एक दिन देवेन्द्र जी ने एक कहानी सुनायी जो बचपन में उनके पिताजी ने सुनायी थी। कहानी सुनने के बाद ही उसका आशय स्पष्ट हो पायेगा। आप भी सुनिये और उसमें निहित संकेतों को समझने को प्रयास करिये।
एक नवविवाहिता विवाह के पश्चात अपने गाँव पहुँची। दिन भर सब बहू देखने आये। घर के लोगों में आत्मीयता कूट कूट कर भरी थी, सबने बड़ा प्यार दिया। गाँव के लोग भी बहुत सज्जन थे, सबने बड़ा मान दिया, आशीर्वाद दिया और कहीं कोई भी कमी नहीं होने दी। सायं का समय आया तो सास ने बहू से कहा कि बेटी शीघ्र ही स्नान ध्यान कर भोजन बना ले, सब लोग सूर्यास्त के पहले ही भोजन कर के तैयार हो जाते हैं। बहू ने पहले सोचा कि कोई विशेष परम्परा होगी, जैन मतावलम्बियों की तरह, कि कहीं अँधेरे में कोई जीव भोजन के साथ ही ग्रास न बन जाये। जहाँ तक ज्ञात था तो ऐसी कोई कारण नहीं था। परिवार ही नहीं वरन पूरे गाँव में एक विशेष शीघ्रता दिखायी दी, लगा आज कोई उत्सव होगा रात में, इसीलिये भोजन शीघ्र ही निपटाने का उपक्रम हो रहा है। जब बहू से उत्सुकता न सही गयी तो उसने धीरे से अपने पति को बुलाया और पूछा कि मुझे इतने शीघ्र भोजन करने का औचित्य समझ नहीं आ रहा है।
पति ने पत्नी को तनिक आश्चर्य और करुणा के भाव से देखा, मानो आँखें यह पूछ रही हों कि इतनी सीधी बात से अनभिज्ञ है, उसकी प्यारी पत्नी। जब आँखों ने अधिकार जता लिया तब पति ने बताना प्रारम्भ किया। देखो, अभी थोड़ी देर में अँधेरा भर आयेगा और वह सूरज को ढक लेगा और ढकेगा भी इतना गाढ़ा कि सूरज निराश होकर चला जायेगा। हमारा गाँव इस समस्या से जूझने को सदा ही तत्पर रहता है। हम सब अपना सारा कार्य दिन में ही कर लेते हैं, यही नहीं पर्याप्त विश्राम भी कर लेते हैं। रात आते ही सब तैयार होकर अपने घर पहुँच जाते हैं। जिसकी जितनी सामर्थ्य है वह उसी के अनुसार कोई पात्र उठा लेता है, यहाँ तक कि बच्चे भी छोटी कटोरी लेकर तैयार हो जाते हैं। उसके बाद हम लोग रात भर अँधेरा बाहर निकालते रहते हैं। रात भर श्रम करने के बाद जब सारा अँधेरा बाहर निकल जाता है तब कहीं सूरज लौट कर वापस आता है और तब कहीं जाकर सुबह होती है।
इतना श्रमशील परिवार और गाँव देख कर नवविवाहिता अभिभूत हो गयी, उसकी आँखों में आँसू छलक आये। उसने कहा कि आप लोगों ने अब तक बड़ा श्रम कर लिया है, अब सारा उत्तरदायित्व मेरा है, अब मैं रात भर अँधेरा बाहर फेकूँगी। आप सब सबने बड़ा समझाया कि बिटिया कि तुम अभी बड़ी कोमल हो और यह अँधेरा बड़ा ही उद्दण्ड, रात भर तुम थक भी जाओगी, अँधेरा निकलेगा भी नहीं, सुबह नहीं हो पायेगी। सबने सोचा कि नवविवाहिता ने भावनात्मक होकर यह कार्य ले लिया है, पता नहीं क्या होगा, एक दिन का उत्साह है, अगले दिन से उत्साह ठण्डा पड़ जायेगा, जीवन का क्रम वैसे ही चलने लगेगा। जब बहू ने इतनी आत्मीयता दिखायी है तो उसे अवसर देना तो बनता है।
पहले दिन बहू के सहारे घर को छोड़कर सब सो गये, थोड़ी देर बाद बहू भी सो गयी, सबके पहले उठ भी गयी, सूरज निकल आया, सबको बहू की क्षमता पर विश्वास हो आया। धीरे धीरे रात में अँधेरा फेंकने का उपक्रम बन्द हो गया, रात का समय सोने के लिये उपयोग में आने लगा, दिन में कार्य होने लगा। एक रात बहू ने दिये की बाती बनायी, एक छोटे से दिये में तेल डाला और रात में उसे जला कर घर में सजा दिया, अँधेरा रात में ही भाग गया, घर के बाहर रहा पर घर के अन्दर पुनः नहीं आया।
