मौन क्यों रहता नियन्ता,
क्या जगत का दाह दिखता नहीं उसको?
मूर्ति बन रहती प्रकृति क्यों,
क्या नहीं उत्साह, पालित हो रहे जो?
काल क्यों हतभाग बैठा,
क्या सुखद निष्कर्ष सूझे नहीं जग को?
प्राण का निष्प्राण बहना,
आस का असहाय ढहना,
हार बैठे मध्य में सब,
है नहीं कुछ शेष कहना,
वधिक बनती है अधोगति,
आत्महन्ता, सो गयी मति,
साँस फूला, राह भूला,
क्षुब्ध जीवन ढो रहा क्षति,
बस सशंकित सा श्रवण है
रुक गया अनुनाद क्रम है,
शब्द हो निष्तेज गिरता,
डस रहा जो, अन्ध तम है,
हाथ धर बैठे रहें क्यों,
आज जीवन, नहीं बरसों,
पूर्णता का अर्ध्य अर्पित,
जी सके प्रत्येक दिन यों,
तो नियन्ता को, प्रकृति को, काल को,
भूत के गौरव, समुन्नत-भाल को,
कहो जाकर, सुनें सब, विधिवत सुनें,
शेष अब भी हैं हृदय में धड़कनें,
है उसी में शक्ति क्षण की, दंश है,
कहो उसमें जूझने का अंश है,
साँस साधे आज आगत साँस को,
दिन सधे दिन विगत से और मास को,
मास साधे और क्रम चलता रहे,
साधने का नियम नित फलता रहे,
व्यक्ति से हो व्यक्ति पूरित, श्रंखला,
भाव के शत-चन्द्र चमके चंचला,
कहो जाकर, मंच अब तैयार हों,
अब चरित्रों में भरे अधिकार हों,
कहो कब तक, पढ़ें हम अनुवाद को,
छद्म सारे अभिनयों का त्याग हो,
सूत्रधारों में छिपे मन के कुटिल,
पारदर्शी हो दिखें संभ्रम जटिल,
दृष्टि में करुणा जगे, आशा जगे,
जहाँ वंचित, धन वहीं बहने लगे,
पूर्ण निश्चित, आंशिक क्यों क्रम रहे,
सूर्य चमके, क्यों तिमिर का भ्रम रहे,
रात आये, किन्तु यह विश्वास हो,
दिन मिलेगा, स्वप्न में भी आस हो,
आ रहा है समय, शत स्वागत उठें,
विगत अनुभव और सब आगत जुटें,
सुखों का संधान क्यों एकल रहे,
कर्मनद प्रत्येक सुख सागर मिले,
रहे अंकित, काल भी साखी रहे,
हम जिये है पूर्ण, छवि व्यापी रहे।
छद्म सारे अभिनयों का त्याग हो
ReplyDelete@ इस देश में नेताओं से लेकर आमजन तक के चरित्र में ये छद्मता बढती ही जा रही है काश हम इस त्याग पायें !
छद्म सारे अभिनयों का त्याग हो,
ReplyDeleteसूत्रधारों में छिपे मन के कुटिल,!
शुभ हो !
दृष्टि में करुणा जगे, आशा जगे,
ReplyDeleteजहाँ वंचित, धन वहीं बहने लगे,
सच है आर्थिक असंतुलन का मिटना मन में करुणा जगे बिन संभव नहीं .... उत्कृष्ट कविता
रात आये, किन्तु यह विश्वास हो,
ReplyDeleteदिन मिलेगा, स्वप्न में भी आस हो,
प्रखर उत्कृष्ट भाव .....सुन्दर शब्द संयोजन .....
बहुत सार्थक ....सुन्दर कविता
भारतीय जनमानस में जागृति सम्भव नहीं. सोने का अभिनय करने वालों को कैसे जगाया जाये.
ReplyDeleteसूत्रधारों में छिपे मन के कुटिल,
ReplyDeleteपारदर्शी हो दिखें संभ्रम जटिल,,,,,उम्दा भाव लिए सुंदर रचना,,
Recent post: रंग गुलाल है यारो,
बेहद सुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर एवं सार्थक प्रस्तुति.
