कभी सोचा है कि व्यक्ति को सबसे अधिक भड़भड़ाहट कब होती है, सर्वाधिक मन कब ऊबता है, कौन सा समय वह शीघ्रातिशीघ्र बिता देना चाहता है? उत्तर अधिक कठिन नहीं होगा, यदि जीवन के भारी कष्टों को सूची से हटा दिया जाये तो सबसे अधिक कष्ट में व्यक्ति तब होता है जब वह एकान्त में होता है, शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से।
कभी सोचा है कि व्यक्ति स्वयं से इतना क्यों भागता है? एकान्त काटने को दौड़ता है। कुछ तो कारण होगा कि हम स्वयं को ही नहीं झेल पाते हैं।
कहीं पढ़ भी रहा था कि जेल में यदि किसी व्यक्ति को कठिनतम दण्ड दिया जाता है तो उसे एकान्त में रख देते हैं, तनहाई कही जाती है वह। वह एकान्त ऐसा होता है जहाँ बन्दी का मानसिक संतुलन तक बिगड़ जाता है। क्या एकान्त में रहना हमारी प्रकृति के विरुद्ध है? व्यक्ति को स्वयं से भय क्यों?
ये सारे प्रश्न ऐसे हैं जो उठते तो हर एक के मन में हैं, पर उनका उत्तर पाना उतना ही कष्टकर होता है जितना एकान्त में समय बिताना। कोई इसे मन का खेल मानता है, कोई सामाजिकता को दोष देता है, कोई इस पर कुछ कहना ही नहीं चाहता है। एकान्त सदा ही दोषपूर्ण माना जाता है, जो लोग किसी और से घुलते मिलते नहीं, उन्हें संशय और विस्मय की दृष्टि से देखा जाता है, विचित्र प्राणी की तरह।
माना कि एकान्त भयावह है, माना कि एकान्त असामाजिक है, पर अपने से पूर्णतया विमुख हो जाता कहाँ से आ गया हमारे अन्दर? अपने से भागने का गुण कहाँ से आ गया हमारे अन्दर? आश्रयों के हटते ही भरभरा कर ढहने लगता है हमारा जीवन। माना कि सहजीवन ही हमारी राह है, पर स्वयं को समझने और समझाने से क्यों विमुख हो जाते हैं हम? एकान्त को भयानक मानने वाली यह मानसिकता इतने गहरे धँसी है हम सबके अन्दर कि हम स्वयं से ही भागने लगे हैं।
यही प्रश्न संस्कृतियों के बीच की दीवार भी है, यही प्रश्न संस्कृतियों के बीच की सुलझन का प्रारम्भ भी है। पूर्व की संस्कृति में यह प्रश्न सदा से ही पूछा जाता रहा है, पश्चिम में यह प्रश्न सदा ही प्यासा रहा है। हमारा जीवनक्रम स्वयं को समझने से प्रारम्भ होता है और सहजीवन तक जाता है, पाश्चात्य सहजीवन को प्रमुखता से रख इस प्रश्न पर ठंडी राख उड़ेल देता है। जीवन दोनों संस्कृतियों में पल रहे हैं, एक पद्धति में अन्त तक स्पष्ट दिशा दिखती है, दूसरी पद्धति पगडंडियों के समाप्त होते ही भ्रमित हो जाती है। मैं जितना एकान्त में डूबता हूँ, उतना ही प्राच्य हो जाता हूँ, जितना सबके संग जीने लगता हूँ उतना ही पाश्चात्य का रंग धारण कर लेता हूँ। मैं बहुधा मुहाने पर खड़ा रहता हूँ, इस प्रश्न के कुछ इस पार, इस प्रश्न से कुछ उस पार।