कहानी बड़ी सरल है, सुनने के बाद हँसी में भी उड़ाया जा सकता है इसे। अपने आप सुबह आने वाली और दिये से अंधकार दूर होने वाली बात इतनी सहज है कि उसे कोई न समझे तो हँसी आने वाली बात लगती है। पर यह केवल एक उदाहरण है, अँधेरे को बाहर फेकने वाली मानसिकता दिखाने का और साथ में यह भी दिखाने का कि किस तरह सूरज की अनुपस्थिति में अंधकार भगाया जा सकता है।
संभवतः देवेन्द्रजी के पिताजी ने यह कहानी श्रम में स्वयं को झोंक देने के पहले पर्याप्त समझ विकसित करने की शिक्षा देने के लिये सुनायी है। सच भी है कि बिना पर्याप्त ज्ञान के और विषयगत समझ के किसी कार्य में स्वयं को झोंक देना तो मूर्खता ही है। यह भी एक स्वीकृत तथ्य है कि कभी कभी अपनी कार्यप्रणाली पर विचार करते करते कई ऐसे माध्यम निकल आते हैं जिससे सब कुछ सरल और सहज हो जाता है। मानवजगत का इतिहास देखें तो पहले मैराथन धावकों से अपने संदेश भेजने वाली मानव सभ्यता आज वीडियो चैटिंग कर लेती है।
मुझे इस कहानी का सर्वाधिक प्रभावित करने वाला पक्ष लगता है, स्वयं के अन्दर उन प्रवृत्तियों को ढूढ़ना जिन्हें हम अँधेरे फेकने की तरह पाते हैं। अपने द्वारा करने वाले हर प्रयास और श्रम को देखें, दो विश्लेषण करें। पहला तो यह देखें कि वह श्रम जिसके लक्ष्य के लिये किया जा रहा है, वह स्वयं तो होने वाला नहीं है, इस कहानी में आने वाली हर सुबह की तरह। बहुधा हम सब स्वतः हो जाने वाले कार्यों में कार्य करते हुये दिखते हैं और जब कार्य हो जाता है तब उसका श्रेय लेने बैठ जाते हैं। यही नहीं कभी कभी आवश्यकता से अधिक लोग कार्य में लगे होते हैं, जहाँ कम से ही कार्य हो जाता है, अधिक लोग या तो कार्य में व्यवधान उत्पन्न करते हैं या अकर्मण्यता का वातावरण बनाते हैं। दूसरा विश्लेषण इस बात का हो, क्या वही कार्य करने की कोई और विधि है जिससे वह कार्य कम श्रम सें हो जाये। न जाने कितने ऐसे कार्य हैं जो हम पुराने घिसे पिटे ढंग से करते रहते हैं, कभी सोचते ही नहीं हैं कि कोई दूसरी विधि अपनायी जा सकती है।
कुछ लोगों को कोई भी कार्य तामझाम से करने में अपार सुख मिलता है, मुझे एक भी अतिरिक्त अंश दंश सा लगता है, हर प्रक्रिया को सपाट और न्यूनतम स्तरों पर ले आने पर ही चैन आता है। प्रक्रिया का आकार न्यूनतम रखने से न केवल उसमें गति आती है वरन पारदर्शिता भी बढ़ती है। आईटी ने एक दिशा दिखायी है पूरे विश्व को सपाट बनाने में, मुझे भी वही दिशा भाती है। उदाहरण उपस्थित हैं यह सिद्ध करने में कि जहाँ पर भी हमने आईटी को अपनाया है, जीवन को और अधिक सुखमय बनाया है।
जीवन के कुछ क्षेत्र ऐसे होते हैं, जहाँ प्रक्रियायें स्वतः होती हैं, उन्हें होने देना चाहिये, वहाँ हमारे होने या न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला। कर्ता होने का भाव पाने से अच्छा है कि रात भर सोयें और सुबह होने दें। सुबह उठें और तब सार्थक कार्यों में ध्यान लगायें। मुझे तो बहू के स्वभाव से भी सीख मिली, अपनी विद्वता का ढोल पीट कर और अपने परिवार के अज्ञान की बधिया उधेड़ कर अपनी बात कहने की अपेक्षा सहज भाव से अपना मन्तव्य साध लिया। विद्वानों और तर्कशास्त्रियों को यह समाजशास्त्र भी सीखना होगा। विद्वता यदि आनन्दमय न रही तो अँधेरा फेंकना का कार्य तो विद्वान भी कर बैठते हैं। आप भी सोचिये और अपने जीवन से अँधेरे फेंकने जैसे कार्यों को निकाल फेंकिये।
