जब टीवी पर किसी कार्यक्रम की भड़भड़ से मन भागता है, प्रचारों की विचाररहित, भावनात्मक और बहुधा ललचाने वाली अभिव्यक्तियों से मन खीझता है तो इच्छा होती है कि तुरन्त ही चैनल बदल कर उस कार्यक्रम को दण्ड दिया जाये। जब अगला कार्यक्रम भी बिना किसी कार्य और क्रम के हो तो बस यही लगता है कि कहीं तो एक ढंग का चैनल तो हो जिस पर बैठ कर एक आधा घंटा बिताया जा सकता सके। जब पीड़ा ऐसे घनीभूत होती है तो ईश्वर भी सुन लेता है। डीडी भारती के रूप में एक चैनल है जिसमें संगीत और संस्कृति को प्राथमिकता दी जाती है और बिना अधिक लाग लपेट के कार्यक्रमों का निर्माण और प्रस्तुतीकरण होता है। अधिकांश कार्यक्रम बहुत पहले से रिकॉर्डेड होते हैं पर देखने में पर्याप्त संतुष्टि मिलती है। प्रचारों के कोलाहल की अनुपस्थिति इस चैनल को और भी आकर्षक बना देती है।
ऐसे ही एक दिन डीडी भारती में उस्ताद आमिर खान की गायकी के बारे में एक कार्यक्रम आ रहा था। इन्दौर घराने से प्रारम्भ उनकी गायकी में ध्रुपद, खयाल, तराना, विलम्बित ताल, मेरुखंड, तान, राग आदि विषयों के बारे में बताया जा रहा था। कई बिन्दु समझ में न आने पर भी एक आनन्द आ रहा था, एक क्षण के लिये भी सामने से हट नहीं पाया। ऐसा लग रहा था कि कोई मेरुदण्ड सीधा कर बैठा योगी ध्यानस्थ हो, अध्यात्म में डुबकी लगा अपने ईश से संवाद स्थापित कर रहा हो। संगीत का ऐसा उद्दात्त और गहन स्वरूप देख कर रोमांचित होने के अतिरिक्त मन को कुछ सूझता ही नहीं था। अभी जब यह आलेख लिख रहा हूँ, पार्श्व में राग बसन्त बहार चल रही है, लगता है कोई आपके हृदय के गहन तलों से सीधा संबंध सजा रहा हो।
अध्यात्म आधारित संगीत वही प्रभाव उत्पन्न कर रहा था जहाँ से उसके मूल जुड़े हुये थे। स्वर शब्दों से बँधे नहीं थे या कहें कि शब्द थे ही नहीं, मात्र ध्वनियाँ, अक्षरों के आस पास, लहराती हुयी। ईश्वर से संवाद की भाषा में कोई शब्द मिला ही नहीं। शब्द रहते तो कोई आकार उभरता, वह आकार हमें भौतिक जगत की किसी वस्तु से जोड़ देता, हमें तब अध्यात्म के स्वर समझने के लिये निम्नतर आधार लेना होता, संवाद अपना मान खो बैठता। शब्दों से कोई बैर नहीं है संगीत का, पर शब्दों की सीमायें हैं। सीमायें शब्द भी नहीं वरन उसके अर्थ हैं जो हम सबके मन में भिन्न प्रभाव उपजाते हैं। अर्थ हमें सीमित कर देते हैं। संगीत यदि ईश्वर से जुड़ने का मार्ग है तो शब्दों की बाध्यता वह मार्ग बाधित नहीं कर सकती।
