चर्चा चल रही थी, पीड़ा पर, बड़ा ही विचित्र विषय था चर्चा के लिये। वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले कहेंगे कि जिस तत्व को माप ही नहीं सकते, उस पर चर्चा का क्या लाभ? बात सच ही है क्योंकि कितनी पीड़ा हुयी, कैसे पता चलेगा? उस स्थिति में पीड़ा पर किये गये किसी विश्लेषण का अर्थ हर एक के लिये भिन्न होगा, निष्कर्ष वस्तुनिष्ठ न होकर व्यक्तिनिष्ठ हो जायेंगे, सिद्धान्त सार्वभौमिक न रहेंगे, देश, काल में स्थिर नहीं रहेंगे, चर्चा औरों के लिये निष्फला होगी।
यह सब तथ्य ज्ञात थे फिर भी चर्चा चल रही थी, चर्चा पीड़ा के अंकों पर नहीं, पीड़ा के अर्थों पर चल रही थी। पीड़ा की मात्रा भले ही भिन्न हो सबके लिये, पर दिशा उन अर्थों को मान दे रही थी। चर्चा के पथ पर भले ही मील के पत्थर न लगे हों पर अनुभव के परिमाण और जीवन की लम्बी पड़ती परछाइयाँ पंथ का आभास दे रहे थे। वैसे देखा जाये तो विज्ञान की ऐसे तत्व न माप पाने की अक्षमता ने हम सबको बड़ा रुक्ष सा कर दिया है। हम जिसे नहीं माप पाते हैं, उसकी चर्चा से कतराने लगते हैं, मात्र अनुभव के आधार पर कुछ कहें तो कहीं लोग अज्ञानी न समझ बैठें। विज्ञान के प्रति हमारा आग्रही स्वभाव हमें यन्त्रमानव सा बनाये दे रहा है, जहाँ न हम पीड़ा की बात कर सकते हैं, न सौन्दर्य की बात कर सकते हैं, न तृष्णा को समझ सकते हैं और न ही संतुष्टि को। तत्वों और भावों को अंकों में सजा कर रंकों सा जीवन जी रहे हैं हम। पीड़ा को निर्धनता से जोड़ते हैं, सुख को धन से जोड़ते हैं, सौन्दर्य को रूप से जोड़ते हैं और भावों को अवैज्ञानिक मानते हैं।
विज्ञान की असमर्थता ज्ञात थी, इसीलिये चर्चा हो रही थी, पीड़ा पर। आप कह सकते हैं कि पीड़ा पर चर्चा का क्या लाभ, पीड़ा तो सहने का विषय है, न कि कुछ कहने का। चर्चा हो तो किसी ऐसे विषय पर जो सुखदायी हो, जो रुचिकर हो, जो सार्थक हो। जीवन के अनिवार्य पक्ष को कैसे नकारा जा सकता है, कैसे उसकी उपेक्षा की जा सकती है, उसे तो समझना ही होगा। न केवल समझना होगा वरन उसे स्वीकार करना होगा।
प्रश्न यह था कि एक ही घटना लगभग एक जैसे ही परिवेश में भिन्न भिन्न प्रभाव क्यों डालती है, या कहें कि भिन्न भिन्न पीड़ा क्यों पहुँचाती है? उत्तर बड़ा ही सरल मिला कि यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह किसी घटना को किस तरह लेता है। साथ ही साथ इस बात पर भी कि उस व्यक्ति की सहनशीलता कितनी है? इसका अर्थ यह हुआ कि यदि मानसिकता और क्षमता विकसित कर ली जाये तो पीड़ा की मात्रा कम की जा सकती है।
विषय पर कुछ गहरे उतरा जाये, उसके पहले कुछ बिन्दुओं पर वैचारिक सहमति आवश्यक है। पहला तो बुद्ध सत्य है, कि दुख से बचा नहीं जा सकता है, सबके जीवन में दुख की उपस्थिति अनिवार्य है। दूसरा कि दुख कब आ टपकेगा, यह नियत नहीं। कभी भी आ जाता है, औचक और विशेषकर तब, जब हम नहीं चाह रहे होते हैं। तीसरा यह कि दुखजनित पीड़ा सबके ऊपर कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य छोड़ जाती है, स्थायी या अस्थायी।