एक नवविवाहिता विवाह के पश्चात अपने गाँव पहुँची। दिन भर सब बहू देखने आये। घर के लोगों में आत्मीयता कूट कूट कर भरी थी, सबने बड़ा प्यार दिया। गाँव के लोग भी बहुत सज्जन थे, सबने बड़ा मान दिया, आशीर्वाद दिया और कहीं कोई भी कमी नहीं होने दी। सायं का समय आया तो सास ने बहू से कहा कि बेटी शीघ्र ही स्नान ध्यान कर भोजन बना ले, सब लोग सूर्यास्त के पहले ही भोजन कर के तैयार हो जाते हैं। बहू ने पहले सोचा कि कोई विशेष परम्परा होगी, जैन मतावलम्बियों की तरह, कि कहीं अँधेरे में कोई जीव भोजन के साथ ही ग्रास न बन जाये। जहाँ तक ज्ञात था तो ऐसी कोई कारण नहीं था। परिवार ही नहीं वरन पूरे गाँव में एक विशेष शीघ्रता दिखायी दी, लगा आज कोई उत्सव होगा रात में, इसीलिये भोजन शीघ्र ही निपटाने का उपक्रम हो रहा है। जब बहू से उत्सुकता न सही गयी तो उसने धीरे से अपने पति को बुलाया और पूछा कि मुझे इतने शीघ्र भोजन करने का औचित्य समझ नहीं आ रहा है।
पति ने पत्नी को तनिक आश्चर्य और करुणा के भाव से देखा, मानो आँखें यह पूछ रही हों कि इतनी सीधी बात से अनभिज्ञ है, उसकी प्यारी पत्नी। जब आँखों ने अधिकार जता लिया तब पति ने बताना प्रारम्भ किया। देखो, अभी थोड़ी देर में अँधेरा भर आयेगा और वह सूरज को ढक लेगा और ढकेगा भी इतना गाढ़ा कि सूरज निराश होकर चला जायेगा। हमारा गाँव इस समस्या से जूझने को सदा ही तत्पर रहता है। हम सब अपना सारा कार्य दिन में ही कर लेते हैं, यही नहीं पर्याप्त विश्राम भी कर लेते हैं। रात आते ही सब तैयार होकर अपने घर पहुँच जाते हैं। जिसकी जितनी सामर्थ्य है वह उसी के अनुसार कोई पात्र उठा लेता है, यहाँ तक कि बच्चे भी छोटी कटोरी लेकर तैयार हो जाते हैं। उसके बाद हम लोग रात भर अँधेरा बाहर निकालते रहते हैं। रात भर श्रम करने के बाद जब सारा अँधेरा बाहर निकल जाता है तब कहीं सूरज लौट कर वापस आता है और तब कहीं जाकर सुबह होती है।
इतना श्रमशील परिवार और गाँव देख कर नवविवाहिता अभिभूत हो गयी, उसकी आँखों में आँसू छलक आये। उसने कहा कि आप लोगों ने अब तक बड़ा श्रम कर लिया है, अब सारा उत्तरदायित्व मेरा है, अब मैं रात भर अँधेरा बाहर फेकूँगी। आप सब सबने बड़ा समझाया कि बिटिया कि तुम अभी बड़ी कोमल हो और यह अँधेरा बड़ा ही उद्दण्ड, रात भर तुम थक भी जाओगी, अँधेरा निकलेगा भी नहीं, सुबह नहीं हो पायेगी। सबने सोचा कि नवविवाहिता ने भावनात्मक होकर यह कार्य ले लिया है, पता नहीं क्या होगा, एक दिन का उत्साह है, अगले दिन से उत्साह ठण्डा पड़ जायेगा, जीवन का क्रम वैसे ही चलने लगेगा। जब बहू ने इतनी आत्मीयता दिखायी है तो उसे अवसर देना तो बनता है।
