27.4.13

और कब तक

लम्बी कितनी राह चलेंगे,
कब घर का आराम मिलेगा?
कब तक सूखे चित्र बनेंगे,
रंग कब चित्रों में उतरेगा?
कब विरोध के मेघ छटेंगे,
कब भ्रम का अनुराग तजेगा?
स्वप्नों में कब तक जागेंगे,
कब सच को आकार मिलेगा?

आचरण की रूपरेखा,
मात्र वाक्यों में सजाकर,
कर्म की कमजोरियों को,
भ्रंश तर्कों में छिपाकर ।
बोल दे निश्चित स्वरों में,
स्वयं को कब तक छलेंगे?
जीवनी से विमुख होकर,
और कितना हम चलेंगे?

24.4.13

फन वेव, हिट वेव

सागर की लहरों में खेलना किसे नहीं भाता है, विशेषकर जब लहरें आपके आकार की आ रही हों। खेल का रोमांच भी वहीं पर होता है, जहाँ पर तनिक जूझना पड़े, जहाँ पर तनिक अनिश्चितता हो। एकतरफा खेल बड़े ही नीरस होते हैं, न देखने में सुहाते हैं और न ही खेलने में।

सागर में उठी किसी भी हलचल को अपना निष्कर्ष पाना होता है, यह हलचल लहरों के रूप में बढ़ती है, ये लहरें किनारे की ओर भागती हैं, यथाशीघ्र। भाग्यशाली लहरों को किनारा शीघ्र मिल जाता है, वे अपनी हलचल में संचित ऊर्जा किनारे पर लाकर पटक देती हैं। जो लहरें सागर के बीचों बीच होती हैं, उन्हें किनारा पाते पाते बरसों लग जाते हैं, वे लहरें अपनी हलचल अपने में समाये रखती हैं, निष्कर्ष को तरसती रहती हैं।

देखा जाये तो मन भी बहुत कुछ सागर की तरह ही होता है, गहरा भी, हलचल भरा भी। न जाने कैसे कोई हलचल उठती है और बनी रहती है, जब तक निष्कर्ष न पा जाये। किनारे व्यक्त जगत है और लहरों का किनारों पर पहुँच जाना अभिव्यक्ति जैसा। किनारे लहरों की अभिव्यक्ति के साक्षी होते हैं और जगत हमारे मन की अभिव्यक्ति का। सागर रत्नगर्भा है, मन में भी विचारों के रत्न छिपे हैं। दोनों के बीच इतना साम्य छिपा है कि नियन्ता की निर्माणशैली में दुहराव सा दिखने लगता है, लगता है कि ईश्वर अलसा गया होगा, जब मन बनाने की बारी आयी तो उसे सागर का रूप दे दिया।

सागर किनारे बैठा हूँ, एक लहर आती है, थोड़ी देर बाद दूसरी। अन्दर का सागर स्थिर सा लगता है पर हलचल बनी रहती है। जलराशि किनारे की ओर आती है, सहसा उसे धरती मिलती है। जहाँ घरती पर संपर्क होता है वह जलराशि वहाँ रुक धरती से बतियाने लगती है, उसके उपर की हलचल चढ़कर आगे निकलना चाहती है, वह आगे की घरती का आलिंगन करने की शीघ्रता में है। एक के बाद एक परत बनती है, उसे उछाल मिलता है, जब तक उठ सकती है, उठती है और जब अव्यवस्थित हो जाती है तो टूट जाती है, फेन बन स्वयं को अभिव्यक्त कर देती है, किनारे में आ समाहित हो जाती है।

कुछ लिखने बैठता हूँ तो विचार भी सागर की लहरों की तरह दौड़े चले आते हैं, कभी सधे सधाये और कभी अनियन्त्रित और अव्यवस्थित, अन्ततः समुचित शब्दों का आकार पा वापस चले जाते हैं, किसी आगामी लहर का साथ देने, आगामी विचार के साथ।

कभी मन के अन्दर जाकर उससे जूझने का प्रयास किया है? अवश्य ही किया होगा, बिना मन से जूझे भला कहाँ कुछ सार्थक निकलता है? जैसे खेल का आनन्द बराबरी वाले से खेलने में आता है, वैसे ही जीवन में अमृत बिना मन मथे आता ही नहीं, ठीक उसी तरह जिस तरह सागर मथा गया था। चाह तो सदा अमृत की ही रहती है, साथ में विष आदि भी आते ही रहते हैं।

बच्चों को देख रहा हूँ, कमर तक की ऊँचाई में खड़े हैं, और आगे जाने के लिये मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। लहरें पीछे से आ रही हैं, कंधे तक ऊँची, उछलते हैं सर बाहर निकाले रहने के लिये, लहरों के जोर से थोड़ा किनारों तक बढ़ जाते हैं, लहरें वापस चली जाती हैं, पुनः खड़े हो जाते हैं, स्थापित से, आगामी लहर की प्रतीक्षा में। मेरी ओर पुनः निहारते हैं, उन्हें लगता है कि आगामी लहर और ऊँची होगी, और ऊर्जा से भरी होगी, सर के ऊपर से निकल जायेगी, हो सकता है कि किनारे पर भी पटक दे।

