लिख लिया करो, केवल सोते रहते हो। वे अभी सो के ही उठे थे, उतनी ही ताजगी से उन्होंने उत्तर भी दिया कि सरजी जितना पढ़ना था हम पढ़ चुके हैं, स्नातक हैं, पढ़ाई के अनुरूप नौकरी नहीं मिली अतः ड्राइवरी कर रहे हैं। अब खाली समय में पढ़कर क्या करेंगे, हमारा तो सब पहले का ही पढ़ा हुआ है। सुबह घर से ही अखबार पढ़कर आते हैं और वैसे भी अब अखबारों में ऐसा कुछ तो निकलता नहीं है जिससे पढ़कर ज्ञान बढ़े। उससे अधिक तो हम नये नये स्थानों पर जाकर और उन्हें देखकर सीख जाते हैं।
सन्नाट सा उत्तर था, पर तथ्य भरा और अक्षरशः सत्य था। हमारा बचपन का पाठ्यपुस्तकीय ज्ञान और विकसित देशों की अवधारणा एक मिनट के उत्तर में ध्वस्त हो चुकी थी। वर्तमान भारतीय परिस्थितियों में ऐतिहासिक अंग्रेजियत के मानकों का कोई स्थान नहीं है। अब किसको खाली समय में क्या करना चाहिये, यह ज्ञान सारे विश्व को भारत से सीखना चाहिये।
ठीक है, सब कुछ पहले से ही पढ़ा है, मान लिया, पर हर समय सोते हुये क्यों मिलते हो? रात्रि में नींद पूरी नहीं करते हो या आलस्य है। हमें देखो, दिन भर जीभर के कार्य करते हैं और रात में निश्चिन्त हो सो जाते हैं। ड्राइवर महोदय ने एक मिनट के लिये चुप्पी साध ली, हमें लगा कि ड्राइविंग का बहाना बनाकर वे इस उत्तर को टाल गये। एक मिनट के बाद उन्होने फिर बोलना प्रारम्भ किया। सरजी, सो लेते हैं तो यह सुनिश्चित हो जाता है कि अभी कितनी भी दूर जाना हो, कितने ही घंटे कार्य करना हो, ऊर्जा बची रहेगी। यह कथन भी अक्षरशः सत्य था। कुछ दिन पहले ही सायं किसी दुर्घटना के स्थल पर पहुँचना था, हम तो थके होने के कारण पीछे की सीट पर फैल कर सो गये थे, ड्रइवर महोदय ने कई घंटे वाहन चला कर हमें शीघ्र ही पहुँचा दिया था। वहाँ हम अपने कार्य में लग गये थे और ड्राइवर महोदय पुनः वाहन में ही सो गये थे।
मुझे दोनों ही उत्तर समुचित मिल गये थे, अब तीसरे प्रश्न का कोई औचित्य नहीं बचा था। दो मिनट में वे सिद्ध कर चुके थे कि अपना कार्य वे पूरे मनोयोग और पूरी लगन से कर रहे हैं, जितना हम समझ रहे थे, उससे भी कहीं अधिक।
हम दोनों ही मौन बैठे थे, मुझे लग रहा था कि मैंने ऐसे संशयात्मक प्रश्न पूछ कर उनकी कर्तव्यशीलता को आहत किया है और ड्राइवर महोदय को लग रहा था कि सरजी तो शुभेच्छा के कारण पूछ रहे थे, इतने सपाट उत्तर देकर उनकी सद्भावना को मान नहीं दिया है।
थोड़ी देर में ड्राइवर महोदय स्वयं ही खुल गये और मुस्कराकर बताने लगे। सरजी, छोटे से ही मोटरसाइकिल अच्छी लगती हैं और मोटरसाइकिल रेसिंग की आसपास के राज्यों में जितनी भी प्रतियोगितायें होती हैं, वह उन सबमें भाग लेता है। कई ट्रॉफियाँ भी जीती हैं। उसके पास अपनी एक अच्छी मोटरसाइकिल है और कच्ची मिट्टी पर होने वाली प्रतियोगितायें उसकी सर्वाधिक प्रिय हैं।
यह अभिरुचि तो मँहगी होगी? मौन टूट चुका था और उत्सुकता चरम पर थी। जी, सरजी, अब जितना भी थोड़ा बहुत इस नौकरी से मिलता है, उससे घर चलता है। एक जान पहचान के हैं, उनका अपना गैराज है, उन्हें अंकल बोलते हैं, उनकी भी रेसिंग में बहुत रुचि रही है और अभी भी है। वहीं पर ही मोटरसाइकिल को दुरुस्त रखा जाता है, सारी प्रतियोगिताओं का खर्च वही उठाते हैं, केवल ड्रेस तक ही खर्च ३५ हजार के आसपास बैठता है। बस, हम सारी जीती हुयी ट्राफियाँ उनके गैराज में सजा देते हैं, यही हमारा स्नेहिल संबंध है।
अब तक मैं अभिभूत हो चला था, इतने में एक ढाबा दिखा, उतरकर हमने साथ में चाय पी, रेसिंग मोटरसाइकिलों के बारे में चर्चा की, बहुत अच्छा लगा इस प्रकार सहज होकर। चलती मशीनों के अन्दर बैठ कर हम भी अपना मस्तिष्क और हृदय मशीनवत चलता कर बैठते हैं। किसी पुरानी पाठ्यपुस्तक में पढ़ी दूर देश की आदर्शवादी गप्प से हम अपने देश के यथार्थवादी वर्तमान को कम समझ बैठते हैं। ऐसी ही कई घटनायें आपके आसपास भी मिल जायेंगी, पाठ्यपुस्तकों से अधिक ज्ञानभरी, जीवन से भरी, थोपे ज्ञान से अधिक प्रभावी, रोचक, सच।