आज से पहले अपना इतना विस्तृत परिचय किसी को नहीं दिया है। रश्मि प्रभाजी का आदेश आया तो सोच में पड़ गया, उन्हें कुछ कविताओं के साथ मेरा परिचय व चित्र चाहिये था। किसी भी लेखक को लग सकता है कि उनका लेखन ही उनकी अभिव्यक्ति है, वही उनका परिचय है। सच है भी क्योंकि लेखन में उतरी विचार प्रक्रिया व्यक्तित्व का ही तो अनुनाद होती है। जो शब्दों में बहता है वह लेखक के व्यक्तित्व से ही तो पिघल कर निकलता है। यद्यपि मैं लेखक होने का दम्भ नहीं भर सकता, पर प्रयास तो यही करता रहता हूँ कि जो कहूँ वह तथ्य से अधिक व्यक्तित्व का प्रक्षेपण हो। यदि व्यक्तित्व पूरा न उभरे तो कम से कम उसका आभास या सारांश तो बता सके।
फिर लगा कि लेखन के अतिरिक्त कुछ और भी तथ्य हैं जो परिचय के आधारभूत स्तम्भ होते हैं। महादेवी वर्मा का परिचय माने तो हृदय विदीर्ण करने वाली पंक्तियाँ याद आ जाती हैं, मैं नीर भरी दुख की बदली, परिचय इतना इतिहास यही, उमड़ी कल थी, मिट आज चली। मिटना हम सबको है, परिचय संक्षिप्त दें तो बहुत कुछ इसी तरह का भाव निकलेगा, कुछ के लिये भले दुख इतना संघनित न हो। फिर भी वर्षों के विस्तृत समय काल में कुछ ऐसी बातें निकल आती हैं जिन्हें आप महत्वपूर्ण मानते हैं और उनका आधार बनाकर अपने परिचय का संसार गढ़ना चाहते हैं। इसी को मानक मान कर जितना संभव हो सका, स्वयं को स्वरचित शब्दों के दर्पण में देखने का प्रयास करता हूँ।
जब परिचय लिखने का सोचता हूँ तो सोच में पड़ जाता हूँ कि क्या लिखूँ और क्या छोड़ दूँ। एक अजब सी दुविधा आ जाती है। न जाने कितनी उपाधियाँ जुड़ी हैं, इस शरीर के साथ, कुछ जन्म से, कुछ परिवेश से, कुछ क्षेत्र से, कुछ परिवार से, कुछ धर्म से। थोड़ा और बढ़े तो संस्कृति की छाँह मिली, संस्कारों की श्रंखला मिली, परिचय में मढ़ता गया, जीवन में तनिक और गढ़ता गया। युवावस्था में लगा कि आगत परिचय अनिश्चितता से परिभाषित है, न जाने कितनी उमंगें थीं, न जाने कितनी ऊर्जा थी, क्या न कर जायें, क्या न बन जायें? शिक्षा पूरी हुयी, नौकरी और फिर विवाह। परिवार बढ़ा, अनुभव के नये पक्ष उद्घाटित हुये, स्थिरता आयी और धीरे धीरे परिचय का विस्तार ठहर गया। जहाँ हर वर्ष परिचय बदलता था, हर वर्ष उपाधि मिलती थी, अब वर्ष क्रियाहीन निकलने लगे। प्रौढ़ता की स्थिरता परिचय की स्थिरता बन गयी, अब कुछ ठहरा ठहरा सा लगता है।
इसी प्रकार न जाने कितनी घटनायें जुड़ी हैं, न जाने कितने और व्यक्तित्व जुड़े हैं, जिन्होनें जीवन पर स्पष्ट प्रभाव छोड़ा है। किसको याद रखूँ, किसको गौड़ मानू, समझ नहीं आता। किसको परिचय का अंग बनाऊँ, किसे छोड़ दूँ, समझ नहीं आता। द्वन्द्व भरा व्यक्तित्व है, मन में दो विरोधी विचार साथ साथ सहज भाव से रह लेते हैं, किसको अपना मानकर कह दूँ और किससे नाता तोड़ दूँ? या दोनों बताने का साहस हो तो कौन सा पक्ष पहले बताऊँ? इसी पशोपेश में कुछ न बताऊँ तो भी न चल पायेगा। कुछ सामाजिक तथ्य बता देता हूँ, मन खोलने बैठूँगा तो यात्रा अन्तहीन हो जायेगी।