संगीत और अध्यात्म का विषय तो बहुत पहुँचे लोगों का विषय हो जाता है, पर ध्वनियाँ से हमारा संबंध जन्म से ही है। प्रथम स्वर शब्द नहीं होते हैं, वह तो मूल ध्वनियाँ होती हैं जो दो जगत को जोड़ती हैं। धीरे धीरे हम शब्द सीखते जाते हैं, जगत से जुड़ते जाते हैं, सीमित होते जाते हैं और स्वयं से बहुत दूर भी। शब्द विज्ञानी कहते हैं कि शब्दों का उद्भव भी ध्वनियों से ही हुआ है। धातु का जुड़ाव ध्वनियों से ही है। मूल धातु से और शब्द निकले और भाषा बनकर पसर गये, पर जड़ों में वहीं ध्वनियाँ हैं जो वह भाव आने पर पहली बार प्रकट हुयी होंगी। यदि भाषा और शब्दों का मूल हमारे अन्दर है तो मन के अनजाने भावों को व्यक्त करने में स्थापित शब्दों का सहारा क्यों? अपने जीवन में ऐसी ही दसियों ध्वनियाँ याद आ जायेंगी जिनका कोई शाब्दिक अर्थ नहीं पर वे भावों के अध्याय व्यक्त करने में सक्षम होती हैं।
ऐसा ही एक ध्वनि स्वरूप याद आता है, बचपन का। हम सब लोग मिलकर खेलते थे, जीतने के बाद गाते थे, टा डा डा डिग्डिगा। बचपन की यादें जुड़ी हैं इससे। कोई पूछे कि इसका शाब्दिक अर्थ क्या होता है तो बताना कठिन होगा पर इसका क्रियात्मक अर्थ है, हर्ष, उल्लास और मदमस्त होकर किया गया विजय नृत्य। ये शब्द विजय नृत्य के समय तब तक गाये जाते हैं, जब तक आप थक न जायें और हारने वाले आपसे पक न जायें।
पता नहीं कब और कैसे यह प्रारम्भ हुआ था पर मोहल्ले के लड़के इसी तरह से विजयोत्सव मनाते थे। गिल्ली डंडा हो, कंचा हो, गोल दौड़ हो, लूडो हो, शतरंज हो, ताश हो, हर प्रकार के छोटे बड़े खेलों में जीता हुआ दल इन शब्दों का उद्घोष करता था। आदत ऐसी उतर गयी है मन में कि अभी भी जब बच्चों को किसी खेल में हराते हैं, हम उसी तरह से गाने और नाचने लगते हैं। बच्चों को अटपटा लगता है क्योंकि इस तरह का कभी देखा नहीं, बच्चों को रोचक भी लगता है क्योंकि इसमें भाव पूरी तरह से उतर भी आते हैं। शब्दों का कोई अर्थ नहीं पर प्रभाव पूर्ण।
कहते हैं कि खेल में हार जीत तो होती रहती है, उसे खेल की तरह से लेना चाहिये, उसे सुख दुख से नहीं जोड़ना चाहिये। हम भी सहमत हैं, हार के समय सुखी नहीं होते हैं और जीत के समय दुखी नहीं होते हैं। पर ऐसी जीत का क्या लाभ जिसमें जीतने वाला उत्सव न मनाये और हारने वाला झेंपे नहीं। विजयनृत्य होता था हम लोगों का और दस पन्द्रह मिनट तक चलता था। पार्श में रहता था, टा डा डा डिग्डिगा। विजेता का हारने वाले से पूर्ण संवाद स्थापित हो जाता था, बिना एक भी सीखा हुआ शब्द उच्चारित करे हुये, बिना अर्थयुक्त शब्द उच्चारित किये हुये। आनन्द का इससे विशुद्ध, मूल और प्राकृतिक स्वरूप किसी और ध्वनि में नहीं मिला आज तक।
धीरे धीरे बड़े होते जा रहे हैं हम लोग और जीवन से टा डा डा डिग्डिगा लुप्त होता जा रहा है। हम शब्दों और उनके परिचित अर्थों में स्वयं को सीमित किये बैठे हैं। आज ऊब से बचने के प्रयास में संगीत और अध्यात्म के उस संवाद से परिचय और प्रगाढ़ हुआ जहाँ शब्दों का कोई कार्य नहीं। अम्मा शब्द से प्रारम्भ जीवन, टा डा डा डिग्डिगा में बीता लड़कपन और अब ख़याल के ध्वन्यात्मक संसार में डूब कर विश्वास हो चला है कि जीवन के न जाने कितने मौलिक स्वर अभी भी हृदय में बंद हैं, बाहर आने को आतुर हैं। आपका भी कोई टा डा डा डिग्डिगा है जीवन में?
