काली नदी अपने उद्गम से बस १८४ किमी बाद ही समुद्र में मिल जाती है, यह संभवतः एक ही ऐसी नदी होगी जो पूरी की पूरी एक ही जिले, उत्तर कन्नड में बहती है। पश्चिमी घाट से सागर की इतनी कम दूरी ने न जाने कितने सुन्दर और ऊँचे प्रपातों को जन्म दिया है, छोटी छोटी नदियों के जाल से बुना हुआ कोकण क्षेत्र अपने आप में एक अनूठा दृश्य रचता है, पहाड़, जंगल, प्रपात, नदियाँ, सागर, सब एक दूसरे पर अधारित और आरोपित। लगभग चार लाख लोगों की जीवन रेखा यह नदी, सागर तक आते आते निश्चिन्त हो जाती है, अपना संक्षिप्त पर सम्पूर्ण कर्म करने के पश्चात।
रात के समय चाँद पृथ्वी के निकट होता है। अब अपना आकर्षण किस तरह व्यक्त करे? पृथ्वी को अपनी ओर खींचना चाहता है, पृथ्वी ठहरी भारी, न वह हिलती है और न ही हिलते हैं उसके पहाड़। ले दे कर एक ही तरल व्यक्तित्व है सागर का, जिस पर चाँद का जोर चल पाता है, उसे ही अपनी ओर खींच लेता है चाँद, उस स्थिति को ज्वार कहते हैं। तब सागर का जल स्तर नदी से ऊपर हो जाता है। नदी ठहर सी जाती है, उसे कुछ सूझता नहीं है, उसे दिशाभ्रम हो जाता है कि जाना किधर है। आगे बढ़ते बढ़ते सहसा उसकी गति स्थिर हो जाती है, वह वापस लौटने लगती है। और जब दोपहर में चाँद पृश्वी से दूर हो जाता है, सागर पुनः नीचे चला जाता है, नदी के स्तर से कहीं नीचे, तब नदी का जल सरपट दौड़ लगाता है।
जल का यह आड़ोलन, कभी सागर से नदी की ओर तो कभी नदी से सागर की ओर, उस सीमा को कभी एक स्थान पर स्थिर ही नहीं देता, जिसे हम नदी और सागर का मिलना कहते हैं। कैसे ढूढ़ पायेंगे आप कोई एक बिन्दु, कैसे निर्धारित कर पायेगें उन दो व्यक्तित्वों की सीमायें, जिन्हें चाँद एक दूसरे में डोलने को विवश कर देता हो। चाँद मन की गति का प्रतीक माना जाता है, सागर खारा है, नदी मीठी है, यह मिलन संबंधों को इंगित करता है। यह आड़ोलन उन अठखेलियों को भी समझने में सहायक है जो संबंधों के बीच आती जाती रहती हैं। सागर स्थिर है, नदी गतिशील है, पर वे चाहकर भी अपनी प्रकृति बचाकर नहीं रख पाते। रात को चाँद निकलता है और सागर गतिशील हो जाता है अपनी सीमायें तोड़ने लगता है, नदी सहम सी जाती है, ठिठक जाती है। सागर का खारापन मीलों अन्दर चला जाता है, लगता है कि कहीं सागर स्रोत को भी न खारा कर बैठे। एक स्थान पर, जहाँ सागर की उग्रता और नदी का प्रवाह समान हो जाता है, खारापन वहीं रुक जाता है, वहीं साम्य आ जाता है।
दिन धीरे धीरे बढ़ता है, नदी उसी साम्य को खींचते खींचते वापस सागर तट तक ले आती है और साथ ही ले आती है वह खारापन जिसे रात में सागर उसे सौंप गया था। साथ में सौंप जाती है जल के उस भाव को जो रात भर ठहरा रहा, सहमा सा। यह क्रम चलता रहता है, हर दिन, हर रात। नदी सागर हो जाती है और पुनः नदी के अतिक्रमण में लग जाती है। सागर को वर्ष भर लगता है, वाष्पित होकर बरसने में, पहाड़ों के बीच अपना स्थान ढूढ़ने में, छोटी धार से हो नदी बनने में और पुनः सागर में मिल जाने में।
नदी और सागर के रूप में प्रकृति की ये अठखेलियाँ हमें भले ही खेल सी लगती हों पर इनमें ही प्रकृति का मन्तव्य छिपा हुआ है। सागर और नदी को लगता है कि हम दोनों का संबंध नियत है, एक को जाकर दूसरे में मिल जाना है। उन्हें लगता है कि वे दो अकेले हैं जगत में। उन्हें लगता है कि उनके बीच एक साम्य है, संतुलन है, जो स्थिर है एक स्थान पर। उन्हें लगता है कि सागर और नदी का जो संबंध होना चाहिये, उसमें किसी और को क्या आपत्ति हो सकती है। नदी और सागर पर यह भूल जाते हैं कि प्रकृति कहाँ स्थितियों को स्थिर रहने देती हैं, उसने दोनों का जीवन उथल पुथलमय बनाये रखने के लिये चाँद बनाया, हर दिन उसके कारण ही ऐसा लगता है कि नदी और सागर एक दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं। यही नहीं, प्रकृति ने सूरज भी बनाया, केवल इसलिये कि सागर अपने मद में, खारेपन में मत्त न बना रहे, वाष्पित होकर बरसे, नदी बने।