जन्म सन १९७२ हमीरपुर उप्र में, पिछड़ा क्षेत्र, पर परिवार में शिक्षा के महत्व पर किसी को संदेह नहीं रहा। अच्छे विद्यालय के आभाव में कक्षा ६ से कानपुर आकर छात्रावास में रह कर पढ़ाई की। छात्रावास ने स्वतन्त्र चिन्तन और निर्भयता का अमूल्य उपहार दिया। आईआईटी कानपुर से १९९३ में बी टेक, मैकेनिकल इन्जीनियरिंग से। साल भर की नौकरी, तत्पश्चात १९९६ में आईआईटी कानपुर से ही एम टेक। १९९६ में सिविल सेवा में चयन, रेलवे की यातायात सेवा में। पिछले १७ वर्षों की आनन्दभरी यात्रा में पूरा देशभ्रमण हो चुका है, बस पश्चिमी भारत छूटा है। रेलवे की कार्यप्रणाली ने लगन और सक्षमता के न जाने कितने ही अध्याय सिखाये हैं, अभिभूत हूँ।
१९८५ में पहली कविता, एक वर्ष बाद ही पहला नाटक जो कि व्यवस्था के विरुद्ध होने के कारण चोरी चला गया, सृजन का यूँ चोरी हो जाना अभी भी मन में दुखद स्मृति के रूप में विद्यमान है। उसके पश्चात सृजन मन्थर, निरुत्साहित और मदमय रहा। रेल यात्रा और रेल सेवा, व्यक्तित्वों व समाज के अनगिन अध्यायों से परिचय करा गयी। उन अनुभवों को पुनः खो देने का भय मन मे सदा ही गहराता रहा, एक गहरी सी ललक सदा ही बनी रही, उन्हें लिपिबद्ध कर देने की। विद्यालय से विरासत में प्राप्त हिन्दी प्रेम और निपुणता, पुस्तकों से आत्मीयता और अनुभवों की लम्बी डोर, सबने बहुत उकसाया, लिखने के लिये। ब्लॉग के रूप में एक माध्यम मिला और जिसने पुनः प्रेरित किया, स्थिर किया और अब लगभग चपेट में ले लिया है, निकलना असम्भव है। लिखता गया, दृष्टि और गहराती गयी, निकलना चाहूँ भी, तो मेरे ब्लॉग का शीर्षक ही मुझे रोक लेता है।
तकनीक से अगाध व अबाध प्रेम है, उसे सामाजिक निर्वाण का साधन मानता हूँ मैं। पर मेरी तकनीक जटिल दिशा में कभी नहीं जा पाती है। जब भी मेरी तकनीक की दिशा भटक जाती है, मैं उसे वहीं छोड़कर स्वयं में सिमट जाता हूँ, नयी दिशा खोजता हूँ। मेरी तकनीक पुराने सन्तों के अपरिग्रह के मार्ग से अनुप्राणित है, जो भी आवश्यकता से अधिक है, वह भार है, उसे हम व्यर्थ ही ढो रहे हैं, वह त्याज्य है। संग्रहण न्यून हो पर सर्वश्रेष्ठ हो, उसे पाने में सतत प्रयासरत। प्रयोगधर्मिता के प्रति यही ललक मन में बालमना ऊर्जा बनाये रखती है।
जहाँ जीवन का अग्रछोर तकनीक ने सम्हाला है, वहीं पार्श्व में वह संस्कृति के सिद्धान्तों के सशक्त स्तम्भों पर टिकी है। मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर बड़े स्पष्ट दिखते हैं यहाँ। उस पर अपार श्रद्धा जीवन का सर्वाधिक प्रवाहमय स्रोत है मेरे लिये, ऊर्जा का, सृजनता का, दर्शन का। जब भी मन भरमाता है, वहीं से सहारा आता है। प्राचीन और नवीन के बीच यह साम्य सदा ही बना रहेगा, परिचय का सुदृढ़ अंग बना रहेगा।
परिवार केन्द्रित सामाजिक जीवन भाता है और कार्यालय के बाद का पूरा समय घर पर ही देता हूँ। बच्चों के साथ बतियाने का आनन्द रूखी पार्टियों से कहीं अधिक है मेरे लिये। उन्हें आजकल सिखा कम रहा हूँ, उनके द्वारा सिखाया अधिक जा रहा हूँ। वात्सल्य का यह निर्झर भला कौन छोड़कर जा सकता है। यदा कदा खेलकूद और संगीत पर भी अभिरुचि बनी रहती है, आलस्य गति कम करता है पर जब भी अवसर मिलता है, शरीर और मन ऊर्जान्वित बनाये रखता हूँ।
