आज जीवन के समर में, खड़ा हूँ बिल्कुल अकेला,
पक्ष में मेरे भी मैं हूँ, और विरोधी भी स्वयं ही,
पन्थ का पन्थी भी मैं हूँ, और विकट तृष्णा भी मैं,
स्वयं को ही नियत करना, उचित क्या है, क्या सही है,
फँसी निश्चय-नाव मेरी, किन्तु तर्कों के भँवर में ।
है अभीप्सित शान्ति लेकिन, यह विचारों की हवा है,
बदलती है दावानल में, जो व्यथा अंगार को ।
...यह समय भी आगे बढ़ेगा,
ReplyDeleteरास्ते होंगे नये।
तुम नहीं होगे अकेले
कारवाँ मिल जायेगा।।
यही तो दर्शाता है कि मानव और बाकी प्राणियों में अन्तर है. मानवीय संवेदनायें और सोचने की प्रवृति ही सबसे अलग करती है मनुष्य को.
ReplyDeleteशानदार अभिव्क्ति
ReplyDeleteस्वयं से जूझने की पीड़ा.... आप इसे शब्दों में बाँध पाए
ReplyDeleteजो स्वयं को जाँच ले
ReplyDeleteजीत उसी की होती है
जीवन एक रण है
जीवन एक समर है
बस बढ़े चलो बढ़े चलो... मंजिल स्वयं मिल जायेगी
मंगलवार 07/05/2013को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं ....
ReplyDeleteआपके सुझावों का स्वागत है ....
धन्यवाद .... !!
जीवन में घूप भी आ ही जाती है
ReplyDeleteहै अभीप्सित शान्ति लेकिन, यह विचारों की हवा है,
ReplyDeleteबदलती है दावानल में, जो व्यथा अंगार को ।
बहुत सुन्दर ...गहन और सत्य भी .....
मन से मन का मन के लिए युद्ध .....!!
बुद्धि साथ है तो धुंध छंट ही जायेगी ....
विचारों की ऊहापोह से ही जीवन पथ पर बढते रहने की प्रेरणा और साहस मिलता है. परिवेश में कुछ ऐसा घटित होता है कि मन का उद्वेलित होना स्वाभाविक है.
ReplyDeleteरामराम.
समर के दोनों पक्ष 'मैं' -स्वयं से जूझना यही जीवन;पर एक अधिक चैतन्य 'मैं'निरंतर विद्यमान है, तटस्थ दर्शक-सा साथ है जो आपमें मुखर हो रहा है.
ReplyDeleteअंतरद्वंद भी जीवन का एक हिस्सा है. बहुत सोचने के बाद हम इस नतीजे पर पहुँचे है की ज्यादा सोचना भी फ़िज़ूल ही है,
ReplyDeleteइससे आप धीरे धीरे कृत्रिम बुद्धिजीवी का नकाब ओढ़ लेतें है जो जीवन दुखदाई बना देता है।इसलिए इससे यथासंभव बचने का प्रयास करतें है.
मज़ा यह है की यह निष्कर्ष भी बहुत सोचने के बाद ही निकालता है :)
लिखते रहिये ...
वैचारिक झंझावत
ReplyDeleteस्वयं से जूझ कर कोई तो मार्ग मिलेगा ....
ReplyDeleteसंवेदना का सागर ...उपर से हलचल ..अंदर से शांत
ReplyDeleteक्योंकि व्यक्ति का आत्मतत्व स्वयं अकेला है। स्वयं कर्ता एवं स्वयं भोक्ता है। इसलिए पुरूषार्थ के सिवा और कौन सी राह है।
ReplyDeletegahan ..bahut badhiya ..
ReplyDeleteशानदार अभिव्क्ति।
ReplyDeleteकृष्ण कहते हैं,मन ही मित्र है और मन ही शत्रु..मन के पार है जो वही मुक्त है..
ReplyDeleteबहुत संवेदन है यह अकेलापन,पर
ReplyDeleteसाथ आपके मैं और ब्लॉगरों का उपवन
कारवाँ बन जाएगा चलते चले बस जाइए,,,
ReplyDeleteबहुत उम्दा अभिव्यक्ति,सुंदर रचना,,,
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kuchh adhuri si lagi kavita !!!
ReplyDeleteसर जी बादल ही वृष्टि लायेंगे
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत पंक्तियाँ प्रवीण जी।
ReplyDeleteआज की ब्लॉग बुलेटिन क्यों न जाए 'ज़ौक़' अब दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteतृष्णा से वितृष्ण न हो ,ये बासुकी साथ सदा
ReplyDeleteयु मथते छुदा की सागर और रतन ले के आ।
कुछ अधूरी किन्तु सुन्दर रचना।
बदलती है दावानल में, जो व्यथा अंगार को ।
ReplyDeleteकम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया आपने
विचारों का द्वन्द !
ReplyDeletelatest post तुम अनन्त
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द्वन्द्व की स्थिति का सुन्दर चित्रण । वास्तव में सबसे पहले तो व्यक्ति को स्वयं से ही लडना होता है ।
ReplyDeleteस्वयं को ही नियत करना, उचित क्या है, क्या सही है,
ReplyDeleteफँसी निश्चय-नाव मेरी, किन्तु तर्कों के भँवर में ।
...बहुत सुन्दर...अंतर्द्वंद का बहुत प्रभावी चित्रण..
अंतर्द्वंद का बहुत सुन्दर चित्रण..आभार !
ReplyDeleteखूबसूरत !
ReplyDeleteआप बहुत ज्यादा सोचते हैं जी...।
ReplyDeleteमन भारी न रहे तो क्या करे?
विचारों को शब्द दे लेने पर कुछ सुकून मिलता होगा शायद।
Bhai mere har koi aaj bhid me rahkar bhi to akela hee hai kyonki Jivan se lambe hai bandhu is jeewan ke raste
ReplyDeleteअंतर्द्वंद ...। जीत अंततः भावनाओं की ही होगी ,विवेक पर ।
ReplyDeleteसच पूछो तो इस समर में हर कोई अकेला ही होता है ... दोनों पक्ष में अपना मन ही होता है ...
ReplyDeleteह्रदय के भाव बाखूबी लिखे हैं ...
विचारों की द्रढता विवेक का संतुलन बनाये रखती है.
ReplyDeleteबेहतरीन!!
ReplyDeleteसारगर्भित रचना। जैसे इसके पहले वाली कविता का अंतिम हिस्सा हो। यही तो जीवन के समर का कटु सत्य है।
ReplyDeleteखुद से खुद ही हारना और खुद ही जीतना होता है..यही जीवन युद्ध है.
ReplyDeleteपक्ष में मेरे भी मैं हूँ, और विरोधी भी स्वयं ही,
ReplyDeleteभावों की साधना करते शब्द .... अनुपम प्रस्तुति