होली की पदचाप सारी प्रकृति को मदमत कर देती है। टेसू के फूल अपने चटक रंगों से आगत का मन्तव्य स्पष्ट कर देते हैं। कृषिवर्ष का अन्तिम माह, धन धान्य से भरा समाज का मन, सबके पास समय, समय आनन्द में डूब जाने का, समय संबंधों को रंग में रंग देने का, समय समाज में शीत गयी ऊर्जा को पुनर्जीवित करने का। नव की पदचाप है होली, रव की पदचाप है होली, शान्तमना हो कौन रहना चाहता है।
मन के भावों को यदि कोई व्यक्त कर सकता है तो वे हैं रंग, मन को अनुशासन नहीं भाता, मन को कहीं बँधना नहीं भाता, मन शान्त नहीं बैठ पाता है। मन की विचार प्रक्रिया से हमारा संपर्क 'हाँ या नहीं' से ही रहता है, हमारे लिये मन का रंग श्वेत या श्याम होना चाहिये। पर ध्यान से देखा जाये तो वह रुक्षता हमारी है, हम ही कोई विचार आने पर हाँ या ना चुनते हैं। मन तो हमारे श्वेत-श्याम स्वभाव को भी जीवन्त रखता है, उसमें भावों के रंग भरता है। हमारे श्वेत-श्याम स्वभाव में उत्साह के रंग भरने का कार्य मन ही करता है। होली हमारे मन का उत्सव है।
मन में वर्ष भर सहेजे अनुशासित भाव यह अवसर पाकर भाग खड़े होना चाहते हैं, बिना किसी संकोच के स्वयं को व्यक्त कर देना चाहते हैं। कोई इसे कुंठा की अभिव्यक्ति का अवसर कह दे, कोई अन्तर्निहित उन्मुक्तता को प्रकट कर देने का अवसर कह दे या कोई इसे अधीरों का उत्सव कह दे, पर पूरे वर्ष में मन को उसकी तरंग में जीने का यही एक समय आता है। प्रत्येक होली याद है, दिन भर उत्साह और उमंग में होली का ऊधम और रात में निढाल होकर बुद्ध भाव में शयन, खुलकर जीने का एक दिन, कोई बन्धन नहीं, कोई रोकटोक नहीं, मन का निरुपण, ऊर्जा और रंग के संमिश्रण में। होली इसी रंग भरे और ऊर्जा भरे स्वातन्त्र्य का उत्सव है।
जीवन में अमृततत्व की अनुभूति तभी होती है, जब मन प्रसन्न होता है। सुख को खोज में भटकता और व्यथित होता जीवन जब अपनी खोज त्याग कर एक दिन सुस्ताना चाहता है, तो उसे वर्तमान में जीने का सुख मिलता है, भविष्य की आशंकाओं से परे। जिस क्षण उत्सव मनता है उस समय सुख के संधान को स्थगित कर दिया जाता है, वह सुख के संग्रह को लुटाने का समय होता है। जब सुख लुटता है तभी औरों को सुख मिलता है, आपका सुख संक्रमण फैलाता है। संक्रमण भी ऐसा कि उस दिन कोई कृपणता में नहीं जीना चाहता है। जब लुटाने की होड़ मची हो तो आनन्द अनन्त हो जाता है। होली सुख के संक्रमण का उत्सव है।
जब मन निर्बन्ध हो व्यक्त हो जाये और अनन्त में मुक्त हो विचरण करने लगे तो सुख के स्रोत याद आने लगते हैं हृदय को। वह स्रोत जहाँ आनन्द निर्बाध बहता हो, वह स्रोत जहाँ सब घट प्लावित हो जायें, कोई न छूटा वापस जाये। मुझे मेरा कान्हा याद आता है, वह कान्हा जो हर गोप गोपी को यह भाव देता हो कि उसका प्रेम केवल उसके ही लिये है और पूर्ण है। मुझे ब्रज के गाँव याद आने लगते हैं, जहाँ की गलियों