घर की जिस मेज पर बैठ कर लेखन आदि कार्य करता हूँ, उसके दूसरी ओर एक खिड़की है। उसमें दो पल्ले हैं, बाहर की ओर काँच का, अन्दर की ओर जाली का, दोनों के बीच में लोहे की ग्रिल लगी है। दोनों पल्लों के बीच लगभग ४ इंच का स्थान है। जब कभी भी ऊपर की खिड़की खुली रहती है, नीचे के दोनों पल्लों के बीच आने जाने का रास्ता निकल आता है। बहुधा ऊपर की खिड़की खुली रहती है, हवा और प्रकाश दोनों ही आते रहते हैं। पिछले कुछ दिनों से बंगलोर में अत्यधिक वर्षा होने से ठंडक बढ़ गयी, तब खिड़की बन्द न कर, उस पर केवल एक पर्दा लगा दिया गया।
आज जब वह पर्दा ८-१० दिन बाद खोला तो उसमें एक गिलहरी के रहने का स्थान बन चुका था। पता नहीं इसके पहले वह कहाँ रह रही थी? संभवतः किसी पेड़ पर या किसी छत में निचले हिस्से में। वर्षा ने उस स्थान को गीला कर दिया होगा। बिल्ली आदि शत्रुओं से बचने के लिये वह क्या करे, तो उन दो पल्लों के बीच उसने अपना अस्थायी घर बना लिया। सूखी घास-फूस के कई टुकड़े लाकर उन्हें वृत्ताकार बिस्तर के रूप में सजा दिया है, एक रस्सी के रेशों को अपने छोटे छोटे दाँतों से निकाल कर एक हल्का गद्देदार आकार दे दिया है। एक बड़ा ही सुरक्षित, व्यवस्थित और विश्रामयुक्त स्थान का निर्माण कर दिया।
अब दुविधा मेरी थी। सर्वप्रथम आश्चर्य इस बात पर हो रहा था कि इतनी छोटी सी गिलहरी और इतनी व्यवस्थित बुद्धि, प्रयासरत श्रम और सार्थक निष्कर्ष। वह आधा घर बना चुकी थी और शेष के लिये दौड़ भाग कर रही थी। मैं सहसा सामने खड़ा था। एक मनुष्य की दो आँखें उसे देख रही थीं। ऐसा नहीं हैं कि मनुष्य से उसका व्यवहार सर्वथा नया है, उसके अनुभव और उसके पूर्वजों द्वारा सुनायी हुयी कहानियों में मनुष्य की छवि बहुत अच्छी तो नहीं होगी। वह स्तब्ध सी मुझे देख रही थी, हम दोनों के बीच में एक काँच का अन्तर था। दूसरी ओर से जाली से छनती हवा गिलहरी के रोयें हिला रही थी। एक अजब सा संवाद था, निर्दयी मनुष्य के हाथ और उसके घर के बीच एक चटखनी का अन्तर था। बेघर और अर्धनिर्मित घर के बीच १० दिन का श्रम था। सहृदय मनुष्य और गिलहरी के सुरक्षित भविष्य के बीच खिड़की पर खटकने वाला एक घोंसला था।
अब किस अन्तर को मनुष्य हटायेगा। देखा जाये तो वह स्थान मेरा था, प्रभात में जब प्रथम किरण आती है, जब भी सुवासित पवन बहती है, वह खिड़की ही प्रकृति से मेरा सम्पर्क स्थापित करती है। एक छोटा सा घोंसला, आपको खटक सकता है। मैं उस खिड़की पर अपना अधिकार माने बैठा था। दस दिन से वह स्थान उपयोग में न आने से गिलहरी उसे सुरक्षित मान बैठी थी और वहाँ अपना घर बनाने लगी थी।
दुविधा गहरी थी और निपटानी आवश्यक थी। आप कह सकते हैं कि मैंने दस दिन की ढील क्यों दे दी, यही कारण रहा कि गिलहरी ने अपना घर बना डाला। यदि मैं नियमित रूप से खिड़की खोलता रहता तो संभवतः यह स्थिति उत्पन्न न होती। मेरी ढील मेरा दोष है, गिलहरी का अज्ञान उसका दोष है। किसका दोष गाढ़ा है, कौन निर्णय करेगा? इस समस्या का क्या हल निकलेगा, किन सिद्धान्तों के आधार पर निकलेगा?