बच्चों की आतुरता देखी नहीं जाती है और मैं भी अन्दर चला जाता हूँ, बच्चों को थोड़ा और गहरे में ले जाता हूँ। एक बार निश्चिन्तता आ जाती है तब कहीं जाकर प्रारम्भ हो जाता है खेल का आनन्द। निश्चिन्तता इस बात की कि कोई न कोई है साथ में जो लहरों से ऊँचा और सशक्त है, निश्चिन्तता इस बात की भी कि लहर आयेगी और फिर वापस चली जायेगी, कुछ भी स्थायी नहीं रहेगा। हम तब खेल खेलने तैयार हो जाते हैं।

हर लहर ऊँची नहीं होती, पर हर दस लहरों में एक या दो ऊँची आती हैं, सर के ऊपर और अस्थिर करने की ऊर्जा समेटे। विज्ञान भी नहीं बता पाता कि कौन सी लहर भीषण होगी? हर ऊँची लहर घातक नहीं होती, जो लहर अपना स्वरूप बना कर रखती है, वह आपको ऊपर उछाल देती है, आपको उतराने का आनन्द आता है, आपका अहित नहीं करती है। ऐसी आनन्ददायक लहरों का नाम बच्चों ने 'फन वेव' दिया, आशय आनन्द देने वाली लहरें। जो लहरें आपके पास आने के पहले ही टूट जाती हैं, वे अपनी ऊँचाई और ऊर्जा संरक्षित नहीं रख पाती हैं और जल को श्वेत फेन सा कर के चली जाती हैं, वे थोड़ा विराम भर देती हैं। पर कठिन वे लहरें होती हैं जो ऊँची भी होती हैं और आपके पास आकर टूटती हैं, ये आपको न केवल एक थपेड़ा सा मारती हैं वरन बहुधा आपको पटकनी देकर गिरा भी जाती हैं, इन लहरों को बच्चों ने 'हिट वेव' का नाम दिया।

हम लोगों में यह बताने की प्रतियोगिता थी कि आने वाली लहर फन वेव होगी या हिट वेव। फन वेव में बच्चे मुक्त रहते थे, हिट वेव में आकर चिपट जाते थे या हाथ पकड़े रहते थे। थोड़ा आगे चले जायें तो यही हिट वेव फन वेव बन जाती हैं। बच्चों के साथ यह खेल खेलता रहा, लहरें भी खिलाती रहीं, तब तक, जब तक थक नहीं गये। बाहर निकल आये तब भी लहरों की ध्वनियाँ आकर्षित करती रहीं, पुनः वापस बुलाने के लिये।

सागर को भी ज्ञात है, मन को भी ज्ञात है कि लहरों का और विचारों का एकांगी स्वरूप किसी को नहीं भाता है, विविधता सोहती है, अनिश्चितता मोहती है। फन वेव भी रहेगी, हिट वेव भी रहेगी, सर के तनिक ऊपर और आपसे तनिक सशक्त, जूझना पड़ेगा ही, जीवन का आनन्द उसी से परिभाषित भी है। साथ यह भी समझना होगा, या तो लहर के इस पार रहें या उस पार, लहरों का टूटना संक्रमण है और जो भी संक्रमण झेलता है उसे सर्वाधिक कष्ट होता है।

मन के बारे में थोड़ा और समझना हो तो सागर की लहरों से खेल कर देखिये, बाहर निकलने के बाद आप अपने से और अधिक परिचित हो जायेंगे।

20.4.13

अकेला

आज जीवन के समर में, खड़ा हूँ बिल्कुल अकेला,
पक्ष में मेरे भी मैं हूँ, और विरोधी भी स्वयं ही,
पन्थ का पन्थी भी मैं हूँ, और विकट तृष्णा भी मैं,
स्वयं को ही नियत करना, उचित क्या है, क्या सही है,
फँसी निश्चय-नाव मेरी, किन्तु तर्कों के भँवर में ।

है अभीप्सित शान्ति लेकिन, यह विचारों की हवा है,
बदलती है दावानल में, जो व्यथा अंगार को ।

17.4.13

एक दुपहरी

एक दुपहरी, गर्म नहीं, गुनगुनी,
मन अकेला, व्यग्र नहीं, अनमना,
मिलकर सोचने लगे, क्या करें,
समय का रिक्त है, कैसे भरें,
कुछ उत्पादक, सार्थक, ठोस,
या सुन्दर, जैसे सुबह पड़ी ओस,
जो उत्पादक, सजेगा रत्न सा,
सुन्दर सुखमय, पर स्वप्न सा,
सोचा, कौन अधिक उपयोगी,
सोचा, किससे प्यास बुझेगी?

