सप्ताहान्त के दो दिन यदि न होते तो संभवतः सृष्टि अब तक विद्रोह कर चुकी होती, या सृष्टि तब तक ही चल पाती, जब तक चलने दी जाती। वे सारे कार्य जो आदेश रूप में आपको मिलते रहते हैं, अपना ठौर ढूढ़ने तब भला कहाँ जाते? अच्छा हुआ कि सप्ताहान्त का स्वरूप बनाया गया, और भी अच्छा हुआ कि उसे एक दिन से बढ़ा कर दो दिन कर दिया गया। अब न जाने कितने छोटे मोटे कार्य तो अपने आप ही हो जाते हैं, इसलिये कि कहीं दो दिनों में उनको ढंग से निचोड़ न डाले हम। बड़े बड़े कार्य, जैसे कहीं दूर देश घूमकर आना, ये सारे कार्य भी वरिष्ठों की कृपा की जुगत से हो ही जाते है। जहाँ तक उत्पादकता के प्रश्न हैं, तो देश हर दिन प्रगतिमान है। पहले ६ दिनों में जो निष्क्रिय काल होता था, उसे एक दिन के अवकाश में बदलने के बाद भी शेष पाँच दिनों में लोगों के पास इतना समय रहता है कि अपना कार्य करने के अतिरिक्त बहुत लोग विदेश के आर्थिक संस्थानों की रोजी रोटी चलाते रहते हैं। राज्य सरकारों में कार्यरत बान्धव इससे तनिक ईर्ष्यालु हो उठेंगे, उन्हें अभी भी ६ दिन खटना होता है, पर हर दिन एक डेढ़ घंटा कम।
जब दृष्टि फैलती है तब दृश्य विस्तारित हो जाता है, जब सृष्टि फैलती है तब व्यवस्था विस्तारित हो जाती है, पर जब से सप्ताहान्त फैला है तब से हमें मिलने वाला समय और कम हो चला है। कहते हैं कि जब धन कम रहता है तो व्यक्ति सोच समझ कर व्यय करता है, पर अधिक धन में व्यय भी अधिक होने लगता है और बहुधा व्यर्थ ही हो जाता है। अब घर में सबको कम से कम इतना तो ज्ञात है कि सप्ताहान्त के दो दिन हम सबकी सेवा में लगे रहेंगे। कभी कभी आवश्यक प्रशासनिक कार्य निकल आते हैं, पर प्रशासकों को भी घरेलू कार्य पकड़ाने वालों की कृपा से कनिष्ठगण बचे रहते हैं, कृतज्ञ बने रहते हैं।
मुख्यतः तीन कार्य रहते हैं, बच्चों को कहीं घुमाना, घर का राशन आदि लाना और लेखन कर्म करना। तीन कार्य होने से कई बार व्यस्तता बनी रहती है और विश्राम का समय नहीं मिल पाता है। कई बार सोचा कि इन्हें किस प्रकार सुव्यस्थित करें कि सबके लिये समुचित समय मिल जाये।
बच्चों का कार्य तो अत्यावश्यक है और किसी प्रकार भी टाला नहीं जा सकता है, उसको टालने का सोचते ही दो ओर से ऊष्मा आने लगती है, बच्चे और बच्चों की माँ एक ओर हो जाते हैं। एक सप्ताह में किसी एक स्थान पर ले जाने से ही कार्य चल जाता है, कभी कभी जब व्यस्तता अधिक होती है तो उनको भी हम पर दया आ जाती है और मॉल आदि घूमने से ही कार्य चल जाता है। इस कार्य से हमें सर्वाधिक विश्राम तब मिलता है जब उनके विद्यालयों में सप्ताहान्त के लिये ढेर सारा कार्य पकड़ा दिया जाता है, उस गृहकार्य के लिये विषय सामग्री जुटाने में ही उनका सारा समय निकल जाता है और कहीं घूमने जाने की सुध भी नहीं रहती है उन्हें। उन्हें कार्य के बोझ में डूबा देख अच्छा तो नहीं लगता है, पर क्या करें, समय मिल जाता है अपने लिये तो वह दुख कम भी हो जाता है। पिछले कुछ माह से लग रहा है कि उनके विद्यालय के शिक्षकगण दयालु प्रकृतिमना हो चले हैं अतः अधिक कार्य नहीं दे रहे हैं, फलस्वरूप हर सप्ताह कहीं न कहीं घूमना हुआ जा रहा है।
घर का राशन लाना भी प्रमुखतम कार्यों में एक है, यदि वह नहीं किया गया तो उपवास की स्थिति आ सकती है। न केवल वह कर्म प्राथमिकता से करना होता है, वरन मन लगा कर भी करना होता है। जल्दी जल्दी करने के प्रयास में जितना समय बचता है, उससे दस गुना अधिक समय घर में न जाने कितने ताने सुनने में चला जाता है, हर प्रकार के और हर प्रकार से। जो सूची हाथ में आती है उसका अनुपालन अनुशासनात्मक आदेश की तरह निर्वाह किया जाता है। हर बार बस यही प्रयास कि पिछली बार से अच्छा सामान लाकर अधिक अंक बटोर लिये जायें।