कहानी बड़ी सरल है, सुनने के बाद हँसी में भी उड़ाया जा सकता है इसे। अपने आप सुबह आने वाली और दिये से अंधकार दूर होने वाली बात इतनी सहज है कि उसे कोई न समझे तो हँसी आने वाली बात लगती है। पर यह केवल एक उदाहरण है, अँधेरे को बाहर फेकने वाली मानसिकता दिखाने का और साथ में यह भी दिखाने का कि किस तरह सूरज की अनुपस्थिति में अंधकार भगाया जा सकता है।
संभवतः देवेन्द्रजी के पिताजी ने यह कहानी श्रम में स्वयं को झोंक देने के पहले पर्याप्त समझ विकसित करने की शिक्षा देने के लिये सुनायी है। सच भी है कि बिना पर्याप्त ज्ञान के और विषयगत समझ के किसी कार्य में स्वयं को झोंक देना तो मूर्खता ही है। यह भी एक स्वीकृत तथ्य है कि कभी कभी अपनी कार्यप्रणाली पर विचार करते करते कई ऐसे माध्यम निकल आते हैं जिससे सब कुछ सरल और सहज हो जाता है। मानवजगत का इतिहास देखें तो पहले मैराथन धावकों से अपने संदेश भेजने वाली मानव सभ्यता आज वीडियो चैटिंग कर लेती है।
मुझे इस कहानी का सर्वाधिक प्रभावित करने वाला पक्ष लगता है, स्वयं के अन्दर उन प्रवृत्तियों को ढूढ़ना जिन्हें हम अँधेरे फेकने की तरह पाते हैं। अपने द्वारा करने वाले हर प्रयास और श्रम को देखें, दो विश्लेषण करें। पहला तो यह देखें कि वह श्रम जिसके लक्ष्य के लिये किया जा रहा है, वह स्वयं तो होने वाला नहीं है, इस कहानी में आने वाली हर सुबह की तरह। बहुधा हम सब स्वतः हो जाने वाले कार्यों में कार्य करते हुये दिखते हैं और जब कार्य हो जाता है तब उसका श्रेय लेने बैठ जाते हैं। यही नहीं कभी कभी आवश्यकता से अधिक लोग कार्य में लगे होते हैं, जहाँ कम से ही कार्य हो जाता है, अधिक लोग या तो कार्य में व्यवधान उत्पन्न करते हैं या अकर्मण्यता का वातावरण बनाते हैं। दूसरा विश्लेषण इस बात का हो, क्या वही कार्य करने की कोई और विधि है जिससे वह कार्य कम श्रम सें हो जाये। न जाने कितने ऐसे कार्य हैं जो हम पुराने घिसे पिटे ढंग से करते रहते हैं, कभी सोचते ही नहीं हैं कि कोई दूसरी विधि अपनायी जा सकती है।
कुछ लोगों को कोई भी कार्य तामझाम से करने में अपार सुख मिलता है, मुझे एक भी अतिरिक्त अंश दंश सा लगता है, हर प्रक्रिया को सपाट और न्यूनतम स्तरों पर ले आने पर ही चैन आता है। प्रक्रिया का आकार न्यूनतम रखने से न केवल उसमें गति आती है वरन पारदर्शिता भी बढ़ती है। आईटी ने एक दिशा दिखायी है पूरे विश्व को सपाट बनाने में, मुझे भी वही दिशा भाती है। उदाहरण उपस्थित हैं यह सिद्ध करने में कि जहाँ पर भी हमने आईटी को अपनाया है, जीवन को और अधिक सुखमय बनाया है।
जीवन के कुछ क्षेत्र ऐसे होते हैं, जहाँ प्रक्रियायें स्वतः होती हैं, उन्हें होने देना चाहिये, वहाँ हमारे होने या न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला। कर्ता होने का भाव पाने से अच्छा है कि रात भर सोयें और सुबह होने दें। सुबह उठें और तब सार्थक कार्यों में ध्यान लगायें। मुझे तो बहू के स्वभाव से भी सीख मिली, अपनी विद्वता का ढोल पीट कर और अपने परिवार के अज्ञान की बधिया उधेड़ कर अपनी बात कहने की अपेक्षा सहज भाव से अपना मन्तव्य साध लिया। विद्वानों और तर्कशास्त्रियों को यह समाजशास्त्र भी सीखना होगा। विद्वता यदि आनन्दमय न रही तो अँधेरा फेंकना का कार्य तो विद्वान भी कर बैठते हैं। आप भी सोचिये और अपने जीवन से अँधेरे फेंकने जैसे कार्यों को निकाल फेंकिये।
अच्छा ज्ञान है!