पता नहीं, परिचय के जिन पक्षों पर केन्द्रित करना था, वे कहीं अनुत्तरित तो नहीं रह गये हैं? आत्ममुग्धता और आत्मप्रशंसा के आक्षेप का कड़वा घूँट पीकर ही आत्मपरिचय लिखने बैठा हूँ। मन की कह देने से न केवल मन हल्का हो जाता है वरन निश्चय कुछ और गहरा जाते हैं, परिचय स्वयं से भी हो जाता है।
फिर लगा कि लेखन के अतिरिक्त कुछ और भी तथ्य हैं जो परिचय के आधारभूत स्तम्भ होते हैं। महादेवी वर्मा का परिचय माने तो हृदय विदीर्ण करने वाली पंक्तियाँ याद आ जाती हैं, मैं नीर भरी दुख की बदली, परिचय इतना इतिहास यही, उमड़ी कल थी, मिट आज चली। मिटना हम सबको है, परिचय संक्षिप्त दें तो बहुत कुछ इसी तरह का भाव निकलेगा, कुछ के लिये भले दुख इतना संघनित न हो। फिर भी वर्षों के विस्तृत समय काल में कुछ ऐसी बातें निकल आती हैं जिन्हें आप महत्वपूर्ण मानते हैं और उनका आधार बनाकर अपने परिचय का संसार गढ़ना चाहते हैं। इसी को मानक मान कर जितना संभव हो सका, स्वयं को स्वरचित शब्दों के दर्पण में देखने का प्रयास करता हूँ।
इसी प्रकार न जाने कितनी घटनायें जुड़ी हैं, न जाने कितने और व्यक्तित्व जुड़े हैं, जिन्होनें जीवन पर स्पष्ट प्रभाव छोड़ा है। किसको याद रखूँ, किसको गौड़ मानू, समझ नहीं आता। किसको परिचय का अंग बनाऊँ, किसे छोड़ दूँ, समझ नहीं आता। द्वन्द्व भरा व्यक्तित्व है, मन में दो विरोधी विचार साथ साथ सहज भाव से रह लेते हैं, किसको अपना मानकर कह दूँ और किससे नाता तोड़ दूँ? या दोनों बताने का साहस हो तो कौन सा पक्ष पहले बताऊँ? इसी पशोपेश में कुछ न बताऊँ तो भी न चल पायेगा। कुछ सामाजिक तथ्य बता देता हूँ, मन खोलने बैठूँगा तो यात्रा अन्तहीन हो जायेगी।
जन्म सन १९७२ हमीरपुर उप्र में, पिछड़ा क्षेत्र, पर परिवार में शिक्षा के महत्व पर किसी को संदेह नहीं रहा। अच्छे विद्यालय के आभाव में कक्षा ६ से कानपुर आकर छात्रावास में रह कर पढ़ाई की। छात्रावास ने स्वतन्त्र चिन्तन और निर्भयता का अमूल्य उपहार दिया। आईआईटी कानपुर से १९९३ में बी टेक, मैकेनिकल इन्जीनियरिंग से। साल भर की नौकरी, तत्पश्चात १९९६ में आईआईटी कानपुर से ही एम टेक। १९९६ में सिविल सेवा में चयन, रेलवे की यातायात सेवा में। पिछले १७ वर्षों की आनन्दभरी यात्रा में पूरा देशभ्रमण हो चुका है, बस पश्चिमी भारत छूटा है। रेलवे की कार्यप्रणाली ने लगन और सक्षमता के न जाने कितने ही अध्याय सिखाये हैं, अभिभूत हूँ।