में कान्हा हाथों में रंग भरे ऊधम मचा रहा है, सबके आनन्द का स्रोत। हर कोई कान्हा को छूकर ही आनन्द सागर में डुबकियाँ लगाने लगता हो। कान्हा का टोली के साथ गाँव गाँव जाना याद आता है, बरसाना की लाठी खाना याद आता है, वृन्दावनों के मंदिरों में की गई पुष्पवर्षा याद आती है, गुलाब से सुगंधित पानी की बौछार याद आती है। आनन्द के उद्गार में कान्हा की लीलायें याद आती हैं, ब्रजक्षेत्र में व्याप्त उन्माद की उन्मुक्त तरंगें याद आती हैं। होली कान्हा की स्मृति का उत्सव है।
कान्हा की स्मृति बलशाली है, बलपूर्वक मन को खींच ले जाती है, बचपन से लेकर युद्धक्षेत्र तक के सारे दृश्य सामने आने लगते हैं। कान्हा को कान्हा ही कहना भाता है, कृष्ण कह भर देने से उसमें उपस्थित कृष् धातु मन खींच ले जाती है, शिथिल पड़ जाता हूँ, दूर भाग जाने की बल समाप्त हो जाता है। जानता हूँ कि वह त्रिभंगी कहीं खड़ा मुस्करा रहा होगा, अपने नाम का प्रभाव देख रहा होगा। मन के ऊपर कृत्रिम आवरण हट जाता है, कृष्ण का श्याम रूप बादल सा चहुँ ओर छा जाता है, बाँसुरी धीरे धीरे बजने लगती है, राग यमनकल्याण, व्यासतीर्थ की स्तुति याद आने लगती है, कृष्णा नी बेगने बारो, कृष्ण को वहाँ उपस्थित हो जाने की प्रार्थना मन विह्वल कर देती है। होली मेरे लिये कान्हा के आकर्षण में विह्वल हो जाने का उत्सव है।
आनन्द अनन्त हो जाये तो जगत का कार्य समाप्त कर प्रकृति कहीं विश्राम करने चली जायेगी। तनिक सा स्वाद भर मिलता है, हर स्मृति में। मन जब भी विह्वल हो बाहर आता है, अपने होने की टोह लगती है, अहं स्वयं को स्थापित करने में लग जाता है। मन स्वयं को ब्रह्म मानने लगता है, मु्क्ति पा अपना स्वरूप खो जाना चाहता है, अनन्त में विलीन हो जाना चाहता है। न श्वेत, न श्याम, न कोई रंग, सब त्याग बस एक ज्योतिपुंज में समा जाओ। भय लगता है, मन बाहर भाग आता है। आनन्द की चाह थी, लघु ईश्वर बन प्रकृति को भोग रहे मन को न भक्ति रुचती है, न ही मुक्ति, दोनों में ही समर्पण दिखता है। मूढ़ सा अनुभव होने लगता है, मति भ्रमित हो जाती है। तभी सहसा शंकराचार्य का आदेश याद आता है, भज गोविन्दम् मूढ़मते। मन भजने लगता है, गोविन्द को, जो मन समेत सारी इन्द्रियों का रक्षक भी है। मन प्रसन्न होने लगता है, आकर्षण स्वीकार होने लगता है, विराग अनुराग बन जाता है। होली मेरे लिये अपने अनुराग में बस जाने का उत्सव है।
कृष्ण के विग्रह को देखता हूँ, मुख देखता हूँ, मोरपत्र देखता हूँ, पीत बसन देखता हूँ, बाँसुरी देखता हूँ, चरण देखता हूँ, आँख बन्द कर उसे मन में समेट लेने के लिये, बलशाली मन अपनी सामर्थ्य की सीमा बता देता है, आगे नहीं जा पाता। वल्लभाचार्य के मधुराष्टक का पाठ पार्श्व में गूँजने लगता है, अधरं मधुरं, वदनं मधुरं…मधुराधिपतेः अखिलं मधुरम्। एक एक आश्रय पर मन स्थिर होता जाता है, एक एक दृश्य मधुरता