एक दुपहरी, गर्म नहीं, गुनगुनी,
मन अकेला, व्यग्र नहीं, अनमना,
मिलकर सोचने लगे, क्या करें,
समय का रिक्त है, कैसे भरें,
कुछ उत्पादक, सार्थक, ठोस,
या सुन्दर, जैसे सुबह पड़ी ओस,
जो उत्पादक, सजेगा रत्न सा,
सुन्दर सुखमय, पर स्वप्न सा,
सोचा, कौन अधिक उपयोगी,
सोचा, किससे प्यास बुझेगी?
प्रश्न जूझते, उत्तर खिंचते,
दोनों गुत्थम गुत्था भिंचते,
समय खड़ा है, खड़े स्वयं हम,
उत्तर आये, बढ़ जाये क्रम,
उपयोगी हो या मन भाये,
रत्न मिले या सुख दे जाये,
किन्तु दुपहरी, अब तक ठहरी,
असमंजस मति पैठी गहरी,
मन भी बैठा रहा व्यवस्थित,
गति स्थिरता मध्य विवश चित,
गर्म दुपहरी, व्यग्र रहा मन
निर्णय में उलझा है चिन्तन।
द्विधा-ग्रस्तता में यही हाल होता है- गति स्थिरता मध्य विवश चित.
ReplyDeleteमन के अन्तर्द्वन्द से निकली एक सार्थक कविता |
ReplyDeleteशानदार रचना
ReplyDeleteव्यग्रता से उपजा चिंतन
ReplyDeleteविचारों का गहन मंथन॥
अमुमन अन्तर्द्वन्द मौन रहता है,आज अभिव्यक्त हुआ.....
ReplyDeleteमन ही उलझन को सुलझायेगा.
ReplyDeleteविचारों का गहन मंथन
ReplyDeleteशानदार रचना
अंतर्मन की व्यथा का एक रूप ये भी
ReplyDeleteआह दोपहरी...
ReplyDeleteअन्तर्विरोध कई बार दुपहरियां हराम करते हैं !
ReplyDeleteअंतर्द्वंद्व में घिरा मन .....तन मन दोनों को शिथिल सा कर जाता है .... सुंदर रचना ।
ReplyDeleteकह दे माँ अब क्या देखूँ
ReplyDeleteदेखूँ खिलती कलियाँ या
प्यासे सूखे अधरों को
चिर यौवन सुषमा देखूँ
या जीवन का जर्जर देखूँ .....
महादेवी जी ने भी ऐसी ही दुविधा को अंकित किया है । लगभग हर संवेदनशील व्यक्ति को यही दुविधा होती है और बहुत सा वक्त यों ही गुजर जाता है । बहुत सुन्दर ..।
हमें तो ऐसे विचार अलसुबह ही आते है, आप कुछ ज्यादा स्राजनशील होंगे जो दोपहर में भी एस सर्जन करने में सक्षम है… :)
ReplyDeleteकिन्तु दुपहरी, अब तक ठहरी,
असमंजस मति पैठी गहरी,
मन भी बैठा रहा व्यवस्थित,
गति स्थिरता मध्य विवश चित,
बहुत अच्छे, लिखते रहिये ...
समय समय पर इस प्रकार के चिंतन में उलझना ज़रूरी है ....तभी सुल्स्झता है मन और एक सार्थक राह निकलती है ...एक सामंजस्य स्थापित होता है ...
ReplyDeleteसार्थक चिंतन करती रचना ...!!
शानदार रचना, अंतर्मन की व्यथा का एक रूप ये भी
ReplyDeleteउत्कृष्ट , भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteमन की दुविधा को सुन्दर शब्दों के माध्यम से बाँधा है ...
ReplyDeleteउम्दा काव्य ..
द्वंद की भावपूर्ण और सटीक अभिव्यक्ति, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
इस गर्म दुपहरी में पढ़ना छाया बन जाना हुआ
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति।
ReplyDeleteनये लेख : भारतीय रेलवे ने पूरे किये 160 वर्ष।
दुपहरियां व्यग्र करती ही हैं वो चाहे जीवन की हो या प्रकृति की !
ReplyDeleteदोपहरी,दुविधा, मंथन , चिंतन
ReplyDeleteसब सार्थक.
आदरणीय प्रवीण जी आपने अन्त: द्वन्द की सुन्दरता शिल्पकारी की है।साथ ही यथार्थ भी स्पष्ट गोचर हो रहा है।
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
समय मिले तो कभी यहां भी पधारें-
http://wings-vandana.blogspot.com
झकड़ा जड़ की तरह ज़टिल कविता लिखा भी एक कला है। :)
ReplyDeleteबढ़िया।
व्यग्र मना ,अन -मना,अन्यमनस्क हम जब तब होते रहते हैं .बस किसी भी वजह से लय टूटे की देर है लेकिन रुककर सोचने का मौक़ा देती हैं यही स्थितियां .बढ़िय मन :उधेड़ बुन रचनात्मकता ढूंढती .तौलती स्थितियों को .रचती हुई नए क्षितिज रचनात्मकता के .