१९८५ में पहली कविता, एक वर्ष बाद ही पहला नाटक जो कि व्यवस्था के विरुद्ध होने के कारण चोरी चला गया, सृजन का यूँ चोरी हो जाना अभी भी मन में दुखद स्मृति के रूप में विद्यमान है। उसके पश्चात सृजन मन्थर, निरुत्साहित और मदमय रहा। रेल यात्रा और रेल सेवा, व्यक्तित्वों व समाज के अनगिन अध्यायों से परिचय करा गयी। उन अनुभवों को पुनः खो देने का भय मन मे सदा ही गहराता रहा, एक गहरी सी ललक सदा ही बनी रही, उन्हें लिपिबद्ध कर देने की। विद्यालय से विरासत में प्राप्त हिन्दी प्रेम और निपुणता, पुस्तकों से आत्मीयता और अनुभवों की लम्बी डोर, सबने बहुत उकसाया, लिखने के लिये। ब्लॉग के रूप में एक माध्यम मिला और जिसने पुनः प्रेरित किया, स्थिर किया और अब लगभग चपेट में ले लिया है, निकलना असम्भव है। लिखता गया, दृष्टि और गहराती गयी, निकलना चाहूँ भी, तो मेरे ब्लॉग का शीर्षक ही मुझे रोक लेता है।
तकनीक से अगाध व अबाध प्रेम है, उसे सामाजिक निर्वाण का साधन मानता हूँ मैं। पर मेरी तकनीक जटिल दिशा में कभी नहीं जा पाती है। जब भी मेरी तकनीक की दिशा भटक जाती है, मैं उसे वहीं छोड़कर स्वयं में सिमट जाता हूँ, नयी दिशा खोजता हूँ। मेरी तकनीक पुराने सन्तों के अपरिग्रह के मार्ग से अनुप्राणित है, जो भी आवश्यकता से अधिक है, वह भार है, उसे हम व्यर्थ ही ढो रहे हैं, वह त्याज्य है। संग्रहण न्यून हो पर सर्वश्रेष्ठ हो, उसे पाने में सतत प्रयासरत। प्रयोगधर्मिता के प्रति यही ललक मन में बालमना ऊर्जा बनाये रखती है।
जहाँ जीवन का अग्रछोर तकनीक ने सम्हाला है, वहीं पार्श्व में वह संस्कृति के सिद्धान्तों के सशक्त स्तम्भों पर टिकी है। मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर बड़े स्पष्ट दिखते हैं यहाँ। उस पर अपार श्रद्धा जीवन का सर्वाधिक प्रवाहमय स्रोत है मेरे लिये, ऊर्जा का, सृजनता का, दर्शन का। जब भी मन भरमाता है, वहीं से सहारा आता है। प्राचीन और नवीन के बीच यह साम्य सदा ही बना रहेगा, परिचय का सुदृढ़ अंग बना रहेगा।
परिवार केन्द्रित सामाजिक जीवन भाता है और कार्यालय के बाद का पूरा समय घर पर ही देता हूँ। बच्चों के साथ बतियाने का आनन्द रूखी पार्टियों से कहीं अधिक है मेरे लिये। उन्हें आजकल सिखा कम रहा हूँ, उनके द्वारा सिखाया अधिक जा रहा हूँ। वात्सल्य का यह निर्झर भला कौन छोड़कर जा सकता है। यदा कदा खेलकूद और संगीत पर भी अभिरुचि बनी रहती है, आलस्य गति कम करता है पर जब भी अवसर मिलता है, शरीर और मन ऊर्जान्वित बनाये रखता हूँ।
पता नहीं, परिचय के जिन पक्षों पर केन्द्रित करना था, वे कहीं अनुत्तरित तो नहीं रह गये हैं? आत्ममुग्धता और आत्मप्रशंसा के आक्षेप का कड़वा घूँट पीकर ही आत्मपरिचय लिखने बैठा हूँ। मन की कह देने से न केवल मन हल्का हो जाता है वरन निश्चय कुछ और गहरा जाते हैं, परिचय स्वयं से भी हो जाता है।
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ReplyDeleteआप ने स्वरचित शब्दों के दर्पण में देखते हुए जो अपनी कलम से अपना परिचय दिया ,हमने पढ़ा और बहुत अच्छा लगा आप के बारे में और अधिक जानकर.
ReplyDeleteआभार.
बल्ले बल्ले
ReplyDeleteआपने सही कहा था कि लेखक का परिचय लेखन से ही मिल जाता है। तथ्यात्मक बातें छोड़कर आपके व्यक्तित्व के बाकी पहले जाने-पहचाने से ही लगे।
ReplyDeleteअपने परिचय पर ही चिंतन? शैली ला-जवाब!!