प्रश्न जूझते, उत्तर खिंचते,
दोनों गुत्थम गुत्था भिंचते,
समय खड़ा है, खड़े स्वयं हम,
उत्तर आये, बढ़ जाये क्रम,
उपयोगी हो या मन भाये,
रत्न मिले या सुख दे जाये,
किन्तु दुपहरी, अब तक ठहरी,
असमंजस मति पैठी गहरी,
मन भी बैठा रहा व्यवस्थित,
गति स्थिरता मध्य विवश चित,

गर्म दुपहरी, व्यग्र रहा मन
निर्णय में उलझा है चिन्तन।

13.4.13

बस, स्वीकार कर लें

चर्चा चल रही थी, पीड़ा पर, बड़ा ही विचित्र विषय था चर्चा के लिये। वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले कहेंगे कि जिस तत्व को माप ही नहीं सकते, उस पर चर्चा का क्या लाभ? बात सच ही है क्योंकि कितनी पीड़ा हुयी, कैसे पता चलेगा? उस स्थिति में पीड़ा पर किये गये किसी विश्लेषण का अर्थ हर एक के लिये भिन्न होगा, निष्कर्ष वस्तुनिष्ठ न होकर व्यक्तिनिष्ठ हो जायेंगे, सिद्धान्त सार्वभौमिक न रहेंगे, देश, काल में स्थिर नहीं रहेंगे, चर्चा औरों के लिये निष्फला होगी।

यह सब तथ्य ज्ञात थे फिर भी चर्चा चल रही थी, चर्चा पीड़ा के अंकों पर नहीं, पीड़ा के अर्थों पर चल रही थी। पीड़ा की मात्रा भले ही भिन्न हो सबके लिये, पर दिशा उन अर्थों को मान दे रही थी। चर्चा के पथ पर भले ही मील के पत्थर न लगे हों पर अनुभव के परिमाण और जीवन की लम्बी पड़ती परछाइयाँ पंथ का आभास दे रहे थे। वैसे देखा जाये तो विज्ञान की ऐसे तत्व न माप पाने की अक्षमता ने हम सबको बड़ा रुक्ष सा कर दिया है। हम जिसे नहीं माप पाते हैं, उसकी चर्चा से कतराने लगते हैं, मात्र अनुभव के आधार पर कुछ कहें तो कहीं लोग अज्ञानी न समझ बैठें। विज्ञान के प्रति हमारा आग्रही स्वभाव हमें यन्त्रमानव सा बनाये दे रहा है, जहाँ न हम पीड़ा की बात कर सकते हैं, न सौन्दर्य की बात कर सकते हैं, न तृष्णा को समझ सकते हैं और न ही संतुष्टि को। तत्वों और भावों को अंकों में सजा कर रंकों सा जीवन जी रहे हैं हम। पीड़ा को निर्धनता से जोड़ते हैं, सुख को धन से जोड़ते हैं, सौन्दर्य को रूप से जोड़ते हैं और भावों को अवैज्ञानिक मानते हैं।

विज्ञान की असमर्थता ज्ञात थी, इसीलिये चर्चा हो रही थी, पीड़ा पर। आप कह सकते हैं कि पीड़ा पर चर्चा का क्या लाभ, पीड़ा तो सहने का विषय है, न कि कुछ कहने का। चर्चा हो तो किसी ऐसे विषय पर जो सुखदायी हो, जो रुचिकर हो, जो सार्थक हो। जीवन के अनिवार्य पक्ष को कैसे नकारा जा सकता है, कैसे उसकी उपेक्षा की जा सकती है, उसे तो समझना ही होगा। न केवल समझना होगा वरन उसे स्वीकार करना होगा।

प्रश्न यह था कि एक ही घटना लगभग एक जैसे ही परिवेश में भिन्न भिन्न प्रभाव क्यों डालती है, या कहें कि भिन्न भिन्न पीड़ा क्यों पहुँचाती है? उत्तर बड़ा ही सरल मिला कि यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह किसी घटना को किस तरह लेता है। साथ ही साथ इस बात पर भी कि उस व्यक्ति की सहनशीलता कितनी है? इसका अर्थ यह हुआ कि यदि मानसिकता और क्षमता विकसित कर ली जाये तो पीड़ा की मात्रा कम की जा सकती है।

विषय पर कुछ गहरे उतरा जाये, उसके पहले कुछ बिन्दुओं पर वैचारिक सहमति आवश्यक है। पहला तो बुद्ध सत्य है, कि दुख से बचा नहीं जा सकता है, सबके जीवन में दुख की उपस्थिति अनिवार्य है। दूसरा कि दुख कब आ टपकेगा, यह नियत नहीं। कभी भी आ जाता है, औचक और विशेषकर तब, जब हम नहीं चाह रहे होते हैं। तीसरा यह कि दुखजनित पीड़ा सबके ऊपर कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य छोड़ जाती है, स्थायी या अस्थायी।

विश्लेषण किया जाये तो इस प्रक्रिया में ४ चरण होते हैं। पहला चरण होता है, दुख की आशंका, यह वह मानसिक स्थिति है जिसे हम भय कहते हैं। भय होना या किसी पुरानी घटना से प्रेरित होता है या किसी और के उदाहरण से। दूसरा चरण होता है, उस घटना का घटित होना, यह चरण अधिक लम्बा नहीं होता है। तीसरा चरण होता है, घटना के घटित होने और उसे स्वीकार करने के बीच का समय। इस समय हम सबको लगता है कि यह मेरे साथ ही क्यों घटा? चौथा चरण पीड़ा को सह जाने के बाद का समय होता है, वह समय जब आप पुनः सामान्य होने की दिशा में बढ़ते हैं, परिवेश और स्वयं से साम्य स्थापित करते हैं।