स्वयं को जानना है तो स्वयं से जूझना भी पड़ेगा। कोई इसे भले ही अध्यात्म मान कर बुढ़ापे के लिये छोड़ दे, पर यह प्रश्न मुँह बाये एक न एक दिन खड़ा अवश्य हो जायेगा। कह देने भर से कि इन सबके बिना भी काम चल जायेगा, ये प्रश्न टलने वाले नहीं, उत्तर तो पाना ही पड़ेगा।
एक दूसरे को देखकर तो सब ही जीवन पार कर लेते हैं, पर क्या दूसरे का जीवन ही हमारा भी मानक हो जाये? क्या वे पद्धतियाँ जो किसी एक के लिये सुन्दर ढंग से चलती हैं, क्या दूसरे के ऊपर भी उतना ही प्रभावी हो सकती हैं? ऐसा नहीं है कि सारे लोग भेड़चाल में ही चलते हैं, कुछ अपनी राह स्थापित करते हैं, अपने मानक स्वयं स्थापित करते हैं। भौतिक सफलतायें अपना स्थान बनाती हैं, विकास होता रहता है, पर स्वयं को समझने का प्रश्न कार्य और उद्देश्यों की भीड़ में खोया ही सा रहता है।
अपने हृदय पर हाथ रखिये और पूछिये कि स्वयं से पहली बार वार्तालाप कब किया था, तब पता चलेगा कि तीन या चार दशक तो इस प्रश्न को पहली बार आने में ही निकल जाते हैं। जब तक प्रश्नोत्तरी तनिक रोचक होती है, आधा जीवन बीता हुआ सा लगता है। लगता है कि हम सदा ही स्वयं से भागते रहे, स्वयं का सामना करने से कतराते रहे।
एक परम स्नेही मित्र ने दर्शननिमग्न वार्तालाप के बीच एक दिन बड़े ही दुर्लभ वाक्य कहे, उनका कहना था कि जीवन में यदि किसी एक चीज को जानना आवश्यक है, तो वह स्वयं को। स्वयं को जानने के लिये मन को जानना आवश्यक है, आत्म मन से ही व्यक्त होता है।
बात सच भी है, हम सुख को ढूढ़ते रहते हैं। कहते हैं जो मन के अनुकूल है, वही सुख है। यदि हम मन को नहीं समझ पाये तब सुख को क्या समझ पायेंगे? बिना मन को जाने सुख की परिभाषायें बनाते रहते हैं, उस पर प्रयोग करते रहते हैं। मन को नयापन चाहिये तो उसे नयापन ला लाकर देते रहते हैं, पर बात तो मन के माध्यम से स्वयं को समझने की थी।
जो भी कारण हो, जो भी निदान हो, हम स्वयं से भागे लोग हैं, सदा ही बाहर अपना ठिकाना ढूढ़ते रहते हैं, व्यग्र हो। स्वयं में स्थिर होना सीख लें, तो जहाँ ठहर जायें, गाँव वहीं बन जाये हमारा, जहाँ रम जायें, वहीं राम हो जायें। यदि कहीं टिकना सीखना हो मुझे, तो स्वयं में ही, वर्तमान में ही, तात्कालिक परिवेश में ही।
हम तो अपने को ही ढूँढ़ रहे हैं, पर वाकई दूसरे को पाने से बहुत कठिन है दूसरे को पाना..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (22-05-2013) कितनी कटुता लिखे .......हर तरफ बबाल ही बबाल --- बुधवारीय चर्चा -1252
में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Swayam se bhagne walon me shayad mai bhi shamil hun.....bahut sundar likhte hain aap.....mera aalekh zaroor padhen!
ReplyDeleteआत्म अवलोकन ही श्रेयस्कर है. जीवन के वास्त्विक उत्थान का मार्ग प्रसस्त करता है स्वयं को जानना. नितांत ही आवश्यक प्रश्न उठाया है, एक श्रेष्ठ आलेख!!
