20.4.13

अकेला

आज जीवन के समर में, खड़ा हूँ बिल्कुल अकेला,
पक्ष में मेरे भी मैं हूँ, और विरोधी भी स्वयं ही,
पन्थ का पन्थी भी मैं हूँ, और विकट तृष्णा भी मैं,
स्वयं को ही नियत करना, उचित क्या है, क्या सही है,
फँसी निश्चय-नाव मेरी, किन्तु तर्कों के भँवर में ।

है अभीप्सित शान्ति लेकिन, यह विचारों की हवा है,
बदलती है दावानल में, जो व्यथा अंगार को ।

40 comments:

  1. ...यह समय भी आगे बढ़ेगा,
    रास्ते होंगे नये।
    तुम नहीं होगे अकेले
    कारवाँ मिल जायेगा।।

    ReplyDelete
  2. यही तो दर्शाता है कि मानव और बाकी प्राणियों में अन्तर है. मानवीय संवेदनायें और सोचने की प्रवृति ही सबसे अलग करती है मनुष्य को.

    ReplyDelete
  3. शानदार अभिव्क्ति

    ReplyDelete
  4. स्वयं से जूझने की पीड़ा.... आप इसे शब्दों में बाँध पाए

    ReplyDelete
  5. जो स्वयं को जाँच ले
    जीत उसी की होती है
    जीवन एक रण है
    जीवन एक समर है
    बस बढ़े चलो बढ़े चलो... मंजिल स्वयं मिल जायेगी

    ReplyDelete
  6. मंगलवार 07/05/2013को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं ....
    आपके सुझावों का स्वागत है ....
    धन्यवाद .... !!

    ReplyDelete
  7. जीवन में घूप भी आ ही जाती है

    ReplyDelete
  8. है अभीप्सित शान्ति लेकिन, यह विचारों की हवा है,
    बदलती है दावानल में, जो व्यथा अंगार को ।

    बहुत सुन्दर ...गहन और सत्य भी .....
    मन से मन का मन के लिए युद्ध .....!!
    बुद्धि साथ है तो धुंध छंट ही जायेगी ....

    ReplyDelete
  9. विचारों की ऊहापोह से ही जीवन पथ पर बढते रहने की प्रेरणा और साहस मिलता है. परिवेश में कुछ ऐसा घटित होता है कि मन का उद्वेलित होना स्वाभाविक है.

    रामराम.

    ReplyDelete
  10. समर के दोनों पक्ष 'मैं' -स्वयं से जूझना यही जीवन;पर एक अधिक चैतन्य 'मैं'निरंतर विद्यमान है, तटस्थ दर्शक-सा साथ है जो आपमें मुखर हो रहा है.

    ReplyDelete
  11. अंतरद्वंद भी जीवन का एक हिस्सा है. बहुत सोचने के बाद हम इस नतीजे पर पहुँचे है की ज्यादा सोचना भी फ़िज़ूल ही है,
    इससे आप धीरे धीरे कृत्रिम बुद्धिजीवी का नकाब ओढ़ लेतें है जो जीवन दुखदाई बना देता है।इसलिए इससे यथासंभव बचने का प्रयास करतें है.
    मज़ा यह है की यह निष्कर्ष भी बहुत सोचने के बाद ही निकालता है :)
    लिखते रहिये ...

    ReplyDelete
  12. वैचारिक झंझावत

    ReplyDelete
  13. स्वयं से जूझ कर कोई तो मार्ग मिलेगा ....

    ReplyDelete
  14. संवेदना का सागर ...उपर से हलचल ..अंदर से शांत

    ReplyDelete
  15. क्योंकि व्यक्ति का आत्मतत्व स्वयं अकेला है। स्वयं कर्ता एवं स्वयं भोक्ता है। इसलिए पुरूषार्थ के सिवा और कौन सी राह है।

    ReplyDelete
  16. शानदार अभिव्क्ति।

    ReplyDelete
  17. कृष्ण कहते हैं,मन ही मित्र है और मन ही शत्रु..मन के पार है जो वही मुक्त है..

    ReplyDelete
  18. बहुत संवेदन है यह अकेलापन,पर
    साथ आपके मैं और ब्‍लॉगरों का उपवन

    ReplyDelete
  19. कारवाँ बन जाएगा चलते चले बस जाइए,,,

    बहुत उम्दा अभिव्यक्ति,सुंदर रचना,,,
    RECENT POST : प्यार में दर्द है,

    ReplyDelete
  20. सर जी बादल ही वृष्टि लायेंगे

    ReplyDelete
  21. बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ प्रवीण जी।

    ReplyDelete
  22. आज की ब्लॉग बुलेटिन क्यों न जाए 'ज़ौक़' अब दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    ReplyDelete
  23. तृष्णा से वितृष्ण न हो ,ये बासुकी साथ सदा
    यु मथते छुदा की सागर और रतन ले के आ।
    कुछ अधूरी किन्तु सुन्दर रचना।

    ReplyDelete
  24. बदलती है दावानल में, जो व्यथा अंगार को ।

    कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया आपने

    ReplyDelete
  25. द्वन्द्व की स्थिति का सुन्दर चित्रण । वास्तव में सबसे पहले तो व्यक्ति को स्वयं से ही लडना होता है ।

    ReplyDelete
  26. स्वयं को ही नियत करना, उचित क्या है, क्या सही है,
    फँसी निश्चय-नाव मेरी, किन्तु तर्कों के भँवर में ।

    ...बहुत सुन्दर...अंतर्द्वंद का बहुत प्रभावी चित्रण..

    ReplyDelete
  27. अंतर्द्वंद का बहुत सुन्दर चित्रण..आभार !

    ReplyDelete
  28. आप बहुत ज्यादा सोचते हैं जी...।
    मन भारी न रहे तो क्या करे?
    विचारों को शब्द दे लेने पर कुछ सुकून मिलता होगा शायद।

    ReplyDelete
  29. Bhai mere har koi aaj bhid me rahkar bhi to akela hee hai kyonki Jivan se lambe hai bandhu is jeewan ke raste

    ReplyDelete
  30. अंतर्द्वंद ...। जीत अंततः भावनाओं की ही होगी ,विवेक पर ।

    ReplyDelete
  31. सच पूछो तो इस समर में हर कोई अकेला ही होता है ... दोनों पक्ष में अपना मन ही होता है ...
    ह्रदय के भाव बाखूबी लिखे हैं ...

    ReplyDelete
  32. विचारों की द्रढता विवेक का संतुलन बनाये रखती है.

    ReplyDelete
  33. सारगर्भित रचना। जैसे इसके पहले वाली कविता का अंतिम हिस्सा हो। यही तो जीवन के समर का कटु सत्य है।

    ReplyDelete
  34. खुद से खुद ही हारना और खुद ही जीतना होता है..यही जीवन युद्ध है.

    ReplyDelete
  35. पक्ष में मेरे भी मैं हूँ, और विरोधी भी स्वयं ही,
    भावों की साधना करते शब्‍द .... अनुपम प्रस्‍तुति

    ReplyDelete