ReplyDeleteअगर अँधेरा फेंक ही दिया ,फिर वह कहीं उड़ेगा ,कहीं गिरेगा और अंततः अभिशापित करेगा .....क्यों नहीं हम एक सूरज उगा लें ,अँधेरा तिरोहित हो जाये सदा के लिए ....
ReplyDelete'रिक्तता' की रिक्तता को पूर्ण करने के प्रयास में हम और रिक्त होते जाते हैं । जबकि रिक्तता पर ध्यान न देकर सारा श्रम केवल पूर्णता को प्राप्त करने में ही लगाया जाना चाहिए ।
ReplyDeleteज्ञान बढ़ाती सुन्दर कहानी ।
निर्वचनीय आलेख..
ReplyDeleteउचित ज्ञान के बिना किया गया श्रम व्यर्थ जाता है .अपनी उर्जा सकारात्मक कार्यों में लगानी चाहिए , ना की बर्बाद की जाय ...हमको यह शिक्षा प्राप्त हुई !
ReplyDeleteरोचक कथा , सार्थक सन्देश !
कहानी और आपके विचार एक व्यावहारिक और अर्थपूर्ण सीख प्रस्तुत का रहे हैं , आभार
ReplyDeleteसुन्दर कथा और सुन्दर विचार . समुचित ज्ञान के साथ किया प्रयास ही सार्थक हो सकता है .
ReplyDeleteकिसी परंपरा को खींचते रहने से अच्छा है नये ज्ञान और अनुभव के आधार पर उसकी समीक्षा कर उपयोगिता निर्धारित करना.
ReplyDeleteबहू समझदार निकली, बिना किसी की बेवकूफी बताये सब कुछ ठीक कर लिया ! :)
ReplyDeleteहमें और अनूप भाई को भी ज्ञान मिल गया ...
ज्ञान भाई पता नहीं कहाँ हैं ??
सुन्दर कथा ....बुद्धि के साथ विवेक होना ....सकारात्मकता का होना अत्यंत आवश्यक है ...!!
ReplyDeleteरोचक कथा , सार्थक सन्देश।
ReplyDeleteदो विश्लेषण आवश्यक हैं , कहानी के जरिये अपनी बात को कहना हमेशा ही उस बात के वजन को बढाता है |
ReplyDeleteसादर
कथा एवं विवेचना दोनों उत्कृष्ट हैं.
ReplyDeletelaxmirangam.blogspot.in
सर जी बहुत खूब | प्रगति और कार्य में नुकशान कम होने चाहिए | अन्यथा ......
ReplyDeleteअज्ञान पर निर्भर निर्थक श्रम!!
ReplyDeleteविभिन्न कोणों से प्रेरणा प्रदान करती उत्कृष्ट बोध कथा!!
हम अक्सर अपनी कमियों व त्रृटियों का निर्थक रोना रोते रहते है, समाधान काल सापेक्षित भी होता है। अंधेरा दूर करने में सूर्य समर्थ है, सूर्य काल का पाबंद है।
सूर्य का उदय होना नियति है। समय का अनुशासन काल नियत है। आसमान का साफ होना, घना होना परिस्थिति पर निर्भर है। निश्चिंत हो सोना प्रारब्ध है और सूर्योदय के समय जागना पुरूषार्थ के अधीन्।
लकीर के फ़क़ीर बन्ने की अपेक्षा आज क्या सार्थक है किया जाय ।
ReplyDeleteबिना व्यंग सुंदर सीख देता लेख ....
