मुझे लगता है कि बोझ का जितना स्तर अपने देश में है, उतना विश्व के किसी देश में नहीं है। कोई ऐसे तथ्य तो नहीं हैं जिनके आधार पर मैं यह सिद्ध कर पाऊँ, पर लगता है कि यह ही सत्य हैं।
वैसे कहने को तो सारे तथ्य होने के पश्चात भी लोग सत्य स्थापित नहीं कर पाते हैं, तर्क होने के बाद भी कुछ सिद्ध नहीं कर पाते हैं, सिद्ध करने के बाद उसे क्रियान्वित नहीं कर पाते हैं। जिनके पास कुछ भी नहीं होता, उनके पास बस सत्य होता है, वे कह देते हैं और सब मान भी जाते हैं। जब तक गुणीजन उसे असिद्ध कर सकते हैं, वह सत्य बना रहता है। कभी कभी ऐसे सत्य राजनैतिक गरिमा के लिये तो कभी अपने को समझाने के लिये टपकाये जाते हैं।
हम भी इसी तरह का सत्य टपका रहे हैं, कि भारत के बच्चे सर्वाधिक दबे हैं, हर तरह के बोझ से, जीवन के बोझ से। तर्क को उल्टे सिरे से पकड़ते हैं और इसे असिद्ध करने का प्रयास करते हैं। यदि असिद्ध न कर पाये तो तर्क सिद्ध माना जायेगा, स्थापित सत्यों की तरह। जैसा लगता है कि जितनी हमारी सामर्थ्य है, हम असिद्ध करने को बड़ा कठिन मानते हैं और वहाँ तक नहीं पहुँच पाते हैं। चलिये कठिन ही सही, असिद्ध करने का प्रयास करते हैं।
असिद्ध करने का पहला स्तर है, स्वयं का, विशेषकर स्वयं के अनुभव का। यदि हमारा बचपन आनन्द में बीता हो, पढ़ाई का तनिक भी बोझ न पड़ा हो, तो प्रस्तुत सत्य असत्य माना जायेे। बचपन में एक तथ्य बड़ी स्पष्टता से समझ आ गया था कि यदि भविष्य आर्थिक रूप से सुरक्षित चाहिये तो पढ़ते रहना पड़ेगा, न केवल पढ़ना पड़ेगा, वरन अपनी कक्षा की ऊपरी बौद्धिक सतह में टिके रहना पड़ेगा। मन्त्र न केवल समझाया गया वरन पड़ेसियों के कई उदाहरणों के द्वारा सिद्ध भी किया गया। देखो उनको, बचपन में पढ़ने की जगह खेलते रहे, अब जीवन के दुख भोग रहे हैं।
कभी कभी कुछ भय अकारण ही दिखाये जाते हैं, पर यह भय सच था। थोड़ा बड़ा होने पर पता लग गया कि प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल प्रतियोगियों का प्रतिशत प्रयासरत प्रतियोगियों का पाँच प्रतिशत भी नहीं। प्रथम पाँच में रहना है तो, पुस्तकों को सर पर धरे चलना ही होगा, जागते समय भी, सोते समय भी। भारत में मध्यमवर्ग की बहुलता है और उनकी आर्थिक बचत एक पीढ़ी के परे जा भी नहीं पाती है। यदि कोई नौकरी नहीं मिली तो अगली पीढ़ी निम्न मध्यमवर्ग और उसकी अगली पीढी सीधे गरीबी रेखा के नीचे।
स्थापित व्यवसाय और परम्परागत आर्थिक आधार टूटने के कारण सारे बच्चों को नौकरी के राह पर जूझना स्वाभाविक है। नौकरियों का आश्रय केवल उन्हें ही मिल पाता है जो पढ़ने में और उसे परीक्षाओं में उगल देने में अच्छे होते हैं। शेष जूझते हैं, शेष जीवन। बोझ का बोध रहता ही है, जीवन के पूर्वार्ध में या जीवन के उत्तरार्ध में।
कभी सोचा कि कितना अच्छा होता कि हमारा देश भी विकसित होता, हर गाँव में एक तेल का कुँआ होता, एक सोनी के सामानों की फैक्टरी होती। रुचि और आवश्यकता अनुसार ज्ञान प्राप्तकर हम भी कहीं लग जाते। दुर्भाग्य ही है हमारे देश का कि हम जनसंख्या और भ्रष्टाचार में तो अग्रणी हैं, पर औद्योगिक विकास और अनुशासन में पिछड़े हुये हैं।
विदेशों में बच्चे राज्य के अनमोल उपहार माने जाते हैं, उन पर किसी प्रकार का अत्याचार अपराध की श्रेणी में आता है। स्वास्थ्य और शिक्षा राज्य का कर्तव्य होता है और बड़े होने पर उन्हें अपना व्यवसाय स्थापित करने के लिये पर्याप्त आर्थिक सहायता मिलती है। हमारे यहाँ जिन बच्चों को शिक्षा का आग्रही बोझ नहीं मिल पाता है, हमारा आर्थिक तन्त्र उन्हें और उनके बचपन को बालश्रम के माध्यम से सोख लेता है।