को परिभाषित कर देता है, हर साँस में आनन्द उमड़ने लगता है, सुख अपनी सीमायें तोड़ न जाने कहाँ उतर जाना चाहता है, पूर्णमिदं, मधुरं, हर पग मधुरं। मधुरता की यात्रा सहसा ठिठक जाती है, अर्थ समझ नहीं आता। युक्तं मधुरं, मुक्तं मधुरं, कृष्ण गोपियों के साथ भी मधुर है, उनसे अलग भी मधुर हैं। आश्चर्य होता है, कान्हा इतना निष्ठुर, गोपियों के बिना भी मधुर, प्रेम के सागर को प्रेम व्यापा ही नहीं! होली मेरे लिये असीम की उपासना का उत्सव है।
विचार ध्यानमग्न हो बाहर आते हैं, संकेत पाते हैं, स्वप्न से संकेत, सत्य का संकेत। युक्त भी मधुर, मुक्त भी मधुर, रंगों की तरह, स्वयं में सुन्दर और चढ़ जाये तो भी सुन्दर। हर रंग सक्षम, हर मात्रा सक्षम, हर आकार सक्षम, हर आधार सक्षम। रंगों के माध्यम से अपना प्रेमपूरित अस्तित्व और सार्थकता जीने का उत्सव है होली।
मन में वर्ष भर सहेजे अनुशासित भाव यह अवसर पाकर भाग खड़े होना चाहते हैं, बिना किसी संकोच के स्वयं को व्यक्त कर देना चाहते हैं। कोई इसे कुंठा की अभिव्यक्ति का अवसर कह दे, कोई अन्तर्निहित उन्मुक्तता को प्रकट कर देने का अवसर कह दे या कोई इसे अधीरों का उत्सव कह दे, पर पूरे वर्ष में मन को उसकी तरंग में जीने का यही एक समय आता है। प्रत्येक होली याद है, दिन भर उत्साह और उमंग में होली का ऊधम और रात में निढाल होकर बुद्ध भाव में शयन, खुलकर जीने का एक दिन, कोई बन्धन नहीं, कोई रोकटोक नहीं, मन का निरुपण, ऊर्जा और रंग के संमिश्रण में। होली इसी रंग भरे और ऊर्जा भरे स्वातन्त्र्य का उत्सव है।
जब मन निर्बन्ध हो व्यक्त हो जाये और अनन्त में मुक्त हो विचरण करने लगे तो सुख के स्रोत याद आने लगते हैं हृदय को। वह स्रोत जहाँ आनन्द निर्बाध बहता हो, वह स्रोत जहाँ सब घट प्लावित हो जायें, कोई न छूटा वापस जाये। मुझे मेरा कान्हा याद आता है, वह कान्हा जो हर गोप गोपी को यह भाव देता हो कि उसका प्रेम केवल उसके ही लिये है और पूर्ण है। मुझे ब्रज के गाँव याद आने लगते हैं, जहाँ की गलियों में कान्हा हाथों में रंग भरे ऊधम मचा रहा है, सबके आनन्द का स्रोत। हर कोई कान्हा को छूकर ही आनन्द सागर में डुबकियाँ लगाने लगता हो। कान्हा का टोली के साथ गाँव गाँव जाना याद आता है, बरसाना की लाठी खाना याद आता है, वृन्दावनों के मंदिरों में की गई पुष्पवर्षा याद आती है, गुलाब से सुगंधित पानी की बौछार याद आती है। आनन्द के उद्गार में कान्हा की लीलायें याद आती हैं, ब्रजक्षेत्र में व्याप्त उन्माद की उन्मुक्त तरंगें याद आती हैं। होली कान्हा की स्मृति का उत्सव है।