ReplyDeleteमन नही भाव कहें..इस भाव शरीर में उठने वाले भावों के प्रति होशपूर्ण होने से ही गतियों की पहचान होने लगती है जिसे आप स्वयं की पहचान भी कह सकते हैं..उससे भागा नहीं जा सकता है.
ReplyDeleteमन के भटकाव को ठिकाने लगाने वाली बात.
ReplyDeleteसमय समय पर आत्मावलोकन एक सुदृढ़ व्यक्तित्व को पोषित करता है !
ReplyDeleteप्रभावशाली लेखन एवं दर्शन !
मन का प्रभावी मनोविज्ञान।
ReplyDeleteपर भागते भागते एक दिन एकांत ही अपना हो जाता है ...
ReplyDelete-----स्वयं से भाग रहे हैं या स्वयं के लिए भाग रहे हैं ...एक यक्ष प्रश्न यह भी है ....शायद स्वयं के लिए भागते भागते स्वयं से भागने लगते हैं ...पर के लिए भागें तो स्व को प्राप्त कर पाएंगे ..सुख की अपेक्षा आनंद को प्राप्त हो पायेंगे .......यही तो माया है....
ReplyDeleteसर्तक चिंतन देता उत्कृष्ट आलेख |
ReplyDelete''मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे ....जैसे उडी जहाज को पंछी फिर जहाज पर आवे ''हम स्वयं से भाग ही नहीं सकते |व्यक्ति एकांत प्रिय हो या एकांत से दूर भागता हो चैन अपने में लौटने पर ही मिलाता है |अपने से दूर भाग कर भी अपने ही से लोगों में चैन पडता है |एकांतप्रिय मनुष्य अपने पसाद की बातों मे जैसे किताब पढना या कोई और रूचि में डूब कर अपना समय सार्थक करता है |मनुष्य की प्रवृत्ति ही उसका मार्गदर्शन करती है |इसीलिए संस्कारों की महत्ता है |
सुन्दर आलेख |
होता तो ऐसा है....
ReplyDelete"हम सुख को ढूढ़ते रहते हैं। कहते हैं जो मन के अनुकूल है, वही सुख है। यदि हम मन को नहीं समझ पाये तब सुख को क्या समझ पायेंगे? बिना मन को जाने सुख की परिभाषायें बनाते रहते हैं, उस पर प्रयोग करते रहते हैं। मन को नयापन चाहिये तो उसे नयापन ला लाकर देते रहते हैं, पर बात तो मन के माध्यम से स्वयं को समझने की थी।"
होना ये चाहिए....
"स्वयं में स्थिर होना सीख लें, तो जहाँ ठहर जायें, गाँव वहीं बन जाये हमारा, जहाँ रम जायें, वहीं राम हो जायें।"
और मजे की बात ये है कि यह बात अमूमन ज्यादातर लोग जानते हैं...
देखिये आपको भी मालूम है और मुझे भी...!
बल्कि यहाँ पर उपस्थित सभी गुणीजनों सुधीजनो सभी को मालूम है....फिर भी.....???
किसी महान आदमी से सुना था, अपना नो. मिलाओ तो इंगेज ही मिलेगा.
ReplyDeleteआखिर भागकर भी इंसान कितनी दूर जा पाता है!..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया चिंतनशील प्रस्तुति ..
्खोज तो स्वंय की ही जरूरी है और उसी में सम्पूर्ण दृश्य समाहित है मगर हम सब उसी से भागते हैं जिस दिन इस तरफ़ मुड जायेंगे कोई व्यग्रता , उद्वगिनता कुछ नही रहेगी
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति,सार्थक आलेख,,,
ReplyDeleteRecent post: जनता सबक सिखायेगी...
बहुत ही गहन चिंतन है. मन को समझ पाना दुष्कर है और उतना ही दुष्कर है इसको काबू में करने का प्रयत्न करना. वैसे यह भी सही है कि मन की इच्छाओं की पूर्ति भी हम ही करते हैं या कहलें कि यही पूर्ति मन का ईंधन है. जब ईंधन मिलता रहेगा तो मन रूपी अग्नि का शांत होना मुश्किल है.