ReplyDeleteसच्ची बिना लाग लपेट के द्वारा आपने अपना परिचय दिया है,यही ख़ासियत आप को एक अलग ही व्यक्तित्व प्रदान करती है।
ReplyDeleteहमारे बारे में अक्सर दूसरे बताते रहते हैं, वह हमें चौंकाता है तो कई बार खुद के बारे में का बताया, चाहे कितना ही सपाट हो, दूसरों को चकित करता है.
ReplyDeleteकभी अपरिचय में भी परिचित , कभी परिचय में भी कुछ नहीं , क्या कहे कौन क्या किसका है परिचय !
ReplyDeleteराहुल जी के कथन "कई बार खुद के बारे में का बताया, चाहे कितना ही सपाट हो, दूसरों को चकित करता है." के साथ हूँ।
ReplyDeleteअपनी करनी अपनी कहनी में आये तो कई गवाक्ष खुलते हैं, हम से देखने/पढ़ने वालों को कई अदृश्य सूत्र भी पकड़ में आते हैं, और फिर चरित्र/व्यक्ति नव-रूप ले लेता है; कई बार पूर्णतः परिचित और आत्मीय, कई बार एकदम अपरिचित!
आभार।
सवाल जो कभी निराला को असहज कर गया -"क्या कहूं जो अब तक नहीं कही" और औपनिषदिक "को अहम् को अहम् " की प्रश्नमूलक चिरन्तन दुविधा -सचमुच इस प्रश्न का उत्तर एक रचनाशील के लिए मुश्किल है !
ReplyDeleteआपका यह कहना कि लेखक का सृजन इसका ही आत्म प्रेक्षण है -मैं तो सही मानता हूँ और आपके मामले में मैं इसे सही पाता भी हूँ मगर उलट भी बहुत से उदाहरण है!
अच्छा लगा यह संक्षिप्त परिचय !
"It is very simple to be happy, but it is very difficult to be simple."
ReplyDeleteप्रवीण भाई, आपकी ये 'Simplicity' ही आपकी 'Greatness' है...
जय हिंद...
आभार!
ReplyDeleteइस जीवन में परिचय कैसा?
फिर भी आपका परिचय पाकर प्रसन्नता हुई!
इस तरह परिचय पाकर अच्छा लगा ....शुभकामनाएं
ReplyDeletemain koi lekhak nahi hoon. per pad kar bahut accha laga , ek alag tarika apne aap ko chitrit karne na.
ReplyDeleteमन की कह देने से न केवल मन हल्का हो जाता है वरन निश्चय कुछ और गहरा जाते हैं, परिचय स्वयं से भी हो जाता है।
ReplyDeleteसत्य कहता आलेख ....स्वयं को पहचान लेना ही असली परिचय है .....इसी परिचय के लिए ही हम सभी निरंतर प्रयत्न करते हैं .....जो है सो तो है ही ....जो पाना है वो बहुत है ....ज्ञान के प्रदीप्त हैं रस्ते ...चलती रहे यात्रा ....
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति. होली के बाद दूसरी सुंदर रचना पढ़ी.
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति. होली के बाद दूसरी सुंदर रचना पढ़ी.
ReplyDeleteSir g ab to mile bina rha na jayega. Sheegra hi milne ki aasha me.
ReplyDeleteआपको आप के ही शब्दों मे जान कर पहचान कर बहुत अच्छा लगा ... सादर !
ReplyDeleteआज की ब्लॉग बुलेटिन क्योंकि सुरक्षित रहने मे ही समझदारी है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
Deleteबहुत बढियाँ .. आप बहुत अच्छा लिखतेँ ।
ReplyDeleteमेरा ठिकाना _>> वरुण की दुनियाँ
आपका परिचय आप ही के शब्द व शैली में... अच्छा लगा.
ReplyDeleteअच्छा ही हुआ न आदरणीय रश्िम जी ने परिचय मांगा तभी तो हमें आपको और जानने का अवसर मिला ...
ReplyDeleteआपका लेखन तो हमेशा ... कुछ नया लेकर आता ही है
इस बार परिचय भी, विस्तार से अच्छा लगा पढ़कर
आभार
बहुत अच्छा लगा आपका परिचय. यूं तो पहले से ही था, लेकिन इतने विस्तार में आज हुआ.