आनन्द अनन्त हो जाये तो जगत का कार्य समाप्त कर प्रकृति कहीं विश्राम करने चली जायेगी। तनिक सा स्वाद भर मिलता है, हर स्मृति में। मन जब भी विह्वल हो बाहर आता है, अपने होने की टोह लगती है, अहं स्वयं को स्थापित करने में लग जाता है। मन स्वयं को ब्रह्म मानने लगता है, मु्क्ति पा अपना स्वरूप खो जाना चाहता है, अनन्त में विलीन हो जाना चाहता है। न श्वेत, न श्याम, न कोई रंग, सब त्याग बस एक ज्योतिपुंज में समा जाओ। भय लगता है, मन बाहर भाग आता है। आनन्द की चाह थी, लघु ईश्वर बन प्रकृति को भोग रहे मन को न भक्ति रुचती है, न ही मुक्ति, दोनों में ही समर्पण दिखता है। मूढ़ सा अनुभव होने लगता है, मति भ्रमित हो जाती है। तभी सहसा शंकराचार्य का आदेश याद आता है, भज गोविन्दम् मूढ़मते। मन भजने लगता है, गोविन्द को, जो मन समेत सारी इन्द्रियों का रक्षक भी है। मन प्रसन्न होने लगता है, आकर्षण स्वीकार होने लगता है, विराग अनुराग बन जाता है। होली मेरे लिये अपने अनुराग में बस जाने का उत्सव है।
कृष्ण के विग्रह को देखता हूँ, मुख देखता हूँ, मोरपत्र देखता हूँ, पीत बसन देखता हूँ, बाँसुरी देखता हूँ, चरण देखता हूँ, आँख बन्द कर उसे मन में समेट लेने के लिये, बलशाली मन अपनी सामर्थ्य की सीमा बता देता है, आगे नहीं जा पाता। वल्लभाचार्य के मधुराष्टक का पाठ पार्श्व में गूँजने लगता है, अधरं मधुरं, वदनं मधुरं…मधुराधिपतेः अखिलं मधुरम्। एक एक आश्रय पर मन स्थिर होता जाता है, एक एक दृश्य मधुरता को परिभाषित कर देता है, हर साँस में आनन्द उमड़ने लगता है, सुख अपनी सीमायें तोड़ न जाने कहाँ उतर जाना चाहता है, पूर्णमिदं, मधुरं, हर पग मधुरं। मधुरता की यात्रा सहसा ठिठक जाती है, अर्थ समझ नहीं आता। युक्तं मधुरं, मुक्तं मधुरं, कृष्ण गोपियों के साथ भी मधुर है, उनसे अलग भी मधुर हैं। आश्चर्य होता है, कान्हा इतना निष्ठुर, गोपियों के बिना भी मधुर, प्रेम के सागर को प्रेम व्यापा ही नहीं! होली मेरे लिये असीम की उपासना का उत्सव है।
विचार ध्यानमग्न हो बाहर आते हैं, संकेत पाते हैं, स्वप्न से संकेत, सत्य का संकेत। युक्त भी मधुर, मुक्त भी मधुर, रंगों की तरह, स्वयं में सुन्दर और चढ़ जाये तो भी सुन्दर। हर रंग सक्षम, हर मात्रा सक्षम, हर आकार सक्षम, हर आधार सक्षम। रंगों के माध्यम से अपना प्रेमपूरित अस्तित्व और सार्थकता जीने का उत्सव है होली।
होली का पर्व आपको सपरिवार शुभ और मंगलमय हो!
ReplyDeleteसादर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज बुधवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ...सादर!
--
आपको रंगों के पावनपर्व होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति,होली की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteरंग रंग का उत्सव है होली ,
ReplyDeleteअंग अंग का उत्सव है होली ।
होली पर्व की शुभकामनायें ।
अच्छा विस्तार दिया. सुन्दर. होली की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteमन को पिंजरे में न बांधो,
ReplyDeleteमन का कहना मत टालो,
मन तो है इक उडता पंछी,
जितना उडे उडालो...
आपको रंगारंग होली की शुभकामनाएँ, मन से...