ReplyDeleteशुभकामनायें!
बेहद प्रेरणादायक काहानी है...
ReplyDeleteप्रेरणा देती,बहुत उम्दा उत्कृष्ट ज्ञान का बोध कराती सुंदर कथा !!!
ReplyDeleteRECENT POST: जुल्म
कहानी पुरानी है, अंदाज नया है, बेहद रोचक और ज्ञानवर्धक। हम सब ऐसे ही अंधेरों से लड़ने में अपनी अधिकांश ऊर्जा जाया कर देते है और सचमुच जिन अंधेरों से लड़ना लड़ना चाहिए , उन्हें बढ़ाते रहते हैं।
ReplyDeleteऐसे बेवकूफ कि जो रात भर अँधेरे को बाहर फेंकते रहे, हिन्दुस्तान में पैदा नहीं हो सकते :) हम तो ज्ञानी मुनियों के बंशज है, इसलिए हमने सब कुछ पहले से ही भगवान् के भरोसे छोड़ रखा है। अन्दर आ गया तो क्या हुआ , जैसे आया है वैसे ही चला भी जाएगा, खाम खा अपना दिमाग तचा के फायदा ? :)
ReplyDeleteअन्दर की जगह कृपया अन्धेरा पढ़े !
Deleteपनी विद्वता का ढोल पीट कर और अपने परिवार के अज्ञान की बधिया उधेड़ कर अपनी बात कहने की अपेक्षा सहज भाव से अपना मन्तव्य साध लिया।................सार्थकतापूर्ण वाक्य।
ReplyDelete.सार्थक प्रस्तुति ह्रदय को छू गयी आपकी कहानी आभार आ गयी मोदी को वोट देने की सुनहरी घड़ी .महिला ब्लोगर्स के लिए एक नयी सौगात आज ही जुड़ें WOMAN ABOUT MANजाने संविधान में कैसे है संपत्ति का अधिकार-1
ReplyDeleteअपनी विद्वता का ढोल पीट कर और अपने परिवार के अज्ञान की बधिया उधेड़ कर अपनी बात कहने की अपेक्षा सहज भाव से अपना मन्तव्य साध लिया। ... बिल्कुल सही कहा आपने इस पंक्ति में ..बहुत ही सार्थक एवं सशक्त प्रस्तुति
ReplyDeleteआभार
कहानी अच्छी है
ReplyDeleteश्रम भी एक निर्देशित सौद्देश्य निवेश है .बिना बूझे किया गया श्रम अज्ञान प्रेरित रहता है .अँधेरे का भय अज्ञान जानती ही है .रात के बाद सवेरा होना शाश्वत सत्य है .सूरज कहीं खो नहीं जाता है ऐसी ही भूल चर्च भी करता रहा है .पृथ्वी को विश्व का केंद्र बताकर जबकि दिन रात का बनना पृथ्वी की गति का ही परिणाम है .दर्शन लिए रहती है आपकी हर पोस्ट .प्रोद्योगिकी का तड़का भी .
ReplyDeleteपतंजलि योगसूत्र भी कहता है..प्रयत्न शैथिल्यं..अनंत समाप्ति..सहज हुए सब होता जाये..
ReplyDeleteबिना पर्याप्त ज्ञान के और विषयगत समझ के किसी कार्य में स्वयं को झोंक देना तो मूर्खता ही है
ReplyDelete@ सत्य वचन
interesting and informative..
ReplyDeletemade me think on so many notes
सुन्दर आलेख. पूर्णत सहमत हूँ कि बिना पर्याप्त ज्ञान और क्षमता के खुद को नहीं झोंकना चाहिए.
ReplyDelete"अपनी विद्वता का ढोल पीट कर और अपने परिवार के अज्ञान की बधिया उधेड़ कर अपनी बात कहने की अपेक्षा सहज भाव से अपना मन्तव्य साध लिया। "
ReplyDeleteयह बड़ी सीख है कहानी की !