यह चारो ही चरण बड़ी रोचकता लिये हैं। यदि तनिक ध्यान से देखा जाये तो मानव में पर्याप्त कालखण्ड के लिये रहते हैं ये चारों चरण। पशुओं को देखें तो न केवल कम समय वरन कम मात्रा में इनकी उपस्थिति दिखती है। आहार, निद्रा, भय और मैथुन तो मानव और पशु, दोनों में ही समान है। चिन्तनशीलता ही मनुष्य को विशेष बनाती है, और अधिक प्रभावी व उन्नत बनाती है। यदि यही विशेष गुण मानव की पीड़ा कम करने के स्थान पर पीड़ा बढ़ा जाये, तब यह मान लेना चाहिये कि चिन्तन की दिशा विलोम है, कुछ और चिन्तन की आवश्यकता है, वह भी सार्थक दिशा में।

पहला चरण भय का है, आगत का भय और यह इतना प्रभावशाली होता है कि प्रकृति के कर्म चक्र को गतिमान रखता है। कल उन्हें दुख न हो, इसलिये सब आज ही सब जुटा लेना चाहते हैं। यह भी पता नहीं कि घटना होगी या नहीं होगी, विपत्ति आयेगी या नहीं आयेगी, पर सब पहले से ही साधन और सुविधायें जुटाने लगते हैं। सबके मन में भय का आकार भिन्न रहता है, जहाँ एक ओर फक्कड़ सन्यासियों को कल की कोई चिन्ता नहीं, वहीं दूसरी ओर लोग लोभपाशित अपने सात पुश्तों के लिये धन जुटा लेना चाहते हैं। हम इन दोनों के बीच कहाँ खड़े हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि इतना अधिक श्रम कर रहें हैं धन जुटाने के लिये, जिसकी आवश्यकता ही नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं आलस्य में सने हम आगत विपत्तियों में डूबने को तैयार बैठे हैं। संतुष्टि कभी नहीं होती, सर्वस्व कभी नहीं मिलता, पर प्रश्न यह है कि जो हमारे पास नहीं है उसको लेकर हम भविष्य के प्रति कितना आशंकित रहते हैं।

दूसरा चरण सीधा है, सपाट है, विपत्ति आती है, चली जाती है, भय सच हो जाता है। निर्भयी और तन-मन से तपा व्यक्ति सब सह जाता है, पीड़ा पी जाता है, व्यक्त नहीं करता है। जो नहीं सह पाता, पीड़ा उसे भी उतनी ही होती है, पर वह उसे आँसू और भावों में व्यक्त कर देता है। इसी प्रकार चौथा चरण भी सीधा है। सब कोई अपनी सामर्थ्य के अनुसार सामान्य होने का प्रयत्न करते हैं। कुछ शीघ्र ही सामान्य हो जाते हैं, कुछ को समय लग जाता है। यह तीसरा चरण ही है जो हमें बहुत पीड़ा देता है। हमारा मन यह मानने को तैयार ही नहीं होता है कि विपत्ति उस पर आयी। वह हर समय बस यही पूछता है कि उसके साथ यह क्यों हो गया। भाग्य से लेकर ईश्वर तक सबको ही उत्तरदायी मान अशान्त रहता है। घटना हो जाती है, विपत्ति आकर चली जाती है पर मन से पीड़ा नहीं जाती। मन मानता नहीं, जूझता रहता है।

आपका अनुमान और अनुभव तो नहीं ज्ञात पर मेरे अनुसार पूरी पीड़ा में चारों चरणों का अनुपात ३०:३०:३०:१० रहता है। इसमें पहला और तीसरा चरण न्यूनतम किया जा सकता है, कुल पीड़ा की मात्रा आधी की जा सकती है, बस स्वीकार कर लें कि दुख आयेगा और स्वीकार कर ले कि दुख हमारे ऊपर ही आया। भूत और भविष्य को तनिक वर्तमान से विलग कर दें, वर्तमान को जीवन नैया खेने दें।

10.4.13

गोवा, दक्षिण से

जितने लोग भी गोवा आते हैं, अधिकांशतः उत्तर दिशा से अवतरित होते हैं और वहीं से ही घूम कर चले जाते हैं। हम भी कोई अपवाद नहीं, ६ बार जा चुके हैं, या तो उत्तर दिशा से गये या पश्चिम दिशा से। पूर्व से जा नहीं सकते, रह जाता है दक्षिण। जब इतनी तरह से गोवा देख लिया तो इस बार सोचा कि दक्षिण से गोवा देख लिया जाये।