सुन्दर सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDeleteलगता है बैंगलोर में होली नहीं खेलते। :)
समझ नहीं पाते क्या करें कंहा जाएँ
ReplyDeleteजीवन के रंग झूठे हो रहे कैसे होली मनाएं
कैसे परिस्थितियों का रोना रोयें
कैसे खुशियों को सजाएँ
फिर भी आइये बची हुई ही सही
संभावनाओं का जश्न मनाएं
..........................?????
होली की अशेष शुभकामनायें
होली के इस सुंदर अवसर पर एक सुंदर प्रस्तुति. होली की हार्दिक शुभकामनाएँ. चेन्नई में रहते हुए हम रंगीन नहीं हो पायेंगे. वैसे भी कालों पर रंग नहीं चढता.
ReplyDeleteरंगोत्सव अनेक रंगों में प्रखरित व आभामयी हो....बहुत -2 स्नेह व शुभकामनाएं पांडे जी .....
ReplyDelete****
मत घोल ऐसे रंग की बदरंग हो कायनात
ऐसी कोई शै नहीं, जिसे रब ने रंगा नहीं -
हुनरमंद वो है, जो रंगों को मिलाना जाने
रंगों से दूर रहो किसी किताब ने कहा नहीं -
- उदय वीर सिंह
बेहतरीन सुंदर सार्थक पोस्ट ,,
ReplyDeleteआपको होली की हार्दिक शुभकामनाए,,,
Recent post: होली की हुडदंग काव्यान्जलि के संग,
"जब सुख लुटता है तभी औरों को सुख मिलता है, आपका सुख संक्रमण फैलाता है। संक्रमण भी ऐसा कि उस दिन कोई कृपणता में नहीं जीना चाहता है। जब लुटाने की होड़ मची हो तो आनन्द अनन्त हो जाता है। होली सुख के संक्रमण का उत्सव है।"
ReplyDeleteयह विशुद्ध आत्मज्ञान की अनुभूति है, होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत अच्छी प्रस्तुति..। होली की शुभकामनाएं।
ReplyDeleteअसीम की उपासना के इस अवसर का पर्याप्त लाभ मिले, बधाई व शुभकामनायें।
ReplyDeleteसपरिवार आपको मुबारक होली .....
ReplyDeleteमनमोहक पोस्ट, पढ़कर सुखद अनुभूति हुई , आभार
ReplyDelete...... शुभ होली.....
रंगोत्सव की आपको सपरिवार बहुत-बहुत शुभकामनाएं...
ReplyDeleteजय हिंद...
होली की महिमा न्यारी
ReplyDeleteसब पर की है रंगदारी
खट्टे मीठे रिश्तों में
मारी रंग भरी पिचकारी
होली की शुभकामनायें
होली के हास्य में गंभीर भावाव्यक्ति ...
ReplyDeleteजय हो ... मज़ा आ गया ..
आपको ओर परिवार में सभी को होली की मंगल-कामनाएं ...
आज निज घट बिच फाग मचैहों ...
ReplyDeleteया ...होली ....मैं पिया की होली ...होली हमें ईश्वर के और करीब ले जाती ही है ...!!
निश्चय ही होली एक ऐसा त्यौहार है जो प्रेम को प्रबल करता है ....
सुन्दर एवं सार्थक ...गहन आलेख ...!!शुभकामनायें ...!!
रंगों भरा उत्सव शुभ हो .
ReplyDeleteकान्हा इतने निष्ठुर न होते सबके पास कैसे पहुँचते ।राधा का भी श्याम वो तो मीरा का भी श्याम ।
ReplyDeleteज्ञान ,भक्ति वैराग्य सब कुछ है इस सुन्दर आलेख में ।
होली की शुभकामनायें :)
ReplyDeleteकितना सुन्दर ललित निबन्ध -मन फाग फाग हो गया -
ReplyDeleteआप को और परिवार को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं!
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति. ...होली की हार्दिक शुभकामनायें ...