सार्थक सन्देश देती सुन्दर रोचक कथा ..आभार
ReplyDeleteकहानी तो कहानी है । उसका विश्लेषण बहुत बढिया है ।
ReplyDeleteकहानी उसका उम्दा विश्लेषण और इससे मिलने वाली शिक्षा मन को अभिभूत कर रही है |आभार सर |
ReplyDeleteसुंदर कथा के माध्यम से सुंदर सन्देश और सुंदर विवेचना.
ReplyDeleteबेहद सुंदर कथा और उतनी ही सुंदर सीख भी....
ReplyDeleteज्ञान दीपक से ही हिन्दुस्तान में अन्धेरा निकलेगा .
ReplyDeleteमन का अंधेरा खुद ही दूर किया जाता है ...
ReplyDeleteया तो अंधेरा बाहर फैंक के या दिया जलाके ... सुन्दर कथा ओर उसपे आपका सार्थक टीका ....
प्रोएक्टिव एक्शन की अवधारणा से भारत वाकिफ ही नहीं है .पुलिस नेताओं की चौकसी में लगी हुई है .लास वेगास में मैं ने देखा पुलिस बाकायदा वीडिओकमरा लिए रहती है सबूत की ज़रुरत ही नहीं पड़ती .तुरत दान महाकल्याण .ईराक पर हमला प्रोएक्तिव एक्शन था और ओसामा बिन लादेन को उसकी मांद में जाके मारना भी .
ReplyDeleteदिन के बाद रात आती ही रात के बाद दिन यह सृष्टि चक्र है .इटरनल साइकिल है समय की अनवरत स्वयंप्रेरित एक आयामी यात्रा है सदा आगे की ओर .भूत और भविष्य का चिंतन नहीं है यहाँ .
भूतकाल का चिंतन आदमी को भूत बना देता है और भविष्य का चिंतन खाई में धकेल देता है एक कथा है -एक व्यक्ति जंगली जानवरों से घिर गया .जान बचाने के लिए भागा .भागता गया .पीछे शेर भगा रहा था उसके .आखिर एक खाई आ गई .सामने पेड़ दिखा .चेरी का पेड़ वह उसी पर चढ़ गया .सोचा अब क्या करूँ .आगे खाई ,पीछे शेर .उसने देखा पेड़ पे पकी हुई चेरी लगीं हैं वह खाने लगा ,खाता गया .चेरी से चीयर पैदा हुई .वह पेड़ वर्तमान है पीछे (भूतकाल है पास्ट है )शेर है आगे (भविष्य )बोले तो खाई .सो भाई वर्तमान में मग्न रहो .ज्ञान ज्योति जलाओ ,अन्धकार मिटाओ .
प्रोएक्टिव एक्शन की अवधारणा से भारत वाकिफ ही नहीं है .पुलिस नेताओं की चौकसी में लगी हुई है .लास वेगास में मैं ने देखा पुलिस बाकायदा वीडिओकमरा लिए रहती है सबूत की ज़रुरत ही नहीं पड़ती .तुरत दान महाकल्याण .ईराक पर हमला प्रोएक्तिव एक्शन था और ओसामा बिन लादेन को उसकी मांद में जाके मारना भी .
ReplyDeleteदिन के बाद रात आती ही रात के बाद दिन यह सृष्टि चक्र है .इटरनल साइकिल है समय की अनवरत स्वयंप्रेरित एक आयामी यात्रा है सदा आगे की ओर .भूत और भविष्य का चिंतन नहीं है यहाँ .
भूतकाल का चिंतन आदमी को भूत बना देता है और भविष्य का चिंतन खाई में धकेल देता है एक कथा है -एक व्यक्ति जंगली जानवरों से घिर गया .जान बचाने के लिए भागा .भागता गया .पीछे शेर चला आ रहा था उसके .आखिर एक खाई आ गई .सामने पेड़ दिखा .चेरी का पेड़ वह उसी पर चढ़ गया .सोचा अब क्या करूँ .आगे खाई ,पीछे शेर .उसने देखा पेड़ पे पकी हुई चेरी लगीं हैं वह खाने लगा ,खाता गया .चेरी से चीयर पैदा हुई .वह पेड़ वर्तमान है पीछे (भूतकाल है पास्ट है )शेर है आगे (भविष्य )बोले तो खाई .सो भाई वर्तमान में मग्न रहो .ज्ञान ज्योति जलाओ ,अन्धकार मिटाओ .