ReplyDeleteमन का जितना भी निग्रह किया जायेगा उतना ही यह विद्रोह करेगा इसलिये हमने तो मन के साथ विरोध और ईंधन से प्रज्वलित करना छोडकर इसके साथ दोस्ती का हाथ बढा रखा है.
कभी कभी यह अच्छे दोस्त की भांति नेक सलाह भी दे देता है और कभी कभी दुष्ट मित्र की तरह दुष्चक्र में भी फ़ंसा डालता है.:)
वैसे हम अंतिम रूप से दोस्ती को ही तवज्जों देते रहेंगे आगे दोस्त (मन) की जैसी इच्छा हो, उधर ले जाये, हमारा कोई विरोध भी नही होगा.
रामराम.
स्वयं को जान के ही जग को जाना जा सकता है ...
ReplyDeleteइसे पाना ही जीवन है ...
अपने अन्दर झाँक कर अपने ,जगत और जीवन के सत्य को समझना हमारे दर्शन की ही देन है । आपने कहा है कि जब मैं एकान्त में होता हूँ तब प्राच्य होजाता हूँ लेकिन इसमें आपकी सद्वृत्तियाँ ही अहम् होतीं हैं । बहुत ही गहन-गंभीर आलेख ।
ReplyDeleteखुद को तलाशने की प्रक्रिया चलती रहती है और अनवरत चलती रहेगी. भाग कर भी आखिर कहाँ तक जा पाएंगे.
ReplyDeleteगहन सार्थक आलेख.
सच है कि हमें दूसरे का सहारा चाहिए।
ReplyDeleteमन के भटकाव पर रोक जरुरी है |
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक चिंतन |
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन खुद को बचाएँ हीट स्ट्रोक से - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteकिस के सर पर ठीकरा फोड़ें अब इस भटकाव का।
ReplyDeleteदूर के हर अक्स को आला समझ बैठे थे हम।।
क्या संयोग है, कुछ ऐसा ही मैंने भी लेटेस्ट ग़ज़ल में कहने का प्रयास किया है। ग़ज़ल आज पोस्ट करने वाला हूँ।
अकेलापन हमें हर खुशी से ग़रीब कर देता है जब कि एकान्त नई ऊर्जा देता है...अपने से मुलाक़ात के लिए हर रोज़ कुछ पल एकांत के होना ज़रूरी है तभी मन शांत होता है..अगर यह अभ्यास बचपन से ही किया जाए तो जीवन और भी आसान हो जाए..
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक चिंतन |,
ReplyDeleteमैं जितना एकान्त में डूबता हूँ, उतना ही प्राच्य हो जाता हूँ, जितना सबके संग जीने लगता हूँ उतना ही पाश्चात्य का रंग धारण कर लेता हूँ।.............बहुत बढ़िया। ऐसे आलेखों में आप शीघ्रता न करें। थोड़े से और शोध के बाद अगर इस तरह के जीवन दर्शन संबंधी लेखों को लिखा जाएगा तो इसकी ग्राह्यता का ज्यादा विस्तार हो सकेगा। कहीं-कहीं वाक्यों में बात, कहने का तात्पर्य अधूरा और अपूर्ण लगा। यदि इस लेख पर और श्रम किया जाए तो यह अविस्मरणीय हो सकेगा। एकांत का पक्षकार बन कर जीवन दर्शन को व्यक्त करने में परिवेश के आकर्षण ने आपको इसे ठीक से विश्लेषित नहीं करने दिया। आलेख लिखने के दौरान वही हुआ, जो आप आलेख-दर्शन के द्वारा नकारना चाहते हैं।
ReplyDeleteजिसने खुद को ढूंढ़ लिया, जग जीत लिया।
ReplyDeleteजीवन में यदि किसी एक चीज को जानना आवश्यक है, तो वह स्वयं को...मैं भी यह बात मानती हूं
ReplyDeleteSwayam ko jaanana hii to aatm-gyan hai ...aur hm jaante hain ye kitna mushkil hai...man kii ek-do parat samjhne waale hii mahaan ban jaaate hain aur bilkul bheetar tak jaane waale Bhagwaan ban jaate hain....
