एक मित्र महोदय से कहा कि इस नगर में कोई ऐसा स्थान बतायें जहाँ चार पाँच घंटे शान्तिपूर्वक मिल सकें, पूर्ण निश्चिन्तता में। मित्र महोदय संशय से देखने लगते हैं, आँखों में एक विनोदपूर्ण मुस्कान छा जाती है उनके। इस नगर में एकान्त की खोज के अर्थ बहुत अच्छे नहीं माने जाते हैं, कई युगल बाग़ों, बगीचों, मॉलों और त्यक्त राहों में एकान्त की खोज करने में प्रयत्नशील दिख जाते हैं। भविष्य के रोमांचित और प्रेमपूर्ण स्वप्नों का सृजन भीड़भाड़ वाले स्थानों पर हो भी नहीं सकता है, उसके लिये एक दूसरे पर एकांगी ध्यान देना होता है, हावों भावों को पढ़ना पड़ता है, कुछ न कुछ बनाते हुये बताना पड़ता है।
उनका अर्थ समझ कर कुछ बता पाता, उसके पहले उन्होंने मेरे बारे में पूरी फ़िल्म तैयार कर डाली। जैसा हमारी फ़िल्मों में होता है कि सोच कर कुछ और जाओ, निकलता कुछ और है, वही उनके साथ भी हुआ। हमने कहा कि यह समय लिखने के लिये चाहिये, एक सप्ताह में चार पाँच घंटे ऐसे मिल जायें तो न केवल साहित्यिक प्रतिबद्धताएँ पूरी होती रहेंगी वरन भविष्य के मार्ग भी दिखने लगेंगे। एकान्त में चिन्तनशीलता गहरे निष्कर्ष लेकर आती है, विषय स्पष्ट हो जाते हैं। व्यवधान से न केवल समय का आभाव हो जाता है वरन लेखन का तारतम्य भी टूट जाता है।
अब मित्र महोदय के मुख पर चिन्ता की रेखायें थीं, उन्हें लगा कि क्या घर में लेखन को लेकर कोई विरोध है, लेखन में वांछित सहयोग मिल पा रहा है या नहीं? बताया कि लिखने से श्रीमतीजी कभी नहीं रोकती हैं, न कभी कोई कटाक्ष भी करती हैं, प्रार्थना करने से चाय आदि बना कर मेज़ पर ही दे जाती हैं। बच्चे भी लेखन निमग्न पिता को छोटी छोटी बात के लिये नहीं टोकते हैं, समस्या गम्भीर होने तक की प्रतीक्षा कर लेते हैं। पड़ोसी भी अच्छे हैं, कभी ऊँचे स्वर में संगीत आदि नहीं बजाते हैं। हाँ, घर से थोड़ी दूर पर एक व्यस्त नगरमार्ग अवश्य है, जिसमें वाहनों के चलने की ध्वनियाँ घर में घुस आती हैं, पर वे ध्वनियाँ भी पंखे आदि उपकरणों के पार्श्व में छिप जाती हैं।
तब क्या समस्या है श्रीमानजी, आप तो बड़े सौभाग्यशाली हैं। इतिहास साक्षी है कि लेखकों ने सारे विरोधों के होते हुये भी इतना उत्कृष्ट लेखन किया है, पारिवारिक और सामाजिक अपेक्षाएँ को निभाते हुये भी रत्न प्रस्तुत किये हैं। क्या कारण है कि आप लेखन को लेकर इतने सुविधाभोगी हुये जा रहे हैं? कल कहेंगे कि एकान्त भी आपकी लेखकीय क्षमता नहीं उभार पा रहा है, आपको पहाड़ चाहिये, नदी चाहिये, सागर चाहिये। बंगलोर में झील और बाग़ तो मिल जायेंगे, पहाड़, नदी, सागर आदि कहाँ से लायेंगे? लेखकीय एकान्त में कल्पनालोक की बातें तो बतिया लेंगे, पर जीवन के सच अपना आधार खोने लगेंगे वहाँ। व्यस्त समाज में रह कर स्वस्थ लेखन कीजिये। क्या साहित्यिक रोगी की तरह एकान्त में स्वास्थ्य लाभ करने जाना चाहते हैं?