कहते हैं कि संघर्ष व्यर्थ नहीं जाता है, जितना जूझेंगे उतना निखरेंगे। जिन उन्नत क्षेत्रों के लिये हमें अपनी जुझारू क्षमता बचाकर रखनी थी, उनके स्थान पर हम सारी ऊर्जा प्रतियोगी परीक्षाओं की उन पुस्तकों को रटने में और हल करने में लगा देते हैं जिनकी उत्पादकता केवल प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने तक ही सीमित रहती है। नौकरी मिल जाने के बाद उनकी उपयोगिता शून्य हो जाती है। हमने ज्ञान के पहाड़ पढ़ डाले, उनका उपयोग अब कुछ भी नहीं, छूछे कीर्तमान स्थापित कर डाले, उनका उपयोग अब कुछ भी नहीं। बौद्धिक उत्कृष्टता के आधार पर तकनीक के जिन क्षेत्रों में हमें आगे होना था, वे हमारे ध्येय में रहे ही नहीं। संभवतः जिस दिन प्रतियोगी परीक्षाओं के बोझ से हमें मुक्ति मिलेगी, उस दिन हम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना हित अहित समझ पायेंगे।
जिस भय को हमने जिया है, जिस तन्त्र का गरल हमने पिया है, उसी में अपने बच्चों को जाते देख मन पीड़ा से कराह उठता है। हृदय कहता है कि उन्हें अपना बचपन सिद्ध करने दो, उड़ना सीख गये तो आकाश से अपना लक्ष्य साझ ही लेगे। बुद्धि कहती है कि इस देश में कहाँ से उड़ पायेगा बच्चा।, उसे अपने कंधों पर आर्थिक सुनिश्चितता और सामाजिक आकांक्षाओं का बोझ जो उठाना है।
उपरोक्त कहे सत्य को असिद्ध करने के जितने भी तर्क एकत्र करता हूँ, मन उतना ही भारी हो जाता है। काश मेरा कथन असिद्ध हो जाये, आज नहीं तो कल, देश के बच्चे भी शिक्षा और आर्थिक तन्त्र के बीच बैल की तरह जुते न दिखायी दें।
बड़ी विडम्बना -कमसिन कंधे बढ़ता बोझ !
ReplyDeleteमुझे लगता है कि बोझ का जितना स्तर अपने देश में है, उतना विश्व के किसी देश में नहीं है।Bilkul sahi kaha aapne...
ReplyDeleteगम्भीर चिन्तन का अभाव है
ReplyDeleteबहुत बदलाव चाहिए ...
ReplyDeleteशायद नितीकर्ता की नीति चिंतन पर न आधारित न होकर चिंतन नीति पर आधारित है।
ReplyDeleteशिक्षा रोजगार लक्षी हो गई है और दुखद यह कि रोजगारों की लाभदेयता प्रतिपल बदल जाती है. सरल जिंदगी में भी अनावश्यक संघर्षों का विकार खडा किया जाता है और प्रतिस्पर्धा का बोझ लद जाता है.
ReplyDeleteदुर्भाग्य ही है हमारे देश का कि हम जनसंख्या और भ्रष्टाचार में तो अग्रणी हैं, पर औद्योगिक विकास और अनुशासन में पिछड़े हुये हैं।
ReplyDeleteजब तक आपके उपरोक्त कथन को (वास्तविकता में) गलत ना सिद्ध कर दिया जाये तब तक कोई उम्मीद नही है.
रामराम.
कैरियर फ्यूचर पैकेज जैसे शब्दों ने शिक्षा के मायने ही बदल दिए हैं । भाषा का कोई महत्त्व नही रह गया है । शिक्षा जमीन से दूर होगई है और बच्चों पर बिना समझे ही बहुत कुछ एक साथ सीखने का बोझ है । क्या होगा परिणाम । कैसे बदलेगा यह सब । बहुत बडे सवाल है । बहुत ही गहन गंभीर लेकिन अपरिहार्य विश्लेषण और समाधान खोजने का विषय है । चिन्तन की दिशा में एक सार्थक आलेख ।
ReplyDeleteआपको LKG के prospectus पर ऐसी तस्वीर मिल जाएगी कि एक कोने पर खड़ा छोटा बच्चा विवश दृष्टि से दूसरे कोने पर के डिग्रियों के पुलिंदों की ओर देख रहा है।
ReplyDeleteकैसा कातर दृश्य है यह !
सच्चाई को शब्दों में बखूबी उतारा है आपने आभार संजय जी -कुमुद और सरस को अब तो मिलाइए. आप भी जानें संपत्ति का अधिकार -४.नारी ब्लोगर्स के लिए एक नयी शुरुआत आप भी जुड़ें WOMAN ABOUT MAN
ReplyDeleteबच्चों का बचपन तनाव में बीता जा रहा है ,बड़े लोग कह कर छुट्टी पा लेते हैं,बच्चे तो नींद में भी निश्चिंत नहीं हो पाते होंगे .अब तो छुट्टियों में भी उन्हें चैन से रहने को नहीं मिलता.स्वाभाविक जीवन कहाँ मिलता है उन्हें !