ReplyDeletesahi...love this post!!
ReplyDeleteस्वयं के आमने-सामने होना ही कौन चाहता है-पूरे मनोयोग से कुछ करना भी बड़ा मुश्किल दिखता है अब तो.भ्रमण के लिये पाँव चल रहे हैं ,कानों में फ़ोन,मुँह से बातें हो रही है आखिर व्यक्ति की उपस्थिति है कहाँ ?बिखरापन समेटे तब अपने को जानने की शुरुआत हो .
ReplyDelete
ReplyDeleteहम अपने को जानते ही कहाँ हैं अपना परिचय ही नहीं है "पर "पे केन्द्रित हम इसीलिए जीवन के परमानंद शांत स्वरूप अपने ही आत्म स्वरूप से ही अ -परिचित हैं स्वयम को और औरों को भी शरीर माने जिए जा रहें हैं .भले चिंतन अकेले में होता है लेकिन सामूहिक योग का अपना बल है पवित्रता की अपने ऊंगली है जो सहयोग में उठ जाती है .बढ़िया भाव विरेचक पोस्ट खुद को ललकारती क्यों भाग रहे हो किस्से ,किस दिशा में ,क्यों ?
Very thoughtful post.Here I like only to add a fact that we r known to be world guru in regard of spiritualim and chintan but practically if u observe we r more scared of lonelyness and deep contemplation.It cant be generalised but wesrterns usual culture of individualism is also often strength for for them to adjusr with lonelyness in more prudent manner than us.
ReplyDeleteयदि हम मन को नहीं समझ पाये तब सुख को क्या समझ पायेंगे? बिना मन को जाने सुख की परिभाषायें बनाते रहते हैं, उस पर प्रयोग करते रहते हैं।
ReplyDeleteसबसे कठिन काम है स्वयम को पाना ... गहन लेख ।
मुश्किल नहीं बहुत मुश्किल है खुद को जानना ।
ReplyDelete"स्वयं में स्थिर होना सीख लें, तो जहाँ ठहर जायें, गाँव वहीं बन जाये हमारा, जहाँ रम जायें, वहीं राम हो जायें"
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विचार प्रस्तुति ..आभार
मैं जितना एकान्त में डूबता हूँ, उतना ही प्राच्य हो जाता हूँ, जितना सबके संग जीने लगता हूँ उतना ही पाश्चात्य का रंग धारण कर लेता हूँ। मैं बहुधा मुहाने पर खड़ा रहता हूँ, इस प्रश्न के कुछ इस पार, इस प्रश्न से कुछ उस पार ।
ReplyDeleteआपके लेख से एक सकारात्मक उर्जा मिलती है ओए आपको पढना मुझे अच्छा लगता है जिंदगी एक सवाल है जिसका कोई एक जवाब नहीं एक सवाल हल होता है और दूसरा सवाल जवाब के इंतजार में रहता है हाँ मन को समझना बहुत जरुरी है और उसपर संयम भी उतना ही जरुरी है मन तो हर वक़्त आये दिन नई - २ फरमाइश करता है |
सार्थक लेख |
aap ne stik aur samyik likha hai aaj vishvash ka snkt sb se bda hai isi ke karn smaj me bhut se vidroop pnp rhe hai
ReplyDeletesundr alekh ke liye hardik bdhai bndhu
अन्तिम पैराग्राफ को ही मेरी टिप्पणी मान लीजिएगा। सब कुछ कह दिया आपने इन पंक्तियों में।
ReplyDelete