कितने निर्मल भावों से एकान्त की अभिलाषा जतलाई थी, अपने लेखकीय उद्यम के लिये, पर न जाने हमारे ऊपर कितनी विकृतियों का दोषारोपण कर दिया गया। कहीं कोई ऐसी अनूठी बात तो हमने की नहीं, सारे गम्भीर लेखक विषय पर स्वयं को केन्द्रित करने में एकान्त का सहारा लेते हैं, प्रकृति के विस्तारित सौन्दर्य का सहारा लेते हैं। एक बड़े लेखक के बारे में कहीं पढ़ रहा था कि उनके सुबह के तीन चार घंटे विशुद्ध चिन्तन और लेखन में बीतते हैं, मन का ध्यान और घनीभूत हो, इसलिये वे तीरंदाज़ी का भी अभ्यास करते हैं। हमने भी अपने खेल सचिव को तीरंदाज़ी की किट लेने के लिये कहा है, आशा है उससे लेखकीय उद्यम तनिक और गुणवत्ता भरा हो जायेगा।
उत्तम विचार बड़ा मानमनौव्वल करवाते हैं, उन्हें एकांगी ध्यान देकर मनाना पड़ता है, भीड़ भाड़ देखकर तो वे आते ही नहीं हैं। उन्हें अवतरित होने के लिये उपयुक्त वातावरण चाहिये। यद्यपि स्रोत ज्ञात नहीं होता है विचारों का, पर यह अनुभव अवश्य है कि जब मन की स्थिति अच्छी होती है तो भावों को शब्द मिलने लगते हैं। प्राचीन काल में ऋषि मुनि भी प्रणायाम और ध्यान से सशक्त हुये मन में विचारों को आमन्त्रित करते थे और सूक्तों की रचना करते थे। उनके विचारों की उत्कृष्टता भले ही न हमें लब्ध हो पर एकान्त में बैठ कर विचारों के आवागमन को समझने का प्रयास तो कर ही सकते हैं।
सूत्रबीज कई स्थान से प्राप्त हो जाते हैं, सर्वाधिक उपयुक्त स्थान चर्चायें हैं, सुधीजनों के संग। बात कोई स्वरूप लिये प्रारम्भ नहीं होती है, किसी छोटी से बात से गहरे विचारों में उतर जाती है। उनमें से कुछ बीज सूत्र बन चिन्तन में बस जाते हैं और एकान्त पा धीरे से निकलते हैं, विस्तारित होते हैं, कई शाखायें, कई संबंध, कई निष्कर्ष और कई उद्घाटन, न जाने किन किन रूपों में वे सूत्रबीज बिखर जाते हैं। सूत्रबीज फिर भी नष्ट नहीं होते हैं, भविष्य के लिये सुरक्षित हो जाते हैं, आगामी सूत्रबीजों के साथ इन्द्रधनुष सा फैल जाते हैं, विचारों के विस्तृत वितानों में।
सूत्रबीज अनुभव से मिलते हैं, बच्चों के निर्मल व्यवहार से मिलते हैं, प्रकृति के विस्तार से मिलते हैं, और भी न जाने कितने स्रोत हैं उनके। उस समय हम बस ग्रहण करते हैं, कुछ भी अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं। उन सबको समाहित करने और संश्लेषित कर व्यक्त करने के लिये एकान्त चाहिये। विचारों को मथना पड़ता है, संभावनायें पाने तक थकना पड़ता है।
थोड़ी और बात करने पर मित्र महोदय ने बताया कि उनका पर्याप्त लेखन एक होटल की खुली छत पर हुआ है। सायं समय मिलने पर वहाँ चले जाते थे, अधिक लोग वहाँ नहीं आते थे, आसपास गमले में लगे पेड़ पौधे, शीतल मंद पवन, वाहनों का स्वर ६ तल नीचे छूटता हुआ और ऊपर खुला विस्तृत आकाश। एक पूरा वातावरण मिलता था वहाँ, एकान्त और प्रवाह प्रधान। एक चाय, वेटर भी आपको समय और स्वतन्त्रता देते हुये, तब दो घंटे के बाद सृजित साहित्य के सहस्र शब्द। मुझे कल्पना भर कर लेने से ही एक प्रतियोगितात्मक ईर्ष्या हो आयी, काश मुझे भी कोई ऐसा स्थान मिल गया होता। एक दो बार कॉफ़ी डे में ध्यानस्थ होने का निष्फल प्रयास कर चुका हूँ, युगलों की व्यस्तताओं और व्यग्रताओं ने हर बार ध्यान भंग कर दिया।
आप अपने मानसिक विलास के लिये कौन सा स्थान ढूंढ़ते हैं, अपने घर में क्या उतना फैल कर लेखन कर पाते हैं? यदि हाँ, तो ज्ञान की कुछ फुहारें हम पर भी बरसा दीजिये।