प्रमुख सिद्धान्त प्रकृति का आधार लिये है। मैं और गिलहरी, दोनों ही प्रकृति के अंग हैं। मेरे लिये मैं महत्वपूर्ण हूँ, गिलहरी के लिये वह स्वयं। इस विषय में गिलहरी के पूरे अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ था और मेरे लिये प्रभात में खटकने वाली दृष्टि। गिलहरी को होनी वाली हानि मुझे होने वाली हानि से बहुत अधिक थी।
उस स्थान पर किसका न्यायपूर्ण अधिकार है या हम दोनों का सहअस्तित्व संभव है। यदि ऐसा है तो हम दोनों में किसे क्या स्वीकार करना होगा? यह हम दोनों पर छोड़ देना चाहिये या शक्तिशाली मनुष्य को दोनों के बारे में निर्णय लेना चाहिये? न्याय के किन पक्षों को किस प्रकार समझना है, यह चिन्तन की कई परतों को उद्वेलित कर जाता है।
यदि मैं चिन्तनहीन होता तो उसी समय शक्ति प्रदर्शन कर त्वरित निर्णय दे देता, घोंसला उठा कर फेंक देता, गिलहरी उसे समेट कर कहीं और नया घोंसला बना लेती। पर वह मुझसे न हुआ, मैं सोच में पड़ गया। अब निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ कि क्या किया जाये?
विश्व की सारी समस्याओं को देखें तो हर स्थिति में गिलहरी और मनुष्य की ही कहानी दिखती है, मेरी कहानी से पूरी तरह मिलती जुलती। शक्ति के उपासक अपना न्याय और निर्णय गिलहरी पर थोप देते हैं। उनके विरोधी गिलहरी का सहारा लेकर अपना स्वार्थ साधते हैं। गिलहरी माध्यम बन जाती है, घर से बेघर हो जाती है, शेष लड़ाई चलती रहती है।
नक्सल समस्या भी कुछ अलग नहीं है। गिलहरी के तथाकथित संरक्षक कहे जाने वाले पक्ष लड़ रहे हैं और गिलहरी अपने अस्तित्व के लिये निहार रही है, सहमी सी।
अब मैं क्या करूँ? मैं तो उसे नहीं हटा पाऊँगा। प्रभात की किरण और शीतल पवन के साथ गिलहरी की गतिविधि भी देखता रहूँगा। हो सकता है कि लेखन धर्म में थोड़ा व्यवधान पड़ जाये, स्वीकार है, पर उसे हटाने का साहस मेरे अन्दर तो नहीं है। आप ही बतायें कि गिलहरी के संग सहअस्तित्व के इस नये अध्याय को और कैसे सुमधुर बनाया जा सकता है?
रहिये उसी कमरे में अपनी नई दोस्त के साथ ...बस दूर से निहारते हुए .... और आप तो टेबल के अलावा भी काम कर लेते हैं सबूत है मेरे पास ....
ReplyDeleteसह अस्तित्व की अवधारणा अभी भी कायम है तभी तो तमाम बिरोधाभास के बाबजूद कमोबेश प्रकृति गतिमान है ,शक्ति प्रदर्शन अशक्तियो के अधिकार के नाम पर उनका खुद अवशोषण भी होता ही आया है,किन्तु जब तक आप जैसे विचारशील लोग है भविष्य आशावान ही है ........सुन्दर वैचारिक लेख
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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गिलहरी को वहीं रहने दीजिये... देखियेगा एक दोस्ती का रिश्ता बना लेगी आपसे... महादेवी वर्मा जी की कहानी 'गिल्लू' याद आ रही है...