"टा डा डा डिग्डिगा" सबके जीवन में अलग-अलग रूप में रहा है, रह रहा है, और रहेगा :)
ReplyDeleteहाँ ,..और ऐसे बेहतरीन क्षण जीवन में चमक बिखेरते हैं लम्बे समय तक...
ReplyDeleteडीडी भारती तो अपना भी पसंदीदा चैनल है। खालिस मेरे मन माफिक। इतिहास, साहित्य, संगीत सब एक से एक बेहतरीन। कई बार पुरानी क्लिपिंग्स दिखाई जाती हैं आर्काईव से तो दिल खुश हो जाता है। एकाध बार ऑफिस जाने के पहले इसी चैनल के कार्यक्रम देखते लेट हो चुका हूं। अपने आप में सुरूचिपूर्ण चैनल।
ReplyDeleteधीरे धीरे हम शब्द सीखते जाते हैं, जगत से जुड़ते जाते हैं, सीमित होते जाते हैं और स्वयं से बहुत दूर भी।- बहुत बढिया इस सोच में ही जिन्दगी गुजर जाती है क्या सिख जय क्या न सिख जाय ,किसके नजदीक जाने से किससे दूर हो जायेंगे
ReplyDeleteअभी तो वित्त मन्त्री जी के पास है टा डा करवाने का तरीका..
ReplyDeleteहर्षोल्लास के ऐसे कई आदि हुन्करण हमें आज भी गावों में मिल जायेगें -एक हुलालालालालाला भी है जिसे किसी फ़िल्मी निदेशक ने भी उठा लिआ -डुडुआ हमने भी बचपन में खेले हैं -बढियां विश्लेषण
ReplyDeleteशब्दों की दुनिया बाँध देती है सच में | तभी तो ये उल्लास भरे अटपटे शब्द हमारे जीवन से गायब हो जाते हैं .......
ReplyDeleteप्रत्यक्ष, परोक्ष तौर पर सम्पूर्ण मानव जीवन टा डा डा डिग्डिगा पर ही तो टिका है।
ReplyDeleteबहुत कुछ जीवन से विदा ले चुका है।
ReplyDelete-बढियां विश्लेषण
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक और सुन्दर विश्लेषण.
ReplyDeletestress busters.. we all need one in some form
ReplyDeleteटा डा डा डिग्डिगा... has a nice sound :)
ध्वनि से शब्द की ओर ......या शब्द से ध्वनि की ओर .....बिलकुल जैसे सूक्ष्म से विस्तार की ओर या ....विस्तार से सूक्ष्म की ओर .........शब्द हमें ध्वनि के साथ और विस्तार देते हैं ....तभी संगीत आध्यात्म से जुड़ता है ......
ReplyDeleteध्वनि से शब्द .....
शब्द से भाव ......
भाव से सुभाव ....
सुभाव से स्वभाव ........नाद से अंतरनाद की ओर .....यही संगीत की यात्रा है .......जो अंततः ईश्वर तक ले जाती ही है .....
सार्थक आलेख ....एक गहन सोच देता हुआ .....