ReplyDeleteऔर तब होता है परिचय - न दैन्यं न पलायनम ....
ReplyDeleteसच है, जन्म से कई परिचय अमिट निशान देते हैं,ये निशान ही प्रश्न और उत्तर बनते हैं और कई बार सिर्फ प्रश्नचिन्ह !
तो आप भी आईआईटी कानपुर की उपज हैं..परिचय पढ़कर अच्छा लगा..
ReplyDeleteपूर्ण सहमत हूँ आपकी बातो से , अपने बारे में क्या लिखे? कभी आठवी नौवी में हिन्दी के पेपर के लिए यह होड़ रहती थी कि कबीर, सूरदास और तुलसीदास में से किसी एक की जीवनी लिखने का सवाल तो प्रश्नपत्र में आयेगा ही :)
ReplyDeleteआपने एक की फरमाइश पूरी करने के बहाने बहुतों की जिज्ञासा शान्त कर दी। अच्छा लगा।
ReplyDeleteमुझे आज पता लगा कि आप उम्र में मुझसे छोटे हैं।
चलो इसी बहाने आपका पूरा परिचय सबको मिल गया।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा
ReplyDeleteप्रणाम
बिलकुल सही कहा आपने कि लेखक का परिचय लेखन से ही मिलता है ...आपकी शब्दावली बहुत ही प्रभावशाली है।
ReplyDeleteहोली की हार्दिक शुभकामनाएं ।।
पधारें कैसे खेलूं तुम बिन होली पिया...
कर्म की आदमी का सबसे बड़ा परिचय =आप लेखक है यही स्थायी परिचय है बाकि गौण है
ReplyDeletelatest post कोल्हू के बैल
latest post धर्म क्या है ?
हम तो पहले से ही परिचित हैं. वैसे अछा लगा.
ReplyDeleteआपका विस्तृत परिचय जानकर बहुत अच्छा लगा...बहुत बहुत शुभकामनायें !
ReplyDeleteपरिचय जानकर बहुत अच्छा लगा...बहुत बहुत शुभकामनायें !
ReplyDeleteपरिचय पाकर अच्छा लगा ....शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सर ...
ReplyDeleteआपको जानकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteफिर भी वर्षों के विस्तृत समय काल में कुछ ऐसी बातें निकल आती हैं जिन्हें आप महत्वपूर्ण मानते हैं और उनका आधार बनाकर अपने परिचय का संसार गढ़ना चाहते हैं।
ReplyDeleteद्वन्द्व भरा व्यक्तित्व है, मन में दो विरोधी विचार साथ साथ सहज भाव से रह लेते हैं, किसको अपना मानकर कह दूँ और किससे नाता तोड़ दूँ?
मेरी तकनीक पुराने सन्तों के अपरिग्रह के मार्ग से अनुप्राणित है, जो भी आवश्यकता से अधिक है, वह भार है, उसे हम व्यर्थ ही ढो रहे हैं, वह त्याज्य है। संग्रहण न्यून हो पर सर्वश्रेष्ठ हो, उसे पाने में सतत प्रयासरत।
..........आपका परिचय ना जाने क्यूं, बहुत कुछ याद कराता है, याद कराता है।
तुरन्त पश्चिमी भारत में पोस्टिंग कराई जाए।
ReplyDeleteइसी बहाने आपका परिचय पाकर अच्छा लगा ....शुभकामनाएं
ReplyDeleteविस्तृत परिचय..... अच्छा लगा...
ReplyDeleteSushri Anupama Tripathi ke shabdon mein kahen to–.....जो है सो तो है ही ....जो पाना है वो बहुत है ....ज्ञान के प्रदीप्त हैं रस्ते ...चलती रहे यात्रा ....
.....बहुत बहुत शुभकामनायें !
मेरी तकनीक पुराने सन्तों के अपरिग्रह के मार्ग से अनुप्राणित है, जो भी आवश्यकता से अधिक है, वह भार है, उसे हम व्यर्थ ही ढो रहे हैं, वह त्याज्य है। संग्रहण न्यून हो पर सर्वश्रेष्ठ हो, उसे पाने में सतत प्रयासरत।
ReplyDeleteआपकी लेखन शैली में एक आकर्षण सा है जिसे आद्योपांत पढना ही पडता है. यह आलेख भी उसी तर्ज पर पढा. आपका सरलमना स्वभाव तो लेखन में झलकता ही है पर मेरे हिसाब से आपके उपरोक्त शब्द ही आपका वास्तविक परिचय है. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
जब भी यहाँ बेंगलोर में रेलवे से सम्बन्धित कोई सुचना या विशिष्ट जानकारी आती है तो आपका मुस्कुराता चेहरा देखकर मै घर में सबसे कहती हूँ गर्व से, मै इन्हें अच्छी तरह से जानती हूँ किन्तु आज आपका परिचय पाकर और अधिक गर्व हो गया है ।
ReplyDeleterajsthan patrika pepar me .