अब तीन प्रश्न स्वाभाविक हैं। पहला कि गोवा में ६ बार देखने के लिये क्या है, दूसरा कि अप्रैल का प्रथम सप्ताह क्या थोड़ा गरम नहीं रहता है और तीसरा कि गोवा तो गोवा है, उत्तर से उतरें या आसमान से, उसमें क्या विशेष है? तीनों प्रश्न ऐसे हैं जिनका उत्तर मुझे एक दिन में नहीं मिला है, पहले प्रश्न के उत्तर में २२ वर्षों का कालखण्ड छिपा है, दूसरे प्रश्न के उत्तर में ३ वर्षों का और तीसरे प्रश्न के उत्तर में ३ दिन का।

पहली बार गोवा गया था तो १८ वर्ष का था, मित्रों के साथ था और उस समय वहाँ की उन्मुक्त संस्कृति देखने की उत्सुकता ही प्रबल थी। मित्रों के वर्णनों ने उसे स्वर्ग से टपका हुआ टुकड़ा सिद्ध कर दिया था। उस बार की यात्रा में तो हम सब बस उसी टुकड़े को ढूढ़ने में हर बीच पर भटके। अतिश्योक्ति को सिद्ध करने में कई दिन लगे पर भटकन के बाद जो थकान हुयी, उसे मिटाने के लिये सागर के अन्दर एक बार जाना ही पर्याप्त था। लहरों पर उतराने में जो आनन्द आया वह बीचों पर ललचायी दृष्टियों के सुख से कहीं अधिक ठोस था। पहले पहल लहरों के थपेड़े ये बताने में प्रयासरत रहे कि मूढ़ कहाँ छिछले में खड़ा है, छिछले में लहरें भी टूटती हैं और आशायें भी। टूटी लहरें भी आपको चोट पहुँचाती हैं और टूटी आशायें भी। लहरों के थपेड़ों ने और अन्दर आने के लिये उकसाया, जहाँ लहरें टूटती नहीं थीं वरन डुलाती थी, ऊपर नीचे, आनन्द में। एक मित्र के साथ अन्दर तक गया, लहरों पर आँख बन्द कर लेटा रहा, कान पानी के अन्दर और कानों में मानों लहरों के स्वर गूँज रहे हों, ऊँची आवृत्ति में सागर के शब्द, स्पष्ट और अद्भुत। आँखों के सामने दिखता सूर्यास्त, लाल आकाश, बादलों पर छिटके लालिमा के छींटे, ध्यानस्थ, जलधिमग्न, निर्विकार, अप्रतिम अनुभव था वह।

मित्रों का स्वर्ग ढूढ़ने आया था और अपना स्वर्ग पा लिया। उसके बाद जब भी कोई आग्रह आया, ठुकरा नहीं पाया, कुछ वर्षों बाद जब भी कुछ समय बिताने का अवसर मिला, गोवा याद आया। अब बीच पर सीमायें तोड़ती संस्कृतियाँ आकृष्ट नहीं करती, अब तो आकृष्ट करती हैं वे सीमायें, जहाँ पर सागर और आकाश आपस में एक दूसरे में विलीन हो जाना चाहते हैं, अनन्त की खोज में। कितना अजब संयोग है, सागरीय और आकाशीय अनंत के एक और मूर्धन्य उपासक को इस बार ही जान पाया, गोवा से मात्र ६० किमी दूर, कारवार में, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को। यहीं पर ही उन्हें प्रकृति में कल्पना का अनन्त मिल गया, डूब जाने के लिये, समा जाने के लिये।

धीरे धीरे गोवा-भ्रमण की संख्या बढ़ने लगी। साथ में ही बढ़ने लगा सागर के किनारों पर अन्तहीन और ध्येयहीन भ्रमणों का क्रम। अब किसी से कहेंगे कि अनन्त ढूढ़ने जाते हैं गोवा हर बार, तो कौन आपको गम्भीर समझेगा। धीरे धीरे हमारा कारण गौड़ हो चला है क्योंकि हमारे बच्चों को पानी की लहरों से खेलना भाने लगा है। लहरों का आना, हर बार नये रूप से, हर बार नयी शक्ति से, हर बार नयी ऊँचाई लेकर, यही विविधता बच्चों को भाती है, न केवल भाती है वरन थका भी देती है, पर न बच्चे हारते हैं और न ही लहरें, दोनों के अन्दर अनन्त की शक्ति, दोनों के अन्दर अनन्त का उत्साह। खेल बस अगली बार के लिये टल जाता है, अनिर्णीत। खेलते रहने के लिये और अगली बार आने के लिये एक और गोवा यात्रा।