विश्लेषण किया जाये तो इस प्रक्रिया में ४ चरण होते हैं। पहला चरण होता है, दुख की आशंका, यह वह मानसिक स्थिति है जिसे हम भय कहते हैं। भय होना या किसी पुरानी घटना से प्रेरित होता है या किसी और के उदाहरण से। दूसरा चरण होता है, उस घटना का घटित होना, यह चरण अधिक लम्बा नहीं होता है। तीसरा चरण होता है, घटना के घटित होने और उसे स्वीकार करने के बीच का समय। इस समय हम सबको लगता है कि यह मेरे साथ ही क्यों घटा? चौथा चरण पीड़ा को सह जाने के बाद का समय होता है, वह समय जब आप पुनः सामान्य होने की दिशा में बढ़ते हैं, परिवेश और स्वयं से साम्य स्थापित करते हैं।
यह चारो ही चरण बड़ी रोचकता लिये हैं। यदि तनिक ध्यान से देखा जाये तो मानव में पर्याप्त कालखण्ड के लिये रहते हैं ये चारों चरण। पशुओं को देखें तो न केवल कम समय वरन कम मात्रा में इनकी उपस्थिति दिखती है। आहार, निद्रा, भय और मैथुन तो मानव और पशु, दोनों में ही समान है। चिन्तनशीलता ही मनुष्य को विशेष बनाती है, और अधिक प्रभावी व उन्नत बनाती है। यदि यही विशेष गुण मानव की पीड़ा कम करने के स्थान पर पीड़ा बढ़ा जाये, तब यह मान लेना चाहिये कि चिन्तन की दिशा विलोम है, कुछ और चिन्तन की आवश्यकता है, वह भी सार्थक दिशा में।
पहला चरण भय का है, आगत का भय और यह इतना प्रभावशाली होता है कि प्रकृति के कर्म चक्र को गतिमान रखता है। कल उन्हें दुख न हो, इसलिये सब आज ही सब जुटा लेना चाहते हैं। यह भी पता नहीं कि घटना होगी या नहीं होगी, विपत्ति आयेगी या नहीं आयेगी, पर सब पहले से ही साधन और सुविधायें जुटाने लगते हैं। सबके मन में भय का आकार भिन्न रहता है, जहाँ एक ओर फक्कड़ सन्यासियों को कल की कोई चिन्ता नहीं, वहीं दूसरी ओर लोग लोभपाशित अपने सात पुश्तों के लिये धन जुटा लेना चाहते हैं। हम इन दोनों के बीच कहाँ खड़े हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि इतना अधिक श्रम कर रहें हैं धन जुटाने के लिये, जिसकी आवश्यकता ही नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं आलस्य में सने हम आगत विपत्तियों में डूबने को तैयार बैठे हैं। संतुष्टि कभी नहीं होती, सर्वस्व कभी नहीं मिलता, पर प्रश्न यह है कि जो हमारे पास नहीं है उसको लेकर हम भविष्य के प्रति कितना आशंकित रहते हैं।
दूसरा चरण सीधा है, सपाट है, विपत्ति आती है, चली जाती है, भय सच हो जाता है। निर्भयी और तन-मन से तपा व्यक्ति सब सह जाता है, पीड़ा पी जाता है, व्यक्त नहीं करता है। जो नहीं सह पाता, पीड़ा उसे भी उतनी ही होती है, पर वह उसे आँसू और भावों में व्यक्त कर देता है। इसी प्रकार चौथा चरण भी सीधा है। सब कोई अपनी सामर्थ्य के अनुसार सामान्य होने का प्रयत्न करते हैं। कुछ शीघ्र ही सामान्य हो जाते हैं, कुछ को समय लग जाता है। यह तीसरा चरण ही है जो हमें बहुत पीड़ा देता है। हमारा मन यह मानने को तैयार ही नहीं होता है कि विपत्ति उस पर आयी। वह हर समय बस यही पूछता है कि उसके साथ यह क्यों हो गया। भाग्य से लेकर ईश्वर तक सबको ही उत्तरदायी मान अशान्त रहता है। घटना हो जाती है, विपत्ति आकर चली जाती है पर मन से पीड़ा नहीं जाती। मन मानता नहीं, जूझता रहता है।
आपका अनुमान और अनुभव तो नहीं ज्ञात पर मेरे अनुसार पूरी पीड़ा में चारों चरणों का अनुपात ३०:३०:३०:१० रहता है। इसमें पहला और तीसरा चरण न्यूनतम किया जा सकता है, कुल पीड़ा की मात्रा आधी की जा सकती है, बस स्वीकार कर लें कि दुख आयेगा और स्वीकार कर ले कि दुख हमारे ऊपर ही आया। भूत और भविष्य को तनिक वर्तमान से विलग कर दें, वर्तमान को जीवन नैया खेने दें।
पीड़ा एक अनुभव जो गहरे खींच ले जाता है.