प्रकृति के सिखाने के ढंग बड़े सरल हैं, समझना हम लोगों को ही है कि हम कितना समझ पाते हैं। प्रकृति हमें स्थिर न रहने देगी, कितना भी चाह लें हम, चाँद से संचालित मन कोई न कोई उथल पुथल मचाता ही रहेगा। यह भी सच है कि प्रकृति हमें अपनी सीमायें अतिक्रमण भी न करने देगी, कितने भी भाग्यशाली या शक्तिशाली अनुभव करें हम। आदेश कहने वाला कभी आदेश सहने की स्थिति में भी आयेगा, प्रकृति के पास पाँसा पलटने के सारे गुर हैं। सागर से धरती का मिलन होता है तो रेत के किनारे निर्मित हो जाते हैं, सारे पाथर चकनाचूर हो जाते हैं। सागर का अपनी सहधर्मी नदी से मिलन होता है तो सीमाओं का खेल चलता रहता है। सागर का आकाश से मिलन होता है तो अनन्त निर्मित हो जाता है।
प्रकृति को किसी भौतिक नियम से संचालित मानने वाले प्रकृति की विशालता को न समझ पाते हैं और न ही उसे स्वीकार कर पाते हैं। प्रकृति में सौन्दर्य है, गति है, अनुशासन है और क्रोध भी। हम तो हर रूप में जाकर हर बार खो जाते हैं। देखते देखते सागर और धरती का मिलन सागर की ओर आगे बढ़ जाता है। दोनों अपनी अठखेलियों में मगन हैं, प्रकृति भी दूर खड़ी मुस्करा रही है। हम सब यह देख कभी विस्मित होते हैं, कभी प्रसन्नचित्त। बस नदी की तरह प्रकृति में झूम जाने का मन करता है, आनन्दमय प्रकृति में।
प्रकृति का सौंदर्य अपरिमित है और आप अनंत पार के दृष्टा !
ReplyDeleteप्रकृति की छटा ही निराली होती है, काश मनुष्य प्रकृति के साथ और उसके अनुरूप अपनी विकास यात्रा जारी रखता पर अफ़सोस वह ऐसा नहीं कर पाया!!
ReplyDeleteसहज ही प्राप्त आनन्द और सीख प्रकृति से .....बस हम जैसे है वैसे ही बने रहे तो सब कुछ सामान्य और आनंददायक .....
ReplyDeleteआज बहुत अच्छा लिखा है ...बाकी दिन से भी ज्यादा अच्छा ....:-)
बस नदी की तरह प्रकृति में झूम जाने का मन करता है, आनन्दमय प्रकृति में।
ReplyDeleteसुचारू सुघड़ सुवर्णन ....!!
बहुत सुन्दर आलेख .
सुन्दर प्रस्तुति !!
ReplyDeleteजल संचय पर आपका एक और लेख बहुत शानदार था।
ReplyDelete"आदेश कहने वाला कभी आदेश सहने की स्थिति में भी आयेगा, प्रकृति के पास पाँसा पलटने के सारे गुर हैं।"
ReplyDeleteऔर प्रकृति का सारा राज इसी वाक्य में छुपा है !
ReplyDeleteआलेख पढ़कर बरबस ही यह गीत याद आ गया "ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में कोई जानेना"
शंकराचार्य होते तो कहते - सागर ब्रह्म है और नदी आत्मा। जबतक नदी सागर से दूर है उसका एक अलग अस्तित्व दिखायी देता है जैसे हम जीवों का अलग अस्तित्व है ईश्वर से। जब अपने अवसान बिन्दु पर आकर नदी सागर में मिल जाती है तो उसका अस्तित्व सागर में विलीन हो जाता है। सागर जैसा पहले था वैसा ही दिखता है। नदी का उद्गम से लेकर अवसान तक का पथ उसे एक अलग पहचान देता है और उसका सागर में मिल जाना उसकी सागर से अनन्यता दिखाता है।
ReplyDeleteब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या जीवोब्रह्मैव नापरः।
प्रकृति हमें स्थिर न रहने देगी, कितना भी चाह लें हम, चाँद से संचालित मन कोई न कोई उथल पुथल मचाता ही रहेगा। यह भी सच है कि प्रकृति हमें अपनी सीमायें अतिक्रमण भी न करने देगी, कितने भी भाग्यशाली या शक्तिशाली अनुभव करें हम।
ReplyDeleteसागर और नदी से निकाला ज़िंदगी का एक और फलसफा .... बहुत सुंदर चित्रण
बहुत खूब! काश, कभी ये अवसर मेरे जीवन में आए!