प्रोएक्टिव एक्शन की अवधारणा से भारत वाकिफ ही नहीं है .पुलिस नेताओं की चौकसी में लगी हुई है .लास वेगास में मैं ने देखा पुलिस बाकायदा वीडिओकमरा लिए रहती है सबूत की ज़रुरत ही नहीं पड़ती .तुरत दान महाकल्याण .ईराक पर हमला प्रोएक्तिव एक्शन था और ओसामा बिन लादेन को उसकी मांद में जाके मारना भी .
ReplyDeleteदिन के बाद रात आती ही रात के बाद दिन यह सृष्टि चक्र है .इटरनल साइकिल है समय की अनवरत स्वयंप्रेरित एक आयामी यात्रा है सदा आगे की ओर .भूत और भविष्य का चिंतन नहीं है यहाँ .
भूतकाल का चिंतन आदमी को भूत बना देता है और भविष्य का चिंतन खाई में धकेल देता है एक कथा है -एक व्यक्ति जंगली जानवरों से घिर गया .जान बचाने के लिए भागा .भागता गया .पीछे शेर चला आ रहा था उसके .आखिर एक खाई आ गई .सामने पेड़ दिखा .चेरी का पेड़ वह उसी पर चढ़ गया .सोचा अब क्या करूँ .आगे खाई ,पीछे शेर .उसने देखा पेड़ पे पकी हुई चेरी लगीं हैं वह खाने लगा ,खाता गया .चेरी से चीयर पैदा हुई .वह पेड़ वर्तमान है पीछे (भूतकाल है पास्ट है )शेर है आगे (भविष्य )बोले तो खाई .सो भाई वर्तमान में मग्न रहो .ज्ञान ज्योति जलाओ ,अन्धकार मिटाओ .
स्पैम टिपण्णी खा रहा है .
ReplyDeleteप्रेरणादाई कहानी ,तार्किक विवेचना
ReplyDeleteअर्थशास्त्र का नियम भी यही कहता है कम से कम स्रोत का अधिक से अधिक उपयोग।
ReplyDeleteबहुउपयोगी कहानी की बहुआयामी शिक्षा, आखिरी पैरा मास्टर स्ट्रोक है।
ReplyDeleteलेकिन नयी पीढी तो रात भर जागकर, अंधेरों से लड़ती है और दिन में सूरज को धता बता देती है। इस पीढी का क्या करें? ये पीढी आई टी वाली ही है। अनावश्यक प्रकृति के विरोध में चलती है और शरीर से जूझती रहती है।
ReplyDeleteबेहद सुंदर कथा
ReplyDeletethis is nice story
ReplyDeleteइस कथा के माध्यम से प्रयास,सहयोग,और प्राकृतिक नियम के उपाय - सबकुछ सामने आये हैं
ReplyDeleteछोट कोशिशें ही बड़ी चीजों का आधार बनती हैं.
ReplyDeleteप्रसंगों के साथ विचार को जोड़ने की कला कोई आपसे सीखे।
ReplyDeleteबहुत सार्थक और प्रभावी सन्देश...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज बुधवार (10-04-2013) के "साहित्य खजाना" (चर्चा मंच-1210) पर भी होगी! आपके अनमोल विचार दीजिये , मंच पर आपकी प्रतीक्षा है .
सूचनार्थ...सादर!
ReplyDeleteग्यान और श्रम का समन्यव होना आवश्यक है
कार्य की सार्थकता के लिये.
प्रेरणा-वर्धक कहानी.
प्रेरणादायक सार्थक और प्रभावी सन्देश.
ReplyDelete"जीवन स्वाभाविक और स्वतःस्फूर्त परिवर्तनों की एक शृंखला क्या है. उन्हें रोकिए मत. उससे केवल दुख उत्पन्न होगा. चीजों को स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ने दीजिए, चाहे जिस दिशा में वे जा रही हों. हम दुनिया को गलत तरीके से पढ़ते हैं और फिर कहते हैं कि इसमें धोखा है। "