ReplyDeleteसच कहा है ...बच्चों का बचपन बोझ तले दब गया है .... प्ले स्कूल के नाम पर ढाई साल का बच्चा शिक्षा में उतर जाता है ...
ReplyDeleteबोझ उठाते जीना न सिर्फ हमारी नियति बल्कि यह हमारा स्वभाव वह संस्कार भी है ।मैं तो बोझ लदे खच्चर को देखता हूँ तो मुझे अपने भूत, भविष्य व वर्तमान का आत्मदर्शन व आत्मग्यान मिल जाता है ।
ReplyDeleteआत्म दर्शन कराता अति प्रभावी लेख ।
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ReplyDeleteसच में ...स्थिति बड़ी विकट है.....
ReplyDeleteअन्धाधुन रफ़्तार है देश में आज ... सभी तनाव में जी रहे हैं .. बस्तों का इतना भार शायद ही किसी दूसरे देश में हो ...
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27/06/2013 को चर्चा मंच पर होगा
ReplyDeleteकृपया पधारें
धन्यवाद
गॅाव में यदि तेल का कुवॅा होगा तो POLLUTION CONTROL BOARD आ धमकेगा और बन्द करवा देगा।
ReplyDelete....और यह सब तब है जब हर क्षेत्र में तेजी से डिजिटलीकरण हो रहा है ।
ReplyDelete....और यह सब तब है जब हर क्षेत्र में तेजी से डिजिटलीकरण हो रहा है ।
ReplyDeleteबच्चों पर इतना बोझ है इसलिए बचपन से ही ब्लड प्रेशर और जूवेनाइळ डायबिटीज़ भी सुनने में आने लगी है
ReplyDeleteदुर्भाग्य ही है हमारे देश का कि हम जनसंख्या और भ्रष्टाचार में तो अग्रणी हैं, पर औद्योगिक विकास और अनुशासन में पिछड़े हुये हैं।
ReplyDeleteहमने ज्ञान के पहाड़ पढ़ डाले, उनका उपयोग अब कुछ भी नहीं, छूछे कीर्तमान स्थापित कर डाले, उनका उपयोग अब कुछ भी नहीं।
यह ही सत्य हैं ....
आपके इस डर में हमारी भी साझेदारी है.
ReplyDeleteआपके डर में मैं भी शामिल हूँ।
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ReplyDeleteबहुत खूब यहाँ बच्चे ही नहीं असहाय उम्र दराज़ बुजुर्ग भी अपने वजन से दो गुना ज्यादा वजन उठाते ढोते हैं कहीं कुली बन कहीं मजूर कहीं रिक्शा वाला बनके .बच्चे तो अब गेजेट्स भी ढोने लगें हैं बेक पैक बनाकर .ॐ शान्ति .
दरअसल हमारे देश में भ्रष्टाचार इतना ज्यादा है की लोगों का जिन्दा रहना ही कमाल की बात है। इतनी छीना-झपटी, मारा-मारी है की जिन्दा रहने की कोशिश में ही जिंदगी कट जाती है.लोग जीते नहीं, जिन्दा रहते हैं। जो लोग उच्च पदों पर पहुँच जाते हैं वे भी लूट-खसोट में लग जाते है. इसकी शुरूआत बचपन से ही हो जाती है। बच्चे हमारी मूढ़ताओं के पहले शिकार होते हैं।
ReplyDeleteसमस्या पर विचार मंथन होने के बाद भी इस प्रतियोगी समय में बच्चों को इसीमे शामिल होना है , यह विचार भी दुःख देता है मगर क्या कीजे !!
ReplyDeleteअपना बोझ बाद में बढ़ता है , बसते का पहले।
ReplyDeleteइस डर से सभी लिप्त हैं और कुछ न कर पाने के लिए विवश भी...
ReplyDeleteयदि भविष्य आर्थिक रूप से सुरक्षित चाहिये तो पढ़ते रहना पड़ेगा, न केवल पढ़ना पड़ेगा, वरन अपनी कक्षा की ऊपरी बौद्धिक सतह में टिके रहना पड़ेगा,,,
ReplyDeleteRecent post: एक हमसफर चाहिए.
बोझ उठाते जीना हमारे संस्कार ही बन गये है
ReplyDeleteशिक्षा के सिद्धातों को बदला जाना चाहिए कुछ ऐसा जिसमे इतना बोझ न हो ना मन में न बस्तों में, और वो पढ़ाई जो जीवनभर काम आये न की परीक्षा पास की किताब का काम नहीं ...
ReplyDeletepandey ji dar pe mere bhi aaiyega
ReplyDeleteविचारणीय आलेख ...
ReplyDeleteआज शिक्षा केवल नौकरी प्राप्त करने के उद्देश्य तक सीमित रह गयी है...बहुत सारगर्भित आलेख...
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ReplyDeleteबाद सारी परीक्षाओं के डिग्रियों का बोझ उठाए घूमों सुबह शाम ,शिक्षा ऐसी है बे -काम ......शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .
सच कहा...विचारणीय तथ्य!!
ReplyDeleteThought provoking article!
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