ReplyDeleteकितना गहरा यह कई बातों पर निर्भर करता है.अनुभव की प्रतिक्रिया सबकी अपनी.हाँ, ये आपने ठीक कहा कि दार्शनिक के समान जितना तटस्थ हो सकें उतनी कम लगेगी !
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (17-04-2013) के "साहित्य दर्पण " (चर्चा मंच-1210)
पर भी होगी! आपके अनमोल विचार दीजिये , मंच पर आपकी प्रतीक्षा है .
सूचनार्थ...सादर!
आपके तथ्य मननशील है
ReplyDeleteचलिए, बस अब स्वीकार कर लिया !
ReplyDeletewhen 'gain' is more than 'pain' ,one never feels pain .
ReplyDeleteतीसरा चरण ही उद्वेलित अधिक करता है और शायद यह ३० प्रतिशत से भी अधिक होता है ।
दुःख से ज्यादा दुःख का भय सताता है !
ReplyDeleteसम्पूर्ण आलेख !
आपका विवेचन स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है कि स्वीकार्यता बहुत कुछ हल कर सकती है | तीसरा चरण सच में मन को बहुत व्यथित करता है ...
ReplyDelete"पीड़ा" का विश्लेषण संबल देने वाला लगा. इस प्रयास के लिए आभार.
ReplyDeleteसुख या पीड़ा जीवन की एक सच्चाई है,यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह उसे कैसे जीता है,रोचक आलेख प्रवीण जी।
ReplyDeleteसंकलन लायक अनूठा लेख !
ReplyDelete....कई बार पीड़ा का कोई छोर नहीं दिखता तब भगवान् से भरोसा उठ जाता है !! अव्यक्त पीड़ा और दुखदायी होती है !
जैसी करनी, वैसी भरनी !
पंडित ,खूब सुनाते आये !
पर नन्हे हाथों की करनी
पर,मुझको विश्वास न आये
तेरे महलों क्यों न पंहुचती ईश्वर, मासूमों की चीख !
क्षमा करें,यदि चढ़ा न पायें,अर्ध्य,देव को,मेरे गीत !
भय की आशंका का निवारण कर लिया जाये जैसे कि भय का कारण दूर करे या उसे स्वीकार करें ।
ReplyDeletething about pain... it requires to be felt
ReplyDeletewhen we feel it.. we deal with it.. and then if possible.. move on
interesting read as always :)
सुखदायक रहा पीडा पर आलेख कुछ पीड़ा कम करेगा वैसे लोग अपनी पीड़ा से कम दुसरे की ख़ुशी से ज्यादा दुखी होते हैं।
ReplyDeleteसुखदायक रहा पीडा पर आलेख कुछ पीड़ा कम करेगा वैसे लोग अपनी पीड़ा से कम दुसरे की ख़ुशी से ज्यादा दुखी होते हैं।
ReplyDeleteमन के हारे हार है ,मन के जीते जीत |
ReplyDeleteयही हाल पीड़ा सम्बन्ध में भी है और जब मन सब स्वीकार कर लेता है तो पीड़ा की ती व्रता कम महसूस होती है
हमेशा की तरह सम्पूर्ण आलेख |
Scientists created a pain measurement scale by burning the hands of women in labor
ReplyDeleteIn the 1940s, a group of doctors at the University of Cornell set out to create a unit of pain intensity. Using the "dol" as a unit, the physicians created a 21-point quantitative scale, but through unusual means — testing pain reactions on medical students and women in labor between contractions. They did this by burning their subjects. Ow.
The Claim- "A Human body can bear only up to 45 del (units) of pain. Yet at time of giving birth, a mother feels up to 57 Del (units) of pain. This is similar to 20 bones getting fractured at the same time."
ReplyDeleteThere is no such measurement in the scientific community as 'del" of pain, but there is however a "dol" (from the latin word for pain, dolor) which was a proposed name for a unit of measurement for pain from the 1950's, but the idea never really made it far. Pain is subjective, after all. What would hurt me at a 5 on a scale from 1 to 10 for example, another person would call a 7 and another would call a 3 or 4, depending on their own personal pain threshold. Most people in the medical profession use a scale of 0-10 to measure the amount of pain based on the patient's interpretation as follows;
Even when a woman gives birth, they are not all necessarily experiencing the same amount of pain, as there are many different factors that contribute to the overall discomfort, such as baby size, the position it's in, the mother's pain threshold, right up to the amount of pain dulling hormones the body releases during child birth. It's a lot of pain, no matter how you look at it. Unfortunately there is no simple way to have a universal measurement of pain that works well from one person to the next. Aside from being made to sound like a scientific fact, this myth only serves to acknowledge the pain your mother had to put up with to bring you into this world.