ReplyDeleteउत्कृष्ट कविता , बेहद सुन्दर
ReplyDeleteसुन्दर, ऊर्जा का संचार करती कविता!
ReplyDeleteदुर्भाग्य तो यही है की हम छद्म अभिनय को किसी भी क्षेत्र में नहीं त्याग प् रहें हैं
ReplyDeleteसाँस साधे आज आगत साँस को,
ReplyDeleteदिन सधे दिन विगत से और मास को,
मास साधे और क्रम चलता रहे,
साधने का नियम नित फलता रहे,
व्यक्ति से हो व्यक्ति पूरित, श्रंखला,
भाव के शत-चन्द्र चमके चंचला,
.शुक्रिया
आपकी टिपण्णी के लिए .
एक तरफ तल्ख़ परिवेश की झर्बेरियाँ लिए है रचना दूसरी तरफ आनुप्रासिक छटा शब्दों की .उत्कृष्ट प्रवाह मयी रचना .
रहे अंकित, काल भी साखी रहे,
ReplyDeleteहम जिये है पूर्ण, छवि व्यापी रहे।
हम जिये है पूर्ण, छवि व्यापी रहे....बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteसूत्रधारों में छिपे मन के कुटिल............आपने ऐसे लोगों को भावात्मक पथ दिखाया दिया है। इस कविता को पढ़ कर भी यदि वे न पिघले तो उनका मनुष्य होना अत्यन्त संदेहास्पद होगा। अलख जगाती कविता।
ReplyDeleteनवीन जिज्ञासा से आह्लादित कविता।
ReplyDeleteशुभमस्तु ।
ReplyDeleteउम्दा भाव
ReplyDeleteहर बार की तरह एक गहन गंभीर रचना । शब्द-संयोजन तो अनूठा है ही । साँस फूला( साँस स्त्री-लिंग शब्द है ) कुछ अलग लग रहा है पर तुक और प्रवाह के कारण शायद रखना पडा है । बाकी अति विशिष्ट कविता ..।
ReplyDeleteकहो जाकर, मंच अब तैयार हों,
ReplyDeleteअब चरित्रों में भरे अधिकार हों,
कहो कब तक, पढ़ें हम अनुवाद को,
छद्म सारे अभिनयों का त्याग हो,
सूत्रधारों में छिपे मन के कुटिल,
पारदर्शी हो दिखें संभ्रम जटिल,.........................................अती सुन्दर ........
बहुत सुंदर, प्रार्थना गीत जैसा..उर्जात्मक, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
मौन क्यों रहता नियन्ता,
ReplyDeleteक्या जगत का दाह दिखता नहीं उसको?
मूर्ति बन रहती प्रकृति क्यों,
क्या नहीं उत्साह, पालित हो रहे जो?
काल क्यों हतभाग बैठा,
क्या सुखद निष्कर्ष सूझे नहीं जग को?
प्रकृति हमें अपने दुःख में दुखी सुख में सुखी दिखलाई देती है .प्रकृति का अपना संगीत है भले स्वभाव उसका मौन है .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteमहाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ !
सादर
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
अर्ज सुनिये
'कहो जाकर, मंच अब तैयार हों,
ReplyDeleteअब चरित्रों में भरे अधिकार हों,
कहो कब तक, पढ़ें हम अनुवाद को,
छद्म सारे अभिनयों का त्याग हो,
सूत्रधारों में छिपे मन के कुटिल,
पारदर्शी हो दिखें संभ्रम जटिल,'
- समयोचित आवाहन प्रवीण जी,मानवीय प्रकृति ही जड़ हो गई हो तो बाह्य-प्रकृति में भी वही प्रतिक्रिया होगी !
सुख सागर में धीमें से उतारता हुआ भाव..
ReplyDeleteहाथ धर बैठे रहें क्यों,
ReplyDeleteआज जीवन, नहीं बरसों,
पूर्णता का अर्ध्य अर्पित,
जी सके प्रत्येक दिन यों,
गहन अभिव्यक्ति.
महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ.
यूँ लगा जयशंकर प्रसाद को पढ़ रही हूँ .....:))
ReplyDeleteउर्जावान विचार जो ह्रदय से जगे है ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ।
राग विराग से मुक्त होता कवि मन कविता बन अभिव्यक्त होता है भावातिरेक से ही फूटता है यह सोता .