सभी व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में शामिल हैं। ऐसे में स्तरीय कार्यक्रम गायब हो रहे हैं। सुर में इश्वर का वास होता है। यह तो अनहद नाद है।
ReplyDeleteशास्त्रीय संगीत के प्रति आपकी बढती रूचि के लिए बधाई।
चैनलों की चै चें के बीच अमीर खान साहब का गायन और फिर शब्दों के अन्वेषण तक बढ़िया विश्लेषण उस वक्त आकाशवाणी इंदौर के संगीत और ड्रामा रिकार्डिंग कक्षा में बैठके (१ ९ ६ ८ )उस्ताद
ReplyDeleteअमीर खान का गायन सुना जब शाष्त्री संगीत सुनने का वह सऊर हमारे पास नहीं था जो आज है हालाकि बचपन आकाशवाणी के कलाकारों के आसपास बीता .आदिनांक सभी नामचीन हस्तियों को
रु बा रु बैठके सुना है -शर्मा बंधू से लाकर मिश्र बंधू (बनारस घराना )तक ,पंडित जसराज जी ,ठुमरिया गायिकाओं में रीता गांगुली ,प्रवीण सुल्ताना ,किशोरी अमोनकर ,,गिरिजा देवी ,सविता देवी
,लोचना बृहस्पति ,नृत्य में,शोभना नारायण (कत्थक ) सोनाल मान सिंह और उनकी शिष्याओं को (कत्थक और भारत नाट्यम में आने तक ),राजेंद्र और जीतेन्द्र गंगानी आदि को अनेकानेक युवा
कलाकारों को परफोर्म करते देखा सुना है दिल्ली के भारत परिवास केंद्र (इंडिया हेबिटेट सेंटर) ,इंडिया इंटरनेशनल सेंटर ,कमानी ऑडीटोरीयम .,पूर्वा संस्कृति केंद्र ,लक्ष्मी नगर आदि जगहों पर .
गहरा आध्यात्मिक अनुभव होता है इस संगीत में गुम होकर .
ऐसे ही छोटे बच्चो को खिलाते समय हम बचपन में" कुची कुची "कहकर उनके साथ खेल करते थे अर्थ नहीं मालूम था
ReplyDeleteपर उन शब्दों का अहसास बच्चे की भाव भंगिमा के साथ महसूस करते थे उसकी कोई व्याख्या नहीं है ।
ये चैनल मै भी देखती हूँ ।बहुत बढ़िया आलेख ।
बचपन में मैंने अपने आस-पास के बच्चों को किसी भी गलती हो जाने पर या अपने मुंह अपनी तारीफ कर लेने के बाद इल्ला बिल्ला लोहा कहकर नाचते हुए देखा था...पता नहीं क्या अर्थ है इन शब्दों का..सुंदर आलेख..डीडी भारती पर इतवार की सुबह भी बहुत अच्छे कार्यक्रम आते हैं, साहित्य और कला से जुड़े..
ReplyDeleteभावों का अध्याय.................इस हेतु आपका बसंताभिनन्दन।
ReplyDeleteप्रवीण जी, दूरदर्शन ने पहले भी हमें बेहतरीन कार्यक्रम दिये हैं और आज भी डीडी भारती पर शानदार कार्यक्रम आते हैं. ये अलग बात है कि टीवी देखने का समय और मौका दोनों ही मेरे नसीब में न के बराबर आता है. सो लम्बा समय हुआ टीवी के किसी भी कार्यक्रम को पसंद किये...
ReplyDeleteटा डा..जैसा कुछ मुझे तो याद नहीं.
ReplyDeleteबाकि लेख में संगीत का आध्यात्म से रिश्ता है इस्मी दो राय नहीं,
रोचक लेख.
@इसमें *
Deleteडी डी देखे तो जमाना हो गया ..बहुत पीछे छूट गया सब.पर आप लोगों की ऐसी पोस्ट के जरिये पता लगता रहता है कि अब भी डी डी की अपनी खासियतें बाकी हैं.
ReplyDeleteडी.डी.भारती रिकमेंड करने के लिये धन्यवाद।
ReplyDeleteशास्त्री संगीत सुनने का अपना एक अलग आनंद,,,
ReplyDeleteRECENT POST: पिता.
बढ़िया लेख। आभार :)
ReplyDeleteनये लेख :- एक नया ब्लॉग एग्रीगेटर (संकलक) ब्लॉगवार्ता।
राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर विशेष : रमन प्रभाव।
टा डा डा डिग्डिगा- है तो!! :)
ReplyDeleteबहुत उम्दा आलेख!!
बहुत ही शानदार पोस्ट |
ReplyDeleteटा डा डा डिग्डिगा चलता रहे ...
ReplyDeleteशब्द भी ध्वनि ही है. कुछ का अर्थ हम निकाल पाते हैं कुछ बिना अर्थ के ही आनन्द देते हैं.