बच्चों को ही नहीं, लहरों से हमारा भी जुड़ाव विशेष है। लहरों का बनना, सर्प से फँुफकारते बढ़ना, फेन उगलना, किनारों पर नत होकर वापस चले जाना और फिर आना। न जाने पृथ्वी से भावों की क्या तीक्ष्णता है कि जिसका फल किनारों को चूर चूर होकर देना पड़ता है। लगता है पृथ्वी का रूप धर लेना, न सागर को भाया और न ही आकाश को, उसका दण्ड भुगतते हैं किनारे, रेत रेत, चूर चूर। लहरों की जीवटता भाती है, लगातार तब तक आती हैं जब तक आप थक कर चूर न हो जायें। ऊर्जा लेकर वापस आयें तो पुनः उपस्थित, आपको थकाने के लिये। जीभर खेलिये, थकिये, सो जाईये, पुनः आईये, पर निराश मत होईये। आप चाहें न चाहें, जीवन में भी सुख दुख ऐसे ही अनवरत आते रहेंगे, उन्हें स्वीकार कर लीजिये, हर बार और तैयार हो जाईये अगली बार के लिये। दर्शन के ऐसे ही न जाने कितने ही अध्याय दिखते हैं सागर की लहरों में।

सागर के प्रति प्रेम और गोवा के साथ बढ़े परिचय में ही छिपा है दूसरे प्रश्न का उत्तर। भीड़ में अनन्त की उपासना बाधित होने लगती है, सागर का अनन्त मानव-समुद्र के अनन्त से बाधित हो जाता है। कई बार दिसम्बर में गया हूँ, मानवों का आनन्द देखा है वहाँ, सागर का अनन्त भूलने सा लगता है उस कार्निवाल में। दर्शनीय स्थल तो पहली बार में ही देख डाले थे, उनके लिये दिन का वातावरण सुहावना होना अच्छा था। अब तो सागर से साक्षात्कार का समय है, अनन्त की उपासना के लिये सुबह और सायं का वातावरण सागर स्वयं ही सुहावना बना देता है। सुबह और सायं सागर की लहरों पर उच्श्रंखल विनोद, दोपहर और रात को निद्रा निमग्न थकी काया। अब रहा मानसून का समय, उस समय तो सागर अपने ही संवाद में रत रहता है, बूदों की टप टप, टिप टिप और अथाह जलराशि का मिलन। वही समय होता है जब मछलियाँ अपनी जनसंख्या बढ़ाती हैं। उस समय सबकी मनाही होती है, हम भी उस समय कभी नहीं गये। पिछले तीन वर्षों में ही जाना कि मानसून के अतिरिक्त कभी भी गोवा जाया जा सकता है।

इस बार विचार किया कि गोवा को दक्षिण दिशा से देखा जाये, कारण कुछ सहकर्मियों के अनुभव थे, जिन्होने इस यात्रा को बहुत मनोरम बताया था। कार्यक्रम बना कि बंगलोर से मंगलोर होते हुये उडुपी पहुँचा जाये, वहाँ पर श्रीमाधवाचार्य स्थापित श्रीकृष्ण मंदिर में दर्शन, वहाँ से मरवन्थे बीच, मुरुडेश्वर, गोकर्णा और कारवार होते हुये गोवा। सबका अपना समर्थ इतिहास है और जितना पुरातन है उतना रोचक भी है। उन सबके बारे में विस्तृत वर्णन धीरे धीरे शब्द पाता रहेगा, पर एक ओर से सड़क मार्ग और दूसरी ओर से रेलमार्ग में कोंकण की जो झलक मिली है, उससे मन आनन्दित हो गया। कोंकण क्षेत्र मुम्बई के पश्चात थाने से प्रारम्भ होकर मंगलोर तक फैला है, दक्षिण कोंकण देख कर उत्तर कोंकण के सौन्दर्य की कल्पना करना कठिन नहीं है।

तीन दिनों की यात्रा ने इस प्रश्न का उत्तर भी दे दिया कि गोवा के दक्षिण में भी बहुत कुछ देखने को है। अनन्त और असीम का जो आनन्द गोवा के सागर में है, वैसा ही आनन्द गोवा के दक्षिण में स्थित बीचों में भी है, यदि वहाँ नहीं मिलेगी तो चहल पहल और भीड़। निश्चय ही जिन लोगों का सुख भीड़ के साथ परिभाषित होता है, उन्हें वहाँ उतना आनन्द नहीं आयेगा, पर जो एकान्त, अनन्त, प्रकृति के उपासक है, उन्हें ये सारे स्थान बहुत भायेंगे। मुझे आशा है कि आप अगली बार जब भी गोवा आयेंगे, एक पग दक्षिण की ओर भी बढ़ायेंगे।

6.4.13

अँधेरे को बाहर फेंकना है

एक दिन देवेन्द्र जी ने एक कहानी सुनायी जो बचपन में उनके पिताजी ने सुनायी थी। कहानी सुनने के बाद ही उसका आशय स्पष्ट हो पायेगा। आप भी सुनिये और उसमें निहित संकेतों को समझने को प्रयास करिये।