ReplyDeleteव्यग्र मना ,अन -मना,अन्यमनस्क हम जब तब होते रहते हैं .बस किसी भी वजह से लय टूटे की देर है लेकिन रुककर सोचने का मौक़ा देती हैं यही स्थितियां .बढ़िय मन :उधेड़ बुन रचनात्मकता ढूंढती .तौलती स्थितियों को .रचती हुई नए क्षितिज रचनात्मकता के .
ReplyDeleteव्यग्र मना ,अन -मना,अन्यमनस्क हम जब तब होते रहते हैं .बस किसी भी वजह से लय टूटे की देर है लेकिन रुककर सोचने का मौक़ा देती हैं यही स्थितियां .बढ़िय मन :उधेड़ बुन रचनात्मकता ढूंढती .तौलती स्थितियों को .रचती हुई नए क्षितिज रचनात्मकता के .
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति कल के चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteकृपया पधारें
मेरे मै के स्वरूप से होता जब
ReplyDeleteऔरों की अनबन
ऐसे में पास आती
एक दोपहरी,,,,आभार,
RECENT POST : क्यूँ चुप हो कुछ बोलो श्वेता.
आज की ब्लॉग बुलेटिन गूगल पर बनाइये अपनी डिजिटल वसीयत - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteकिन्तु दुपहरी, अब तक ठहरी,
ReplyDeleteअसमंजस मति पैठी गहरी,
मन भी बैठा रहा व्यवस्थित,
गति स्थिरता मध्य विवश चित,
.....कभी कभी यह अंतर्द्वंद कर देता है स्थिर एक बिंदु पर, लेकिन आगे बढ़ना एक नियति है जो स्थिर नहीं रहने देती अधिक देर एक बिंदु पर...
बहुत खूब साब | सुन्दर रचना |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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अंतर्द्वंद अक्सर एक नयी ऊर्जा की ज़मीं होते हैं ......कुछ सार्थक उपजता है .....
ReplyDeleteमन की अंतर्द्वंद की सटीक अभिव्यक्ति
ReplyDeletelatest post"मेरे विचार मेरी अनुभूति " ब्लॉग की वर्षगांठ
सुंदर द्वंद समास.
ReplyDeleteमन असमंजस में होता है जब कि क्या करें क्या नहीं ..और समय गुजरता जाता है..ऐसे ही मनोभाव उमडते हैं.
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeleteअसमंजस त्यागना ही पड़ता है।
ReplyDeleteबधाई हो बधाई जअनाम दिन कि तुमको.......... मिलेंगे लड्डू हमको ?
ReplyDeleteउसी चिंतन से निकला हुआ सुन्दर रत्न..
ReplyDeleteमन में उलझे तानो बानो की ग्रंथियाँ खोलने की कोशिश सुन्दर भाव बढ़िया प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई प्रवीण जी |
ReplyDeleteवाह! क्या बात है बहुत ख़ूब!
ReplyDeleteवाह! क्या बात है बहुत ख़ूब!
ReplyDeleteकुछ देने का, सृजन का भाव ही कितना सुखद है..इसी से तो रची गयी यह कविता..
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना.
ReplyDeleteहै शांत मुखर पर लहर समाया
ReplyDeleteअंतर्द्वंद हिचकोले खाया।
हम बैठे और करे इंतजार
लेखनी जैसे मोतियन की हार।
अती सुन्दर उत्कृष्ट रचना
गर्म दुपहरी, व्यग्र रहा मन
ReplyDeleteनिर्णय में उलझा है चिन्त....बढ़िया..
इक गर्म दुपहरी और है चिंतन
ReplyDeleteदुविधा में ठहरा है कहीं अंतर्मन
खिंचते- खींचते
भिंचते- भींचते
दोपहरी में ही यह एहसास शुभ संकेत है. लोग तो शाम को भी जागृत नहीं होते।
ReplyDeleteमन की उलझन समझे कौन,
ReplyDeleteमेरा अंतर्मन भी मौन!!
दोपहरी है वह समयगति
ReplyDeleteहोती जब दम्भ की क्षति
मनुष्य चेतना स्ववशीभूत
मानव धर्म,कर्म,श्रम का दूत
समय का रिक्त कैसे भरें? मैं कहता हूँ क्या जरुरत है दोपहरी के रिक्त को भरने की! मुझे तो गर्म दोपहरें ही वो माध्यम लगती हैं, जिनके प्रभाव से मनुष्य अपनी औकात में रहता है। नहीं तो मौसमीय और भौतिक सुख-सुविधाओं में मानवता का दम घुटने पर लगा हुआ है।
...करते-थकते हो गई शाम।
ReplyDeleteचलते रहना,पर अविराम ।।
गर्म दुपहरी जलता तन मन
ReplyDeleteऊपर से झुलसाता चिंतन!!
गर्म दुपहरी, व्यग्र रहा मन
ReplyDeleteनिर्णय में उलझा है चिन्त..बहुत सुन्दर..