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देखिये कुछ ही दिनों में दोस्ती भी हो जायेगी। कुछ नट्स आदि उस्की गैरहाजिरी में रख दिया करें.
ReplyDeleteनये पड़ोसी प्राप्त करने के लिए बधाई। मेरे आफिस की खिड़की के ऊपर एसी से पानी टपकता है और एक गिलहरी जब भी प्यासी होती है यह पानी पीकर चली जाती है।
ReplyDeleteआपके परिवार के अन्य सदस्यों के क्या विचार है? क्योंकि गिलहरी के घोंसले के कारण वहाँ कचरा होगा.
ReplyDeleteइस समस्या का क्या हल निकलेगा, किन सिद्धान्तों के आधार पर निकलेगा?
ReplyDeleteउसका आसरा तो अब यहीं हो गया है ...
सबसे पहले तो एक बात कहना चाहुंगा कि गिलहरी जैसे सामान्य से प्राणी के लिये इतनी बडी सोच और सद्भाव कोई सहृदय कवि-लेखक ही रख सकता है. मनुष्य ज्यादातर तो नशे में ही रहता है उसे कोई बोध ही नही रहता. आपकी जगह कोई सामान्य सा इंसान होता तो बिना सोचे समझे तुरंत उसके घोंसले को उठाकर बाहर फ़ेंकता और उसे याद भी नही रहता कि उसने कुछ गलत या सही किया है. आपकी इस सहृदयता को प्रणाम.
ReplyDeleteरामराम.
अब रही आपके और गिलहरी के सहस्तित्व और दोस्ती की बात, तो हमारा अनुभव यह है कि गिलहरी बहुत ही जल्दी घुलने मिलने वाला जीव है.
ReplyDeleteहम एक बार एक झीलनुमा पार्क में गये थे जहां बहुत सारी गिलहरियां पेडों पर अठखेलियां कर रही थी. उन्हें देखकर हमारी नातिन मंत्रमुग्ध सी उन्हें देखने लगी, उसके हाथ में बिस्किट का पेकेट था, अनायास ही उसने बैठकर बिस्किट निकाल कर उनकी और बढाया, जल्दी ही वो गिलहरियां उसके हाथ से आकर बिस्किट खाने लगी, हम अवाक से देखते रहे, कैमरा हाथ में था, बहुत सारी फ़ोटो खींच डाली, अब उन पुरानी फ़ोटोज को ढूंढते हैं यदि मिल गयी तो अवश्य दिखायेंगे.
अत: हमारी सलाह है कि आप उससे सच की दोस्ती कर डालें आपको लेखन में व्यवधान की बजाये नयी नयी कविताएं सूझने लगेंगी.:)
रामराम.
इस लेख को पढ़कर महादेवी वर्मा के गिल्लू की याद आ गयी
ReplyDeleteकुछ समय बाद आपका भी एक रेखाचित्र पढ़ने को मिलेगा
सह अस्तित्व की अवधारणा ही प्रकृति के प्रति संयम का राजमार्ग है।
ReplyDeleteजीवन के प्रति आदर और अनुकम्पा के भावों को प्रणाम!!
wow..
ReplyDeleteyou'll get to see her everyday..
distractions, well we have many adding one more won't worry much :)
loved the analogy of squirrel and naxal issue.
"...आप ही बतायें कि गिलहरी के संग सहअस्तित्व के इस नये अध्याय को और कैसे सुमधुर बनाया जा सकता है?..."
ReplyDeleteआप हमें नियमित तौर पर अपने ब्लॉग पोस्टों के माध्यम से अपडेट देते रहें बस!