एक नवविवाहिता विवाह के पश्चात अपने गाँव पहुँची। दिन भर सब बहू देखने आये। घर के लोगों में आत्मीयता कूट कूट कर भरी थी, सबने बड़ा प्यार दिया। गाँव के लोग भी बहुत सज्जन थे, सबने बड़ा मान दिया, आशीर्वाद दिया और कहीं कोई भी कमी नहीं होने दी। सायं का समय आया तो सास ने बहू से कहा कि बेटी शीघ्र ही स्नान ध्यान कर भोजन बना ले, सब लोग सूर्यास्त के पहले ही भोजन कर के तैयार हो जाते हैं। बहू ने पहले सोचा कि कोई विशेष परम्परा होगी, जैन मतावलम्बियों की तरह, कि कहीं अँधेरे में कोई जीव भोजन के साथ ही ग्रास न बन जाये। जहाँ तक ज्ञात था तो ऐसी कोई कारण नहीं था। परिवार ही नहीं वरन पूरे गाँव में एक विशेष शीघ्रता दिखायी दी, लगा आज कोई उत्सव होगा रात में, इसीलिये भोजन शीघ्र ही निपटाने का उपक्रम हो रहा है। जब बहू से उत्सुकता न सही गयी तो उसने धीरे से अपने पति को बुलाया और पूछा कि मुझे इतने शीघ्र भोजन करने का औचित्य समझ नहीं आ रहा है।

पति ने पत्नी को तनिक आश्चर्य और करुणा के भाव से देखा, मानो आँखें यह पूछ रही हों कि इतनी सीधी बात से अनभिज्ञ है, उसकी प्यारी पत्नी। जब आँखों ने अधिकार जता लिया तब पति ने बताना प्रारम्भ किया। देखो, अभी थोड़ी देर में अँधेरा भर आयेगा और वह सूरज को ढक लेगा और ढकेगा भी इतना गाढ़ा कि सूरज निराश होकर चला जायेगा। हमारा गाँव इस समस्या से जूझने को सदा ही तत्पर रहता है। हम सब अपना सारा कार्य दिन में ही कर लेते हैं, यही नहीं पर्याप्त विश्राम भी कर लेते हैं। रात आते ही सब तैयार होकर अपने घर पहुँच जाते हैं। जिसकी जितनी सामर्थ्य है वह उसी के अनुसार कोई पात्र उठा लेता है, यहाँ तक कि बच्चे भी छोटी कटोरी लेकर तैयार हो जाते हैं। उसके बाद हम लोग रात भर अँधेरा बाहर निकालते रहते हैं। रात भर श्रम करने के बाद जब सारा अँधेरा बाहर निकल जाता है तब कहीं सूरज लौट कर वापस आता है और तब कहीं जाकर सुबह होती है।

इतना श्रमशील परिवार और गाँव देख कर नवविवाहिता अभिभूत हो गयी, उसकी आँखों में आँसू छलक आये। उसने कहा कि आप लोगों ने अब तक बड़ा श्रम कर लिया है, अब सारा उत्तरदायित्व मेरा है, अब मैं रात भर अँधेरा बाहर फेकूँगी। आप सब सबने बड़ा समझाया कि बिटिया कि तुम अभी बड़ी कोमल हो और यह अँधेरा बड़ा ही उद्दण्ड, रात भर तुम थक भी जाओगी, अँधेरा निकलेगा भी नहीं, सुबह नहीं हो पायेगी। सबने सोचा कि नवविवाहिता ने भावनात्मक होकर यह कार्य ले लिया है, पता नहीं क्या होगा, एक दिन का उत्साह है, अगले दिन से उत्साह ठण्डा पड़ जायेगा, जीवन का क्रम वैसे ही चलने लगेगा। जब बहू ने इतनी आत्मीयता दिखायी है तो उसे अवसर देना तो बनता है।

पहले दिन बहू के सहारे घर को छोड़कर सब सो गये, थोड़ी देर बाद बहू भी सो गयी, सबके पहले उठ भी गयी, सूरज निकल आया, सबको बहू की क्षमता पर विश्वास हो आया। धीरे धीरे रात में अँधेरा फेंकने का उपक्रम बन्द हो गया, रात का समय सोने के लिये उपयोग में आने लगा, दिन में कार्य होने लगा। एक रात बहू ने दिये की बाती बनायी, एक छोटे से दिये में तेल डाला और रात में उसे जला कर घर में सजा दिया, अँधेरा रात में ही भाग गया, घर के बाहर रहा पर घर के अन्दर पुनः नहीं आया।

कहानी बड़ी सरल है, सुनने के बाद हँसी में भी उड़ाया जा सकता है इसे। अपने आप सुबह आने वाली और दिये से अंधकार दूर होने वाली बात इतनी सहज है कि उसे कोई न समझे तो हँसी आने वाली बात लगती है। पर यह केवल एक उदाहरण है, अँधेरे को बाहर फेकने वाली मानसिकता दिखाने का और साथ में यह भी दिखाने का कि किस तरह सूरज की अनुपस्थिति में अंधकार भगाया जा सकता है।

संभवतः देवेन्द्रजी के पिताजी ने यह कहानी श्रम में स्वयं को झोंक देने के पहले पर्याप्त समझ विकसित करने की शिक्षा देने के लिये सुनायी है। सच भी है कि बिना पर्याप्त ज्ञान के और विषयगत समझ के किसी कार्य में स्वयं को झोंक देना तो मूर्खता ही है। यह भी एक स्वीकृत तथ्य है कि कभी कभी अपनी कार्यप्रणाली पर विचार करते करते कई ऐसे माध्यम निकल आते हैं जिससे सब कुछ सरल और सहज हो जाता है। मानवजगत का इतिहास देखें तो पहले मैराथन धावकों से अपने संदेश भेजने वाली मानव सभ्यता आज वीडियो चैटिंग कर लेती है।