ReplyDeleteshobhna ji aap rajasthan patrika padhti hain, yah jankar khushi hui. main usi men kam karta hoon.
Deleteआधिकारिक विस्तृत परिचय पहली बार ही पाया फ़िर भी परिचय परिचित सा लगा।
ReplyDeleteस्वाभाविक है कि सामने वाले का परिचय मिलते ही कहीं न कहीं खुद से तुलना करने लगते हैं। संतोष हुआ कि कम से कम एक पैरामीटर, आयु में तो हम आपसे आगे ही हैं:)
आपकी लेखनी से तो परिचय था प्रवीण जी, आपका परिचय पाकर और अच्छा लगा
ReplyDeleteअच्छा लगता इतना विस्तृत परिचय पाकर..
ReplyDeleteबेमिसाल परिचय
ReplyDeleteअंदाज़ -ए-परिचय लाजवाब है....
ReplyDeleteआपका परिचय इससे कम हो भी नहीं सकता था :)
ReplyDeleteबहुत ख़ुशी हुई !
वाह बहुत सही और सार्थक
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
jyoti-khare.blogspot.in
मांगा संक्षिप्त दे दिया विस्तृत..आभार।
ReplyDeleteअपना परिचय हमसे करवाने के लिए धन्यवाद् | आभार
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
परिचय देने में कोई संकोच होना भी नहीं चाहिए .
ReplyDeleteहमें आपकी पोस्ट्स से इन सब बातों का अंदाजा था... आपकी रचना चोरी हो गयी , ये जान दुःख हुआ.
रचनाओं से आगे आपका परिचय पाना अच्छा लगा !
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपका परिचय पाकर ......
ReplyDeleterecent post....काव्यान्जलि: होली की हुडदंग ( भाग -२ )
आत्मपरिचय में जो आत्मसंयम चाहिए, उसे आपने साध कर दिखा दिया, भाई.
ReplyDeleteधन्यवाद तो रश्मि जी को देना चाहिये । अपना सही परिचय देना दुष्कर कार्य है । यह तो आपका संक्षिप्त साहित्यिक परिचय है जो लगभग आपकी रचनाओं से ही मिल जाता है । फिर भी काफी कुछ यहाँ जाना । कम समय में ही इतना कुछ उपलब्ध करने के बाद भी असन्तुष्टि व संकोच आपकी निरन्तर क्रियाशीलता का परिचायक है जो हम लोगों के लिये एक प्रेरणा है ।
ReplyDeleteलगभग २ महीने से आपको पढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ लेकिन किसी न किसी वजह से बात बन नहीं पाती| माफ़ी
ReplyDeleteकल रात से ही सोच के रखा था कि आज आपको पढ़ना है और देखिये मेरी किस्मत कि शुरुआत ही आपके परिचय से हो गयी , इससे अच्छा क्या होगा | :)
जहां तक मेरा अंदाज है आप जरूर दीनदयाल या शिक्षा निकेतन की देन हैं :)
सादर
आपका परिचय ... आपकी ही गज़ब शैली में ...
ReplyDeleteरश्मि जी का धन्यवाद ... इसी बहाने आपसे परिचय हो गया ...
इसे परिचयात्मक निबन्ध कहें या निबंधात्मक परिचय,जो भी है एक ईमानदार आत्मस्वीकृति और बयान है अपने और अपने परिवेश से संतुष्टि का ,आनंद का .
ReplyDeleteक्या आप दीन दयाल विद्यालय के पूर्व छात्र हैं? यदि हाँ तो किस वर्ष से उत्तीर्ण है?