ReplyDeleteसीमाओं का खेल चलता रहता है। सागर का आकाश से मिलन होता है तो अनन्त निर्मित हो जाता है। प्रकृति में हर गुण है वो देना जानती है तो लेना भी ...उत्कृष्ट आलेख
ReplyDeleteसादर
प्रकृति का सौंदर्य निराली होती है,बहुत सुंदर चित्रण.
ReplyDeleteनदी की पूर्णता सागर से मिलन होने पर ही है, हर ओर से हमेशा प्रकृति जीवन का ढंग सिखाती है।
ReplyDeleteप्रणाम स्वीकार करें
प्रकृति का अनुपम चित्रण ...
ReplyDeleteप्रकृति सम्पूर्ण है और अनोखी है. सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है, काश हम सीख पावें.
ReplyDeleteयह भी सच है कि प्रकृति हमें अपनी सीमायें अतिक्रमण भी न करने देगी, कितने भी भाग्यशाली या शक्तिशाली अनुभव करें हम। आदेश कहने वाला कभी आदेश सहने की स्थिति में भी आयेगा, प्रकृति के पास पाँसा पलटने के सारे गुर हैं।........................ये नहीं समझ रहे हैं तमिलनाडु में परमाणु संयंत्र थोपेनवाले। अब तो न्यायालय ने भी अपनी विद्वता बघार कर परमाणु संयंत्र को उचित ठहरा दिया है।
ReplyDeleteप्रकृति को किसी भौतिक नियम से संचालित मानने वाले प्रकृति की विशालता को न समझ पाते हैं और न ही उसे स्वीकार कर पाते हैं।.................बहुत सच लिखा है। चेत जाओ बेहोश रहनेवालों, प्रकृति से खिलवाड़ करनेवालों।
बहुत सुन्दर संस्मरणात्मक आलेख।
बढ़िया ...सच में बहुत सुंदर लेख
ReplyDeleteबढ़िया
ReplyDeleteमिलन के इस क्षण को बाखूबी समेटा है आपने ... शब्दों में, कैमरे में ... और अंतरमन में भी ...
ReplyDeleteप्रकृति की छटा ही निराली होती है।
ReplyDeleteबेहद मनोरम द्रश्य रहा होगा ! बधाई आपको !
ReplyDeleteमगन होकर मनन चल रहा है..
ReplyDeleteइसे आप के आलेख का जादू ही कहूँगा कि मैंने ख़ुद को उसी जगह मूर्त रूप में खड़ा हुआ महसूस किया जहाँ खड़े हो कर आप ने इस अनुभव को अपनी स्मृतियों में क़ैद किया होगा।
ReplyDeleteबहुत सुंदर आलेख,चित्र ....आपके इस सजीव लेखन ने कितनी ही बार घर बैठे ही न जाने कितनी यात्राएं करा दी हैं....आभार...
ReplyDeleteप्रकृति का सौंदर्य भी निराली होती है..इस के कण कण मे ईश्वर का वास होता है ..प्रकृति का अनुपम चित्रण ...
ReplyDeleteस्वभाव दोनों ही अपना यथावत रखते हैं, शायद यही है ’न दैन्यं न पलायनम’
ReplyDeleteप्रक्रति के हैं खेल अजब। बेहद सजीव चित्रण ...
ReplyDeleteनदी और सागर के मिलन का अद्भुत जीवंत चित्रण...
ReplyDeleteशानदार आलेख , पढ़कर चिंतन में मगन हैं.
ReplyDeleteचाँद ने हमेशा ही पृथ्वी निवासियों को आकर्षित किया है।
ReplyDeleteबहते पानी को देखकर मन के भाव भी बहने लगते हैं।
सुन्दर प्रस्तुति।
प्रकृति अद्भुत है।
ReplyDeleteहमारे अपने 'चाँद' भी तो कभी कभी हमारे नयनों से जल खींच कर बाहर कर देते हैं । यह उनके मन का ज्वार है जो जबरन इस तरह प्रेम प्रदर्शित कराता है ।
ReplyDeleteप्रकृति की प्रकृति तो कण कण में व्याप्त है ।
हमेशा की तरह आपका गद्य भी एक कविता है. हम कितना ही जोर लगालें प्रकृति अपने हिसाब से ही चलायेगी, जैसा कि आपने कहा प्रकृति के पास सारे गुर है. यह बात सच है. इसलिये हमें प्रकृति के अनुसार चलने में ही अपनी भलाई समझनी चाहिये. पर अफ़्सोस हम सारे प्राकृतिक नियम तोडने की कसम उठा चुके हैं, बहुत ही सुंदर आलेख.