गिलहरी के कारण या उसके घोंसले के कारण यदि असुविधा मात्र सौन्दर्य बोध की है तब तो उसे हटाना उचित नहीं है, लेकिन उसके कारण यदि आप खिड़की ही नहीं खोल पाते हैं तो आदर सहित घोंसले को कहीं स्थानांतरित कर देना ही ठीक है..रोचक लेख !
ReplyDeleteमुझे "गिल्लू " याद आ रही है. सहअस्तित्व बनाये रखिये. क्या पता आप भी कोई अद्भुत रचना रच जाएँ.
ReplyDeleteदोस्ती का रिश्ता खुद ही कुछ समय में पनपने लगेगा ... और मुझे नहीं लगता लंबे समय तक वो गिलहरी वहां रहेगी ... कोई दूसरा ठिकाना ढूंढ लेगी ...
ReplyDeleteजीवन सार्थक तभी है जब सहास्तित्व को मान दिया जाये |...रोचक आलेख ...!!
ReplyDeleteनन्ही गिलहरी ने अभी बिना दोस्ती किए इतनी सुंदर पोस्ट बनवा दी .... आगे न जाने आप क्या क्या रच डालेंगे ...
ReplyDeleteदेश का कानून गिलहरी पर लागू नहीं होता ..
ReplyDeleteउसने अपने लिए सुरक्षित जगह खोजने में बहुत मेहनत की है , सो जिसका कब्ज़ा जगह भी उसी की ...
वहां शक्तिप्रदर्शन निश्चित ही नहीं होना चाहिए !
आप आधी खिड़की खोल कर काम चलायें ..
शुभकामनायें आपको !
गिलहरी की वजह से मुझे नहीं लगता आपको अधिक कठिनाई होगी क्यूंकि अभी तक तो उसका मकसद केवल आपके घर में अपना छोटा सा घर बनाना एवं शरण पाना है, इस तरह की घटनाएँ बहुत कम होती हैं प्रवीण भाई वस्तुतः गिलहरी कहीं किसी पेड़ या किसी घर के बाहर कहीं और अपना ठिकाना बना लेती किन्तु उसने आपका ही घर चुना. आपका उदार ह्रदय तो हमने देख ही लिया निःसंदेह आप उसे स्वयं नहीं हटायेंगे यदि ऐसा होता तो यह सुन्दर तथ्य हम सबके समक्ष कदापि न आता. आशा है आप के गिलहरी के बीच का यह यादगार लम्हा फिर से एक नई घटना के साथ हम सबको पढ़ने को मिलेंगी.
ReplyDeletepl check spam folder..
ReplyDeleteबनी रहने दीजिये, मेरे घर में तो कई हैं।
ReplyDelete@नक्सल समस्या भी कुछ अलग नहीं है।
ReplyDeleteहाँ कुछ मज़बूत पक्ष समझ रहे हैं - हम ठीक हैं, परन्तु निर्बल की जगह खड़े होकर नहीं सोचते.
बहुत प्यारा जीव है गिलहरी,बहुत कौतुकी और शान्त भी.आपकी शरण में आई है ,रह लेगी कुछ दिन !
ReplyDeleteदोस्ती का धर्म तो निभाना पड़ेगा.
ReplyDeleteहमारे यहां भी गिलहरियां कोई ख़ास नहीं डरतीं, एक तो खिड़की की चौखट को काटती भी रहती है :-)
ReplyDeleteआपने लिखा....हमने पढ़ा
ReplyDeleteऔर लोग भी पढ़ें;
इसलिए कल 13/06/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
धन्यवाद!
आपकी यह प्रस्तुति कल चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteधन्यवाद
गिल्लू के खाने पीने का इन्तजाम भी कर ही दीजिये थोड़ा बहुत !