ReplyDeleteयाद आतें हैं बचपन के वे दिन जब आंधी तूफ़ान आने पर हम लोग पंख फैलाकर गोल गोल घुमते हुए गाते थे -आंधी आई मेह
ReplyDeleteआया /बड़ी बहू का जेठ आया .
बरसो राम धड़ा के से ,बुढ़िया मर जाए फाके से .शब और ध्वनियों का अपना प्रभाव प्रगटित होता है -मसलन किसी की
तारीफ़ में कह दिया -गुड मेन दी लालटेन (ते बेड मेन डा दीवा ते दीवा दीवा दीवा दीवा दीवा ).
याद आतें हैं बचपन के वे दिन जब आंधी तूफ़ान आने पर हम लोग पंख फैलाकर गोल गोल घूमते हुए गाते थे -आंधी आई मेह
ReplyDeleteआया /बड़ी बहू का जेठ आया .
बरसो राम धड़ा के से ,बुढ़िया मर जाए फाके से .शब्द और ध्वनियों का अपना प्रभाव प्रगटित होता है -मसलन किसी की
तारीफ़ में कह दिया -गुड मेन दी लालटेन (ते बेड मेन डा दीवा ते दीवा दीवा दीवा दीवा दीवा ).
आप के लेख हमेशा ही सार्थक होते हैं ...स्वस्थ रहें!
ReplyDeleteमुझे शुभकामनाओं के लिए ....
आभार!
...दूरदर्शन भी अब बदल रहा है ।
ReplyDeleteबचपन में ऐसे बहुत से शब्द ऐसे ही अपना आकार ले लेते हैं ... ओर बस जाते हैं मानस पटल पर ...
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ReplyDeleteदिल्ली में एच सी एल तथा अन्य कई निगम नए कलाकारों को भारतीय परिवास तथा अन्य केन्द्रों पर कार्यक्रम प्रस्तुत करने का मौक़ा मुहैया करवाते रहें हैं .अक्सर कत्थक एवं भरतनाट्यम की
प्रस्तुतियां देखके लगा है मंदिर के प्रांगन से मूर्तियाँ उठके मंच पे सजीव हो गईं हैं .साथ में मंच पे गाते गायन हार और साजिन्दे एक अनोखा समाँ बाँधने में कामयाब रहे हैं .एक नया अनुभव हर मर्तबा
हुआ है .खासकर शाश्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियों ,ने मन को बांधे रखा है .गुम होने का मौक़ा दिया है लय और ताल में .ऐसा ही जादू पैदा किया है कर्नाटक संगीत ने .आपने इस पोस्ट में जिन मुद्दों को
उकेरा है वह सभी को आलोड़ित करने कुरेदने में समर्थ हैं .साथ में दर्शन और भाषा का मूल उद्गम .कहीं पक्षियों की चहचहाहट को भी भाषा का आरम्भिक बिंदु माना गया है .
जाहिर है बड़े होने के साथ मन की प्रकृति खो जाती है...मन कई भावनाओं को व्यक्त करने के लिए कागज कलम खोजने लगत है.....
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteआपकी यह प्रविष्टि कल दिनांक 04-03-2013 को सोमवारीय चर्चा : चर्चामंच-1173 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
TV is rather boring these days. There are some channels like you mentioned who stay away from artificial presentation.
ReplyDelete"टा डा डा डिग्डिगा" sounds very interesting and quite inescapable.
नवजात जो उस दुनिया की खबर लाते हैं, ध्वनियो और मुस्कराहट में ही तो संवाद करते हैं। शब्द अब प्रदूषित हो चुके हैं। यकीं नहीं तो किसी से कुछ कहिये, उस पर वह उस तरह से प्रतिक्रिया देता ही नहीं जैसी की स्वाभाविक हैं। जबकि कहा और मन यह जा रहा हैं की सबकी "Communication Skills" बेहतर हो गई हैं। Skills हो गई हो, लेकिन संवाद ख़त्म हैं।
ReplyDeleteडीडी भारती के अतिरिक्त डीडी इण्डिया और लोकसभा टीवी तथा राज्यसभा टीवी पर भी अच्छे कायक्रम आते हैं और प्राय: सबके सब विज्ञापनरहित। निर्बाध।
ReplyDeleteTADA TADA SUNDAR TADA
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteमेरी नई रचना
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
पृथिवी (कौन सुनेगा मेरा दर्द ) ?