ReplyDeleteरामराम.
किसी दृश्य को ऐसे देखने के लिये खुले मन कि आँखें चाहिए...
ReplyDeleteहमारे साथ इसे बाँटने के लिए धन्यवाद् ।
सागर से धरती का मिलन होता है तो रेत के किनारे निर्मित हो जाते हैं, सारे पाथर चकनाचूर हो जाते हैं। सागर का अपनी सहधर्मी नदी से मिलन होता है तो सीमाओं का खेल चलता रहता है। सागर का आकाश से मिलन होता है तो अनन्त निर्मित हो जाता है।
ReplyDelete..................................
क्या कहूं और कहने को क्या रह गया
बहुत बढ़िया....
ReplyDeleteऐसे ही नदी का सागर से मिलन गोवा में देख सकते हैं....
अजीब सा एहसास होता है वहां भी....
अनु
कभी कभी मौन मुखर होता है इस यज्ञशाला सा .बढ़िया अन्वेषण .
ReplyDeleteहर कोई अपने लक्ष्य (ईष्ट )को पा जाना चाहता है .हर नदी सागर तक नहीं पहुँच पाती है .प्रबंध
काव्य और प्रकरी में यही अंतर है .प्रकरी वह कथा है जिसका विस्तार नहीं हो पाता हैं प्रबंध काव्य
सा .
प्रकृति में जीवन-संचरण के अनेक रूप जो निरंतर गतिशील भी, जाने कब से चल रहा है और जाने कब तक चलेगा -हमलोग इस महालीला के दर्शक मात्र !
ReplyDeleteएक नदी जो मुझमे डूबी
ReplyDeleteआपकी लेखनी तो कमाल की है
प्रकृति और नदी का क्या वर्णन किया है
गजब
उत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई
आग्रह है पढ़ें "बूंद-"
http://jyoti-khare.blogspot.in
बेहद खूबसूरत ..नदी और सागर का विपरीत स्वभाव का होना फिर भी एक दूसरे में मिलना ..मन का चाँद समान होना..आप कवि अधिक लगे इस लेख में !
ReplyDeleteनदी का सागर से मिलन की जीवंत प्रस्तुति देख-पढ़कर लगा काश हम भी कभी यह नज़ारा अपनी आँखों से देख पाते ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख
ReplyDeleteहिन्दी तकनीकी क्षेत्र की रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारी प्राप्त करने के लिये एक बार अवश्य पधारें और टिप्पणी के रूप में मार्गदर्शन प्रदान करने के साथ साथ पर अनुसरण कर अनुग्रहित करें MY BIG GUIDE
नई पोस्ट एक अलग अंदाज में गूगल प्लस के द्वारा फोटो दें नया लुक
नदी का सागर मे विलय और विश्लेषण सम्पूर्ण ।
ReplyDeleteप्रकृति नटी का विश्लेष्ण प्रधान अन्वेषण और भाव राग है यह पोस्ट यूं कह लो यात्रा रिपोर्ताज बड़ा सजीव आँखों देखा हाल सा .दार्शनिक मुद्रा लिए .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर संस्मरणात्मक आलेख।
ReplyDeleteसजीव लेखन
बहुत सुन्दर संस्मरणात्मक आलेख।
ReplyDeleteसजीव लेखन
A poetic prose-enjoyed reading!
ReplyDeleteअभिभूत हूँ इस अद्भुत वर्णन को पढ कर । नदी और समुद्र के संगम का जैसा चित्रमय और सजीव चित्रण किया है लगता है हम स्वयं उपस्थित हैं । इस बहाने जीवन के कई अनबूझे से तथ्यों के विश्लेषण से और भी गंभीर बन गया है यह आलेख । धन्यवाद प्रवीण जी ।
ReplyDeleteअभिभूत हूँ इस अद्भुत वर्णन को पढ कर । नदी और समुद्र के संगम का जैसा चित्रमय और सजीव चित्रण किया है लगता है हम स्वयं उपस्थित हैं । इस बहाने जीवन के कई अनबूझे से तथ्यों के विश्लेषण से और भी गंभीर बन गया है यह आलेख । धन्यवाद प्रवीण जी ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुती। मेरे ब्लॉग http://santam sukhaya.blogspot.com पर आपका स्वागत है. अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराये, धन्यवाद
ReplyDeleteऐसा दृष्य देखने की अदम्य इच्छा है। इस पोस्ट और साथ के चित्रों ने बात को समझने में बडी मदद की।
ReplyDelete