ReplyDeleteबस सशंकित सा श्रवण है
रुक गया अनुनाद क्रम है,
शब्द हो निष्तेज गिरता,
डस रहा जो, अन्ध तम है,
काव्यात्मक , लयात्मक , भावनात्मक और एक उत्कृष्ट सामाजिक दृश्य का चित्रांकन करती कविता ।
ReplyDeleteदृष्टि में करुणा जगे, आशा जगे,
ReplyDeleteजहाँ वंचित, धन वहीं बहने लगे,
पूर्ण निश्चित, आंशिक क्यों क्रम रहे,
सूर्य चमके, क्यों तिमिर का भ्रम रहे,
रात आये, किन्तु यह विश्वास हो,
दिन मिलेगा, स्वप्न में भी आस हो,
लेखनी का यह स्वरूप भी मन को बेहद भाता है ... अनुपम प्रस्तुति
आशओं का संचार करती, सकारात्मक भाव लिए एक बहुत अच्छी कविता.
ReplyDeleteहम जिये है पूर्ण, छवि व्यापी रहे
ReplyDeleteमौन क्यों रहता नियन्ता,
क्या जगत का दाह दिखता नहीं उसको?
मूर्ति बन रहती प्रकृति क्यों,
क्या नहीं उत्साह, पालित हो रहे जो?
काल क्यों हतभाग बैठा,
क्या सुखद निष्कर्ष सूझे नहीं जग को?
बारहा पढ़ने को उकसाती हुई पंक्तियाँ बुनियादी सवालों के जवाब मिलते नहीं हैं .शुक्रिया आपकी टिपण्णी का शुभकामना का .अलबत्ता रोग अपना समय लेता है .फ्ल्यू वायरस पूरी उग्रता लिए रहता है .
पूर्ण निश्चित, आंशिक क्यों क्रम रहे,
ReplyDeleteसूर्य चमके, क्यों तिमिर का भ्रम रहे,
रात आये, किन्तु यह विश्वास हो,
दिन मिलेगा, स्वप्न में भी आस हो,..
वाह ... मधुर छंद मय ... ताल मय ...
आशा का प्रवाह लिए .... सुन्दर काव्य कृति ... बधाई ...
waah! kya baat hai !
ReplyDeleteहरकीरत जी से सहमत पुराने दिगाज्जों निराला ,जयशंकर प्रसाद ,सुमित्रानंदन पन्त जी की ओजमय प्रवाह मय संस्कृत निष्ठ भाषा की याद दिलाती है यह रचना .
ReplyDeleteतत्सम और तद्भव शब्द रूपों का बेहतरीन इस्तेमाल .रूपकात्मक तत्वों के अभिनव प्रयोगों ने इस रचना को उत्कृष्टता के शिखर पर पहुंचा दिया है .
ReplyDeleteछद्म हो या असंतुलन ,जब भाव सकारात्मक जागें तो एक उम्मीद तो जगती ही है ......
ReplyDeleteदृष्टि में करुणा जगे, आशा जगे,
ReplyDelete.......................................................
दिन मिलेगा, स्वप्न में भी आस हो।
सौंदर्य के अनूठे लोक का उद्घाटन करती कविता।
विशेषकर, उपरोक्त पंक्तियों में कवि का स्रष्टा भाव जिस सवेदना के साथ मुखरित हुआ है, वह मन को आलोकित करता है।
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ReplyDeleteहाथ धर बैठे रहें क्यों,
ReplyDeleteआज जीवन, नहीं बरसों,
पूर्णता का अर्ध्य अर्पित,
जी सके प्रत्येक दिन यों,बहुत सुन्दर भाव सजोए है... आभार
दृष्टि में करुणा जगे, आशा जगे,
ReplyDeleteजहाँ वंचित, धन वहीं बहने लगे,सुंदर लिखा , काफी वक्त बाद ऐसी रचना पढ़ी है बधाई आप को
प्राण का निष्प्राण बहना,
ReplyDeleteआस का असहाय ढहना,
हार बैठे मध्य में सब,
है नहीं कुछ शेष कहना,
पुनः एक बार , बहुत सुन्दर रचना |
सादर