ReplyDeleteउत्तम प्रस्तुति :होली की शुभकामनायें
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की पूरी टीम की ओर से आप सब को सपरिवार होली ही हार्दिक शुभकामनाएँ !
ReplyDeleteआज की ब्लॉग बुलेटिन हैप्पी होली - २ - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteआपको होली की शुभकामनाएं!
http://voice-brijesh.blogspot.com
बहुत खूबसूरत !
ReplyDeleteमन का आनंद और उत्सव ..सुख का संक्रमण उत्सव के द्वारा ..अनुराग का उत्सव!
मानो इस पृष्ठ पर विचारों के रंग बहते चले गए हैं.
होली मुबारक!
शानदार प्रस्तुती
ReplyDeleteरंगोत्सव की पर घणी शुभकामनाएँ
रंग प्रेम श्रद्धा सब एकमेक ! आनन्दम आनन्दम !
ReplyDeleteहोली की शुभकामनाएं!
होली के त्यौहार की कैसी व्याप्ति कि हर व्यक्ति को उसी के अनुरूप भावों से रंग देता है!
ReplyDeleteयह चिंतन मनन अध्यात्म की ओर ले जाता हुआ .... सुंदर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteआनंदम..
ReplyDeleteहोली के इस सुंदर अवसर पर एक सुंदर प्रस्तुति,मन को मोह लिया प्रवीण जी आभार।
ReplyDeleteहोली की शुभकामनायें
ReplyDeleteबढिया सामयिक प्रस्तुति,
ReplyDeleteहोली की ढेर सारी शुभकामनाएं
बहुत सुन्दर.....होली की शुभकामनाएं प्रवीण जी!!
ReplyDeleteपधारें कैसे खेलूं तुम बिन होली पिया...
anandam- anandam. prantu lagta hai sabhi blogger holi khelne ke bajaya blog me tipanniyan dene mein mast the arthat sab kuchh aswbhavik tipaninyan!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteholi ki shubh kamnayaein.
प्रेम का जादू सब पर चढ़ता है पर कान्हा की बात निराली है..वह स्वयं प्रेम है..
ReplyDeleteमन की तृप्ति ही बसंत,होली,अमरत्व ....प्रेम मन का अद्भुत रंग है जिसे हरी के रूप में निःस्वार्थ पाते हैं हम
ReplyDeleteहोली व्यक्ति से समष्टि तक की यात्रा है .सीमित का असीमित में विलय है बहुत सही कहा है और उकेरे हैं होली के समस्त सामजिक सांस्कृतिक सांगीतिक पक्ष आपने इस पोस्ट में .होली के इन रंगों में ही कहीं जीवन छिपा है जो अभिव्यक्त होने के लिए छट पटाता है .होली मन का बिंदास होना है .बे -लाज होना है होली का पर्व ,लोक लाज का अतिक्रमण कर मुक्त होना है आत्मा का .परमानंद की प्राप्ति है होली के रंगों में सरा -बोर होना रंग मय हो जाना .
ReplyDeleteश्याम रंग में रंगी चुनरिया ,अब रंग दूजो भावे न ,
जिन नैनन में श्याम बसे हों और दूसरो आवे न .
अभिव्यक्ति की पूर्णता ही सबसे बडा आनन्द है । होली की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteHappy Holi Pravin ji
ReplyDeleteहोली पर्व की शुभकामनायें ।
ReplyDeleteहोली की शुभकामनाएं जी।
ReplyDeleteहोली मेरे लिये अपने अनुराग में बस जाने का उत्सव है।
ReplyDeleteहोली मेरे लिये असीम की उपासना का उत्सव है।....................आपने तो जैसे होली के रंग सीधे बैंगलोर से मेरे ऊपर फेंक दिए हैं। आनन्द का गूढ़ विश्लेषण होली के बहाने।
प्रवीन जी,थोडी चूक हो गई---
ReplyDeleteयुक्तं मधुरम---होली पर होना चाहिये था
फिर भी,वही अनुभूति,वही रंगों की छींटें
वही,कान्हा की पिचकारी,आनंद---