ReplyDeleteबचपन में हमारे घर के आंगन में एक शिवलिंग रहता था और उसके उपर म धुमालती का पेड़ और उन्ही फ़ुलो. का गुच्छा
ReplyDeleteऔर एक गिलहरी हमेशा फुदकती रहती थी बच्चे उसे छोटे छोटे कंकर मरते रहते थे तब हमारे दादाजी कहते गिलहरी की पीठ पर जो लम्बे निशान है वो रामजी के हाथों के निशान है तब से अब तक जब भी गिलहरी दिखती है स्वत ही हाथ जुड़ जाते है ।
वही गिलहरी आशीष देने आई है ।
बढ़िया समन्वय ,चिन्तन |
बेंगलोर का मौसम बहुत ही सुहाना हो गया है मुझे तो पतली रजाई तक निकालनी पड़ गई ।
ReplyDeleteसुंदर व रोचक ।वास्तविकता तो यह है कि ऐसे में शक्ति प्रदर्शन तो दूर की बात, वहाँ पर देर तक खड़े होने अथवा धृष्टता पूर्वक घूरने में भी संकोच होता है, गोया हम किसी की शांति पूर्ण व स्वच्छंद आनंदमय संसार में बाधक बनकर खड़े हों ।
ReplyDeleteरोचक। प्यारी सी नई दोस्त मुबारक :)
ReplyDeleteमेरे विचार से,बारिस तक उसे वहीं रहने दे,,,
ReplyDeleteअधबना घर किसी का हटाया नहीं जा सकता हमसे तो लोग तो क्या क्या उजाड़ देते हैं ! मेरे घर में चिड़ियों का डेरा भी देखा ही होगा !
ReplyDeleteदोनों के सामने दुविधा ! मगर राम की पाल्य अब आपकी शरणार्थी है !
ReplyDeleteगिलहरी भी कहीं अपना ब्लॉग लिख रही होगी!
ReplyDeleteनियमित अपडेट कीजिये गिलहरी के!
दिनचर्या में कुछ परिवर्तन आयेगा लेकिन विश्वास है कि आपको इसका पछतावा नहीं होगा। एक नये फ़ैमिलीफ़्रेंड के साथ सहअस्तित्व का आनंद लीजिये।
ReplyDeleteनई दोस्त मुबारक :-D
ReplyDeleteसेतु बंधन में गिलहरी का योगदान अमूल्य है ,इस बात का ध्यान रख्कर ही कुछ कीजिये
ReplyDeletelatest post: प्रेम- पहेली
LATEST POST जन्म ,मृत्यु और मोक्ष !
बहुत ही सुंदर एवँ रोचक संस्मरण है प्रवीण जी ! आपके कोमल और संवेदनशील हृदय से भी साक्षात्कार हो रहा है आलेख के माध्यम से ! आप भले ही सबसे राय माँग लें लेकिन आप स्वयं निष्ठुर शक्ति प्रदर्शन का सहारा ले उस निरीह गिलहरी को बेघर नहीं कर पायेंगे मुझे इसका विश्वास है और उसे अभयदान मिल जाएगा तो मुझे सर्वाधिक प्रसन्नता होगी !
ReplyDeleteगिलहरी को लेकर आपने बहुत गहराई से सोचा है । वरना सामान्यतः, गिलहरी प्यारी लगती है ,घर में उसका आना अच्छा लगता है यही सब सोचा जाता है । जब बच्चे ग्वालियर ही थे अपनी हथेली पर मूँगफली के दाने रख आ आ कहकर गिलहरियों को बुला लेते थे और वे इनके कन्धों व हथेलियों पर आराम से बैठ कर दाना खातीं थीं । उन दिनों को ये लोग अब भी खूब याद करते हैं ।
ReplyDeleteनक्सल समस्या भी कुछ अलग नहीं है। गिलहरी के तथाकथित संरक्षक कहे जाने वाले पक्ष लड़ रहे हैं और गिलहरी अपने अस्तित्व के लिये निहार रही है, सहमी सी।
ReplyDeleteवाह . बहुत उम्दा
शुक्र है कि गलती से चटखनी गिरा नहीं और सहजीविता अपना सन्देश दे रही है.
ReplyDeleteसंवेदनशील मन की बहुत सुन्दर प्रस्तुति....