ReplyDeleteजी त्रिभुवनजी, १९८८ में
Deleteआपके अनूठे लेखन में बातों बातों में ही आपका परिचय मिल गया सच पूछो तो आपका परिचय आपके हर लेखन से मिल जाता है ऐनी वे रश्मि जी को भी आभार ,बहुत अच्छा लगा पढ़ कर बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteबढिया आपको बहुत करीब से जाना
ReplyDeleteचलिए प्रवीण जी आपसे परिचय तो हुआ.
ReplyDeleteबहुत बधाई.
आपका परिचय तो आपका शब्द प्रवाह है जो कभी हरिऔध तो कभी प्रसाद से तुलना करने के लिए प्रेरित करते हैं।
ReplyDeleteTitle of your blog has inspired me so many times :)
ReplyDeleteI feel honored to know you Sir !!
बेहतरीन आलेख। आपको इस तरह जानना रुचिकर लगा। कुछ साम्यता भी नज़र आई। मसलन हम दोनों ने एक ही साल में मेकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की और फिर एक ही वर्ष में एम टेक किया।:)
ReplyDeleteआप अनजाने से कभी नहीं लगे । सदा कुछ जाने पहचाने से लगे ।
ReplyDeleteअब तो आप अपरिचित के स्थान पर पूर्व परिचित से हो गए ।
स्वयं को शब्दों में बाँधना सदा से कठिन रहा है . अपने ही विस्तार को समेटने जैसा .. पर अच्छी कोशिश..
ReplyDeleteक्या खूब परिचय दिया प्रवीण जी..आपने शुरुआत में इस परिचय को लंबा होने की बात कही पर पढ़ने के बाद ये बहुत छोटा लगा...युं भी आपकी लेखनी से आपके विचारों के गृह में कुछ हद तक तो हम प्रविष्ट हो ही चुके हैं..पर फिर भी जिस अंदाज में आपने आपका परिचय दिया है उससे कुछ और आपके बारे में जानने-समझने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।।।
ReplyDeleteआपकी लेखनी से परिचित तो थे ही आज आपकी परिचय पोस्ट पढ़कर आपके बारे में और जानकारी पढ़कर ख़ुशी हुयी ....
ReplyDeleteआप घर परिवार को भी बराबर समय देते हैं यह जानकार बहुत अच्छा लगा ...
परिचय का भी अनूठा और बेबाक अंदाज | बहुत ही अच्छा लगा सर |
ReplyDeleteआपने बड़ा कठिन काम आसानी से और बखूबी कर दिया। किसी और के बारे में कुछ कहना हो तो हम फ़ौरन तैयाऱ हो जाते हैं। राग और द्वेष दोनों को मौका मिल जाता है। लेकिन अपने बारे में कुछ कहना, खड्ग की धर पर चलने जैसा है।
ReplyDeleteअपना सही परिचय देना सबके बस की बात नहीं है !
ReplyDeleteआभार !
एक ईमानदार परिचय और प्रक्षेपण स्व का एक उत्प्रेरण सभी चिठ्ठाकारों के लिए पूरी पोस्ट लिए है एक मंथन भी किसे याद रखूँ किसे भूल जाऊं .शुक्रिया आपकी सप्रेम टिप्पणियों का .
ReplyDeleteवाकई परिचय लिखना मुझे दुनिया का सबसे मुश्किल काम लगता है.
ReplyDeleteपर आपने बहुत ही सहजता से सुन्दर परिचय दिया.
ये परिचय भी खूब मिला!!
ReplyDeleteअपना परिचय देने का यह अंदाज़ अच्छा लगा आपका यह प्रयास...:)
ReplyDeleteवाह आदरणीय प्रवीण जी।आपने परिचय तो अद्वितीय दिया ही है साथ उसमें आपकी लेखनी की जादूगरी भी स्पष्ट गोचर हो रही है।
ReplyDeleteआज पहली बार आपका ब्लाग देखा, आपकी साहित्यिक कलाओं ने बहुत प्रभावित किया।
सादर
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति...
मुझे आप को सुचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक 28-06-2013 यानी आने वाले शुकरवार की नई पुरानी हलचल पर भी है...
आप भी इस हलचल में शामिल होकर इस की शोभा बढ़ाएं तथा इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और नयी पुरानी हलचल को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी हलचल में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान और रचनाकारोम का मनोबल बढ़ाएगी...
मिलते हैं फिर शुकरवार को आप की इस रचना के साथ।
जय हिंद जय भारत...
मन का मंथन... मेरे विचारों कादर्पण...