0-1 No pain
ReplyDelete2-3 Mild pain
4-5 Discomforting - moderate pain
6-7 Distressing - severe pain
8-9 Intense - very severe pain
10 Unbearable pain
ReplyDeleteThis kid isn't even out yet, and he needs a haircut.
नज़रिए की बात है कुछ लोग तो अंत :शिरा सुइयों से ही खासे विचलित देखे जाते हैं .कुछ ध्यानस्थ रहतें हैं .पीड़ा को भटकाना ,दिमाग की तरफ न जाने देना सीख जाते हैं .योग और योगी अपने अनुभव बतलाते सिखलाते हैं .बेहतरीन प्रस्तुति है आपकी दर्द का एहसास (एहसासे दर्द )वैयक्तिक एहसास है .अनुकूलन हर व्यक्ति का अलग अलग है एक्सपोज़र भी समझ भी .दर्द की गोलियां भी दर्द को सिर्फ दिमाग की और जाने से रोकतीं हैं ,तरंग का रास्ता बदल देती हैं .योग भी दिमागी तरंगों को बदलने की कूवत रखता है .ऐसे भी मामले हैं जब लोगों ने सर्जरी से पहले बिना एनसथेटिक पदार्थ लिए सर्जरी करवाई है .ब्रह्माकुमारीज़ ईश्वरीय विश्वविद्यालय के संस्थापक ब्रह्मा बाबा (लेखी राज ) ऐसी ही शख्शियत थे .
ReplyDeleteबाप रे इतना लेखा जोखा
ReplyDeleteपीड़ा को निर्धनता से जोड़ते हैं, सुख को धन से जोड़ते हैं, सौन्दर्य को रूप से जोड़ते हैं और भावों को अवैज्ञानिक मानते हैं।
ReplyDeleteबस यही गलती कर जाते है।
vicharniy aalekh kintu ek bat kahoon ki apne likha hai -'' आहार, निद्रा, भय और मैथुन तो मानव और पशु, दोनों में ही समान है। चिन्तनशीलता ही मनुष्य को विशेष बनाती है, और अधिक प्रभावी व उन्नत बनाती है।''ye satya nahi hai kyonki hamara ek dog hai aur jo koi bhi kam karta hai poora vichar karke karta hai aur bah bhi apni peadon se vaise hi joojhta hai jaise ham .
ReplyDeleteभय की आशंका अधिक दुखदायी है.
ReplyDeleteज़माना शौक से सुनता है और हम ही सो जाते हैं पीड़ा की दास्ताँ कहते-कहते..
ReplyDeleteumada gantiya samikshaa hai
ReplyDeleteदुख अगर आये तो उसे स्वीकार कर ले,जीने का यही सबसे सरल रास्ता है,आभार
ReplyDeleteRecent Post : अमन के लिए.
बहुत विचारपूर्ण
ReplyDeleteबहुत विचारपूर्ण अनूठा लेख ..आभार
ReplyDelete@वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले कहेंगे कि जिस तत्व को माप ही नहीं सकते, उस पर चर्चा का क्या लाभ? बात सच ही है क्योंकि कितनी पीड़ा हुयी, कैसे पता चलेगा? उस स्थिति में पीड़ा पर किये गये किसी विश्लेषण का अर्थ हर एक के लिये भिन्न होगा, निष्कर्ष वस्तुनिष्ठ न होकर
ReplyDeletehttp://article.wn.com/view/2013/04/11/First_Objective_Measure_of_Pain_Discovered_in_Brain_Scan_Pat/
2013-04-10: The findings, published today in the New England Journal of Medicine, may lead to the development of reliable methods doctors can use to objectively quantify a patient's pain. Currently, pain intensity can only be measured based on a patient's own description, which often includes rating the pain on a scale of one to 10. Objective measures of pain could confirm these pain reports and provide new clues into how the brain generates different types of pain. The new research results also may set the stage for the development of methods using brain scans to objectively measure anxiety, depression, anger... more »
विचारपूर्ण आलेख पाण्डेय जी .....आभार
ReplyDeleteजो होना है सो तो होकर ही रहेगा इसलिये हम ही स्वयं को पीड को सहने लायक मजबूत बनालें.
ReplyDeleteबाकि तो यह कहना-सुनना है ही कि "जाके पैर न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई"
सार्थक विचार. पीड़ा ज्ञानवर्धक भी होती है और आगे उस पीड़ा से जूझने का अनुभव प्रदान करती है.