इन दो महाकर्मों के बाद रहा सहा जो समय शेष बचता है, वह सप्ताह में लिखे जाने वाली दो पोस्टों को सोचने और लिखने में निकल जाता है। अब उस समय लिखने का वातावरण हो न हो, मन में विचार श्रंखला निर्मित हो न हो, निर्बाध समय मिले न मिले, कई अन्य कारक रहते हैं जिन पर सीमित लेखन की आस टिकी रहती है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि कोई पोस्ट आधी ही लिखी जा पाती है और अपने अधपके रूप में छपने के एक दिन पूर्व तक गले में अटकी रहती है। बहुधा व्यग्रता का स्तर ख़तरे के निशान के ऊपर बना रहता है।
सप्ताहान्त के आकारों और प्रारूपों पर ढेर सा चिन्तन मनन करने के पश्चात हम श्रीमती जी से बोले कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप महीने भर का राशन एक बार ही बता दें, एक बार में ही जाकर सारी आवश्यकतायें पूरी कर ली जायें। शेष सप्ताहान्तों का उपयोग हम लेखन के लिये करें। प्रस्ताव सशक्त था, यदि महीने भर में एक ही बार जाना हो तो शेष तीन सप्ताहान्तों का उपयोग निर्बाध लेखन के लिये किया जा सकता है। प्रस्ताव उन्होंने कुछ पल के लिये और हमारे सामने एक प्रति प्रस्ताव रख दिया। क्यों न हम ऐसा करें कि महीने भर का लेखन एक सप्ताहान्त में बैठकर कर लें और शेष समय घर के कार्यों में लगाया जाये?
कभी कभी जब चलाया हुआ तीर या कहा हुआ शब्द घूमकर वापस आ जाता है तो उत्तर देते नहीं बनता है। इसमें दो संकेत स्पष्ट थे। पहला हमारा लेखनकर्म घर के कार्यों में सम्मिलित नहीं था, वह प्रवासी के रूप में पिछले ४-५ वर्षों से इस घर में रह रहा था और घर के सामान्य कार्यों को बाधित कर रहा था दूसरा यह कि यह एक पूर्ण रूप से भौतिक व श्रममार्गी कार्य था। यदि एक लेख ३ घंटे में लिखा जा सकता है तो महीने भर में छपने वाले ८-९ लेखों के लिये २४-२५ घंटे पर्याप्त हैं। उन्हें एक के बाद एक, बिना मानसिक या शारीरिक विश्राम के लिखा जा सकता है।
हम कल्पना में डूब गये कि यदि सच में ऐसा होगा तो क्या होगा? कल्पना कठिन नहीं है, तीन चार लेख पूरे होते होते शब्द घूमने लगेंगे, विचार छिटकने लगेंगे, भ्रम गहराने लगेगा और अन्ततः कपाल निचुड़ने की स्थिति में पहुँच जायेगा। हमें लगा कि प्रति प्रस्ताव हमारे लेखन को पूर्णरूपेण धूलधूसरित करने के लिये रखा गया है। हमने समझाने का प्रयास किया कि माह भर का राशन तो एक साथ आ सकता है पर माह भर का लेखन एक साथ बाहर नहीं आ सकता। सृजन कर्म की गति मध्यम होती है, जबकि पाँच किलो की बोरी के स्थान पर दस किलो की बोरी आ सकती है।
अब हमारे चिन्तन के स्थान पर प्रति चिन्तन प्रारम्भ हो गया, उत्तर आया कि महीने भर क्या क्या बनाना है, यह एक बार में कैसे निर्धारित किया जा सकता है? मान लिया हम लोग अपने लिये कोई भोजनचर्या नियत भी कर लें, पर तब क्या होगा जब कोई अतिथि आयेगा, तब क्या होगा जब कोई बच्चा हठ करेगा, तब क्या होगा जब आपको सहसा कुछ विशेष खाने का मन करने लगेगा? जीवन इस प्रकार से एकरूपा चलाने से उसमें घोर नीरसता आ जायेगी।
हम दोनों अपने तर्कों पर अड़े हैं और जहाँ पर खड़े थे, बस वहीं पर ही खड़े हैं। क्या माह में एक बार के स्थान पर माह में दो बार का प्रस्ताव धरा जाये? माह में तीन बार के स्थान पर दो बार लेखन करने से लेखन की गुणवत्ता तो प्रभावित होगी पर घर के खान पान आदि में विविधता बढ़ जायेगी। सुधीजनों का और अनुभव के पुरोधाओं का क्या मत है?