ये कैसी मोहब्बत है
दूरदर्शन देखे तो जमाना हो गया,पर आप लोगों की ऐसी पोस्ट के जरिये पता लगता रहता है कि अब भी दूरदर्शन की अपनी खासियतें बाकी हैं।
ReplyDeleteशब्दों की जटिलता से परे एक नाद..
ReplyDeleteसर जी पुराने पीढियों के अटपटे शव्द बहुत ही चटपटे थे और जहाँ है वहा अभी भी अनद दे रहे है |
ReplyDeleteजी हाँ, बचपन में हमलोग गिल ...गिल ..गिल ...गाप ...खूब चिल्ला चिल्लाकर बोलते थे इसका अर्थ तो आजतक पता नहीं चला लेकिन जब आज भी यह याद आत्ता है तो मन आनंदित हो जाता है.
ReplyDeleteएक एक बात सही कही है आपने bas apni samajh ke bahar hai yah sangeet aur iske sangeetkar .आभार सौतेली माँ की ही बुराई :सौतेले बाप का जिक्र नहीं मोहपाश को छोड़ सही रास्ता दिखाएँ .
ReplyDeleteशुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .समाज उपयोगी सार्थक लेखन के लिए बधाई .
ReplyDeleteटा डा डा डिग्डिगा के बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...
ReplyDeleteटा डा डा डिग्डिगा .... जीवन में यही तो चल रहा है.
ReplyDeleteरामराम.
अब भी साथ रखे है बस इसीस तरह जीवन चलता रहे टा डा डा डिग्डिगा. बहुत रोचक लगी प्रस्तुती.
ReplyDeleteसमय के साथ समझ बढ़ती गई पर उल्लास घटता गया - टा डा डा डिग्डिगा
ReplyDeleteकल ही देखा वीणा वादन का कार्यक्रम , सास बहु षड्यंत्रों से उबा मन प्रफुल्लित हो गया !
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteखेल में हार जीत तो होती रहती है, उसे खेल की तरह से लेना चाहिये, उसे सुख दुख से नहीं जोड़ना चाहिये। We all must try to be indifferent on all issues, although it is tough, quite tough !
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ReplyDeleteपर ऐसी जीत का क्या लाभ जिसमें जीतने वाला उत्सव न मनाये और हारने वाला झेंपे नहीं। ......अगर ऐसा हुआ तो जीत हार का फर्क क्या रह जाएगा .कौन जीतेगा कौन हारेगा .शुक्रिया आपकी बहुपयोगी टिप्पणियों का .
जिंदगी में ऐसे क्षण कम ही आते हैं जब टाडा डा डिग्गा कहने का मन हो तो इसका भरपूर लुत्फ उठाना बनता है ।
ReplyDeleteबाकि जैसा कहते हैं सदा वसंतम् ह्रदयार विंदे इचछा तो हमारी भी यही रहती है कि हमारे ह्दरय कमल पर भी वसंत की सदा कृपा रहे ।
मस्ती के मूढ़ में बारहा बोले गए शब्द अपना एक ख़ास अर्थ उल्लास और ख़ुशी का देने लगते हैं -ऐसा ही एक शब्द है लेड दी फिट -बचपन में हमने इसका बहुत इस्तेमाल किया है बुलंदशहर में अपने मुस्लिम हमजोलियों के संग .शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhai
मुखपृष्ठ
मंगलवार, 5 मार्च 2013
Timeline: AIDS moments to remember
http://veerubhai1947.blogspot.in/
हरियाणवी जब खुश होतें हैं बोलते हैं -ओ !बेटे !चाला कर दिया ,लठ्ठ गाढ दिए भाई .
ReplyDeleteहमारे बच्चों का उल्लसित शब्द है डिगी - डिगी :)
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