ReplyDeleteकाश और लोग भी ऐसा सोचते
ReplyDeleteगिलहरी के साथ सह अस्तित्व आपके ब्लॉगिंग को कुछ नये आयाम दे जाये ।
ReplyDeleteरोचक प्रस्तुति! आप अपनी संवेदना लेखन के माध्यम से व्यक्त कर सकते हैं. देखियेगा, एक दिन गिलहरी आपके प्रति संवेदना प्रकट करने के लिए आपना घर कहीं और बना लेगी और आपको सभी चिंताओं से मुक्त कर जायेगी.
ReplyDeleteसुंदर एवँ रोचक संस्मरण है प्रवीण जी !
ReplyDelete...गिलहरी और गौरैया हमारे साथ रहती हैं तो लगता है हम प्रकृति से जुड़े हैं !
ReplyDeleteजैसे ही पढना शुरू किया, पहला सवाल यही उठा, अंत में आपने गिलहरी का क्या किया।
ReplyDeleteमुझे ख़ुशी है, आपने मुझे निराश नहीं किया।
ईश्वर करें गिलहरी और आपकी संवेदना, दोनों जिंदाबाद रहें।
aap to prakriti ko apni table tak le aaye...sukoon dene waali post.
ReplyDeleteसहअस्तितव की भावना बहुत ही व्यापक शब्द है अपने आपमें और कई समस्याओं का स्वतः निदान है ।
ReplyDeleteआदरणीय पाण्डे सर नमस्कार ,
ReplyDeleteगिलहरी ये अच्छी तरह जानती है कि आप उसके धरौंदे को वहाँ से नही हटायेंगे ,
जैसा मैं समझता हूँ इन्सान से ज्यादा अन्य जीव इस प्रकृति को और उसमें रहने वालों
की मानसिकता को समझते हैं , आपने उसे अपने साथ रहने की इजाजत देकर उसके
साथ साथ अपने दयालू हहृय की बात को स्वीकार किया है!
गिलहरी भी आपके व्यवहार और सहृदयता के विषय में आसपास के लोगों से सुनकर ही वहां आई होगी और अपने आशियाना की सुरक्षा के बारे में आपकी तरफ से आश्वस्त होगी । उसका विश्वास यूं ही बना रहने दीजिये ।
ReplyDeletebehtreen lekh..
ReplyDeleteप्रकृति के साथ समस्वरता ही संतुलन है जीवन के लिए आश्वस्ति है पर्यावरण के लिए भरोसा है पोस्ट गिलहरी की मार्फ़त आज की समस्या पर मंथन .
ReplyDeleteइतना भर सोच लीजिए कि आप उसे अपने साथ रहने की सुविधा नहीं दे रहे, वह आपको अपने साथ रहने की सुविधा दे रही है।
ReplyDeleteएक मनुष्य की दो आँखें उसे देख रही थीं।..........इसलिए कि हम सीख सकें कि वह कितनी कर्मठ है और हम कितने हठधर्मी।
ReplyDeleteएक मनुष्य की दो आँखें उसे देख रही थीं।...........इसलिए कि उसकी कर्मठता से कुछ सीखा जाए और अपनी हठधर्मिता छोड़ दी जाए।
ReplyDeleteएक मनुष्य की दो आँखें उसे देख रही थीं।...........इसलिए कि उसकी कर्मठता से कुछ सीखा जाए और अपनी हठधर्मिता छोड़ दी जाए।
ReplyDelete'उसके अनुभव और उसके पूर्वजों द्वारा सुनायी हुयी कहानियों में मनुष्य की छवि बहुत अच्छी तो नहीं होगी।'
ReplyDeleteसच है...!
सह अस्तित्व की परिकल्पना साकार हो कर बहुत कुछ संग्रहणीय दे जायेगी आपको...
अबतक तो अच्छा परिचय हो गया होगा उससे!
thank for share with us
ReplyDeletesharing is caring
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