ReplyDeleteबस एक इस उम्मीद में - "कुछ दिन तसल्ली से कटें"
ReplyDeleteख़ुद अपने से ही आप कटता जा रहा है आदमी
सार्थक चिंतन प्रस्तुत करने के लिये बधाई। मेरी दृष्टि में एक सम्यक और सार्थक ब्लॉग के स्वामी हैं आप।
पीड़ा ही है जो सहने के लिए प्रेरित करती है।
ReplyDeleteपीड़ा सने वाले की क्षमता पर निर्भर करता है ... किसी के लिए पीड़ा दूसरे ले लिए कुछ भी नहीं ...
ReplyDeleteपर बहुत रोचकता से आपने इसे विभाजित कर दिया ४ भागों में ...
पीड़ा कैसी संतोष और स्वीकृति ज़रूरी -जेहि बिधि राखे राम .....
ReplyDeleteThought provoking, sure we can't measure. According to me it doesn't matter whether your pain is big or small, we need to have two things, bear and cure it and someone to understand and support us.
ReplyDeleteपहला और तीसरा चरण न्यूनतम किया जा सकता है। ..वाह!
ReplyDeleteऐसे आलेख भी पीड़ा कम करने में सहायक बन सकते हैं बस इसे गांठ बंधने तक पढ़ते रहना है।
तत्वों और भावों को अंकों में सजा कर रंकों सा जीवन जी रहे हैं हम। पीड़ा को निर्धनता से जोड़ते हैं, सुख को धन से जोड़ते हैं, सौन्दर्य को रूप से जोड़ते हैं और भावों को अवैज्ञानिक मानते हैं।...जोरदार।
ReplyDeleteअद्भुत विश्लेषण... हर बार की तरह एक शोध!!
ReplyDeleteआपने बहुत गहराई से सोचा है । पहला व तीसरा आपने कम करने को कहा है । इनमें भी तीसरे का कम होना कठिन है । बहुत गहन विश्लेषण ।
ReplyDeleteबहुत ही विचारपूर्ण आलेख,
ReplyDeleteपीड़ा सहने की क्षमता सबकी अलग अलग होती है .
दुख का अनुभव हम रोज घटित होती घटनाओं से करते हैं, इसलिए दुख के लिए चिंतित भी रहते हैं।
ReplyDeleteसार्थक विश्लेषण पीड़ा का ....
ReplyDeleteपीड़ा यथार्थ से जोड़ती है हमें ...गहनता देती है ......ठहराव देती है ,व्यक्तित्व को भी ....
विज्ञान के प्रति हमारा आग्रही स्वभाव हमें यन्त्रमानव सा बनाये दे रहा है, जहाँ न हम पीड़ा की बात कर सकते हैं, न सौन्दर्य की बात कर सकते हैं, न तृष्णा को समझ सकते हैं और न ही संतुष्टि को। तत्वों और भावों को अंकों में सजा कर रंकों सा जीवन जी रहे हैं हम। पीड़ा को निर्धनता से जोड़ते हैं, सुख को धन से जोड़ते हैं, सौन्दर्य को रूप से जोड़ते हैं और भावों को अवैज्ञानिक मानते हैं।.......................यह पैरा अद्भुत है। इसने तकनीक के प्रति आपके मोह से ऊपर उठ कर आपके अंत:करण की मानवीय लगन को परिलक्षित किया है। सभी के व्यक्तित्व में यही जीवन-दर्शन तत्व समाविष्ट होना चाहिए। तब ही जन्म-मृत्यु साकार होगी।
ReplyDelete..........रही तीसरे चरण के मानवीय भाव को बराक ओबामा के मुखचित्र द्वारा दर्शाने की तो आपके संज्ञान हेतु बताना चाहूंगा कि ओबामा रोते हैं और फर्जी दुख प्रकट करते हैं।
सत्य हमेशा एक निर्वाण की यात्रा है ...
ReplyDeletePeeda aadhi karne ka formula..
ReplyDelete
ReplyDeleteचिंतनपरक सार्थक रचना
गहन अनुभूति
उत्कृष्ट प्रस्तुति
शुभकामनायें
Gahan vishleshan.
ReplyDeleteबहुत गहन विचारशील शोधपरक प्रस्तुति..
ReplyDeleteबहुत खूब | आभार
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
पीड़ा पर इतना गहन लेख पहली बार देखा पढ़ा.
ReplyDeleteबहुत खूब लगा.
मेरे विचार में पीड़ा पूरी तरह व्यक्तिनिष्ठ ही है.
पढकर अच्छा लगा
ReplyDeleteक़पया यहॉ भी पधारें
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यह पीड़ा का नहीं अपितु कुटिलता का रचनात्मक चरण है.....
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