मुझे इस कहानी का सर्वाधिक प्रभावित करने वाला पक्ष लगता है, स्वयं के अन्दर उन प्रवृत्तियों को ढूढ़ना जिन्हें हम अँधेरे फेकने की तरह पाते हैं। अपने द्वारा करने वाले हर प्रयास और श्रम को देखें, दो विश्लेषण करें। पहला तो यह देखें कि वह श्रम जिसके लक्ष्य के लिये किया जा रहा है, वह स्वयं तो होने वाला नहीं है, इस कहानी में आने वाली हर सुबह की तरह। बहुधा हम सब स्वतः हो जाने वाले कार्यों में कार्य करते हुये दिखते हैं और जब कार्य हो जाता है तब उसका श्रेय लेने बैठ जाते हैं। यही नहीं कभी कभी आवश्यकता से अधिक लोग कार्य में लगे होते हैं, जहाँ कम से ही कार्य हो जाता है, अधिक लोग या तो कार्य में व्यवधान उत्पन्न करते हैं या अकर्मण्यता का वातावरण बनाते हैं। दूसरा विश्लेषण इस बात का हो, क्या वही कार्य करने की कोई और विधि है जिससे वह कार्य कम श्रम सें हो जाये। न जाने कितने ऐसे कार्य हैं जो हम पुराने घिसे पिटे ढंग से करते रहते हैं, कभी सोचते ही नहीं हैं कि कोई दूसरी विधि अपनायी जा सकती है।

कुछ लोगों को कोई भी कार्य तामझाम से करने में अपार सुख मिलता है, मुझे एक भी अतिरिक्त अंश दंश सा लगता है, हर प्रक्रिया को सपाट और न्यूनतम स्तरों पर ले आने पर ही चैन आता है। प्रक्रिया का आकार न्यूनतम रखने से न केवल उसमें गति आती है वरन पारदर्शिता भी बढ़ती है। आईटी ने एक दिशा दिखायी है पूरे विश्व को सपाट बनाने में, मुझे भी वही दिशा भाती है। उदाहरण उपस्थित हैं यह सिद्ध करने में कि जहाँ पर भी हमने आईटी को अपनाया है, जीवन को और अधिक सुखमय बनाया है।

जीवन के कुछ क्षेत्र ऐसे होते हैं, जहाँ प्रक्रियायें स्वतः होती हैं, उन्हें होने देना चाहिये, वहाँ हमारे होने या न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला। कर्ता होने का भाव पाने से अच्छा है कि रात भर सोयें और सुबह होने दें। सुबह उठें और तब सार्थक कार्यों में ध्यान लगायें। मुझे तो बहू के स्वभाव से भी सीख मिली, अपनी विद्वता का ढोल पीट कर और अपने परिवार के अज्ञान की बधिया उधेड़ कर अपनी बात कहने की अपेक्षा सहज भाव से अपना मन्तव्य साध लिया। विद्वानों और तर्कशास्त्रियों को यह समाजशास्त्र भी सीखना होगा। विद्वता यदि आनन्दमय न रही तो अँधेरा फेंकना का कार्य तो विद्वान भी कर बैठते हैं। आप भी सोचिये और अपने जीवन से अँधेरे फेंकने जैसे कार्यों को निकाल फेंकिये।

3.4.13

त्वम्‌ चरैवेति

विविध विधा के फूल खिले हैं,
आकर्षण के थाल सजे है,
किन्तु शब्द गुञ्जित मन में,
त्वम्‌ चरैवेति, त्वम्‌ चरैवेति ।।१।।

भाव-वृक्ष की सुखद छाँह है,
सम्बन्धों की मधुर बाँह है,
पर बन्धन से मुक्त पथिक,
त्वम्‌ चरैवेति, त्वम्‌ चरैवेति ।।२।।

सुविधाआें से संचित जन हैं,
मुग्ध छटा से सिंचित वन हैं,
पर मन की दुर्बलता तज,
त्वम्‌ चरैवेति, त्वम्‌ चरैवेति ।।३।।

जीवन पथ पर विघ्न बड़े हैं,
अट्टाहस कर आज खड़े हैं,
पर पथ के सब विघ्न तोड़,
त्वम्‌ चरैवेति, त्वम्‌ चरैवेति ।।४।।

यदि विरोध की हवा बही है,
बहुमत तेरी ओर नहीं है,
पर सुलक्ष्य पर दृढ़-प्रतिज्ञ,
त्वम्‌ चरैवेति, त्वम्‌ चरैवेति ।।५।।

कार्य-क्षेत्र यह तन क्षीणित हो,
जीवन-रस से आज रहित हो,
पर अन्तः में शक्ति निहित,
त्वम्‌ चरैवेति, त्वम्‌ चरैवेति ।।६।।